श्रोता: सर, आख़िरी बात क्या है?
वक्ता: कुछ नहीं! कोई बात ही नहीं है! इसीलिए, वहाँ पर भी रुक गए तो कोई विशेष गलती नहीं कर दी। आख़िरी बात है कि कुछ है नहीं बात करने के लिए। चुप हो जाओ।
अष्टावक्र गीता में सत्य की जो बात की गयी है, उसे पढ़ने से ऐसा लग सकता है कि कहीं सत्य कुछ है और कहीं छुपा हुआ है। किसी किताब में लिखा हुआ है, कहीं से मिल जायेगा, कोई ख़ुफ़िया राज़ वगैरह है। नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। वह जानने की वस्तु नहीं है। यह तो भाषा की मज़बूरी है कि कहना पड़ता है, “ज्ञानी को सत्य का पता है”। पर ये पढ़ने में वैसे ही लगता है जैसे, “मुझे किराने की दूकान पता है, मुझे पता है कि मेरे चप्पल कहाँ रखे हैं, मैं अपने चाचाजी को जानता हूँ, मुझे शेयर मार्केट के भाव पता हैं, मुझे पता है कि कौन किससे मिल रहा है”। तो उसी तरीके से लगता है, ये भी तो कहा जा रहा है कि “ज्ञानी को सत्य का पता है”। नहीं, ये भाषा की भूल है। ज्ञानी को सत्य का पता नहीं है। कोई सत्य नहीं है जिसे जाना जा सके। उसकी अगर आप तलाश कर रहे हो कि कहीं छुपा है, कोई ख़ुफ़िया, किसी कब्र के नीचे, किसी सुरंग में, नदी के तल में, किसी किताब में, किसी महात्मा से कुछ ऐसा मिल जायेगा, तो कुछ नहीं मिलेगा।
श्रोता: तो हम जिसे आत्म-बोध बोलते हैं, उसका मतलब क्या हुआ?
वक्ता: (मुस्कुराते हुए) उसका मतलब होता है कि ज़ोर से हँसने लगो, हा-हा करके।
(सभी हँसते हैं)
उसका मतलब होता है कि फ़ालतू इधर-उधर दौड़ लगाई; कुछ है ही नहीं। जैसे कि बच्चों को बोल दिया जाए कि “ट्रेज़र-हन्ट है, खज़ाना ढूँढ़ना है तो दौड़ो। जानते हो ना कि ट्रेज़र-हन्ट में क्या होता है? दौड़ते हैं तो आप पहली जगह पहुँचते हैं, वहाँ पर कोई सुराग मिलता है दूसरी जगह पहुँचने का, फ़िर आप वहाँ से दूसरी जगह पहुँचते हैं, वहाँ पर कुछ और चिन्ह छोड़े गये होते हैं, संकेत छोड़े गए होते हैं कि आप वहाँ से कहीं और पहुँचे और समझिये कि ऐसे में कोई आख़िरी संकेत आपको ये मिले कि “अरे, क्यों दौड़ रहा है फालतू”? और आप ज़ोर से हँसने लगें, तो ये है आत्म-बोध। कुछ है ही नहीं खोजने के लिये। कुछ है ही नहीं पाने के लिये। यही है आत्म-बोध। अब सवाल उठता है कि तो फ़िर धर्म क्या है?
धर्म यह है कि पहले ज़ोर-ज़ोर से यकीन दिलाओ कि है और अन्त में राज़ खुले कि “अरे! कुछ नहीं है”। जो है सामने है, जी लो, मस्त हो जाओ। इसलिये कहते हैं ना कि जो जान जाता है वह बच्चे जैसा हो जाता है। उस बात को अब समझो । यही सरलता है, सरलता का यही अर्थ है, ‘जान जाना’ और कुछ नहीं।
एक बार एक ट्वीट की थी “द ऑन्ली रियल गॉड इज़ द वन दैट अथिस्ट वर्शिप्स , ग्लोरी टू दैट गॉड” ।
सिर्फ़ वही जिसने जान लिया कि ‘नहीं है’ , सिर्फ़ उसी ने उसे जान लिया। तो परम को तो सिर्फ़ नास्तिक ही जान सकता है, जिसने पूरी नेति-नेति कर डाली हो। जो ये आम धार्मिक होता है, ये तो सिर्फ़ अन्धविश्वासों में जीता है। वह किसी मूर्ति को पकड़ कर बैठा है, उसकी पूजा कर रहा है, किसी छवि को पकड़ कर बैठ गया है, दो-चार शब्द इधर-उधर से उठा लिये हैं और उनको पकड़ कर बैठ गया है। उसको जानने के लिये परम नास्तिक होना बहुत ज़रूरी है। *जब परम नास्तिक, धार्मिक़ होता है ना,* *तब धार्मिकता फलती है । जिसने पहले गहराई से पूरी जान लगाकर ज़ोर से चिल्लाकर कहा हो- “नहीं है” ,* *अगर वो एक दिन बोल पड़े कि- ‘है’*, तब समझिये किसी ने जाना है। जो बचपन से ही कह रहा हो- “है! है! है! है!” और तुम पैदा ही हुए हो रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में, जहाँ दिन-रात तुमने भजन-कीर्तन, आरतियाँ ही देखी हैं, मूर्तियाँ देखीं हैं, तो तुम तो कहोगे ही कि “है”। तुम्हारे इस कहने की दो कौड़ी की भी कीमत नहीं है। तुम्हारे ‘है’ कहने की कोई कीमत नहीं है। पहले ज़ोर से कहो ‘नहीं है’, फ़िर अगर कभी कह पाते हो कि ‘नहीं है’ से आगे भी कुछ सम्भावना है, तब बात बनी।
श्रोता: जैसे सर, विवेकानन्द ने नास्तिक धर्म चुना था।
वक्ता: नास्तिक होना ही चाहिये। बिना नास्तिकता के आप बेवकूफ़ियों से मुक्त नहीं हो सकते । जो नास्तिक नहीं होगा वो अन्धविश्वासी हो जायेगा । रुढ़िवादी हो जायेगा। *ग्लोरी टू द गॉड दैट अथिस्ट्स वर्शिप। सो व्हाट इज़ रिलिजन – द आर्ट ऑफ़ ट्रू अथिज्म”। धर्म परम नास्तिकता की कला है *। मज़ा आ गया, इससे सुन्दर परिभाषा नहीं हो सकती।
श्रोता ३: सर,व्हाट इज़ अथिज्म ?
वक्ता: नहीं। पूरी नेति-नेति। कुछ नहीं है, इसलिए बेकार की बातें मत करो।
श्रोता ३: वो अथिस्ट कहता है कि ‘है’?
वक्ता: न, वो नहीं कहता है कि ‘है’, वो हँसना शुरू कर देता है।
श्रोता: नहीं, जैसे अभी आपने कहा कि अगर अथिस्ट कहे कि ‘वो है’।
वक्ता: वो कहेगा नहीं कि ‘वो है’। वो कुछ हो जाएगा, वो हँसना शुरू कर देगा। और वो जो हँसी है ना, वही है भगवत्ता। जिस दिन वो अथिस्ट ज़ोर से हँसता है – दैट ग्रैंड लाफ्टर ऑफ दैट रोर ऑफ़ रियलाइज़ेशन – वही है गॉडहुड, वो ही भगवत्ता है। और वो सोच नहीं रहा है कि ‘वो है’, ऐसा नहीं है कि उसे विचार आ रहें हैं, वो सिर्फ हँस रहा है, *दैट इज़ गॉड, दैट लाफ्टर इज़ गॉड, दैट रियलाइज़ेशन*।
श्रोता: सर,देन व्हाई वी कॉल इट गॉड ?
वक्ता: *डोन्ट कॉल इट गॉड, जस्ट कॉल इट लाफ्टर ऑफ़ रियलाईज़ेशन*। सच्चे अर्थों में सबसे ज़्यादा अधार्मिक आदमी वो होता है, जो ईश्वर में या अल्लाह में यकीन करता है। उससे ज़्यादा अधार्मिक कोई नहीं हो सकता क्योंकि वो नकली आदमी है। वो धोखा कर रहा है। अधार्मिक के लिये शब्द क्या है? धर्म माने- ईमान, तो अ-धार्मिक माने – बे-ईमान! वो धोखा कर रहा है क्योंकि वो बेईमान है। बेईमान ही तो अधार्मिक होता है, बे-ईमान। क्योंकि उसे पता भी नहीं है, फ़िर भी कह रहा है, ‘है’। तुम क्यों जा रहे हो घन्टे-घड़ियाल बजाने? तुम्हें कुछ पता है? ये बेईमानी हुई कि नहीं हुई? तुम्हें पता कुछ नहीं है पर तुम भजन करते हो।
तो अगर आपको वाकई ऐसे लोगों की तलाश है, जो बे-ईमान हों, तो मन्दिरों, मस्जिदों, चर्चों के सामने पहुँच जाईये। वैसे हो सकता है आपको दिक्कत हो जाये उन्हें पकड़ने में, पहचान करने में, पर यहाँ तो वो सब ख़ुद ही एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं। तो वहाँ पर आपको बड़ी आसानी से वो झुण्ड में मिल जायेंगे। वो धोखेबाज़ हैं। उन्होंने जाना नहीं है, फ़िर भी पहुँचे हुए हैं, इसीलिये बे-ईमान हैं।
हम क्लासेज़ में जाते हैं तो देखते नहीं हो, जिनका धर्म से कुछ लेना-देना नहीं होता, उनका हमसे कोई ख़ास विरोध नहीं होता है। जबकि सोचने में ऐसा लगता है कि जब हम ये सब बातें करेंगे तो वो लोग हमारा विरोध करेंगे, जो ये कहते हैं कि ये सब बेकार की बाते हैं। सबसे ज़्यादा विरोध इसका धार्मिक लोग करते हैं। “कैसी बातें कर रहे हैं?” सब खड़े होंगे। क्योंकि धार्मिक-अधार्मिक कुछ नहीं, ये बस रुढ़िवादी है।
श्रोता: सर,हम यहाँ गॉड किसको कह रहें हैं, कोई सुप्रीम पॉवर?
वक्ता: कुछ भी बोलो, जिसको भी बोलो, जो भी बोलोगे आप, सब एक बराबर ही है। आपका शुद्धतम शब्द भी मानसिक ही है। सब एक बराबर है। आप चाहे सुपरस्टीशन बोलो या सुपर पॉवर बोलो, आप जो भी बोलोगे, सब एक है। कोई विशेष अन्तर नहीं है। बोलिये जैसे भी बोलना है आपको । जितनी ही आपको पूरी जान लगा देनी है, वोकैबलरी दिखा देनी है, शब्दकोश खाली कर देना है, सब कर लीजिये, आप एक ही बात बोल रहें होंगे और वो जो आप बोल रहे होंगे, वो झूठा है।
श्रोता: तो सारी दुनिया पर ये जो भी सिस्टम हैं सारे, ये कहाँ से आए हैं?
वक्ता: क्या चल रहा है?
श्रोता: जो भी बैलेंस अपनी जगह पर है? जैसे ग्रैविटेशनल फाॅर्स या और भी कुछ?
वक्ता: हर चीज़ का कारण है और वो हर चीज़ का कारण है। इतना आगे अभी मत जाइए कि वो चल कैसे रहा है, ये पूछिये कि जो चल रहा है या चलता दिखता है, वो है क्या? कुछ होगा तब ना चल रहा होगा? कुछ है भी, जो चल रहा है? पृथ्वी सूरज के चक्कर काट रही है, आपका सवाल है, “कैसे काट रही है? क्या सिर्फ़ ग्रैविटेशनल फोर्स है?” मैं कह रहा हूँ कि पूछो, ‘पृथ्वी है भी ?’ कैसे कह रहे हो कि है? हमारी जो ‘है’ कि परिभाषा है पहले उसपर तो ध्यान दीजिये! ये कहने से पहले कि ‘संसार चलाने वाला कौन है?’, ये तो पूछिये कि ‘संसार है क्या?’ अक्सर ईश्वर के लिये यही तर्क दिया जाता है कि “अगर इतनी बड़ी दुनिया है तो दुनिया को चलाने वाला कोई होना चाहिये”। यही तर्क है ना? मैं कह रहा हूँ- ‘दुनिया है क्या?’, पहले ये तो बताइये, चलाने वाले की बात तो बाद में आती है।
श्रोता: दुनिया तो हमारे समझ से बाहर ही है, जो दिखता है बस वो है।
वक्ता: तो पहले यह देखना होगा कि यह दिखता ही क्यों है और ये ‘हम’ कौन है जो देख रहा है। लेकिन अहँकार देखिये, सवाल हम कहाँ से शुरू करते हैं कि- “दुनिया को चलाने वाला कौन है?” तो इसमें हमने क्या बात पक्की ही मान ली है, कि दुनिया है। दुनिया क्यों है? क्योंकि हमें दिखती है! तो सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है कि, “हम तो पक्के-पक्के हैं। हम पक्के-पक्के हैं तो दुनिया को चलाने वाला कौन है?” तो ऐसे में आप जो ईश्वर खोजकर लाओगे, वो कितना भी ऊँचा हो, आप से छोटा ही होगा। क्योंकि आपने एज़म्पशन ही यही लिया है कि “मैं तो हूँ ही”। अब बताओ दुनिया को चलाने वाला कौन है, बताओ? बताओ? और ‘दुनिया है’ ये बात किसने कही? ये आपने कही। तो इसीलिये आदमी ने आजतक जितने भी ख़ुदा खोजे हैं, वो आदमी से छोटे ही खोजे हैं। आदमी उनकी पूजा करता रहा है, ये कहकर कि ये बहुत बड़े हैं, परम हैं, सुप्रीम पावर हैं लेकिन मन ही मन वह जानता है कि “परम-वरम कुछ नहीं है, हमसे तो छोटे ही हैं”। मन ये जानता रहा है अच्छे से कि मैंने ही तो बनाया है।
दुनिया इसलिए कभी धार्मिक हो नहीं पायी। क्योंकि हमने ये नहीं पूछा कि ‘दुनिया क्या है?’ हम यह पूछते हैं कि ‘दुनिया चल कैसे रही है?’ और अगर पूछेंगे ‘दुनिया क्या है’ तो पूछना पड़ेगा ‘मैं कौन हूँ?’ और ‘मैं कौन हूँ?’ यह पूछना बड़े घाटे का सौदा है, अहँकार को बड़ी चोट लगती है। तो यह जो सारा खेल चल रहा है, यह ईगो का खेल है, उसपर बड़े-बड़े महल खड़े कर दिये गये हैं। लेकिन उसके नीचे वो छोटी-सी ईगो बैठी हुई है और कुछ भी नहीं। बुनियाद उसकी वैसी ही है, जैसे कि कोई बादशाह अपनी हवस को समर्पित करके कोई बहुत बड़ा प्रेम महल खड़ा कर दे और वो प्रेम-महल दिखने में बहुत बड़ा है पर उसकी बुनियाद में क्या है- ऊँची-सी हवस। जैसे कि कोई बादशाह बहुत बड़ा मक़बरा अपने आपको समर्पित कर दे और वो दिखने में तो बहुत बड़ा है पर उसकी बुनियाद में क्या है- एक ऊँची इन्सिक्यूरिटी कि मेरे बाद भी मेरा नाम रहे। ठीक उसी तरीके से हमने बातें बहुत बड़ी-बड़ी कर दी हैं। 50 ग्रंथ आ गये हैं, परमात्मा, गॉड, अल्लाह, पर उन सबके नीचे हमारी गन्धाती हुई ईगो बैठी है। उसको अगर आप हटा दें तो ये जो धर्मों का पूरा सिस्टम है, ये बिल्कुल ढ़ह जायेगा, चरमरा के गिरेगा। ताश का महल है ये, कुछ नहीं रखा है इसमें। देखिए ना, यही हँसने की बात है, मैंने जो कहा वो लाफ्टर है इसमें।
श्रोता: लेकिन धर्म अलग-अलग परसेप्शन हैं, सुपरस्टीशन हैं। धर्म बाँटता है, काटता है, लेकिन अगर धर्म दूसरी तरह से देखा जाये तो “इट इज़ अ कोड ऑफ कन्डक्ट”; जैसे अभी यहाँ बैठे हैं तो ये एक ‘कोड ऑफ कन्डक्ट’ है।
वक्ता: आप अभी भी जो आपकी धारणा है उससे बाहर नहीं आ पा रहे हैं। ध्यान से समझिए। हम देखते हैं, सोचते हैं, तो ये पूछिए ज़रा कि ‘कौन देखता है?’, ‘कौन सोचता है?’; शुरूआत वहाँ से करिए ना? और ये बहुत लॉजिकल बात है, कोई अन्धविश्वास नहीं है। इधर-उधर की बात करें, उससे अच्छा शुरू से ही शुरूआत करें कि ‘ये कौन पूछ रहा है?’, ‘कोड ऑफ कन्डक्ट’ किसको चाहिये? यह पूछिए- किसको? जब ये सवाल सामने आता है तो बुनियादें हिल जाती हैं और बुनियाद में तो सिर्फ़ अहँकार बैठा हुआ है और आप चाहें तो इस पर बहुत बड़ी किताब लिख सकते हैं कि “धर्म अनुशासन में रहने के लिये दी गयी एक दैवीय व्यवस्था है” और बहुत सारे धर्म हैं जो अपनेआप को इसी रूप में देखते हैं कि आदमी का जीवन अनुशासन में बीते, तो इसके लिये उसे एक दैवीय व्यवस्था दी गयी है और उसका नाम ‘धर्म’ है। वो ये नहीं पूछते हैं कि किसको दी गयी है? अनुशासन माने क्या होता है? इन मूलभूत सवालों पर नहीं जायेंगे क्योंकि इन सवालों पर गये तो बेईमानी नहीं चलेगी, वहाँ पर तो ईमानदार होना पड़ेगा।