धर्म-परिवर्तन की रस्साकशी || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2023)

Acharya Prashant

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धर्म-परिवर्तन की रस्साकशी || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते, सर। आज का विषय लोगों को बड़ा रोमांचक लगने वाला है। जिस विषय पर हम बात करने जा रहे हैं वो है — धर्म। ये विषय सुर्खियों में रहता है, इसी पर बहुत चर्चा हो रही है, बहुत सारी बातें चल रही हैं।

तो ये जो हंगामा है इसके पीछे का सच जानने के लिए हम बैठे हैं। तो मैं शुरुआत करता हूँ, सवाल पहला यही है कि धर्म है क्या असल में, क्या है धर्म?

आचार्य प्रशांत: देखो, जानवरों को धर्म की ज़रूरत नहीं पड़ती। ठीक है न? वो प्रकृति में पैदा हुए हैं, उनकी एक शारीरिक संरचना है, फिजिकल कन्फिगरेशन (भौतिक व्यवस्था) कह सकते हो, और वो उसी में अपना चलते रहते हैं। किसी जानवर को उस चीज़ से ज़्यादा की कभी कोई इच्छा नहीं होती; न पानी की, न जानने की जो उसे प्रकृति नहीं दे रखी है। बकरी को, भैंस को घास से मतलब है। बाघ को शिकार से मतलब है, और बन्दर को पेड़ से और फल से मतलब है; इससे ज़्यादा वो कुछ चाहते ही नहीं है। इससे ज़्यादा तो उनको अगर दोगे भी तो लेंगे नहीं। आदमी बाक़ी सब प्राणियों से बहुत अलग है। हम धर्म समझना चाह रहे है, धर्म क्या चीज़ है?

तो धर्म क्या चीज़ है, ये समझने के लिए पहले ये जानना पड़ेगा कि धर्म किसके लिए है, धर्म सिर्फ़ इंसान के लिए होता है। इतनी बड़ी सृष्टि है, इसमें इतने तरह-तरह के जीव हैं लेकिन आदमी अकेला है जिसको धर्म की ज़रूरत है, जिसके लिए धर्म होता है। आप नहीं कह पाओगे कि ऊँट का ये धर्म है, कुत्ते का ये धर्म है, गधे का ये धर्म है; वो बात बड़ी बचकानी लगेगी।

तो इंसान में ऐसा क्या अलग है, क्या ऐसा अनूठा है कि उसे धर्म की ज़रूरत पड़ती है? इंसान के पास चुनाव है इंसान अकेला है जिसके पास चुनाव की शक्ति है, उसे चुनना है। और उसे क्या चुनना है, उसे वो चुनना है जो उसकी जो कॉन्शियसनेस है — चेतना, उसको शान्ति दे सके, स्पष्टता दे सके और ऊँचाई दे सके। मनुष्य अकेला है जो जानने के लिए बहुत आतुर रहता है, बहुत जिज्ञासा करता है, बहुत कौतूहल करता है। थोड़ा-बहुत कौतूहल जानवर भी दिखा देते हैं पर वो बहुत सीमित होता है, बहुत ही सीमित; मनुष्य अकेला है जिसकी जिज्ञासा शान्त ही नहीं होती। तो मनुष्य की चेतना जानना चाहती है और नहीं जानती तो हम कहते हैं कि अस्पष्ट है, अज्ञानी है। इंसान ख़ुद ही बेचैन रहता है और उसको बातें पता न चले तो।

तो कोई आपसे झूठ बोल दे तो आपको बुरा लग जाता है, क्योंकि आप सच जानना चाहते हो, आप जानना चाहते हो। किसी ने आपको बताया नहीं कुछ उल्टा-पुल्टा दे गया। इसी तरीक़े से आदमी अकेला है जो भीतर से बड़ा अशान्त, बेचैन रहता है। जानवरों में, पशु-पक्षियों में आप ये सब इतनी बेचैनी पाओगे नहीं, मनुष्य अकेले में रहती है। तो मनुष्य के पास हमेशा चुनाव रहता है कि वो क्या सोचे, क्या करे, किस दिशा को आगे बढ़े जिससे कि उसको स्पष्टता और शान्ति मिल सके, ये मनुष्य के पास चुनाव की बात रहती है।

तो फिर धर्म क्या हुआ? धर्म हुआ अपने लिए सही चुनाव करना।

सही का पैमाना, क्राइटीरिया क्या है? जो तुमको शान्ति दे, स्पष्टता दे और ज़िन्दगी में तमाम तरह की जो जंज़ीरें मिली हुई हैं, बन्धन मिले हुए हैं, इनसे आज़ाद कराए, उसको कहते हैं सही होना। तुम्हारे लिए सही क्या है? जो तुमको शान्ति, स्पष्टता, और मुक्ति दे वो तुम्हारे लिए सही है। ठीक है? तो हमने पहली बात कही इंसान अकेला जानवर है जिसे धर्म चाहिए। दूसरी बात हमने कही, 'धर्म का अर्थ होता है, सही चुनाव करना।' फिर हमने कहा, 'सही चुनाव वो है जो तुम्हारी चेतना को ऊपर उठाए।' फिर हमने कहा, 'सही की परिभाषा है, चेतना के ऊपर उठने की परिभाषा है, चेतना को शान्ति, स्पष्टता और मुक्ति मिलना।' तो ये धर्म की परिभाषा है, धर्म की परिभाषा है।

तो जैसे पुराने ज्ञानी भी बता गये हैं कि “धारयति इति धर्मः” — जो बात आप धारण करो, जो बात आप चेतना में स्वीकार करो, चेतना के ऊपर रख दो उसको धर्म कहते हैं। और यही बात चेतना के ऊपर रखनी होती है, मन को यही बता कर रखना होता है कि तुम सही निर्णय करना। ग़लत निर्णय करने की सम्भावना और आज़ादी हमेशा रहती है। आपको हमेशा ये विकल्प उपलब्ध रहेगा कि आप ग़लत निर्णय कर लें, और ग़लत निर्णय का हमने पैमाना क्या कहा था? 'जो आपको, आपको अशान्त करे, जो आपको जानने न दे, दिमाग में कोहरा, धुंधलका रखे, अस्पष्टता रखें और जो ज़िन्दगी में आपके बन्धनों को बढ़ाए उसको कहते हैं — ग़लत चुनाव या ग़लत निर्णय। ठीक है?

तो इंसान के पास ये दुर्भाग्यपूर्ण अधिकार है कि वो ग़लत निर्णय करता चले, बन्धनों में फँसता चले, उसके दिमाग में जो भ्रमजाल है वो और मज़बूत और घना होता चले। इंसान के पास ये बड़ी गड़बड़ ताक़त है कि वो उल्टे-पुल्टे निर्णय कर सकता है ज़िन्दगी में। तो सही निर्णय करने को धर्म कहते हैं, यही धर्म है। ऐसे निर्णय करो जो तुम्हारी चेतना को ठीक रखे, स्वस्थ रखे इसे धर्म कहते हैं।

प्र१: लेकिन सर, आमतौर पर ये देखा गया है कि आदमी ज़्यादातर अपने पेट से चलता है, अपने पाश वृत्तियों से चलता है।

आपने कहा कि “धारयति इति धर्मः” तो धारण तो वो करता तो सबसे पहले अपना शरीर है।

आचार्य: नहीं, उसे धारण नहीं करना है; वो तो वो लेकर पैदा होता है। धर्म धारण करना पड़ता है, धर्म सीखना पड़ता है। पेट तो आप माँ के गर्भ से लेकर पैदा होते है, वो नहीं धारण करना पड़ता है। तो जिन पाशविक वृत्तियों की आप बात कर रहे हैं, वो तो आप में जन्म के समय भी होती है; जन्म से पहले भी होती है। पाशविक वृत्ति माने क्या? यही सब कि अपने लिए जिऊँगा, ‘खाना मिल जाए जल्दी से, जहाँ मेरा स्वार्थ है उस दिशा को भाग लूँ।’ छोटा बच्चा भी होता है उसको अगर दूध चाहिए तो वो उसके लिए माँ को रात के दो बजे, तीन-चार बजे भी परेशान कर सकता है क्योंकि उसके अपने पेट का सवाल है। ये ही पाशविक वृत्तियाँ होती हैं।

छोटा जो बच्चा होता है, उसके पास कोई धर्म नहीं होता; धर्म उसको सिखाना पड़ता है। धर्म न सिखाओ तो एक बड़ा बुरा ख़तरा रहता है। वो ये कि इंसान जानवर ही नहीं जानवर के तल से भी नीचे गिर जाएगा। जानवर को तो कोई धर्म सिखाना है नहीं, और इंसान को अगर धर्म नहीं सिखाओ तो वो लगातार ग़लत निर्णय ले सकता है, और जानवर से भी बुरा हो सकता है। और जब मैं कह रहा हूँ, 'धर्म सिखाओ' तो मेरा उससे कोई प्रचलित पन्थ, सम्प्रदाय, समुदाय आदि नहीं है। मैं आयोजित, ऑर्गेनाइज्ड रिलीजन की बात नहीं कर रहा हूँ; मैं बात कर रहा हूँ धर्म के मर्म की कि ज़िन्दगी इसलिए है ताकि तुम चीज़ों को समझो, ज़िन्दगी इसलिए है ताकि अपने छोटे अहंकार से आगे बढ़ पाओ। ये अगर उसको सिखाओगे नहीं तो वो बड़ा मुश्किल है कि स्वयं ही कभी सीख पाएगा। तो धर्म सिखाना पड़ता है और धर्म सीखना पड़ता है।

प्र२: आपने कहा कि धर्म सीखना पड़ता है। तो एक बच्चा जो पैदा होता है, उसे फिर उचित धार्मिक शिक्षा, जब वो छोटे उम्र का होता है तो उसे शायद माँ-बाप से ही मिलेगी?

आचार्य: नहीं, तो माँ-बाप से उसे कुछ मिलता है पर जो मिलता है वो धर्म नहीं होता है। हाँ, आप ये कह सकते हैं कि हिन्दू घर में पैदा हुआ तो माँ-बाप उसका हिन्दू नामकरण कर देंगे और क्या देंगे, ‘तुम हिन्दू हो’। मुसलमान घर में पैदा हुआ तो कह देंगे, ‘मुसलमान हो’। वो सब मिल जाता है बहुत ऊपरी चीज़ है, पर माँ-बाप से आमतौर पर बच्चे को धर्म नहीं मिल पाता क्योंकि माँ-बाप के पास ही नहीं होता, माँ-बाप कैसे देंगे? उनके पास ही नहीं है।

धर्म बड़ी विशेष चीज़ होती है। धर्म वो है जो आपके इंसान पैदा होने को सार्थक बनाता है। नहीं तो इंसान पैदा होना बड़े दुर्भाग्य की बात है, आदमी ज़िन्दगी पर छटपटाएगा; कोई जानवर नहीं छटपटाता जीवनभर, आप नहीं पाओगे, जानवर अपने में मस्त रहते हैं। जैसा उन्हें प्रकृति ने पैदा करा है, वैसे ही अपना घूमते, खेलते रहते हैं, मस्त पड़े रहते हैं। पर इंसान ज़िन्दगी भर छटपटाएगा अगर उसके पास क्लैरिटी ऑफ कॉन्शियसनेस , मन की स्पष्टता नहीं है तो। तो धर्म चाहिए इंसान को।

प्र२: ये सुनकर ऐसा लगता है कि प्रकृति ने तो फिर इसका कोई प्रबन्ध ही नहीं किया कि एक बच्चा अगर पैदा होता है तो?

आचार्य: प्रकृति ने आपको छटपटाहट दी है, यही प्रबन्ध किया है। प्रकृति ने आपको एक समस्या दे दी है, प्रकृति ने आपको एक गड़बड़ स्थिति में पैदा कर दिया है। और आपको ये ताक़त दे दी है — हमने कहा न, 'चुनाव,' चुनने की ताक़त। और आपको ये ताक़त दे दी है कि आप सही निर्णय कर-करके जिस स्थिति में पैदा हुए हो, जिस हालत में फँसे हुए हो, उससे बाहर आ सको।

तो कोई पूछे कि क्या प्रकृति आपकी मुक्ति के लिए कोई प्रबन्ध करती है, तो मैं कहूँगा, 'दुख है उस प्रबन्ध का नाम।' जो इंसान पैदा हुआ है वो दुख पाएगा। जानवर पैदा हुआ है तो आवश्यक नहीं है दुख पाये। हाँ, ये हो सकता है कि जानवर पीड़ा पा जाए। पर जिस स्तर का दुख इंसान झेलता है, किसी जानवर को उतना दुख नहीं झेलना पड़ता। प्रकृति ने इंसान के लिए एक विशेष व्यवस्था करी है कि बेटा, तुम आदमी पैदा हो रहे हो न, तुम्हें दुख मिलेगा। अब इस दुख के कारण आप अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए आज़ादी की ओर बढ़े, दुख से मुक्ति की ओर बढ़े तो ये आपका निर्णय है, ये निर्णय आपको करना चाहिए; इसी निर्णय को धर्म कहते हैं।

प्र३: सर, इसी सन्दर्भ में आगे मैं पूछना चाहूँगा कि दुनिया भर में जितने भी धार्मिक सम्प्रदाय आगे बने, तो उनका मर्म यही था कि वो जो इंसान है उसको — जो आपने कहा कि वो एक इंस्टेबल है, अनस्टेबल है उसको स्टेबल किया जाए। तो हम आज के कॉन्टेक्स्ट में देखते हैं तो ऐसा हो नहीं रहा।

हम देख रहे हैं कि जो आज का इंसान है, वो और परेशान है और जो समस्याएँ हैं और बढ़ गयी हैं। तो इस हिसाब से जो धर्म का मुख्य उद्देश्य है वो ही हम देख रहे हैं, वही नहीं पूरा हो पा रहा। तो इसको कैसे समझें?

आचार्य: नहीं, आप पैदा होते हो तो आपके पास हमने कहा न, दो विकल्प होते हैं कि आपके पास जो कुछ है उसका इस्तेमाल आप अपनी मुक्ति के लिए कर लो या आपके पास जो कुछ है उसका इस्तेमाल अपने बन्धनों को ही और मज़बूत करने के लिए कर लो। अब धर्म भी तो आपके देखे आपके पास की एक चीज़ है न। धर्म भी आपके हिसाब से आपके हाथ की एक चीज़ है। ‘ये मेरा धर्म है, ये मेरा धर्म है, ये मेरा घर है, ये मेरी गाड़ी है, ये मेरी घड़ी है और ये मेरा धर्म है’ (विभिन्न वस्तुओं की ओर इंगित करते हुए)।

तो जैसे आप हर चीज़ का इस्तेमाल अपनी पाशविक वृत्तियों को, अपनी एनिमल इंस्टिंक्ट्स को पूरा करने के लिए करते हो। जो भी चीज़ आपके हाथ लगती है, आप उसका क्या इस्तेमाल करते हो? एक आदमी है वो पाशविक है, एनिमलिस्टिक है, जानवर जैसा है। उसको जो भी चीज़ मिलेगी उसका इस्तेमाल वो क्या करने के लिए करेगा? जो भी उसकी वृत्तियाँ हैं, और कामनाएँ हैं, और उनको पूरा करने के लिए। उसको बन्दूक दे दोगे, उससे अपनी वृत्तियाँ पूरी करेगा; पैसे दे दोगे, उसकी वृत्ति पूरा करेगा। उसे जो भी दे दोगे, उसका इस्तेमाल वो उसकी जो पाशविक क़िस्म की डिज़ायर्स हैं, प्रिमॉर्डियल डिज़ायर्स , वही पुरानी उनको ही पूरा करने के लिए करेगा, उसे दे दो।

तो उसको धर्म भी मिल गया तो धर्म का इस्तेमाल भी अपनी इच्छाओं को, वासनाओं को, अपनी ईर्ष्याओं को पूरा करने के लिए ही करता है। धर्म होना चाहिए था ऐसी चीज़ जो हमें बदल दे। लेकिन वो आपको बदलेगा कि नहीं बदलेगा, ये आपके चुनाव की बात है। भूलिएगा नहीं कि प्रकृति ने आपको एक विशेष अधिकार देकर पैदा करा है मनुष्य होने के नाते, वो अधिकार है चुनने का। आप चुन सकते हो, जानवर नहीं चुन सकते। शेर नहीं चुन सकता कि मैं माँस नहीं घास खाऊँगा, इंसान चुन सकता है कि मैं माँस नहीं घास खाऊँगा। इंसान में और जानवर में बड़ा अन्तर है।

तो आप हर चीज़ का ग़लत इस्तेमाल करना भी चुन सकते हो। आप धर्म का भी ग़लत इस्तेमाल कर लेते हो, ये तो आपकी मर्ज़ी की बात है। आपको कुछ भी दे दिया जाए, आप उसका उल्टा इस्तेमाल कर सकते हो।

प्र१: जैसे आपने अभी कहा कि जो धर्म के जो निर्णय हैं, जो आदमी को लेना होते हैं। उसके मर्म के पीछे समझ होती है, उसको समझना पड़ता है पहले। अब समझ एक आदमी में उतरे, उसमें लगता है समय और ऊर्जा। अब जीवन काल तो चल रहा है, उसको लगातार अपने निर्णय लेने हैं।

तो उस समय पर अगर जैसे बहुत से धर्मों में कुछ बातें बताई जाती हैं, कुछ रूल्स एंड रेगुलेशन्स होते हैं जिनको आप बोलते हैं कि हाँ जी आप इनको फॉलो करोगे तो आप इस पन्थ के हैं। तो उनकी कोई अहमियत है या फिर वो करने से आदमी और ज़्यादा उन्हीं पर ही निर्भर हो जाता है, और फिर उसकी समझ की शक्ति ख़त्म हो जाती है।

आचार्य: दोनों बातें हो सकती हैं। आपको धर्म कुछ नियम देता है, कुछ क़ायदे देता है — हर धर्म में होते हैं ये कि साहब, आप आप फ़लाने धर्म के हैं तो फिर आप फ़लाने नियमों का पालन करेंगे। फ़लानी आपकी एक जीवन पद्धति होगी, कई बार आपको एक विचार पद्धति भी दे दी जाती है कि आप ऐसे जिएँगे, ऐसे खाएँगे-पिएँगे, ऐसा आचरण आपका रहेगा, ये सब दे दिया जाता है। वो दिया जाता है ताकि आप उसका इस्तेमाल करके मन को साफ़ रख सकें।

वो कोई आख़िरी चीज़ नहीं है। धर्म इसलिए थोड़े ही है कि वो आपको बता दें कि ऐसे खाना चाहिए, खाते वक़्त पहला निवाला ऐसे लेना चाहिए, किस हाथ से पानी पीना है, किस हाथ से नहीं पानी पीना है, किस दिशा को मुँह करके प्रार्थना करनी है। ये सब बताने के लिए धर्म थोड़े ही होता है। धर्म का तो सम्बन्ध भूलिएगा नहीं, इसको बार-बार आप याद रखिए। धर्म का सम्बन्ध तो आपके अहंकार की निवृत्ति से है। भीतर जो बैठा हुआ है न, जो 'मैं' बोलता है, उसको शान्ति मिले, वो लीन हो जाए, वो मिटे या कह दीजिए कि वो पूर्णता पा ले। जो उसकी गहरी-से-गहरी कामना है, वो पूरी हो जाए, वो मिट ही जाए; ये है धर्म का उद्देश्य।

धर्म का उद्देश्य ये नहीं है कि आपको बताए कपड़े कौनसे पहनने हैं, कौनसा रंग शुभ होता है, कौनसा अशुभ होता है। ये सब धर्म के अन्तर्गत आता भी नहीं है। और अगर आप कहेंगे, बहुत ज़ोर देकर कि धर्म में आता है तो मैं कहूँगा, ये धर्म की परिधि पर आता है। पर जी समझते हो? सरकमफेरेंस। ये धर्म के बाहरी क्षेत्र की बात है, ये धर्म में कोई केन्द्रीय बात नहीं है कि किससे कैसे सम्बन्ध रखते हैं और कहाँ बैठना चाहिए, कहाँ नहीं बैठना चाहिए। स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध क्या रखने होते हैं, और बच्चों को लालन-पोषण कैसे करना है। बच्चों कौनसी बातें बतानी हैं या बच्चों के मन में क्या डाल देनी हैं, क्या-कैसे संस्कारित कर देना है, ये सब धर्म का विषय नहीं है।

तो लेकिन धर्मों में ये सब बातें होती हैं। वो इसलिए होती हैं ताकि तैयारी हो सके आगे की यात्रा की। ये सब बातें अपनेआप में मंज़िल नहीं होती, ये सब बातें आगे की यात्रा की तैयारी के लिए होती हैं। लेकिन बहुत सारे लोग इन्ही चीज़ों को अपनी मंज़िल बना लेते हैं। वो सोचते हैं कि हम इतने बजे उठते हैं, हम दिन में इतनी बार प्रार्थना, या प्रेयर , या नमाज़ वगैरह कर लेते हैं तो हम धार्मिक हो गये। इससे थोड़े ही हो जाओगे। कई लोग कहते हैं कि हम खान-पान का संयम कर लेते हैं तो इससे हम धार्मिक हो गये। बहुत लोगों को लगता है कि हम बलि या कुर्बानी दे देते हैं इसी से हम धार्मिक हो गये। इससे कैसे धार्मिक हो जाओगे, ये कौनसी बात हो गयी है? बहुत लोगों को लगता है कि हमने कुछ धर्मग्रन्थ पढ़ लिए हैं और हमें कुछ श्लोक या वर्सेज़ , आयतें कंठस्त हैं तो हम धार्मिक हो गये, ऐसे थोड़े ही हो जाते हो। धर्म बड़ी कड़ी चीज़ है, बड़ी सूक्ष्म है, सुई की नोक जितनी।

धर्म का पूरा ज़ोर बस एक बिन्दु पर केन्द्रित है। तो मैं कह रहा हूँ, 'सुई की नोक' बस एक बिन्दु। और वो एक बिन्दु हैं, 'मैं'। आपका अहंकार कम हुआ कि नहीं हुआ। आपको उस झूठ से, उस इल्यूज़न से मुक्ति मिली कि नहीं मिली, जिसको ईगो कहते है। सिर्फ़ यही धर्म की विषय वस्तु है। कोई पूछे, ‘धर्म का सब्जेक्ट क्या है, धर्म चाहता क्या है?’ धर्म सिर्फ़ लिबरेशन चाहता है बाक़ी कुछ नहीं चाहता धर्म। तो बाक़ी सब बातें जो आपको बतायी जाती हैं, धर्म के नाम पर। उनका महत्व या तो शून्य होता है या बहुत कम होता है। लेकिन हम ऐसे पागल लोग हैं कि हम उन्हीं बातों को सबसे ज़्यादा महत्व का मान लेते हैं।

और हम प्रसन्न भी हो जाते हैं कि हम उन सब चीज़ों का पालन कर रहे हैं — प्रथाओं का, परम्पराओं का, रीति-रिवाज़ों का तो हमको लगता है कि हम धार्मिक हो गये और भीतर से हमें बड़ा गर्व भी आ जाता है। हमें लगता है हम श्रेष्ठ हैं, हम धार्मिक हैं। ‘देखो, मैं ऐसे खाता हूँ, ऐसे नहीं खाता; ऐसे सोता हूँ, ऐसे नहीं सोता। पाँच बार मैं फ़लानी यात्रा कर आया हूँ तो मैं ज़्यादा धार्मिक आदमी हूँ, मैं श्रेष्ठ हो गया, मैं पुण्यात्मा हो गया’; ये सब बेकार की बातें हैं।

जो असली चीज़ है, बस वही मायने रखती है। असली चीज़ ये है कि इंसान को धर्म की ज़रूरत है ही क्यों। इंसान को धर्म की ज़रूरत है क्योंकि इंसान के भीतर कोई है जो भीतर से बिलबिलाता रहता है, उसके कारण इंसान को धर्म की ज़रूरत है। अब वो बिलबिलाहट कम हुई कि नहीं हुई इससे तय होगा कि तुम धार्मिक आदमी हो कि नहीं हो।

प्र. तो सर अगर धर्म हमारी छटपटाहट और हमारे दुख का समाधान है, तो हम वहाँ से लेकर इस बिन्दु पर कैसे आ गये कि प्रचलित धर्म और रीति-रिवाज और इस तरह की चीज़ों में कैसे फँस गये?

आचार्य: देखो, फिर कह रहा हूँ, हमारे पास ये ताक़त, अधिकार है कि हमें अच्छी-से-अच्छी चीज़ भी दी जाएँ तो हम उसका बुरे-से-बुरा इस्तेमाल कर लें। एक उदाहरण देता हूँ — एक पहाड़ के ऊपर एक आदमी ने दूसरों के लिए अपनी जान दे दी, एक पहाड़ के ऊपर एक आदमी ने दूसरों की भलाई के लिए अपनी जान दे दी, ठीक है? तो उसके आस-पास के जो लोग थे जो उसके साथ रहते थे, जिन्होंने उसके जीवन को देखा, उसको जान देते हुए देखा, उन्होंने कहा ये बहुत बड़ा काम हुआ है।

ये सचमुच एक धार्मिक व्यक्ति था, जिसने एक धार्मिक जीवन जिया और ये जो उसने जान दी है, ये धर्म का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है। तो उन्होंने कहा कि इस जगह पर अब हम एक तीर्थ बना देते हैं। तो लोग आया करें यहाँ पर क्योंकि यहाँ पर किसी ने दूसरों की मदद, भलाई, कल्याण के लिए अपनी जान दी थी और पूरी ज़िन्दगी लगाई थी। तो अब उद्देश्य तो ये है कि दूसरे वहाँ पर आएँ और वहाँ पर जो हुआ था, उस चीज़ को जानें, समझें ताकि उनको भी एक हौसला मिले और दिशा मिले कि तुम भी अपने जीवन के निर्णय इसी तरह लो न। ‘देखो, एक आदमी है, जो इस पहाड़ की चोटी पर सही ज़िन्दगी जी पाया, अपनी चेतना को ऊँचाई दे पाया और मुक्त हो पाया। तो तुम भी हो सकते हो।’

एक के उदाहरण से दूसरे लोग सीखें तो इसीलिए वहाँ पर मान लो एक तीर्थ की स्थापना करी गयी। अब तीर्थ की स्थापना कर दी, अब वो स्थापना हुए बीत गये हैं पाँच-सौ-साल, हज़ार साल, तीन-हज़ार-साल बीत गये। अब लोग आते हैं, वहाँ पर किसलिए आते हैं उस बात को कब का भूल गये! भूल ही नहीं गये, जो मूल तथ्य था उसको भुला करके और विकृत करके, तोड़-मरोड़ करके बहुत तरह की कथाएँ-कहानियाँ बना ली। जो व्यक्ति था उसको देवता बना दिया, उसने जो नि:स्वार्थ जीवन जिया था, उसको बता दिया कि किसी आ करके उसको ईश्वर ने आशीर्वाद दिया कि अब तू मृत्यु को प्राप्त होगा, तो तुझे स्वर्ग मिलेगा। अब स्वर्ग को पाना तो स्वार्थ जैसा हो गया न। वो तो ये सोच करके नहीं जी रहा था, न सोच कर मर रहा था कि मुझे मरने के बाद क्या मिलेगा। उसको तो कोई फ़िक्र नहीं थी, वो कह रहा था कि मुझे ये दिख गया है कि सिर्फ़ अपने लिए जीना जीवन को बर्बाद करने जैसा है। तो सामने कोई है जो दुःख में है, मैं उसके लिए जीना चाहता हूँ, उसका दुःख कम हो, वो तो ऐसे जी रहा था। पर फिर उसको लेकर आपने बहुत तरह की कहानियाँ बना दीं और फिर उन कहानियों को आपने किताबों में भी लिख दिया। अब ये सब हो चुका है और हज़ार, तीन हज़ार साल बीत चुके हैं, लोग आ रहे हैं। उनको कुछ पता ही नहीं है कि वो तीर्थ सचमुच क्यों था। और पता करने का कोई तरीक़ा भी बचा नहीं है। क्योंकि कोई नहीं बचा जिसने वो घटना सच-मुच देखी हो, जो घटी थी।

और जो घटनाएँ घटती हैं न, वो कोई पारलौकिक, मेटाफिजिकल , अद्भुत, चमत्कार नहीं होते हैं। वो बहुत सीधी-सादी घटनाएँ होती हैं। वो ऐसे ही होता है कि कोई व्यक्ति कह रहा है कि अगर पचास जानवरों को मार के मैं जी सकता हूँ तो मुझे मरना मंज़ूर है। कोई व्यक्ति कह रहा है, ‘लोग सीधे-सादे हैं, मैं बहुत आसानी से उन्हें धोखा दे सकता हूँ, चकमा दे सकता हूँ, पैसे कमा सकता हूँ, इनको बेवकूफ़ बनाकर अपना उल्लू सीधा कर सकता हूँ पर मैं नहीं करूँगा।’ इतनी सीधी-सादी घटनाएँ होती हैं। ये घटनाएँ सीधी हैं पर यही छोटे-छोटे काम करना बड़ा कठिन हो जाता है।

अब सोचिए, स्वार्थता का छोटा काम भी करना जीवन में कितना मुश्किल होता है न। बिना कुछ माँगे, बिना कुछ चाहे आप क्या किसी की थोड़ी भी मदद कर सकते हैं? बड़ा मुश्किल होता है। कहीं-न-कहीं मन में आस लगी रहती है कि मदद कर रहे हैं किसी की तो बदले में कुछ मिलेगा उससे। तो जिसने सचमुच बिना कुछ माँगे, चाहे दुनिया के लिए कुछ कर दिया वो आदमी अनूठा है। वो आदमी अनूठा लेकिन उसकी जो मौलिक, ओरिजनल कहानी थी वो तो खो गयी और अब मिल नहीं सकती। उस कहानी की जगह बहुत तरीक़े की और कहानियाँ होती हैं जो प्रचलित करा दी जाती हैं, ऐसे लोगों द्वारा जिनके अपने स्वार्थ होते हैं, उल्टे-पुल्टे।

तो अब जो लाखों लोग जा रहे हैं और वो पर्वत के ऊपर चले जाते हैं, और वो सोच रहे हैं कि वहाँ जाना कोई धार्मिक बात है। अब वहाँ क्यों जा रहे हैं, उन्हें कुछ पता नहीं। जो काम तुम अनजाने में कर रहे हो, इग्नोरेंस में कर रहे हो, अज्ञान में; वो काम धर्म कैसे हो सकता है? जिस काम का तुम्हें पता ही नहीं कि तुमने क्यों किया, वो धर्म कैसे हो सकता है? समझ में आ रही है बात? और इतना ही नहीं वहाँ जा-जाकर बहुत सारे लोग फिर मज़े भी कर रहे हैं। क्योंकि पहाड़ है वहाँ मौसम अच्छा रहता है, ठंड-वंड रहती है, हवा साफ़ है, झरने हैं; तो लोग वहाँ जाते हैं; कहते हैं, ‘हम तीर्थ यात्रा करने जा रहे हैं’। और फिर वहाँ पर वो अपना विलास कर रहे हैं, मनोरंजन हो रहा है, ये सब चल रहा है। तो इस तरीक़े से चीज़ें ख़राब होती हैं कि होता कुछ और है और हज़ार-दो हज़ार साल बाद बचता कुछ और है।

कभी देखा है रात में जिसको आप लोग कहते हो, 'बोनफायर' वो जलाई है? (सभी प्रश्नकर्ता एक-साथ हाँ में सिर हिलाते हैं) तो क्या उसकी रात में लपट होती है! वो लपकती है आसमान की ओर और चारों तरफ़ अन्धेरा हो, एकदम भयानक अन्धेरा हो और बीच में वो आग जल रही है; जैसे- दस मशालें, और क्या उसका सौंदर्य है और क्या उसकी उपयोगिता है!

ये धार्मिक व्यक्ति का जीवन होता है कि जगत में अज्ञान का अन्धेरा छाया हुआ है और बीच में एक आदमी है जो मशाल की तरह जल रहा है, और उसके जलने से रात के जीवों को थोड़ा आसरा बँध जाता है। वो दिन तक डटे रह पाते हैं, वो सूर्योदय तक प्रभात की पहली किरण तक डटे रह जाते हैं, रात कट जाती है किसी तरीक़े से, उस धार्मिक व्यक्ति की वजह से। पर लकड़ी तो लकड़ी है और इंसान का तन भी लकड़ी होता है, लकड़ी जल जाती है और आग बुझ जाती है, और बचती क्या है? बस राख। और वही चीज़ जो रात में इतनी गरिमा लिए हुए थी, क्या उसका प्रकाश था! अपने देखा है अगले दिन दोपहर तक वो चीज़ कैसी दिखती है? वो जगह कैसी दिखती है, याद करो?

एकदम निर्जीव। एकदम निर्जीव हो जाती है जगह, वहाँ पर अधजली लकड़ी पड़ी हुई है और राख पड़ी हुई है, और सब कितना अजीब लग रहा है, कितना अजीब लग रहा है? और पक्षी आकर वहाँ गन्दगी कर गये। और ये भी हो सकता है कि हवा चली है तो राख इधर-उधर छितर गयी है, और ये भी हो सकता है कि कुछ छीटे पड़े हैं तो जहाँ कल आग थी वहाँ पर अब गीलापन है जैसे कीचड़ हो। तो ये होता है धर्म का हाल वक़्त बीतने के बाद। आग तो चली जाती है, राख बच जाती है। और हम उस राख को पूजते हैं, उसी को मान्यता, प्रथा, परम्परा बना लेते हैं, उसी पर चलते रहते है।

कोई समझने आए तो हम कह देते हैं, 'नहीं-नहीं साहब, हमारे यहाँ तो ऐसे ही चलता है, हम किसी की नहीं सुनेंगे।' और ये काम सब पन्थों और संप्रदाय में होता है, कोई अपवाद नहीं है। सब में यही चला है, पूरी दुनिया में यही चल रहा है और इसी कारण धर्म जिसको स्रोत होना चाहिए था अच्छाई का, गुडनेस का, वो अधिकतर अच्छाई की जगह मूर्खता और अज्ञान का स्रोत बन के रह गया है।

प्र१: तो सर, मेरा तो सवाल यही उठता है तब बार-बार यही देखा गया है कि जो सबसे ऊँची-से-ऊँची चीज़ भी है वो भी आदमी को एक समय के बाद तो दुख ही देना शुरू कर देती है, उसके लिए लाभदायक तो रहती नहीं। तो क्या फिर आदमी का जीवन सिर्फ़-और-सिर्फ़ दुख के लिए ही बना है?

आचार्य: चुनाव की बात है ये मैं अभी आधे घंटे में चौथी-पाँचवीं और बोल रहा हूँ, चुनाव की बात है। इंसान का जीवन दुख भोगने के लिए भी हो सकता है, कोई दुख भोगने का चुनाव नहीं करता, सब सुख भोगने का चुनाव करते हैं, उस चक्कर मे उन्हें दुख मिल जाता है। तो तुम अज्ञान में दुख भी भोग सकते हो, सुख भोगने के चक्कर में, और तुम मुक्ति का, श्रेष्ठता का, साहस का भी चुनाव कर सकते हो। तुम्हारे ऊपर है, तुम्हे किसी ने बाँध नहीं रखा है, तुम अद्भुत हो, तुम मनुष्य हो।

तुम न तो ये लकड़ी हो (कुर्सी की ओर इंगित करते हुए), ये कुर्सी है इसको किसी और ने बनाया, इसका उद्देश्य किसी और ने तय करा, इसकी ज़िन्दगी कोई और तय करता है, इसे कहीं से कहीं उठाकर कोई और रख देता है। इससे थोड़ा-सा बेहतर कोई जानवर होता है। वो ऐसा लगता है जैसे अपनी इच्छा पर चल रहा हो, पर उसकी इच्छा भी पहले से तय है। हिरण के सामने शेर पर जाएगा तो पहले से तय है कि हिरण क्या इच्छा करेगा? हिरण ये इच्छा करेगा कि जिस दिशा से शेर आया है, उससे उल्टी दिशा भाग लो। तो वो जो लगता है हमें, हिरण की इच्छा है, हिरण की इच्छा नहीं है वो इच्छा हिरण के शरीर में पहले से ही प्रविष्ट है, कॉन्फ़िगर्ड है। तो न कुर्सी, न हिरण के पास स्वेच्छा जैसा कुछ होता है।

इंसान अकेला है जिसके पास स्वेच्छा है, चुनाव है, वो चुन सकता है। तो अगर तुम दुख को भोगते पाते हो अपनेआप को या मानवता को तो ये जान लो कि हम अपने चुनाव कहीं-न-कहीं बहुत गड़बड़ कर रहे हैं। हमें कहीं से कुछ लिखकर नहीं आया है, हम किसी से बँधे हुए नहीं हैं। कोई बनाने वाला नहीं है जिसने पहले से निर्धारित करके भेजा हो — जाओ कि जाओ तुम दुख भोगो। हममें ताक़त है, हममें शक्ति है, हम स्वयं-भू है। और हम चुन सकते हैं कि हमें ग़ुलाम बनना है कि स्वामी बनना है। तो आप अगर ग़ुलाम बनना भी चुन रहे हो तो वो भी एक तरीक़े से आपका स्वामित्व है। आपने ख़ुद चुना है ग़ुलाम बनना, आप किसी और को दोष नहीं दे सकते।

प्र३: सर, अभी आपने बोला — 'चुनाव' कि हमारे पास चुनाव है। तो इसी से सम्बन्धित मैं प्रश्न पूछना चाहूँगा कि जो धार्मिक परिवर्तन होता है या कन्वर्जन होता है, इसका क्या महत्व है?

आचार्य: महत्व कुछ भी नहीं है। क्या महत्व है? देखो, धर्म का अर्थ समझ गये, ठीक है। अब धर्म परिवर्तन माने क्या होता है? और क्यों कोई धर्म परिवर्तन किसी दूसरे का करवाता है? और कोई अपना क्यों करता है? थोड़ा इसको समझते हैं। मैं 'अ' धर्म से आता हूँ, और मैं तुम्हारे पीछे पड़ा हूँ कि मैं इसका तो कन्वर्जन कराकर मानूँगा। तुम 'ब' धर्म से आते हो, मैं 'अ' हूँ, तुम 'ब' हो और मैंने बिलकुल नज़र कर ली है कि इसका तो कन्वर्जन कराना है। अब मैं क्यों कराऊँ? वो इस पर निर्भर करता है कि मैं कौन हूँ?

भई, अगर मैं अच्छा आदमी हूँ, तो मैं दूसरे की अच्छाई ही करना चाहूँगा। और अगर मैं अधार्मिक माने बुरा आदमी हूँ, तो मैं दूसरे का इस्तेमाल करके अपना स्वार्थ पूरा करना चाहूँगा, ये बात है न? अब मैं इस आदमी से कह रहा हूँ कि भाई, तुम अपना धर्म बदल लो। उसकी दो ही वजहें हो सकती हैं, या तो धर्म बदलने में उसकी कोई भलाई हो या वो धर्म बदलता है इस बात में मेरा कोई स्वार्थ हो।

मैं उसको बोल रहा हूँ, 'तुम अपना धर्म बदलो' मेरे ऐसे आग्रह के पीछे दो ही कारण हो सकते हैं कि या तो मैं इसका हितैषी हूँ, वेल विशर हूँ। तो मैं चाहता हूँ, इसका भला हो, ये अपना कन्वर्जन कर ले। मैं बड़ा अच्छा आदमी हूँ, मैं अपनी नेकनीयती से, अपनी सद्भावना से, अपनी नि:स्वार्थता से इसका कन्वर्जन कराना चाहता हूँ, एक सम्भावना ये हो गयी। और दूसरी ये है कि उसको कन्वर्ट कराने में मेरा अपना कोई स्वार्थ है। ठीक है?

अब अगर मैं वाक़ई धार्मिक आदमी हूँ, तो मैं जो भी करूँगा दूसरे की भलाई के लिए करूँगा। पर वाकई धार्मिक आदमी होते ही कितने हैं? एक प्रतिशत से भी कम। एक प्रतिशत से भी कम लोग होते हैं जो सचमुच धार्मिक चित्त के होते हैं। निन्यानवे प्रतिशत लोग कैसे होते हैं? वो भले ही कितना भी दावा कर लें कि वो धार्मिक हैं, वो होते तो अधार्मिक हैं न? तो निन्यानवे प्रतिशत लोग तो अपने ही स्वार्थ के लिए चलते हैं, अपने अहंकार को बचाए रखने के लिए जीते हैं।

तो निन्यानवे प्रतिशत सम्भावना यही है कि अगर मैं किसी का कन्वर्जन कराना चाहता हूँ, तो अपने स्वार्थ के लिए करना चाहता हूँ, उसकी भलाई के लिए नहीं। एक तो ये है कि मैं इसको बोलूँ कि भाई, तू मेरे धर्म में आ जा, इससे तेरा बहुत भला होगा। ये ऐसा मुझे सचमुच लगता हो कि अगर ये अपना धर्म बदल देगा, मेरे धर्म में आ जाएगा तो इसका भला होगा। पर ऐसा तो होता नहीं, क्योंकि हम इतने अच्छे लोग हैं नहीं कि हम दूसरे की भलाई के लिए दूसरे से कुछ कहें। अगर हम दूसरे से कुछ कह रहे हैं, तो अपने स्वार्थ के लिए ही कह रहे होंगे। तो बस अपने स्वार्थ के लिए लोग कन्वर्जन को बड़ा मुद्दा बनाए रखते हैं। आप किसी को अगर अपने धर्म में ले आये तो आप बड़े प्रसन्न हो जाते हो। कोई अगर आपके धर्म से बाहर निकल गया तो आप दुखी हो जाते हो, क्रोधित हो जाते हो। इन दोनों ही हालातों में बस स्वार्थ काम कर रहा है।

समझ में आ रही बात?

और स्वार्थ क्यों काम कर रहा है क्योंकि आपका सच पूछो तो जो आपने धर्म पकड़ रखा है, उस पर कोई भरोसा नहीं है। जब अपनी चीज़ पर भरोसा नहीं होता न, तो आदमी चाहता है कि दस लोग कहें कि वो चीज़ ठीक है। जब अपने ऊपर भरोसा नहीं होता न, तो आदमी अपने जैसों की एक भीड़ अपने इर्द-गिर्द खड़ा करना चाहता है।

प्र १: सुरक्षा।

आचार्य: उसमें उसे सिक्योरिटी की भावना लगती है। दुनिया में दो-सौ-तीस करोड़ ईसाई हैं, दुनिया में एक-सौ-नब्बे करोड़ मुसलमान हैं, और एक-सौ-बीस करोड़ हिन्दू हैं और ये बहुत बड़ी संख्या होती है — दो-सौ-तीस करोड़, एक-सौ-नब्बे करोड़ और एक-सौ-बीस करोड़। बहुत-बहुत बड़ी संख्याएँ होती हैं। सोचो! एक-सौ-बीस करोड़ या दो-सौ-तीस करोड़ कितनी बड़ी संख्याएँ होती है! दो-सौ-चालीस करोड़ ईसाई। और सबसे ज़्यादा जो धर्म परिवर्तन का शोर मचता है वो भी इन्ही तीनों धर्मों में मचता है। अब, अब क्यों मच रहा है, इतने सारे तो हो? दो-सौ-तीस, दो-सौ-चालीस करोड़ ईसाई हैं, एक-सौ-नब्बे करोड़ मुसलमान हैं, एक-सौ-बीस करोड़ हिन्दू हैं। और इतना शोर मच रहा है धर्म परिवर्तन-धर्म परिवर्तन।

क्या इसलिए मच रहा है कि जो व्यक्ति तुम्हारे समुदाय से निकल गया और उसने अपना कन्वर्जन कर लिया, निकल गया। तुम्हें उसकी बड़ी चिंता थी, तुम उसके बड़े शुभेच्छु थे, तुम उसके वेलविशर थे? इसलिए तुम्हें लग रहा है, नहीं। सच पूछो तो तुम्हें उसके कन्वर्जन की इतनी फ़िक्र इसलिए हो रही है क्योंकि तुम्हारे पास अपना कोई धर्म नहीं है; तो तुम डर जाते हो। तुम कहते हो, 'अगर मेरे लोगों की तादाद कम हो गयी तो हाय! मेरा क्या होगा।' अब भले ही तुम्हारे तादाद एक-सौ-नब्बे करोड़ की हो, दो-सौ-चालीस करोड़ की हो लेकिन फिर भी तुम डरे हुए रहते हो कि अगर मेरे लोगों की तादाद कम हो गयीं तो मेरा क्या होगा?

यहाँ पर बात ये नहीं है कि जो मेरा धर्म या मज़हब छोड़ कर चला गया, ‘उस बेचारे का क्या होगा? अरे-अरे! उसका बुरा हो गया, अब वो मुक्ति से वंचित रह जाएगा।’ ऐसी भावना नहीं है, भावना ये है कि पहले मेरी सौ लोगों की भीड़ थी तो मैं थोड़ा सिक्योर , सुरक्षित अनुभव करता था, ‘मेरी भीड़ निन्यानवे की रह गयी मुझे डर लग रहा है।’ और डर क्यों लग रहा है, क्योंकि तुम्हारे भीतर कोई धर्म है नहीं। तुम नाम के हो, जो भी तुमने अपना धर्म पकड़ रखा है — ईसाई, मुसलमान, हिन्दू, बौद्ध, सिक्ख, यहूदी तुम बस नाम के हो, नाम के हो।

तुम्हें सचमुच अगर अपने धर्म में भरोसा होता तो तुम संख्याएँ थोड़े ही गिनते। तुम्हें सचमुच अगर अपने धर्म में भरोसा होता तो तुम संख्याओं, नम्बर्स के पीछे थोड़े ही भागते कि कितने हैं और कितने कम हो गये — और वैसे एक बात बता दूँ, परिवर्तन का मुद्दा उठा रहे हो, 'धर्म परिवर्तन से दुनिया के धर्मों की आबादियाँ तब्दील नहीं हो रही हैं।' दुनिया के धर्मों के जो अनुयायी हैं, उनकी जो संख्याएँ घट-बढ़ रही हैं वो धर्म परिवर्तन के कारण नहीं हो रहा है; वो हो रहा है या तो फर्टिलिटी रेट , माने बर्थ रेट के कारण, या डेथ रेट के कारण।

कुछ धर्म हैं जिनके अनुयायी बूढ़े ज़्यादा हैं, तो वहाँ डेथ रेट हाई है। कुछ धर्म हैं जिनके अनुयायी जवान ज़्यादा हैं तो वहाँ बर्थ रेट हाई है। इसी तरीक़े से कुछ धर्म है जिनके बहुत सारे अनुयायी गरीब जगहों पर हैं। जहाँ गरीब जगहों पर होते हैं, वहाँ फर्टिलिटी रेट ज़्यादा होता है। गरीबी और अशिक्षा जहाँ होते हैं, वहाँ फर्टिलिटी ज़्यादा होता है। तो किसी धर्म में लोग घट रहे हैं या बढ़ रहे हैं, उसका कारण कन्वर्जन नहीं होता।

आप अगर कन्वर्जन का आँकड़ा उठाकर देखेंगे, दुनियाभर में तो कन्वर्जन तो ऐसे हैं कि जैसे दस हज़ार या एक लाख में से कोई एक-दो व्यक्ति इधर-उधर हो गये, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है। और अगर दो लोग छोड़कर जा रहे हैं किसी भी धर्म को तो आमतौर पर दो लोग वापस भी आ रहे हैं; हिन्दुओं में तो कम-से-कम ऐसा ही है। आप अगर आँकड़ा उठाएँगे तो जितने लोग जाते हैं हिन्दू धर्म छोड़कर उतने ही हिन्दु धर्म में वापस भी आ जाते हैं, तो हिसाब बराबर हो जाता है। तो उससे इतना कोई फ़र्क पड़ नहीं रहा है।

ख़ैर मैं आँकड़ों में अभी जाना ही नहीं चाह रहा हूँ, आँकड़े हटाइए। मैं जानना चाह रहा हूँ, धर्म परिवर्तन के पीछे की मंशा पर, और दुनिया में धर्म परिवर्तन एक बहुत बड़ी इंडस्ट्री है। ईस्लाम और ईसाइयत ये प्रोजेलेटाइजिंग रिलीजंस कहे जाते हैं। ये फैलते ही हैं बहुत हद तक कन्वर्जन्स कराकर, इतिहास में ऐसा हुआ है, अब ऐसा कम हो रहा है। पिछले सौ साल से ऐसा कम हो रहा है। इतिहास में लेकिन जो उनका विस्तार हुआ है, वो धर्म परिवर्तन कराकर हुआ है।

और अब धर्म परिवर्तन में बहुत सफलता नहीं मिलती है लोगों को, चाहे वो किसी भी धर्म के हों। लेकिन फिर भी बहुत सारी ऐसी संस्थाएँ हैं और ताक़तें हैं, एजेंसीज़ हैं जो सक्रिय रहती हैं कि साहब, हमें तो कन्वर्जन कराना है, कन्वर्जन कराना है। और इसके विपरीत कन्वर्जन को ही बड़ा भारी मुद्दा बनाकर के ऐसी संस्थाएँ सक्रिय रहती हैं, जो कहती हैं कि कन्वर्जन बहुत हो रहा है, हमें कन्वर्जन रोकना है, रोकना है, रोकना है।

तथ्य ये है कि आप आँकड़े उठाकर देखो तो कन्वर्जन उतना बड़ा मुद्दा है ही नहीं। आज की दुनिया के मुद्दे दूसरे हैं, आज की धार्मिकता के भी मुद्दे दूसरे हैं लेकिन कन्वर्जन को हमने बड़ा भारी हौवा बना रखा है। क्यों बना रखा है? उसकी वजह समझिएगा — तो मैं आँकड़ों से ज़्यादा कन्वर्जन के पीछे की मंशा और मनोविज्ञान पर जाना चाहता हूँ। और बात वही है, 'सिक्योरिटी' जब मुझे अपनी चीज़ पर भरोसा नहीं होता तो मैं चाहता हूँ कि सौ लोगों के पास वही चीज़ हो ताकि मुझे लगे मेरे पास भी सही चीज़ है।

अगर मुझे अपनी चीज़ पर भरोसा हो तो मेरी चीज़ किसी और के पास हो-न-हो, मैं कहूँगा, 'किसी ने नहीं ली है पर मेरी चीज़ है, मुझे भरोसा है। तो एक भी और आदमी भले न हो जो मेरी चीज़ में विश्वास रखता हो, या मेरी चीज़ का सम्मान करता हो, मुझे क्या फ़र्क पड़ता है।' लेकिन हम लोग ऐसे नहीं हैं जिन्हें किसी भी चीज़ पर भरोसा हो, भरोसा तो तब होता है जब धर्म होता है। धर्म का काम होता है, आपको अश्योरेंस देना, एक सर्टेनिटी देना, एक फाइनालिटी देना; कुछ ऐसा देना जिस पर आप बिलकुल अडिग होकर विश्वास कर सकते हो।

वो असली धर्म हमारे पास होता नहीं, तो फिर हम भीड़ का मुँह देख कर चलते हैं। अगर मुझे जानना है की मेरी चीज़ ठीक है कि नहीं, तो मैं इधर-उधर देखने जाता हूँ कि और दस लोग इस चीज़ को मान रहे हैं कि नहीं। और पहले दस लोग इस चीज़ को मान रहे थे, अब आठ ही लोग मान रहे हैं तो मैं भीतर से काँप जाता हूँ, मुझे लगता है — ‘हाय-हाय! ये क्या हो गया!’ इससे प्रमाणित यही होता है कि मेरी धार्मिकता कितनी खोखली है कि मुझे संख्याएँ गिननी पड़ती है, मैं बार-बार संख्याएँ गिन रहा हूँ, संख्याएँ गिन रहा हूँ।

और मज़े की बात ये भी है कि दुनिया में जो धर्म बहुत कम संख्याओं के हैं वो कन्वर्जन को लेकर इतना ज़्यादा शोर नहीं मचाते। हालाँकि कन्वर्जन को लेकर सब इधर-उधर की बातें करते रहते हैं, लेकिन इतना शोर नहीं मचाते वो। आप यहूदियों को ले लीजिए बमुश्किल से एक-डेढ़ करोड़; जैन हैं, वो एक करोड़ भी नहीं हैं। पारसियों को ले लीजिए वो मुट्ठी भर हैं (हँसते हुए)। वहाँ से आप कभी शोर उठता नहीं सुनेंगे कि अरे-अरे! कन्वर्जन हो गया, कन्वर्जन हो गया। और ये जो हैं दो-सौ-चालीस वाले ईसाई, और मुसलमान और एक-सौ-बीस करोड़ हिन्दू, यही तीन दुनिया के सबसे बड़े धर्म हैं।

इन्हीं तीनों में सबसे ज़्यादा शोर मचा रहता है कि कन्वर्जन -कन्वर्जन , और कन्वर्जन कराने में लगे रहते हैं, कन्वर्जन रोकने में लगे रहते हैं। और इससे क्या हासिल करना चाहते हैं, राम जानें! क्योंकि धर्म चीज़ दूसरी होती है भाई, धर्म चीज़ दूसरी होती है। धर्म में ऐसा नहीं होता कि तुम सिर गिनोगे इतने-इतने, इतने-इतने, इतने हो गये। अगर आपको सिर गिनने पर रहे हैं और आपका बड़ा आग्रह इसी पर है कि मैं दूसरे का कन्वर्जन कराकर मानूँगा; इससे यही पता चलता है कि आप ख़ुद भी धार्मिक आदमी नहीं हो। या यही कि मैं दूसरे का कन्वर्जन रुकवा के मानूँगा। उससे भी यही पता चलता है।

प्र१: ये धर्म नहीं गुटबाज़ी हो रही है यह।

आचार्य: ये गुटबाज़ी चल रही है। ये गैंग बाजी चल रही है और गिना जा रहा है, किसका गैंग ज़्यादा बड़ा है; इसमें कुछ नहीं रखा है।

प्र१: जैसे पुराने कुटुम्ब-कबीलें होते थे गाँव में, वो ही।

आचार्य: और वहाँ पर ताक़त का निर्णय संख्या देखकर किया जाता था कि जिसकी संख्या जितनी होगी उसकी ताक़त उतनी ज़्यादा होगी। इसमें आपके और आत्मा के सम्बन्ध की तो कोई बात ही नहीं है, इसमें ये तो कहीं है ही नहीं कि मेरा मेरे राम से क्या रिश्ता है। इसमें तो ये है कि मेरा गैंग कितना बड़ा है। इस पूरी चीज़ में सत्य और आत्मा तो कहीं पीछे छूट गये है। उनको तो कोई पूछने वाला नहीं।

प्र१: जी, जैसे आप अभी बता रहे हैं कि लोगों को धर्म को तो कुछ पता नहीं, अपने स्वार्थों पर चलते हैं। अब मुझे साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा है कि कैसे बहुत सारी ये जो धार्मिक संस्थाएँ होती हैं — ये मुफ़्त की शिक्षा देंगी, मुफ़्त की चिकित्सा देंगी, अनाथालय खोलेंगी। ये इसी कारण खोल रही हैं न जिससे ये स्वार्थों की पूर्ति से…।

आचार्य: ये स्वार्थ भी हो सकता है, ये स्वार्थ भी हो सकता है। बहुत सारे काम जो ऊपर-ऊपर ऐसे धार्मिक उद्देश्य के लिए करे जाते हैं, उनमें अन्दर-अन्दर ये मनसूबा रहता है कि मैं किसी तरह अपने धर्म की श्रेष्ठता स्थापित कर दूँ; रहता है भीतर से। और ये आदमी के भीतर की गन्दगी है कि ऊपर ऐसा-सा दिखाएगा जैसे लोग कल्याण और जनसेवा के लिए काम कर रहा है और भीतर-भीतर ये रहेगा कि इससे ये साबित हो जाए कि साहब जो मेरा धर्म या रिलीज़न है, वो सर्वश्रेष्ठ है। और, और भी मज़ा आये, अगर मेरे लोग कल्याण के काम को देखकर कुछ लोग कन्वर्ट हो जाएँ। तो ये क्या है? ये धार्मिकता थोड़े ही है।

ये तो छोड़िए कि इससे आप दूसरों को कितना नुकसान पहुँचा रहे हो। सबसे पहले तो इससे ये पता चलता है कि आपको ही धर्म नहीं मिला आज तक। ये जो चला है किसी दूसरे को कन्वर्ट कराने, मैं तो इसे रोककर पूछना चाहता हूँ कि बेटा, जो भी तेरा धर्म है, तू पहले ख़ुद तो उसमे कन्वर्ट हो जा। (श्रोतागण हँसते हैं)

ये जो तू इतनी दौड़ लगा रहा है कि पाँच उधर के लोगों को कन्वर्ट कराऊँगा — या इसी तरह लोग दौड़ लगाते हैं कि कन्वर्जन चल रहा है उनको रोकूँगा। मैं इनको रोककर पूछना चाहता हूँ, उसको तो कन्वर्ट बाद में करना, पहले तू तो अपने ही धर्म में कन्वर्ट हो जा; तू ख़ुद कहाँ धार्मिक आदमी है। हाँ, ऊपर ऐसी संख्या गिनने से ऐसा लग रहा है कि इतने लोग इतने धर्म के हैं, नहीं है। ये छोड़ो अभी कि दुनिया में कितने ईसाई हैं, क्या मुसलमान, क्या हिन्दू अभी जब हमने आँकड़े बोले थे, वो सब आँकड़े फ़र्जी हैं।

सच ये है कि दुनिया में सच्चे धार्मिक लोग, कुल मिलाकर के अगर दो-चार हज़ार भी आपको मिल जाएँ तो गनीमत है। सच्चे धार्मिक लोग, नहीं फ़र्क पड़ता कि हिन्दू है, ईसाई है, मुसलमान है, क्या है, कुछ नहीं। सच्चा धार्मिक आदमी अगर कुल मिलाकर आपको दो-चार हज़ार मिल जाएँ तो बड़ी बात है। ये बस गिनती की बात है कि सौ करोड़ हैं कि दो-सौ-चालीस करोड़ है, कोई नहीं हैं दो-चार सौ करोड़। किसी के पास कोई धर्म नहीं है, ये सब नकली लोग हैं।

प्र२: इस पर ये तर्क भी देते हैं कई बार कि लोग ही नहीं रहेंगे तो धर्म कैसे रहेगा?

आचार्य: अरे भाई! लोग ही नहीं रहेंगे, माने कहाँ चले गये लोग? जो इंसान का बच्चा पैदा होता है, वो एक छटपटाहट के साथ पैदा होता है, ठीक है? और उस छटपटाहट को मिटाना ही धर्म है। चूँकि वो छटपटाहट हर बच्चे में होती है और सदा से रही है इसलिए वास्तविक धर्म को ‘सनातन’ भी कहा जाता है। क्योंकि वो सदा से है फ़र्क नहीं पड़ता कि बच्चा कहाँ पैदा हुआ है — अफ्रीका में पैदा हुआ, अमेरिका में पैदा हुआ है, चीन में, भारत में पैदा हुआ, यूरोप कहीं भी पैदा हुआ है।

जो बच्चा पैदा हुआ है, चाहे वो लड़का हो, चाहे लड़की हो, गरीब के घर हो, अमीर के घर हो, राजा के घर हो; किसी के घर हो, वो जब पैदा होता है न, तो कहता है, ‘क्या हो गया मेरे साथ?’ और छः महीने से साल भर का होते-होते उसका व्यवहार जानवर के बच्चे से बिलकुल अलग होने लग जाता है। वो इधर-उधर देखता है, चीज़ों को जानने की कोशिश करता है। और उसे भाषा सिखा सकते हो आप, जानवर के बच्चों को भाषा नहीं सिखा सकते।

भाषा आती है, विचार आ जाते हैं, विचार आता है, कौतूहल आ जाता है, जिज्ञासा आ जाती है। जिज्ञासा आ जाती है पोल बड़ा बुरा लगता है। जिज्ञासा शान्त नहीं होती सब जिज्ञासाओं के केन्द्र में ये सवाल होता है कि मै हूँ कौन जो यहाँ फँस गया। ‘मैं हूँ कौन? मैं हूँ कौन?’ ये प्रश्न है धार्मिक प्रश्न — ‘मैं हूँ कौन?’ और ये प्रश्न तो रहेगा। ये जिस दिन तक इंसान है, उस दिन तक इंसान में छटपटाहट रहेगी, दुख रहेगा और ये जिज्ञासा रहेगी यही तो धर्म है, धर्म कैसे मिट जाएगा? और यही सनातन धर्म है, मिट कैसे जाएगा?

असल में एक बड़ी भारी समस्या ये है, जिसको समस्या बोलना है तो समस्या बोल लो, चुटकुला बोलना है तो चुटकुला बोल लो कि दुनिया के वो लोग जिनके पास धर्म है ही नहीं, ये तो छोड़ दो कि उनके पास धर्म नहीं है, वो सचमुच धर्म से खार खाते हैं। भीतर-ही-भीतर वो धर्म से बहुत घबराते हैं, डरते हैं। भीतर-ही-भीतर उन्हें धर्म से एक तरह की रंजिश है। यही वो लोग हैं जो धर्म को बचाने का ठेका उठाए हुए हैं। और बहुत नारे लगाते हैं, बहुत शोर मचाते हैं, कहते हैं, 'धर्म ख़तरे में है, धर्म बचाना है। धर्म ख़तरे में है, धर्म बचाना है।' ये दुनियाभर में हो रहा है, ये सब समुदायों में हो रहा है कि जिन लोगों के पास धर्म है ही नहीं और जिन्हें धर्म से सच पूछो तो कोई लेना-देना नहीं है, वो लोग धर्म के ठेकेदार बने हुए हैं और शोर मचाते हैं कि धर्म ख़तरे में और हम बचाएँगे धर्म को।

तुमने अपने घर में तो धर्म बचाया नहीं है, तुमने अपने दिल में तो धर्म बचाया नहीं है, तुम दुनिया में क्या धर्म बचाओगे! धर्म सर्वप्रथम यहाँ (हृदय की ओर इंगित करते हुए) बचाया जाता है, ख़ुद धार्मिक हो करके। तुम ख़ुद तो धार्मिक हो नहीं, तुम दुनिया में धर्म क्या बचाओगे! लेकिन यही पूरी दुनिया में चल रहा है। निन्यानवे-दशमलव-नौ-नौ प्रतिशत सम्भावना रहती है कि जिस आदमी को आप पाएँ कि बड़ा भारी धार्मिक हुआ जा रहा है, एकदम कट्टरपन्थी हुआ जा रहा है वो आदमी स्वयं धर्म से कोसों दूर है।

जो आदमी जितना ज़्यादा अपने धर्म को लेकर के आपको कट्टर दिखाई दे, उतनी ज़्यादा सम्भावना है कि वो आदमी धर्म से उतना ज़्यादा दूर होगा। ये विडम्बना है समय की।

प्र३: सर, आजकल एक बहुत बड़ा परसेंटेज एथीस्ट बन रहा है, नास्तिक। तो क्या ये अच्छी चीज़ है तो मतलब एक तरह से देखा जाए जो लोग धर्म का अनुकरण ही नहीं कर रहे तो क्या इसको एक अच्छा पैमाना माना जाए कि लोग एथीस्ट बन रहे हैं।

आचार्य: नहीं, वो धर्म से दूर नहीं हो रहे हैं, वो धार्मिक कहानियों से दूर हो रहे हैं। फिर समझो धर्म क्या चीज़ है? धर्म का अर्थ है इंसान बनना सही। इंसान जो जानना चाहता है, समझना चाहता है, अपने बन्धनों को हटाकर के खुलकर जीना चाहता है, ये होती है धार्मिकता। ज़्यादातर लोग जो एथीस्ट बनते हैं, वो कहते हैं कि तुम जिन कहानियों में विश्वास करते हो हम उन कहानियों को ठुकरा रहे हैं, ये उनका एथिज़्म होता है।

तो जो एथीस्ट हैं, कोई पक्की बात नहीं है कि वो धार्मिक नहीं है। बिलकुल हो सकता है कि वो अपनेआप को एथीस्ट बोलता हो लेकिन सच्चे अर्थों में धार्मिक हो। और बिलकुल हो सकता है कि जो अपनेआप को धार्मिक बोलता है, वो एकदम धार्मिक न हो। भई, बहुत सारे धर्म हैं जो बोलते हैं कि तुम हमारे धर्म को अगर मानते हो तो सबसे पहले कुछ कहानियों में विश्वास करो। कहते हैं कि बिलीफ़ पर चलो बिलीफ़ पर। और वो अपने अनुयायियों को कहते भी यही हैं, 'बिलीवर्स'।

एक धर्म है उनकी अपनी कोई बिलीफ़ हो जाएगी और बिलीफ़ तो बिलीफ़ तो मानता हूँ। क्यों मानता है, मेरी किताब में लिखा है। ये कोई तर्क नहीं हुआ, ये कोई तर्क नहीं हुआ। इसमें कोई जिज्ञासा नहीं है, कोई समझ नहीं है, ये तो बुद्धू बनने का काम है न कि मैं तो मानता हूँ, मैं तो मानता हूँ। तो तुम कुछ मान लो, तुम कुछ और मान लो, तुम बता दो तुम्हारा कुछ और धर्म है। आप कुछ और मान लीजिए, मैं कुछ और मान लूँ और फिर चारों अपना सिर फोड़ लें आपस में। और दुनिया में यही हुआ है धर्म के नाम पर।

धर्म बिलीफ़ पर चला है। और आज का जो आदमी है वो बिलीफ़ को मानने को तैयार नहीं है, वो कहता है मेरे दो सवालों का जवाब नहीं दे सकते तुम। हर सवाल के जवाब में तुम्हारे पास इतना ही है कि यकीन करो न! ‘विश्वास करो न! ये तो आस्था की बात है,’ तो हम नहीं मान रहे। ज़्यादातर लोग जो एथीस्ट हो रहे हैं वो विकसित, शिक्षित देशों से आ रहे हैं। आप पाओगे कि एथिज़्म कहाँ ज़्यादा है, तो आप पाओगे यूरोप में ज़्यादा है, जापान में ज़्यादा है, अमेरिका में बढ़ रहा है। इन देशों में एथिज़्म बढ़ रहा है।

चीन में भी पर दूसरे कारणों से है, उसका कारण अलग है तो वहाँ पर क्यों इतना बढ़ा हुआ है क्योंकि वहाँ पर लोग अब अन्धविश्वास ही नहीं रहे, मैं यूरोप और जापान की बात करूँ तो वहाँ लोग अन्धविश्वास नहीं रहे। उनके पास ज्ञान है, उनकी आँखें खुली हुई हैं, वो दुनिया को देख रहे हैं उनके पास टेक्नोलॉजी है। वो कुछ भी मानने से पहले कुछ सवाल पूछना चाहते हैं। वो कह रहे है, 'मुझे बता तो दो।' और जब वो सवाल पूछते हैं, तो जो धार्मिक आदमी है वो कहता है, 'मेरे पास कोई जवाब नहीं है, बस मेरी बात मान लो।' कहें, क्यों मान लो, कहते हैं, जस्ट बिलीफ़। क्यों, क्योंकि किताब में लिखा है, या हमारी परम्परा रही मानने की।

कह रहे हैं कि अरे भाई, परम्परा तो ठीक है या किताब में भी लिखा है पर आपके पास कोई कारण है, कोई तर्क है, मेरी जिज्ञासा का कोई समुचित उत्तर है। कि नहीं वो नहीं है हमारे पास तो इस कारण से लोग एथीस्ट हुए जा रहे हैं। कह रहे हैं, ‘अरे, हम ऐसे कुछ भी थोड़े ही मान लेंगे, बुद्धू समझ रखा है क्या, कुछ भी मान लें!’ तुम कह देते हो, ऐसा हुआ, फिर ऐसा हुआ, ऐसा हुआ कोई कहानी सुना देते हो। हम बच्चे है क्या कि कहानी सुने और कहानी मान लें। तो इसलिए एथीस्ट हो रहे हैं।

एथीस्ट होने का मतलब ये नहीं है कि वो आदमी धार्मिक नहीं है। ज़्यादा सम्भावना ये है कि एथीस्ट हो रहा है तो ज़्यादा धार्मिक है। क्योंकि उसके पास एक जगी हुई चेतना है, जो सवाल कर रही है उसके सवालों के जवाब नहीं मिल रहे तो कह रहा है, जाओ मैं तुम्हारा धर्म नहीं मानता। अब तुम मुझे नास्तिक बोलते हो तो बोलो, काफ़िर बोलते हो तो बोलो, मैं नहीं मानता तुम्हारा धर्म।

तो ज़्यादा सम्भावना इसी की है कि आपको जब आपके सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे, आपका जो तथाकथित धर्म होगा जब वो जीवन के व्यवहारिक, मुद्दों और चुनौतियों का कोई जवाब ही नहीं दे पा रहा होगा तो आप कहोगे कि भाड़ में जाए ऐसा धर्म, क्या करना है इस धर्म का। तो लोग फिर धर्म को विकसित जगहों पर और शिक्षित जगहों पर ठुकरा रहे हैं।

जिस धर्म को ठुकरा रहे हैं, उस धर्म को आप जानिएगा कि वो बस मान्यताओं का एक पुलिन्दा था। वो कहानियों की एक किताब थी जिसको ठुकरा दिया गया। वो परम्पराओं की एक श्रृंखला थी जिसको किनारे कर दिया, रिजेक्ट कर दिया, नहीं मानते इस श्रृंखला को।

समझ में आ रही बात?

तो जो ये एथीस्ट बढ़ रहे हैं, कल को आपको ये भी दिखाई दे सकता है कि सच्ची धार्मिकता बढ़ रही है। जो एथीस्ट है वही सच्चे अर्थों में धार्मिक है, ये भी आपको दिखाई दे सके। मैं नहीं कह रहा कि सारे एथीस्ट सच्चे अर्थों में धार्मिक हैं पर हम इस तरह का एक है, इस तरह का एक बड़ा अधकचरा, सिम्प्लिस्टिक डिविजन कर देते हैं — थीस्ट वर्सेज एथीस्ट। हम कहते हैं, जो मानता है वो धार्मिक है और वो जो उधर है, एथीस्ट है, नास्तिक है, वो अधार्मिक है। नहीं, नहीं, नहीं; ऐसा ज़रूरी नहीं है। मैं कहना चाह रहा हूँ कि जो एथीस्ट है, उसमें हो सकता है जिज्ञासा ज़्यादा हो, सजगता ज़्यादा हो। और ये जो जिज्ञासा है, जो जानना, जो बोध से प्रेम है यही धर्म के केन्द्र में होता है, यही धर्म की जान होता है। तो हो सकता है एथीस्ट ज़्यादा धार्मिक आदमी हो।

प्र२: तो सर कई बार लेकिन ये भी देखा जाता है कि जो एथीस्ट है, वो धर्म में जो कुरीतियाँ हैं उसके साथ-साथ वास्तविक धर्म से भी दूर चले आते हैं।

आचार्य: तो ये तो बड़े दुर्भाग्य की बात है, बड़े दुर्भाग्य की बात है। कोई उदाहरण के लिए कहे कि मैं हिन्दू धर्म ठुकरा रहा हूँ, क्योंकि मुझे जो अन्धविश्वास हैं, और जो प्रथाएँ-परम्पराएँ नहीं चाहिए। और इसके साथ-साथ वो उपनिषदों को और गीता को और अष्टावक्र गीता को भी ठुकरा दे तो ये बहुत बड़े दुर्भाग्य की बात हो गयी, बड़ा ग़लत हो गया। और इसीलिए मैं जो सब एथीस्ट लोग हैं उनसे बोला करता हूँ कि डोंट थ्रो द बेबी आउट विथ द बाथ वाटर। ठीक है? गेहूँ के साथ ये न हो कि घुन भी पिस जाए।

तुम कहते हो कि धर्म में जातिप्रथा है तो हमने धर्म को ठुकरा दिया, ठीक जातिप्रथा को ठुकरा दो। तुम कहते हो धर्म में फलाने तरह की असमानता है, हमने ठुकरा दिया, अन्धविश्वास है उसको ठुकरा दिया, ठीक है अन्धविश्वासों को बिलकुल ठुकराओ, ज़रूर ठुकराना चाहिए। लेकिन तुम कहोगे, इन सबके साथ-साथ मैंने अष्टावक्र गीता को भी ठुकरा दिया, मैंने दर्शन को, फिलोसॉफी को — क्योंकि भारत में अध्यात्म और दर्शन एक साथ चले हैं। तो मैंने अध्यात्म के साथ-साथ दर्शन को भी ठुकरा दिया, तो ये तुमने बड़ा गजब कर दिया, ये ग़लती हो, ये नहीं होनी चाहिए।

प्र२: इसको रोकने के लिए फिर धर्म में सुधार करना होगा?

आचार्य: नहीं, इसको रोकने के लिए जो धर्म का काम होता है न, वो सामने लाना पड़ेगा; हर आदमी उसी का प्यासा है। वो अभी हम धर्म की मशाल की बात कर रहे थे न, जो रात में प्रज्वलित होती है। और जब प्रज्वलित होती है, तो दूर-दूर तक लोगों को दिखाई देती है, सब आ जाते हैं। तो वैसी कहीं मशाल जले तो सही, जब जलती है तो सफल भी हो जाती है।

प्र२: सर, दुनिया के हर धर्म में भगवान, गॉड या अल्लाह की मान्यता रहती है। तो इस बारे में मैं आपसे जानना चाहूँगा कि धर्म और भगवान, गॉड , अल्लाह इसका क्या रिश्ता है?

आचार्य: नहीं, कोई विशेष रिश्ता नहीं है। और दुनिया के सब धर्मों में ऐसा भी नहीं है कि किसी क्रिएटर , ईश्वर की मान्यता रहती ही है; ज़्यादातर धर्मों में, सब धर्मों में नहीं है। देखिए, धर्म का सम्बन्ध इंसान से है, भगवान से नहीं है। ये एक बहुत मूल बात है, इसको सब लोग बहुत ध्यान से समझ लें। धर्म का सम्बन्ध इंसान के दुख से है। हमने बात करी माँ के गर्भ से बच्चा पैदा होता है, उसमें छटपटाहट होती है या ज्ञान होता है। और प्रकृति में अकेला इंसान है, जिसके भीतर बेचैनी होती है, उसको बेचैनी हटानी है। और बेचैनी हटाने के सही चुनाव को ही धर्म कहते हैं। हम ये सब बातें करी न? इन सब बातों में भगवान कहीं पर आया क्या? तो ये एक बड़ी हमारी अज्ञान की बिलीफ़ है कि धर्म का सम्बन्ध भगवान से है, नहीं है। अब अभी हम कह रहे थे कि भारत में अध्यात्म और दर्शन साथ चला आया। तो आपके षड् दर्शन हैं, छः दर्शन हैं।

ये जो दर्शन हैं सब इनका जो लक्ष्य है, को लक्ष्य क्या होता है? उनका लक्ष्य होता है, मनुष्य की मुक्ति, उनका लक्ष्य भगवान इत्यादि नहीं होता है। आप पूछेंगे तो वेदान्त के पास जाएँगे या योग के पास जाएँगे, उनसे पूछेंगे कि क्या है, इस पूरे दर्शन का लक्ष्य क्या है? ये सारी बातें क्यों बता रहे हो। तो उत्तर आएगा — मुक्ति, मुक्ति। किसकी मुक्ति? अहंकार की मुक्ति। तो अहंकार की मुक्ति धर्म का उद्देश्य होती है, धर्म का उद्देश्य भगवान नहीं होता।

ऐसे समझिए कि धर्म का सम्बन्ध हमसे है किसी और से नहीं है। मैं सोचने वाला हूँ, मैं कौन हूँ? सोचने वाला हूँ — ईगो , थिंकर मैं हूँ। और बाक़ी सब चीज़ें क्या हैं, जिनके बारे में मैं सोचता हूँ। ये, ये मेज़ है इसके बारे में मैं सोचता हूँ, ये मेरी इन्द्रियों का विषय है, ये मेरे लिए एक ऑब्जेक्ट है। इसी तरीक़े से भगवान के बारे में भी मैं सोचता हूँ। आप सोचते हो न, भगवान के बारे में।

सोचो आप भगवान के बारे में सोच सकते हो, और भगवान के बारे में बहुत सारी कहानियाँ भी कह सकते हो। ठीक वैसे, जैसे आप इस मेज़ और इस कुर्सी के बारे में बहुत सारी कहानियाँ कह सकते हो। तो वो सब ऑब्जेक्ट्स हुए, वो ऑब्जेक्ट्स हैं। धर्म का सम्बन्ध किसी ऑब्जेक्ट से नहीं है, सब्जेक्ट से है। सब्जेक्ट मतलब मैं, थिंकर। थॉट का ऑब्जेक्ट नहीं, मैं किस बारे में सोच रहा हूँ, इससे धर्म का नहीं ताल्लुक है। कौन सोच रहा है, सोचने वाला कौन है, ये सब्जेक्ट , ये है। इंसान से धर्म का सम्बन्ध है, किसी और से नहीं।

बात समझ में आ रही है न?

और बड़ी समस्या हो जाती है जब हम भूल जाते हैं कि धर्म का पहला ताल्लुक मुझसे है, मैं परेशान हूँ इसलिए मुझे धर्म चाहिए। जब हम बाहर किसी दिशा में देखने लगते हैं, मान लीजिए मैं आसमान की दिशा में देखने लग गया, मुझे बता दिया गया है वहाँ ऊपर वाला रहता है, वो ऊपर वाला रहता है — ऊपर है, लोक है, परलोक है, सात आसमान है, है न? वो मरने के बाद भी कुछ होता है, आफ्टर लाइफ़ होती है या स्वर्ग-नरक, या जन्नत और इस तरह की हैवन-हेल चलता है। और ये सब मुझे बता दिया गया है तो मैं किस बारे में सोच रहा हूँ अब, मैं उस बारे में सोच रहा हूँ, अब मैं उस बारे में सोच रहा हूँ। वो ऊपर क्या चल रहा है, या पाताल में क्या चल रहा है मैं वो सब सोच रहा हूँ, ये तो दुनियादारी हो गयी न। आप भले ही ये बोल दो दूसरी दुनिया है, पर है तो कोई दुनिया ही, तो ये दुनियादारी ही हो गयी न।

धर्म का ताल्लुक दुनियादारी से नहीं है न इस दुनिया से न उस दुनिया से, धर्म का सम्बन्ध इससे है (स्वयं की ओर इशारा करते हुए) 'मैं' से। वो जो सब दुनियाओं का विचार करता है। लोक कितने भी हों, हैं तो लोक ही — एक लोक, दो लोक, तीन लोक, चार लोक; हैं तो लोक ही न। कोई भी दुनिया हो आप कहे, ये दुनिया, अगली दुनिया, पिछली दुनिया, है तो दुनिया ही। और उन सब दुनियाओं के बारे में कौन बात कर रहा है, कहानी कह रहा है, विचार कर रहा है? मैं कर रहा हूँ और मैं ही फँसा हुआ हूँ, मैं ही परेशान हूँ।

धर्म का सम्बन्ध मेरी मुक्ति, मेरे निर्वाण से है। दुनिया में क्या दुनियाबाज़ी चलेगी, वो दुनिया जाने, उससे नहीं धर्म का मतलब है, दुनियादारी से धर्म को क्या लेना-देना। और ये भी दुनियादारी में ही आता है कि मरने के बाद कौनसी दुनिया शुरू होगी, वो भी दुनियादारी में ही आता है। और जैसे इस दुनिया में आपके स्वार्थ होते हैं, वैसे दूसरी दुनिया में आपके स्वार्थ होते हैं। तो यहाँ बैठे-बैठे आप अनुमान लगाते हो, दूसरी दुनिया में वो दूध की नदियाँ बह रही हैं, और ये चल रहा है, वो चल रहा है। कोई कुछ बोलता है, ’एन्जल्स हैं, कोई फरिश्ते दिखाई दे रहे हैं, हूरे घूम रही हैं, अप्सराएँ हैं,’ ये सब, ये सब चलता है न! वो भी तो स्वार्थ की बातें हो गयी न सारी।

जैसे इस दुनिया में आप स्वार्थ पकड़ रहे, वैसे ही उस दुनिया में आप स्वार्थ पकड़ रहे। तो दुनिया से नहीं ताल्लुक है, ऑब्जेक्ट से नहीं ताल्लुक है धर्म का। धर्म का सम्बन्ध सब्जेक्ट से है, ‘मैं-मैं-मैं,’ इससे। मैं परेशान हूँ, मैं भ्रमित हूँ, मैं मोहित हूँ और मैं बन्धन में हूँ, मुझसे धर्म का ताल्लुक है। तो अगर इतनी-सी बात लोगों को समझ में आ जाए कि धर्म इंसान से सम्बन्ध रखता है, धर्म भगवान से नहीं सम्बन्ध रखता, तो धर्म के क्षेत्र में क्रान्ति हो जाएगी।

हमने क्या करा है कि हमने धर्म का मतलब भगवान से जोड़ दिया है और इंसान को भूल गये हैं। अब वो इंसान जिसकी हालत ख़राब है, वो अपनी ख़राब हालत पर ध्यान ही नहीं दे रहा है, वो बस भगवान-भगवान रटे जा रहा है। और जो वो रट रहा है और जो उसने अपने मन में कहानियाँ बना रखी है, वो सब उसकी अपनी कहानियाँ हैं। और वो आदमी ख़ुद ख़राब हालत का है तो उसकी कहानियाँ भी बड़ी ख़राब है। लेकिन वो उन कहानियों में फँसा हुआ है। वो अपनी दुर्दशा की ओर ध्यान ही नहीं दे रहा है। तो धर्म फिर पीछे हो जाता है, ये धर्म की हार हो गयी।

समझ में आ रही है बात?

धर्म का सम्बन्ध मुझसे है, मुझसे 'मैं' से; अहम् की मुक्ति, ठीक है? और भूलिएगा नहीं कि बाक़ी सब आप जितनी बातें करते हैं, वे आपने ही करी हैं। और आप ही आधे पागल हैं तो आपकी करी हुई बातों को कितनी इज्ज़त दी जा सकती है। हम सब आधे पागल लोग हैं, कम-से-कम अपने बारे में तो कह सकता हूँ (अपनी ओर इशारा करते हुए) ठीक।

तो हम सब जब आधे पागल लोग हैं, तो हमने जो दुनियाभर में अपनी बिलीफ़ रच ली है, सब बिलीफ, बिलीफ़ का खेल चल रहा है। तो हमने दुनियाभर में अपनी सब बिलीफ़ जो खड़ी कर ली हैं, उन बिलीफों को हम बहुत क्या इज्ज़त देने जाएँ।

आप एक पागल खाने में घुसे हैं, वहाँ सब पागले हैं। ये तो आप मानते हो दुनिया पागल है? आप एक पागल खाने में जाएँ वहाँ सब पागल हैं वहाँ दुनियाभर की वो अपनी कहानियाँ लेकर बैठे हुए हैं। एक बोल रहा है, ‘मैं बन्दर हूँ’। एक बोल रहा है, ‘मेरे सात पिछले जन्म थे’। एक बोल रहा है, ‘मैं अगले जन्म में बस पहुँचने ही वाला हूँ, कयामत का दिन आ गया है और मुझे जन्नत मिलेगी, और वहाँ पर तमाम हूरे होंगी, ये होगा।’ इनकी बातों को आप कितना महत्त्व दें, कितना सम्मान दें, ये पागल हैं। ठीक? हम इनकी बातों के बारे में बात करें या पहले इनके पागलपन का इलाज करें?

प्र१: पागलपन का इलाज करते हैं।

आचार्य: हाँ, तो धर्म हमारे पागलपन का इलाज है। धर्म मनुष्यता की विक्षिप्तता का उपचार होता है। धर्म में कहानियों के लिए बिलीफ़ और मान्यताओं के लिए कोई जगह नहीं होती। कि आप मानकर बैठ जाओ ऐसा तो है ही, क्यों है क्योंकि वहाँ लिखा है। ऐसे नहीं चलता धर्म। हम पागल हैं और इस पागल को इलाज की ज़रूरत है, इसको धर्म कहते हैं।

पागल खाने जाकर आप पागलों की कहानियाँ सुनने लग गये और उन कहानियों में आप भी उलझ गये तो आप उन पागलों से ज़्यादा बड़े पागल हो। आपका काम है पागलों की कहानियाँ न सुनना और उनके दिमाग का इलाज करना — इसे धर्म कहते हैं। और पागलों के जितने विश्वास होंगे, चूँकि वे पागल है तो सब-के-सब अन्धविश्वास ही तो होंगे। लेकिन कोई अन्धविश्वासी अपनेआप को कभी अन्धविश्वासी मानता है क्या? वो बस कहता है, मेरे विश्वास हैं, वो ये नहीं कहता कि ये सब विश्वास बस अन्धविश्वास हैं। जब तक हम यहाँ से (सिर की ओर इशारा करते हुए) स्वस्थ नहीं हैं, केन्द्रित नहीं हैं, आत्मस्थ नहीं हैं तब तक हम बस अन्धविश्वासों में ही जिएँगे। उसी को हम धर्म का नाम दे देंगे।

प्र: सर, नीत्शे (जर्मनी के दार्शनिक) ने कहा था कि 'गॉड इज़ डेड' (भगवान मर चुका है)। तो क्या ये सही समय आ गया है कि जो पूरा कॉंसेप्ट है, गाॅड का, भगवान का इसको छोड़ दिया जाए।

आचार्य: नीत्शे को बड़ा गुस्सा आया था, नीत्शे को बड़ा गुस्सा आया था। नीत्शे ने जर्मनी का बड़ा पतन देखा था, बड़ी दुर्दशा थी, जर्मनी की पिटाई हो गयी थी, आसपास के जो राज्य थे, जो जर्मनी से भी छोटे-छोटे थे, वो जर्मनी के हिस्से लेकर बैठ गये थे, और गॉड की बड़ी वहाँ पर मान्यता चलती थी क्रिश्चिएनिटी में और धार्मिक देश था जर्मनी। वहाँ के जितने जवान लोग थे, उनसे पूछो कि भाई जर्मनी अपनी पुरानी गरिमा कब वापस पाएगा, ‘ये जो जर्मनी के साथ अन्याय हुआ है, ये कैसे ठीक किया जाएगा?’ तो जवान लोग भी बोलते थे, वो तो जब गाॅड चाहेगा तब हो जाएगा, जब गाॅड चाहेगा तो हो जाएगा। बात-बात में यही — 'जैसी गॉड की मर्जी, जैसी गॉड की मर्ज़ी।' तो नीत्शे को बड़ा गुस्सा आया, तब ऐसे ही सब जवान लोग घूम रहे थे, नीत्शे भी पढ़ाया करते थे, तो उन सबको इकट्ठा किया एक दिन चौराहे पर और वहाँ पर ऐसे ही करके जैसे पुतला-सा बनाया कुछ और उसको जला दिया। और बोले कि जर्मनी के चौराहे पर आज मैंने गाॅड को ख़त्म कर दिया है, आज मैंने गाॅड को ख़त्म कर दिया है। अब इंसान ज़िन्दा हो सकता है क्योंकि जब तक वो गाॅड था न, इंसान नहीं ज़िन्दा हो पा रहा था।

इंसान बात-बात में बोलता था, ’गाॅड ने करा है, गाॅड ने करा है’। गाॅड ने कुछ नहीं करा है, सब करने वाले तुम हो। अपनी ज़िन्दगी अपने हाथों में लो, ये कहा नीत्से ने। अपनी ज़िन्दगी अपने हाथों में लो, यही एग्ज़िस्टेंशियलिज़्म है। अपनी ज़िन्दगी अपने हाथों में लो, तुम्हारे पास चुनाव का अधिकार है। तुम्हारे पास चुनाव का अधिकार है।

ये बात एग्ज़िस्टेंशियलिस्ट से बहुत-बहुत पहले वेदान्त में पायी जाती है, समस्त अध्यात्म का ही यही आधार है। चाहे वेदान्त की बात हो, चाहे बुद्ध की बात हो, चाहे कहीं और से बात आई हो, संतों की बात हो। तुम्हारे पास चुनाव का अधिकार है और तुम गॉड की बात बार-बार करके ये कह देते हो कि मेरा तो कुछ नहीं है, गॉड का है; मेरा तो कुछ नहीं है गाॅड का है। तो नीत्शे ने कहा, गाॅड को मैंने मार दिया इस चौराहे पर, आज से गॉड ख़त्म। अब खड़े हो जाओ और अपनी खोई गरिमा, अपने राष्ट्र की खोई गरिमा दुबारा लौटाकर लाओ।

अब ये अपनेआप में एक अतिवादी बात हो गयी थी। ठीक है? एक्सट्रीम चीज़ हो गयी, ये कह देना कि गाॅड को ही मार दिया 'गॉड इज़ डेड' आप लेकिन ये तो समझिए पूरा गाॅड कंसेप्ट है, ये क्या है? कहाँ से आ रहा है? और इसका असर क्या पड़ता है? और धर्म का और गाॅड का क्या सम्बन्ध है?

ये जानना बहुत ज़रूरी है, धर्म और गॉड समानार्थी नहीं है, सिनोनिम्स नहीं है। धर्म का सम्बन्ध, हम दोहरा रहे हैं, धर्म का सम्बन्ध अपनेआप से है। और जिसको आप गाॅड इत्यादि कहते हो, वो आपकी ही एक बात है। ये बहुत लोगों को बहुत बुरी लगेगी और इस बात का बड़ा विरोध होगा। अभी मैंने कह दिया है लेकिन जिनको भी बुरी लग रही हो उनसे मैं बिलकुल विनम्र निवेदन कर रहा हूँ कि थोड़ा बात पर मेरी विचार करिएगा! कि देखिए हर धर्म, हर धारा, हर पन्थ, हर समुदाय, हर सम्प्रदाय, अपने-अपने हिसाब से, अपने-अपने ईश्वर, गॉड , अल्लाह, देवी-देवताओं की, एंजल्स की गाॅड -गाॅडसेस की बात करता है न। और उन सबको क्या बोलता है, यही परम शक्तियाँ हैं। अब जो परम होंगे वो चार-पाँच तो होंगे नहीं या हो सकते हैं? क्योंकि अगर जो परम है वो चार-पाँच है तो वो सब सीमित हो जाएँगे न, सब एक-दूसरे को कंस्ट्रेन्ट कर देंगे।

मैं कहूँ कि जो ट्रुथ है या जो फंडामेंटल रियलिटी है वो पाँच-सात, अलग-अलग हैं, हिन्दू की अलग है, मुस्लमान की अलग है, इसाई की अलग है। अगर सबकी अलग-अलग हैं तो कोई भी इनफाइनाइट नहीं हो सकती न! क्योंकि इनफाइनाइट तो अलोन होता है अगर तीन फंडामेंटल ट्रुथ हो गये तो तीनों एक दूसरे की सीमा बन जाएँगे। और जो सीमित हो गया वो तो इस संसार का हो गया। फिर वो फंडामेंटल भी नहीं है, फिर वो ट्रुथ भी नहीं है। इसी संसार में चीज़ें होती हैं, जब सीमित होती है जो सीमित है, उससे हमें चैन मिलता नहीं। तो इस तरह की परिकल्पनाएँ करना कि ऐसा होता है, वैसा होता है और किस्से-कहानियाँ और ये-वो इससे बात बनती नहीं है।

सच्चा धार्मिक आदमी वो है जो आत्म-अवलोकन करे, जो अपनेआप को देखे, अपनी ज़िन्दगी को देखे। मन की निर्मलता ही मुक्ति है, वही धर्म का सर्वोच्च आदर्श है, मन की निर्मलता, वही धर्म का सर्वोच्च आदर्श है। हाँ, मन की निर्मलता को ही कुछ लोगों ने भगवद्-प्राप्ति भी कह दिया है। अगर भगवद्-प्राप्ति से आपका आशय मन की निर्मलता है तो ठीक है, तो ठीक है।

प्र १: जी सर, आपने जैसे कितनी बार यही बताया कि पूरा धर्म मेरे ऊपर टिका है, 'मैं कौन हूँ?' तो मतलब एक ये जो सवाल है, मैं अपने जीवन से उठाकर पूछ रहा हूँ। कि मुझे अगर शुरुआत करनी हो और मुझे देखना हो, मुक्ति की ओर बढ़ना हो। मैं खा रहा हूँ, पी रहा हूँ, उठ रहा हूँ, बैठ रहा हूँ, मेरे अपने काम हैं। मैं उसमें मुक्ति कहाँ तलाशूँ?

आचार्य: तुम खा रहे हो रोते हुए, तुम पी रहे हो कल्पते हुए, तुम उठ रहे हो हाय-हाय करते हुए, तुम सोने जा रहे हो तुम्हें नींद नहीं आ रही, इन्हीं सब चीज़ों से तो मुक्ति चाहिए। धर्म! फिर कह रहा हूँ, धर्म का सम्बन्ध हमारी अपनी आन्तरिक व्यथा से है। हम परेशान हैं, हमें उससे, परेशानी से मुक्ति चाहिए, यही धर्म है। स्वर्ग नहीं, नर्क नहीं, परलोक नहीं, बढ़िया वाला पुनर्जन्म नहीं, धर्म का उद्देश्य इनमें से कोई भी नहीं होता। कोई कहे, ‘मैं धार्मिक हूँ ताकि अगला जन्म बढ़िया मिले, कोई कहे मैं धार्मिक हूँ ताकि स्वर्ग मिले, कोई कहे मैं धार्मिक हूँ ताकि पुण्य कमाऊँ और कल उसका अच्छा कर्मफल मिले’, इनमें से कोई भी धार्मिक आदमी नहीं है। धार्मिक आदमी बस वो है, जो कहे, ‘इस पल में मुझे बन्धन हैं और मुझे इसी पल में मुक्ति चाहिए’।

इसलिए भारत में बड़े से बड़ा जो आदर्श रहा है आध्यात्मिक, वो रहा है जीवन मुक्ति का। जीवन मुक्ति से बड़ा आदर्श नहीं होता। स्वर्ग-नरक ये सब कोई भी जीवन मुक्ति से बड़े नहीं होते, कोई भी नहीं। जीवन मुक्ति का क्या अर्थ है? देह रहते हुए मुक्त हो जाना। देह है और हम भीतर से मुक्त हो गये। जीवन मुक्ति ही धर्म का अन्तिम आदर्श है, जीवन मुक्त।

तो संतों ने गाया है — “जीवन मुक्त सोई मुक्ता हो” मुक्त वही जो जीवन मुक्त है ”हीं तो सुख दुख भुगता हो”। जो जीवन मुक्त है, वही वास्तव में मुक्त है नहीं तो बस वो सुख-दुख का भोगी भर है। “जीवन मुक्त सोई मुक्ता हो, नहीं तो सुख दुख भुगता हो।”

प्र: सर, धर्म का नैतिकता से क्या सम्बन्ध है?

आचार्य: नीति का क्या मतलब होता है, पॉलिसी। कब क्या करना चाहिए? कब क्या नहीं करना चाहिए? पहले से तय कर लो, ये पॉलिसी है। ऐसी स्थिति में ऐसा करना है इसको नीति कहते हैं। ऐसी स्थिति में ऐसा करना है इसको नीति कहते हैं। ठीक है न? तो जब आपके पास आँखें नहीं होती है तो आपको नीति की ज़रूरत पड़ती है।

सच्चे धार्मिक आदमी का जीवन एक सद्यजात नैतिकता जैसा होता है, स्पोंटेनियस नैतिकता। उसको किसी किताब की ज़रूरत नहीं पड़ती कि कोई किताब आकर उसको बताएगी कि डूज़ डोन्ट्स क्या है, वर्जित क्या है, और अनुमत क्या है। वो उसको इसकी ज़रूरत नहीं पड़ती है।

ये हल्के लोग होते हैं, ये भीतर से जो खोखले लोग होते हैं, उनको बार-बार किताबें देखनी पड़ती हैं कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए, किस स्थिति में क्या नहीं करना चाहिए। जो आदमी धार्मिक हो जाता है, उसके भीतर ही वो रोशनी जग जाती है जो उसे हर स्थिति में रास्ता बताती है। लेकिन जो आदमी अभी जगा नहीं है, उसको मोरैलिटी के कुछ नियमों की ज़रूरत पड़ती है। उन नियमों को आख़िरी नहीं मानना चाहिए। कहना चाहिए कि वे नियम ऐसे हों कि उसको जगने में सहायता दें, वे नियम ऐसे हों कि जल्दी-से-जल्दी वो उन नियमों के पार निकल सके। जीवन भर वे नियम ही मानने पड़ गये तो वे नियम ही व्यर्थ गये न। जीवन भर नियम ही मानने पड़ गये तो नियम ही व्यर्थ गये। नियमों का तो उद्देश्य ही यही होना चाहिए कि ऐसी नैतिकता पर चलो कि जल्दी ही किसी नैतिकता की ज़रूरत पड़े ही नहीं।

प्र२: कह सकते हैं कि प्रकृति में जो भी आपको मुक्ति तक ले जा रहा वही नियम है।

आचार्य: हाँ बस, बस, बस। आपके लिए अच्छा क्या है? जो आपको अच्छा होने में मदद करे वो आपके लिए अच्छा है। मैं बुरा हूँ, मैं पैदा ही बुरा हुआ था। जो कुछ भी मुझे अच्छा होने में मदद करेगा, उसको मैं कहूँगा वो अच्छा है। वो मेरे लिए हो गया डू और जो कुछ भी मेरी बुराई को बढ़ाएगा वो मेरे लिए बुरा है, वो मेरे लिए हो गया डोंट , ये नैतिकता हो गयी, यही मेरी मोरैलिटी हो गयी। मैं भीतर से उलझा हुआ आदमी हूँ, परेशान हूँ और स्वार्थी हूँ और कपटी हूँ जो कोई मेरे स्वार्थ को और कपट को, उलझाव को कम करेगा वो चीज़ या वो इंसान मेरे लिए अच्छा हो गया, ये मेरी मोरैलिटी है। जो भी मेरे कपट को, स्वार्थ को और अन्धेरे को बढ़ाएगा वो चीज़ या वो इंसान या वो जगह या वो घटना मेरे लिए बुरी हो गयी ये मेरी मोरैलिटी है, नैतिकता।

प्र३: सर, इसी संदर्भ में मैं जानना चाहूँगा कि धर्म और विज्ञान का आपस में रिश्ता क्या है? हमने देखा है कि पहले तो धर्म सामान्यतया विज्ञान के विपरीत था, और अब ऐसा देखा जा रहा है कि जो धार्मिक लोग हैं वो अपनी बातों को सच दिखाने के लिए कहते हैं कि विज्ञान भी यही कहता है।

आचार्य: नहीं, कोई सम्बन्ध ही नहीं है। विज्ञान का ताल्लुक है सारे ऑब्जेक्ट से, अभी हमने सब्जेक्ट ऑब्जेक्ट की बात करी थी न, गॉड को लेकर। तो विज्ञान का ताल्लुक है सारे ऑब्जेक्ट से, और धर्म है बात इस सब्जेक्ट (मैं) की मुक्ति की। तो जिन लोगों को न साइंस पता होती है, न स्प्रिचुएलिटी पता होती है वही स्प्रिचुएलिटी में साइंटिफिक जार्गन घुसेड़ने की कोशिश करते हैं। तो कहते हैं, 'क्वांटम फिजिक्स से अब सिद्ध हो रहा है कि जो बात हम कहते हैं, वही ठीक है।'

और दुनिया भर के जो साइंटिफिक टर्म्स होते हैं कि वाइब्रेशन को उठा लिया, बेवलेंथ को उठा लिया, फ्रीक्वेंसी को उठा लिया, और उसको लाकर के ये सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि देखो, हम जो बात कह रहे हैं, उसको साइंस ने भी अप्रूव करा है तो हमारी बात ठीक है। अरे, स्प्रिचुएलिटी को साइंस के अप्रूवल की क्या ज़रूरत है, भाई! दोनों का क्षेत्र अलग है। विज्ञान पूछता है, ‘वो क्या है?’ अध्यात्म पूछता है, ‘मैं कौन हूँ? दोनों का क्षेत्र बड़ा अलग-अलग है, तो विज्ञान को अध्यात्म में घुसाने की कोई ज़रूरत नहीं है।’

प्र१: जो लोग कहते हैं कि साइंस इज़ माई रिलीजन वो भी मतलब वो भी पागल हैं।

आचार्य: वो भी पागल हैं, तुम साइंस कितनी भी आगे बढ़ा लो उससे तुम्हें आत्मज्ञान थोड़े ही हो जाएगा। मैं कौन हूँ? ये बात तुम्हें विज्ञान आकर थोड़े ही बताएगा। ये बात तो बहुत ऑनेस्ट , सेल्फ़ ऑब्जर्वेशन , आत्मावलोकन से ही पता चलेगी और विज्ञान में ऐसी कोई चीज़ होती नहीं है, स्वयं को जानना, विज्ञान भी बहुत ईमानदार क्षेत्र है। विज्ञान में तुम कभी नहीं पाओगे कि 'आई' की बात हो रही है, 'मैं' की बात हो रही है। विज्ञान बिलकुल साफ़-साफ़ कहता है, मैं जगत की बात करता हूँ, जैसा जगत मुझे दिख रहा है। पर किसको दिख रहा है ये जगत, इसको लेकर विज्ञान मौन हो जाता है।

विज्ञान इस क्षेत्र में जाता ही नहीं है कि जिसको दिख रहा है वो कौन है? विज्ञान इसमें जाता है कि वे रोशनियाँ दिख रही है, वो रोशनियाँ क्या हैं? वो जो हैं वो खगोलीय जो पिंड हैं, बड़े-बड़े सेलेस्टियल बॉडीज़ — वो सब क्या हैं? विज्ञान इसकी तहक़ीकात करेगा, पर किसको दिख रहा है ये सब, विज्ञान इस प्रश्न को उठाता ही नहीं हैं। तो विज्ञान भी ठीक चीज़ है, अपनेआप में बहुत ईमानदार है। अध्यात्म का क्षेत्र है, ये पूछना — ‘मैं कौन हूँ? वो जो द्रष्टा है इस पूरे जगत का वो कौन है?’

प्र३: सर, हालाँकि आपने ये बात कही भी फिर भी मैं और गहरा समझना चाहूँगा कि जब भी धर्म की बात होती है तो पुनर्जन्म की बात तो होती ही होती है, हम कोई भी सम्प्रदाय लें। तो इनके बीच का क्या?

आचार्य: अरे भाई, धर्म ये जानने में है कि यही जन्म झूठा है अगला जन्म कहाँ से आ जाएगा। अगला जन्म तो तब होगा न, जब पहले ये वाला जन्म हो। जो है ही नहीं वो अपने अगले जन्म की बात कर रहा है। उससे पूछो तेरा ये वाला जन्म कब हुआ। जिसका आज नहीं है वो अपने कल की बात कर रहा है। अपने बीते हुए कल की भी और आने वाले कल की भी। हम आज ही ज़िन्दा नहीं हैं, हमें अगला जन्म कहाँ से मिल जाएगा। लोगों को बड़ा बोलना आता है कि अगला जन्म नहीं होता। मैं पूछता हूँ, ‘किसका? तुम मुर्दे हो, तुम अभी ही ज़िन्दा नहीं हो, तुम अगले जन्म में कैसे पहुँच जाओगे।’ कोई नहीं ज़िन्दा है, सब मृत हैं, सब प्रकृति की प्रक्रियाएँ मात्र है। प्रक्रियाओं को हम जीवित कैसे बोल दें।

मैं ये कुर्सी का हथा इसे मैंने ऐसे मारा (हाथ से मारते हुए) तो इसने आवाज़ करी। तो हम क्यों नहीं बोलते कि ये ज़िन्दा है इसने अभी-अभी आवाज़ करी। जैसे ही हत्था आवाज़ कर रहा है न, इस पर किसी का आघात हुआ ये बोल पड़ा, वैसे ही अभी मैं तुम्हारे मन पर कोई चोट कर दूँ, तुम चिल्ला दोगे मुझ पर। तो तुम में और इस कुर्सी में क्या अन्तर है कोई अन्तर नहीं है। कुर्सी को तुम ज़िन्दा बोलते नहीं, तो तुम ज़िन्दा कैसे हो गये। मैं कुर्सी पर चोट करता हूँ तो कुर्सी आवाज़ कर देती है। मैं किसी इंसान पर भी चोट अगर कर दूँगा, हाथ से नहीं शब्द से, तो इंसान भी बोल पड़ेगा, भड़क जाएगा। तो कुर्सी में उस इंसान में अन्तर क्या है? मैं कैसे बोल दूँ, इंसान ज़िन्दा है। हम ज़िन्दा हैं ही नहीं।

हम पैदा तो होते हैं पर हम जीवित नहीं होते। और जीवन का फिर इसीलिए उद्देश्य है — जीवित हो पाना। धर्म का उद्देश्य है — आपको जीवन दे देना। माँ आपको देह देती है, जीवन नहीं दे पाती। माँ से आपको देह मिलती है। धर्म से आपको जीवन मिलता है। और जिसको जीवन मिल जाता है वो जान जाता है कि अगला-पिछला जन्म कुछ नहीं होता। और जो अभी ज़िन्दा नहीं है वो बहुत ज़्यादा बात करते हैं, अगले पिछले जन्म की। जो अभी ज़िन्दा ही नहीं है वो बात करते हैं कि मरने के बाद क्या होगा।

कहते हैं, ‘मरने के बाद एक दरबार लगेगा, फ़ैसला होगा हमारा। मरने के बाद दरबार लगेगा और तुम्हारा फैसला होगा, तुम तो अभी ही मरे हुए हो, तुम चलती-फिरती लाश हो। संतों ने गाया है, “साधो रे ये मुर्दों का गाँव” — यहाँ ज़िन्दा है कौन? और ये अपनेआप को बोलते हैं कि हम ज़िन्दा हैं। और इनको बड़ा डर लगता है मौत से, मरे हुए मुर्दे को मौत से डर लगता है ये देखो अचम्भा। “एक अचम्भा देखिया” — मुर्दा मौत से घबरा रहा है, मौत से भी घबरा रहा है और अगले जन्म की बात भी कर रहा है। तू अभी तो पैदा हो ले।

जो तुम्हें अभी पैदा कर देता है उसका नाम धर्म है। और जब धर्म तुम्हें पैदा करता है तो तुम्हें अगले जन्म की ज़रूरत नहीं पड़ती, उसको अमरता कहते हैं। जो माँ की कोख से पैदा हुआ, वो पैदा ही नहीं हुआ वो मुर्दा है, तो उसका यही जन्म नहीं है अगला जन्म कैसे होगा। और जो धर्म की कोख से पैदा हुआ उसे अगले जन्म की बात करनी नहीं पड़ती क्योंकि वो अमर रहता है।

प्र३: तो सर, ऐसा क्यों हुआ कि बिना ये जाने जो धर्म बना है, सम्प्रदाय बना है उन्होंने पुनर्जन्म की बात की है?

आचार्य: खिलौना! झुनझुना है।

प्र: कोई तो कारण होगा?

आचार्य: यही तो है, तुम बच्चे हो, तुम्हें झुनझुना चाहिए, तुम परेशान रहते हो। जैसे तुम लगातार कल, कल, कल की बात करते हो वैसे ही तुम्हें मौत के बाद भी अभी एक कल चाहिए। भविष्य से तुम कभी बचते हो क्या? भविष्य के ही तो हर समय तुम्हारे मन में ख़्याल चलते रहते हैं और भविष्य ही तुम्हारा इंजन है, वही तुम्हारे से काम करवाता है। तो इंसान एकदम ही अनाचारी, दुराचारी, बलात्कारी न हो जाए। तो उसको मरने के बाद भी एक भविष्य बता दिया कि मरने के बाद भी भविष्य चलता रहेगा, कुछ और होगा। तो उससे इंसान ज़रा काबू में रहता है, उल्टे-सीधे काम नहीं करता, बस यही बात और कुछ भी नहीं।

इतनी हमने कभी चेतना पायी ही नहीं कि हम कुछ बहुत सीधी-साधी, स्पष्ट बातें भी समझ पाएँ। हम बड़े बुद्धू लोग रहे हैं। हम अपने ही दुश्मन रहे हैं। तो फिर हम किसी तरीक़े से बस ज़िन्दगी अपनी काट दें घिसट-घिसटकर, इसके लिए हमको ये सब बातें बता दी जाती हैं कि ऐसा होगा फिर वैसा होगा, ये होगा, वो होगा। क्या होगा? जो बुरे से बुरा हो सकता है हमारे साथ वो तो अभी हो रहा है। आगे क्या अच्छा, क्या बुरा होगा! हम जगे हुए लोग नहीं हैं, हमें सच्चाई पता नहीं हैं, हम बेहोश जी रहे हैं, इससे बुरा क्या हो सकता है। हम अपने ही यथार्थ से परिचित नहीं हैं। मैं नहीं जानता कि ये जो मेरे भीतर बोल रहा है 'मैं' ये है चीज़ क्या, इससे बुरा क्या हो सकता है।

पूरे के पूरे धर्म हैं और बड़े-बड़े सम्प्रदाय वो दुनिया भर की बातें करेंगे और न उनकी बातों में, न उनकी किताबों में, कहीं भी 'मैं' का उल्लेख है। सेल्फ़ जैसी कोई चीज़ वहाँ आती ही नहीं। कि दुनिया भर की बातें हो रही हैं, ये है, उस आसमान पर वो चीज़ बैठी हुई है और ये वहाँ पर फलाना घूम रहा है, और ये भूत है, प्रेत है, जिन्न है, हूर है, फरिश्ता है, पचास तरह की चीज़ें चल रही हैं। उनसे पूछो, 'मैं' की कोई बात हुई है? ये ‘मैं’ कौन है? ये भीतर से कौन बोल उठता है? उसकी कोई बात ही नहीं हो रही है। जब इस तरह की चीज़ें होती हैं न तो फिर हमें झुनझुने चाहिए होते हैं।

भारत का दुनिया को सबसे जो बड़ा योगदान रहा है, उसको कहते हैं 'आत्मा'। भारत ने विश्व को 'आत्मा' दी है। ये बात लेकिन भारतीय भी समझ नहीं रहें। हम पचास तरह की और चीज़ें गिनते रहते हैं और जो भारत का सर्वोच्च योगदान है, उससे हम स्वयं ही वंचित हैं 'आत्मा'। आत्मा माने भीतर जो मुर्दा है उसका ज़िन्दा हो उठना। अहंकार माने वो जो परिस्थिति जन्य है, जो प्राकृतिक है, जो बस प्रक्रियाओं से बन जाता है, जो बाहरी प्रभावों की निर्मित्ति है उसको कहते हैं, अहंकार। जो है ही नहीं मिथ्या है, झूठ-मूठ का ‘मैं-मैं-मैं’ करता रहता है बकरी की तरह, उसे बोलते हैं अहंकार, वो मुर्दा है। आत्मा माने जीवित हो उठना, आत्म माने होता है 'मैं', आत्मा माने सच्चा ‘मैं’; ‘मैं’ जीवित हो उठा।

भारत ने विश्व को आत्मा दी है माने भारत ने विश्व को जीवन दिया है। लेकिन भारतीयों को ख़ुद ही नहीं पता आत्मा क्या? वो भी धर्म का मतलब किस्से-कहानियाँ पकड़कर बैठ गये हैं, सब अन्धिश्वास बन गये हैं और आत्मा का भी उन्होंने उल्टा मतलब निकाल लिया है। आज किसी से पूछो, आत्मा क्या होती है? वो कहते हैं भीतर एक चिरैया होती है, मरो तो फुर्र से उड़ जाती है, उसको आत्मा बोलते हैं। कहते हैं, ‘क्या करती है फुर्र से उड़ कर?’ बोलते हैं, ‘जाकर कोई स्त्री होती है गर्भवती उसके पेट में घुस जाती है, उसको आत्मा बोलते हैं।’ भारतीयों ने आत्मा का ऐसा अनर्थ कर डाला। क्या धार्मिकता?

प्र: सर, मैं पुनर्जन्म वाले प्रश्न को थोड़ा और आगे बढ़ाऊँगा। आपने बताया कि उसका एक उपयोग था क्योंकि आम आदमी है उसको हम पुनर्जन्म का कॉन्सेप्ट देंगे तो वो कंट्रोल में रहेगा और यही कारण था कि उसको लाया गया। हम काफ़ी समय से देख रहे हैं कि आप बार-बार जोर देते हैं कि आपने समझाया भी है कि नहीं है। तो कंसिडरिंग सिचुएशन ऐसा है कि आम आदमी को इतना विवेक ही नहीं होता, उसको ये बात तो आप इसको इतना स्ट्रॉंगली प्रोफेस (पुरज़ोर विरोध) कर रहे हैं तो इसका क्या कारण है?

आचार्य: नहीं समझा, क्या बोल रहे हैं?

प्र१: कहना चाह रहे हैं कि जो तर्क है, वो तो यही है कि ये जो चीज़ है, ये सुपरस्टिशन है, अन्धविश्वास है और आप इसका भरसक विरोध करते हैं लेकिन जब तथ्य यही है कि आम आदमी का विवेक इतना है ही नहीं कि वो असली बात को समझ पाए।

आचार्य: इतना होता नहीं है, चुनाव होता है, तुम पकड़ ही नहीं रहे हो। देयर इज़ नो गिवन, देयर इज़ ओनली ए चॉइस। (कुछ भी दिया हुआ नहीं है, सबकुछ सिर्फ़ एक चुनाव है) आम आदमी अविवेकी होता नहीं है, उसने अविवेकी होना चुना होता है, होता नहीं है, चुना होता है। तो तुम किसी भी चीज़ को फैक्ट नहीं बोल सकते वो एक च्वाइस है जो कि कभी भी बदल सकती है लेकिन बदले तो तब न जब थोड़ा उसको कहीं, थोड़ी रोशनी आ जाए, हल्का-सा सहारा दे दो। कुछ तो थोड़ा-सा कर दो, चारों ओर से उसके ऊपर चढ़ बैठे हो और उसको उल्टी ही पट्टी पढ़ा रहे हो, और वो ख़ुद भी बेहोश है, ख़ुद भी वो ऐसा ही है पाशविक तो वो अपने उल्टे-सीधे निर्णय लेता रहता है।

प्र१: तो मतलब आपको इस बात पर पूरा यक़ीन है कि अगर लोगों को ये ऑप्शन या ये द्वार दिखाया जाए तो वे निश्चित ही चुनेंगे।

आचार्य: कोई एक घटना नहीं है लगातार करना होगा। तुम दिखाओगे कुछ सही चुनेंगे, कुछ ग़लत चुनेंगे। जो सही चुनेंगे, सम्भावना है वो कल दोबारा ग़लत चुन लें। जो ग़लत चुनेंगे अभी उम्मीद है कि कल वो सही चुन सकते हैं। तो ये एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।

धर्म कोई एक दिन की बात नहीं होती कि तुम्हें एक दिन हिन्दू घोषित कर दिया या चर्च में लाकर इसाई बना दिया कि आज तुम इसाई बन गये, नहीं। तुम्हें, धार्मिक रोज़ बनना पड़ता है। तुम्हें रोज़ चुनाव करना पड़ेगा कि आज मुझे धार्मिक रहना है ये रोज़ की बात है। कोई एक दिन कुछ कर लेने से तुम धार्मिक नहीं हो जाते। न तुम किसी हिन्दू घर में पैदा होने से सनातनी हो जाते हो। वो रोज़ एक चुनाव की बात है।

प्र२: इसे ही साधना कहते हैं?

आचार्य: यही साधना है। पूरा जीवन और क्या है, साधना के अलावा और क्या है जीवन! और यही होती है साधना रोज़-रोज़। रोज़ प्रतिक्षण सही निर्णय लेना। मुक्ति के पक्ष में निर्णय लेना ही साधना है। और नहीं कोई साधना होती, बाक़ी सब मनोरंजन है।

प्र२: सर, हम धर्म को ग़लत हाथों में पड़ने से या ग़लत उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल होने से कैसे बचाएँ?

आचार्य: पहले ख़ुद को बचा लो, फिर तुम खड़े हो गये धर्म को बचाने के लिए। मुझे ये बड़ी आफ़त की बात लगती है, हर आदमी धर्म को बचाना चाहता है। अपना कुछ ठिकाना नहीं, अपना कुछ पता नहीं। तुम अपने भीतर धर्म को बचा लो, धर्म बच जाएगा। धर्म बहुत बड़ी चीज़ है, धर्म को तुम्हारी सेवाओं की कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हें शोर मचाने की कोई ज़रूरत नहीं कि धर्म ख़तरे में है, धर्म ख़तरे में है। धर्म अगर कहीं ख़तरे में है भी तो तुम्हारे भीतर वो ख़तरे में है, तुम अपने भीतर धर्म को बचा लो। ठीक है? जैसी प्रकृति है और जैसा मनुष्य है, मनुष्य को अगर पागल नहीं रहना है तो धर्म तो बचेगा। धर्म नहीं बचा तो आदमी पागल हो गया। ठीक है? तो धर्म तो बचेगा तुम अपनेआप को बचाओ।

प्र३: सर, लेकिन हमने सुना भी कि कहा जाता है कि “धर्मो रक्षति रक्षत:”, कि जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।

आचार्य: तो और क्या बोला अपने भीतर धर्म को बचाओ न, बाहर जाकर थोड़े ही धर्म को बचाना है। धर्म का किससे उद्देश्य है फिर से दोहराओ इससे (ख़ुद की ओर इशारा करते हुए), ‘मैं’ की विक्षिप्तता को दूर करना ही धर्म है। हाँ, ये, ये (मैं) इसकी विक्षिप्तता, इसके पागलपन को दूर करना ही धर्म है। तो “धर्मो रक्षति रक्षत:” का भी क्या मतलब हुआ? यहाँ, यहाँ धर्म की रक्षा करो, ठीक है? तो तुम्हारी रक्षा हो जाएगी। तुम्हारी रक्षा का इसके अलावा और कोई तरीक़ा नहीं कि तुम इसकी रक्षा करो, इसकी परिभाषा धर्म है। इसकी जो रक्षा करेगा, जीवन में उसकी रक्षा हो जाएगी। कहीं बाहर जाकर के कूद-फॉंद करने को, और दंगे करने को, और नारे करने को, या किसी का धर्म परिवर्तन करवाने को नहीं कहते, धर्म की रक्षा करना।

प्र३: क्योंकि ये बात बहुत बार-बार सुनी है तो जैसे ही सुनने में आता है ऐसा लगता है कि हमें…।

आचार्य: बाहर जाना है।

प्र३: हाँ।

आचार्य: बिलकुल, जिसे अपने अन्दर का नहीं पता वो बाहर क्या नारे लगा रहा है। और बाहर अक्सर शोर मचाया ही इसीलिए जाता है, उपद्रव करा ही इसलिए जाता है ताकि अपने अन्दर न देखना पड़े।

प्र३: सर, एक मेरी बहुत जिज्ञासा इस बात पर रहती है कि अब मैं वापस पुनर्जन्म का प्रश्न लेकर आऊँगा। मैं देखता हूँ कि जो भी समकालीन शिक्षक रहे हैं, उन्होंने कभी इस मुद्दे को ज़्यादा हाथ नहीं लगाया या फिर कहीं-न-कहीं बहुत इतना स्पष्ट नहीं बताया। तो मैं मतलब जैसे अभी शुभंकर ने पूछा कि आर वी कॉन्फिडेंट (क्या हमें विश्वास है) कि जो आम आदमी है वो उसको ये बात बताई जाएगी तो उसका सही उपयोग करेगा?

आचार्य: मैं तो ये जानता हूँ कि जो आम आदमी है वो बड़ी ख़राब हालत में है। जो ख़राब हालत में है उसको झुनझुना नहीं दवाई चाहिए। आम आदमी की बड़ी दुर्दशा है। तुम उसकी हालत देखो, उसकी शक्ल देखो, उसकी ज़िन्दगी कैसी ख़राब है। तुम क्यों उसको झुनझुना थमा रहे हो कि ऐसे हो जाएगा, आगे हो जाएगा, ये होगा फिर अगले में ये होगा तो चींटी बनेगा। ये होगा तो राजा बनेगा। क्या ये तुम कर रहे हो खिलवाड़। उसको दवाई दो न। तुम्हें उस पर ज़रा भी करुणा नहीं है, उसकी हालत देखो, वो बेचारा कितना परेशान है। उसका उपचार करो, उसे मनोरंजन मत दो। मनोरंजन से वो थोड़े ही ठीक हो जाएगा।

और उसकी जो अभी ख़राब हालत है उसका क्या कारण है, विक्षिप्त अहंकार। भीतर जो कूट-कूटकर के झूठी मान्यताएँ और धारणाएँ भरी हुई हैं, उन्होंने ही तो हमारी ज़िन्दगी ख़राब कर रखी है न! और उन बेकार की बातों को हटाने की जगह जो भीतर हमने तमाम मान्यताएँ भर ली है बिलिफ़्स। उनको हटाने की जगह हम उसको एक और बिलीफ़ दे देंजेड नेक्स्ट लाइफ़ या आफ्टर लाइफ़ के बारे में। तो इससे उसका कुछ भला होगा बेचारे का? फिर?

प्र१: एक तर्क तो कुछ इस तरह से आता है, जैसे पहाड़ी इलाकों में सब देवताओं को पूजते हैं और कहते हैं कि चोरी मत करना वरना देवता पाप देगा। तो हर आदमी के अन्दर वो लालच बैठा होता है कि कुछ उठा लूँ, कुछ कर लूँ। तो एक स्तर पर ये तर्क रहता है कि ये जो हमने बताया उससे कम-से-कम ये तो फ़ायदा हुआ न कि कल को आदमी चोरी नहीं कर रहा।

आचार्य: वो चोरी नहीं करेगा, कुछ और करेगा। हर तरीक़े के पाप के लिए तुम थोड़े ही नियम बना लोगे। और जब तुम नियम बनाते हो न, फलानी चीज़ का पाप लगता है। तो तुम फिर उस पाप की शुद्धि कैसे करनी है ये भी बता देते हो। तो फिर वो जितने पाप करने होते है करता है और जाकर के मन्दिरों और मस्जिदों में जाकर दान कर आता है कुछ। वो कहता है पाप कर लिए हैं जाकर उसका टैक्स भर तो आया मैं, हो गया, ठीक हो गया।

प्र३: गंगा नहा लिया।

आचार्य: बहुत काम होते हैं, प्रायश्चित कर लिया कुछ और कर लिया, हो गया, ठीक है, चल गया। जीवन की हर स्थिति के लिए तुम नियम कैसे बना दोगे? कैसे बना दोगे? और स्थिति चल क्या रही है उस बेहोश को तो ये भी पता नहीं है। तुम कहोगे ऐसी स्थिति में ये काम करना। वो काम करने के लिए भी सर्व प्रथम ये पता होना चाहिए कि वो स्थिति चल रही है। उसको यही न पता हो वो इतने नशे में हो कि स्थिति क्या चल रही है। तो क्या करोगे तुम।

उदाहरण के लिए, खाना सड़ गया हो तो उसको फेंक देना। अब घूम रहे हैं हमारे बन्धु और वे घोर नशे में हैं और उनको पता नहीं चल रहा कि खाना सड़ गया है, अब क्या करोगे? अब कैसे चलेंगे, तुम्हारे नियम-क़ायदे और नैतिकता। पहली बात तो तुम जीवन की हर स्थिति के लिए नियम तुम बना नहीं सकते, बहुत मोटी हो जाएगी किताब। और तब भी उसमें सब स्थितियाँ नहीं आएँगी और समय बदलता रहता है स्थितियाँ बदलती रहती है नयी-नयी चीज़ें आ जाती तो सब चीज़ों के लिए तुम किताब बना नहीं सकते। और दूसरी बात तुमने बना भी दी तो जो आदमी पागल है, बेहोश है, नशे में है, उसे पता कैसे चलेगा की अभी कौनसी स्थिति चल रही है।

प्र१: और वो उन पर अमल कैसे करेगा!

आचार्य: और पता भी चल गया कि क्या स्थिति चल रही है और उसको कहा गया कि फेंक दो। तो फेंक दो का अर्थ ये भी तो लगा सकता है कि इधर फेंक दो (मुँह में डालने का इशारा करते हुए)। अरे! क्या किया? फेंक दिया। अन्दर फेंक दिया। कुछ भी कर सकता है, इतनी धार्मिक किताबें हैं। देखा नहीं है इंसान ने उनके कैसे उल्टे-सीधे अर्थ किये हैं, अपने स्वार्थ के अनुसार? एक-एक किताब के बीस-बीस, अलग-अलग तरीक़े से अर्थ किये गये हैं अब बीस अर्थ तो नहीं हो सकते और एक ही अर्थ होगा और जो एक अर्थ है वो कोई नहीं करना चाहता। बीस अर्थ करे हैं और बीसों झूठे अर्थ करे हैं। क्योंकि बीसों अर्थ बस अपने स्वार्थ और अपनी धारणा को सिद्ध करने के लिए करे हैं!

प्र१: अपने पागलपन को जायज़ ठहराने के लिए।

आचार्य: अपने पागलपन को जायज़ ठहराने के लिए। आपने उस किताब का भी उल्टा अर्थ कर दिया। तो होश के अलावा कोई इलाज नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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