धर्म के नाम पर कूड़ा || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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धर्म के नाम पर कूड़ा || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी मुझे सोलह संस्कार के बारे में जानना था। कुछ लोग हैं जो पीछे पड़ गए हैं कि सोलह संस्कार में ये है, वो है और तुमको भी उनमें बँधना पड़ेगा। अभी आपने बताया कि उपनिषद् तो यह सब नकारते हैं, कर्मकांड ये-वो। मैंने उपनिषद् पढ़ने की कोशिश की गूगल पर, लेकिन मुझे उतना समझ में नहीं आया।

आचार्य प्रशांत: एक और यह बड़ी भारी समस्या है! सब धर्मों का एक केंद्रीय ग्रंथ है तो आप वहाँ मज़ाक नहीं कर सकते फिर। आप नहीं कह सकते कि ईसाइयत में नाक छिदवाना अनिवार्य है। वो तुरन्त क्या देखेंगे? बाईबल। वो कहेंगे, 'कहाँ लिखा है, बताओ? कहाँ लिखा है, बताओ? ऐसा तो कुछ है नहीं यहाँ पर।' बौद्धों, जैनों, सिखों, मुसलमानों किसी के साथ आप ऐसा नहीं कर सकते। क्योंकि धर्म के केंद्र में हमेशा शास्त्र होता है, हमेशा!

सनातन धर्म की हालत बिलकुल अलग और अजीब है। यहाँ पहली बात तो हज़ारों ऐसी पुस्तकें हैं जिनको शास्त्र बोल दिया गया है और दूसरी बात, उन पुस्तकों के केंद्र में जो पुस्तक है, उसको उतना विशेष सम्मान या विशेषाधिकार नहीं है जितना ईसाइयों में बाईबल को है या मुसलमानों में कुरान को है। आप अगर कहीं पढ़ेंगे तो वहाँ लिखा ज़रूर होगा कि हिंदुओं के केंद्रीय ग्रंथ वेद हैं, लेकिन यह बात बिलकुल किताबी है, किताब में ही लिखी होती है।

अगर आप पाएँ कि सौ ऐसे हिंदू हैं जो कोई धर्मग्रंथ पढ़ रहे हैं, तो उनमें से वेद कितने पढ़ रहे होंगे?

श्रोता: पाँच।

आचार्य: पाँच! (आश्चर्य प्रकट करते हुए) और अगर आप पाएँ कि सौ ईसाई हैं और जो धर्मग्रंथ पढ़ रहे हैं अपना, तो उसमें से बाइबल कितने पढ़ रहे होंगे?

श्रोता: सौ।

आचार्य: आप पाएँ कि सौ सिख हैं जो अपना धर्मग्रंथ पढ़ रहे हैं, तो उसमें से गुरूग्रंथ साहिब कितने पढ़ रहे होंगे?

श्रोता: सौ।

आचार्य: और कुछ है ही नहीं, और किसकी बात करें। एक है! यहाँ (ऋषिकेश में) गीता प्रेस की दुकान पर आप चले जाइएगा और उन्होंने बड़ा अच्छा काम किया है, सब ग्रंथ प्रकाशित कर दिए हैं, वहाँ रखे हुए हैं। और वहाँ आप बिलिंग काउंटर (रसीद केंद्र) पर थोड़ी देर के लिए खड़े हो जाइएगा। और फिर देखिएगा कि कितने लोग वहाँ से वेद लेकर जा रहे हैं।

अब पाँच हज़ार साल पुराना इतिहास और वो भी अफ़गानिस्तान से लेकर के कंबोडिया, इंडोनेशिया तक फैला हुआ। उत्तर में तिब्बत से ले के नीचे लंका तक फैला हुआ और संचार के साधन सुलभ नहीं और अनगिनत छोटे-छोटे समुदाय, तो हर जगह पर न जाने कितने सारे ग्रंथ उग आए। पाँच सौ लोगों का एक झुरमुठ हैं, उन्होंने अपनी किताब निकाल दी। अब वो भी शास्त्र कहला रही है। अभी दो सौ साल पहले कोई आया, कुछ लिख के चला गया; उसको दो-तीन हज़ार अनुयाई मिल गए, उसको भी शास्त्र कह रहे हैं।

सब कुछ शास्त्र है; वेदों के अलावा और उनमें कुछ लिखा भी हो सकता है। और उनमें जो लिखा हुआ है, फ़िर घोषित कर दिया कि यही तो सनातन धर्म है। वो सनातन धर्म कैसे हो गया भाई? आप समझ रहे हैं, कितनी किताबें होंगी? उनमें से तो बहुत सारी मिलती नहीं, नष्ट! पर जितनी बची हुई हैं, वो भी अनगिनत हैं।

एक सम्प्रदाय है जो कह रहा है कि फ़लाने पशु की ही पूजा करते रहो, यही धर्म है। और वो कह रहे हैं, 'सनातन धर्म यही तो कहता है।' एक है जो कह रहा है, 'फ़लाने वृक्ष की पूजा करते रहो, यह स्वयं विष्णु का आदेश है। यही तो धर्म है।' एक कह रहा है, 'सब मूर्तियाँ काली होनी चाहिए, यही सनातन धर्म है।' एक ने अपने तीर्थ कहीं स्थापित कर लिए। एक ने कहीं, एक ने कहीं। एक कोई कह रहा है, 'फ़लाने मंदिर की बहुत बड़ी मान्यता है, यही सनातन धर्म है।'

तो ले-देकर के एक बेमेल, असंगत परंपराओं की भीड़-सी है। जिसमें किसी चीज़ का किसी दूसरी चीज़ से संबंध नहीं, कोई केंद्रीयता नहीं। कोई कुछ भी मान रहा है और कह रहा है, 'यही तो हिंदु धर्म है।'

जबकि बहुत सीधी-सी बात है कि सनातन धर्म मात्र वेदान्त है। बाक़ी जितने भी पुराण और शास्त्र हैं, वो उसी सीमा तक माने जाने चाहिए जिस सीमा तक वो वेदान्त का अनुकरण करते हैं। जिस सीमा तक उनकी बातें वेदान्त सम्मत हैं, उस सीमा तक उनकी बातें मानी जानी चाहिए, अन्यथा सीधे-सीधे अस्वीकार कर देनी चाहिए कि यह बात बिलकुल ठीक नहीं है! हम नहीं मानते!

वेदान्त कह रहा है, 'आत्मा ही सत्य है और बाक़ी जितने तुमको भेद आदि दिखाई देते हैं, वो मिथ्या हैं।' और फिर कोई किताब निकलकर आ रही है आपकी, जो कह रही है, 'नहीं, नहीं, नहीं, इतने वर्ण हैं, इतनी जातियाँ हैं, इतनी उपजातियाँ हैं।' और आप कह रहे हैं, 'देखो, यह बात सनातन धर्म में लिखी है।' तुरन्त हटा दो उस पुस्तक को। क्योंकि वो पुस्तक किसके विरूद्ध बात कर रही है? वो वेदान्त के विरूद्ध बात कर रही है।

सनातन धर्म में वेदान्त का विरोध नहीं चल सकता। जो वेदान्त का विरोध करे, वो सनातन धर्म का विरोध कर रहा है, चाहे वो हिंदुओं की अपनी ही कोई किताब क्यों न हो। और मैं बहुत दुख के साथ आपको बताता हूँ, 'ज़्यादातार जो हमारे ग्रंथ हैं, वो वेदान्त विरूद्ध हैं। ज़्यादातर!' और हम उन ग्रंथों को ख़ूब पढ़े बैठे हैं। कितनी अजीब बात है न, हमारी अधिकांश मान्यताएँ, हमारे ही उपनिषदों के विरूद्ध जा रही हैं।

यह हम क्या कर रहे हैं!

उपनिषदों का तो हमने नाम भी नहीं सुना होता है। भगवद्गीता का तो नाम सुना है? भगवद्गीता का भी वेदान्त में विशेष स्थान है। कृष्ण को तो मानते हैं न? ऋषियों का हमें कुछ पता नहीं, कृष्ण की तो मान्यता है। तब भी अधिकांश हम जिस धार्मिक जीवन को जीते हैं, वो गीता के विरूद्ध है, एकदम विरूद्ध है। और फिर हम तो कहते हैं, 'हम तो धार्मिक हैं।'

आपके पास कोई धर्म को लेकर कोई बात लेकर आए, आप तुरन्त पूछिएगा, ‘गीता में कहाँ लिखा है, बताओ? और गीता में नहीं लिखा है, तो मनगढ़ंत बातें लेकर मेरे सामने मत आओ। अधार्मिक आदमी! जो कुछ भी तुम लेकर आ रहे हो, बताओ, इसका भगवद्गीता से क्या संबंध है? बताओ, इसका बृहदारण्यक उपनिषद् से क्या संबंध हैं? बताओ, इसका वेदान्त सूत्रों से क्या संबंध है? या तो संबंध दिखा दो, नहीं तो सामने से हटो! इस बात को धर्म का नाम मत दो।’

यह सब त्योहार, मेले, ठेले, नागपंचमी, नाग को दूध पिलाना, आप कल्पना कर रहे हैं कि ऐसी बात गीता में या उपनिषदों में लिखी होगी? तो आप क्यों करते हो यह सब? यह क्यों करते हो? बताओ न? जन्म लेने पर सौ तरह के कर्मकांड, मरने पर सौ तरह के कर्मकांड। यह गीता ने सिखाया? उपनिषदों ने सिखाया?

‘कब नहाना है? क्या खाना है? कब बाल मुड़ाना है?‘ यह सब निरालंब उपनिषद ने सिखाया आपको? ऋषि आकर बता गए कि बाल ऐसे-ऐसे मूँड़ो, ऐसे-ऐसे नहाना चाहिए,यह सब करो। ऋषियों की इन सब में रुचि थी? उन्हें मतलब ही नहीं इन बातों से। और हमने इन्हीं बातों को धर्म समझ रखा है। यही तो धर्म है। अपने रीति-रिवाज़ों को देखिए, अपने विवाह संबंधी पंपराओं को देखिए और आपका दिल धक्क से रह जाएगा। आप कहेंगे, ‘इसमें धर्म कहाँ है?’

हमारे विवाह बड़ा लंबा-चौड़ा अनुष्ठान होते हैं। होते हैं कि नहीं? एक दिन नहीं, वो बीस दिन तक चलता है। यह रोका, यह शगुन! यह कृष्ण बता गए हैं? बोलो? यह संगीत, यह तिलक! अष्टावक्र बोल रहे थे कि संगीत होना चाहिए? तो धर्म के नाम पर क्यों कर रहे हो सब? और मैं तो फिर भी अनभिज्ञ हूँ, क्योंकि इन बातों से कब का नाता तोड़ चुका। आपको मुझसे बेहतर पता होगा कि यह सब क्या-क्या चलता है।

और हमारे भीतर ऐसा डर बैठा हुआ है कि समझा भी दूँ, तो कहते हैं, 'कोई अपशकुन न हो जाए! रिस्क कौन ले!' यह कहाँ लिखा हुआ है, शगुन-अपशगुन, कहाँ लिखा हुआ है बताइए? कैसे हो जाएगा? (श्रोताओं से प्रश्न पूछते हुए) कैसे?

कोई आये और बोले कि सूर्यग्रहण जब हो तब सूर्य के उदित होने से पहले कुएँ में सरसों का तेल डालना होता है।

बोला, ’नहीं डालोगे।’

‘ठीक!’

फिर डाल आए। क्यों?

‘हैंऽऽऽऽऽ! वो फ़लाने गुरुजी ने समझाया कि इससे वाटर प्यूरीफाय (पानी का शुद्धीकरण) होता है। वो बोले कि यह एन्टीबैक्टीरियल (जीवाणुरोधी) है। पानी में बैक्टीरिया (जीवाणु) लगा हुआ है। जब तुम यह तेल डाल देते हो पानी में, पानी का सब बैक्टीरिया वगैरह मर जाता है।’

गुरू जी ने समझाया वो भी अंग्रेज़ी में! एक्सेंट (लहज़े) के साथ। तो एकदम मान गए। बिलकुल सही तो बात बोली। कहते हैं, 'आप तो हमारा धर्म ही छुड़वा देना चाहते हैं।' यह धर्म है? सूर्यग्रहण में सरसों डालना कुएँ में? और कुआँ हो न, तो खोदोगे? कुएँ तो अब आसानी से मिलते नहीं। और बहुत घूम रहे हैं, जिनको दिल से दर्द होता है कि धर्म का बड़ा पतन हो रहा है। तो वो धर्म को बचाना चाहते हैं। यह जो धर्म को बचाना चाहते हैं, यह धर्म को बचाने के नाम क्या कह रहे हैं? यह कह रहे हैं, ‘यही सब जो रीति-रिवाज़ हैं, इनका पालन करो, यही तो धर्म है। तो धर्म को बचाने के लिए यह सब वापस लेकर के आओ।’ कह रहे हैं, 'देखो, हिंदु धर्म मिटता जा रहा है, मिटता जा रहा है!'

मेरे पास भी आते हैं, इस तरह के आमंत्रण कि आप फ़लानी जगह आ कर के बोलिए। मैंने कहा, ठीक है। मैंने कहा, किस बात पर बोलना है? कहते हैं, 'सनातन धर्म के ऊपर मँडराते ख़तरे।' मैंने कहा, मैं बोलूँगा, ज़रूर! मैं बिलकुल बोलूँगा क्योंकि ख़तरे मँडरा रहे हैं, बिलकुल। पर वहाँ जो जितने हैं, लाइन से दूसरे वक्ता आमंत्रित, वो कौन हैं सब? चुधईधारी गंजे। वो वहाँ आकर यही बता रहे हैं कि तुम खड़ाऊ नहीं पहनते, इसलिए धर्म मिट रहा है। खड़ाऊ जानते हो?

श्रोता: हाँ।

आचार्य: कह रहे हैं, ‘धर्म तो यही है न, कुएँ में सरसों का तेल डालना। जिस दिन भारत का एक-एक व्यक्ति कुएँ में सरसों का तेल डालने लगेगा, उस दिन पूरा विश्व सनातन धर्म के आलोक से चकाचौंध हो जाएगा।’ और यह बात वो शुद्ध हिन्दी में बोलते हैं। हिन्दी में भी हैं; अंग्रेज़ी ही नहीं है। एकदम उनका दमकता हुआ, नूरानी चेहरा होता है। संस्कृतनिष्ट हिन्दी के साथ बोलते हैं कि ऐसा होगा और सब बिलकुल प्रभावित हो जाते हैं कि बिलकुल सही बोला।

(श्रोताओ से पूछते हुए) किस-किस ने वो खरीदा है, गंगाजल ले जाने के लिए घर? (कमंडल पकड़े रहने का इशारा करते हुए) (श्रोताओं की सामूहिक हँसी)

अभी छठ पर वो तस्वीरें देखीं थी? यमुना में सफ़ेद झाग, सिर से उपर तक का और उसमें महिलाएँ घुसी हुई हैं। यही तो धर्म है। क्या आश्चर्य है कि इस तरह के धर्म का पालन करने वाले जो देश के प्रांत हैं, वो सबसे ज़्यादा पिछड़े हुए हैं। कितना धार्मिक है न बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश? धार्मिकता का चरम है। जिन्हें हम बीमारू राज्य कहते हैं, वो सबसे ज़्यादा धार्मिक राज्य भी हैं। इसी तरह का धर्म उनका, यही धर्म। सरसों के तेल वाला। यह सरसों के तेल वाला धर्म ही उनको पिछड़ा रखे हुए है। और धर्म ही वो ताकत है, जो सबसे आगे ले जा सकता है आपको।

कितने खेद की बात है कि जो ताकत आपको सबसे आगे ले जा सकती थी, आपने उसको ही विकृत कर के अपना ही नाश कर लिया। धर्म से अधिक जीवनदायी कुछ नहीं होता और हमने धर्म से ही अपना जीवनघात कर लिया। और फिर जब हम देखते हैं कि हम तो धर्म का पूरा पालन कर रहे हैं, लेकिन दुनिया में पिछड़ते जा रहे हैं, कुछ मिल नहीं रहा, तो हम निष्कर्ष क्या निकालते हैं? धर्म ही गड़बड़ है, चलो धर्म छोड़े देते हैं। यही वजह है कि जो हमारे इतने धार्मिक इलाके थे, उन्हीं घरों से सबसे बिगड़े हुए बच्चे निकलकर आ रहे हैं।

आजकल बहुत लोग चर्चा कर रहे होते हैं कि यह इंस्टाग्राम, टिकटॉक इन सब पर इतनी अश्लीलता कौन फैला रहा है। आप ग़ौर से देखिएगा कि वो कौन लोग हैं। वो यूपी, बिहार है। क्योंकि उन्होंने अपने घरों में अपने माँ-बाप और दादी-दादा को घोर धार्मिक देखा है। कौन-सी तरह का धर्म? वही, सरसों का तेल डालो कुएँ में, वो वाला धर्म। और यह देखकर उन्हें यही समझ में आया है कि धर्म पर चलकर तो कमज़ोरी और ग़रीबी ही मिलती है। तो उन्होंने धर्म को पूरा ही ख़ारिज कर दिया है। वो कह रहे हैं, 'हटाओ यह सारी बाते पुरानी, धर्म, संस्कार, यह सब हमें चाहिए ही नहीं। हम तो कपड़े उतारेंगे और इंस्टग्राम पर नाचेंगे।'

हमने एक पूरी पीढ़ी को धर्म से विमुख कर दिया, धर्म का एकदम सड़ा हुआ संस्करण चला-चला कर। और इसमें मेरा काम बहुत कठिन हो गया है। लोगों को पता चलता है — लोगों माने युवा लोगों को — कि मेरे नाम के साथ वेदान्त जुड़ा है या अध्यात्म जुड़ा है, वो तुरन्त दूर होने लग जाते हैं। उन्हें लगता है कि मैं भी उनके दादा जी जैसी बात करूँगा। वही कोई पुरानी बात।

फिर अगर आ कर के बैठते हैं, तो उनको झटका लगता है। वो कहते हैं, 'आप तो बहुत ज़्यादा मॉडर्न (आधुनिक) बात कर रहे हो!' मैं कहूँ, मॉडर्न बात भी नहीं कर रहा हूँ। पर पहला उनका मानना यही होता है, पहला उनको विचार यही आता है कि वेदान्त और अध्यात्म माने यह भी कुछ ऐसी-सी बात करेंगे कि सुबह-सुबह जाओ और हरी घास उखाड़ो और पश्चिम की ओर मुँह कर के घास को अपने सिर के ऊपर से ऐसे पीछे फेंक दो। इससे धनधान्य, खुशहाली आएगी! बच्चा हो जाएगा!

घास उखाड़ने से बच्चा हो जाएगा? कुछ नहीं उखाड़ा ज़िदंगी में, अब घास उखाड़ कर कह रहे हैं कि बच्चा होगा। तो पूरी एक पीढ़ी को कोफ़्त हो गई है ऐसे धर्म से जिसमें यह सब चलता है। एक ही तरीक़ा है — शुद्ध धर्म की ओर बढ़िए, वेदान्त की ओर बढ़िए! बाक़ी सब छोड़िए! परम्पराएँ अगर आपको प्रिय हैं, तो पहले उनका अर्थ समझिए फिर पालन करिए। और जिस परंपरा को आप पाएँ कि अर्थहीन है बिलकुल, इसका कोई अर्थ हो ही नहीं सकता, उसको तुरन्त त्याग दीजिए।

कुछ परम्पराएँ ज़रूर हैं, जो अर्थपूर्ण हैं। तो फिर उनको, उनके सही अर्थ के अनुसार ही क्रियान्वित करिए। अर्थ जानिए और अर्थ के अनुसार परंपरा का पालन करिए, बिना अर्थ के नहीं। और मैं बताए देता हूँ, अधिकांश परंपराओं के पीछे कोई अर्थ नहीं। वो बस परंपरा है। चल रही है क्योंकि चल रही थी; चल रही है क्योंकि चल रही थी।

हमें किसी नए धर्म की ज़रूरत नहीं है। हमें धर्म में किसी सुधार कार्यक्रम की, नवीनीकरण की, इनोवेशन की कोई ज़रूरत नहीं है। ऊँचे-से-ऊँचा जो धर्म हो सकता है, वो पहले से ही हमारे पास है। हमें बस उसका सम्मान और सिर्फ़ उसका सम्मान करना सीखना है।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=MsBmLTGO50Q

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