प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरा प्रश्न ये है कि स्वधर्म क्या है? आपकी किताब ‘भगवद्गीता’ में मैंने पढ़ा था कि सबके लिए अपना-अपना स्वधर्म है। तो आपने वहाँ एक मैथ्स कोऑर्डिनेट (निर्देशांक) के साथ एनालॉजी (समानता) लेकर समझाया था कि भीष्म पितामह हो सकता है कोई एक्स वन वाई वन कोऑर्डिनेट पर हैं, और उनको ज़ीरो-ज़ीरो – जो केंद्र है उस पर आना है; अर्जुन किसी और केंद्र पर खड़े हैं और उनको भी जो मेन ओरिजिन है उस पर आना है। तो हमारे लिए हमारे जीवन में स्वधर्म क्या होगा?
आचार्य प्रशांत: देखिए, धर्म किसके लिए होता है? धर्म हमेशा मन के लिए होता है। और धर्म क्या होता है? मन को अमन तक ले जाना, मन को शून्य, शान्ति तक ले जाना – यही धर्म होता है।
ये मूल बात समझ में आ गई?
प्रकृति के लिए कोई धर्म नहीं होता, प्रकृति अपने धर्म का निर्वाह कर ही रही है। प्रकृति का धर्म प्रकृति-मात्र है। हवा का क्या धर्म है? घास का क्या धर्म है? घास का धर्म है उगना और गाय का धर्म है चरना। तो प्रकृति में धर्म इतना ही होता है बस, कि जो तुम्हारी प्रकृतिगत व्यवस्था है उसका पालन करते रहो – ये प्राकृतिक धर्म है। ठीक है?
बादल का धर्म है बरसना, और वो अपने धर्म से कभी हटते भी नहीं। और उनके धर्म में बस क्रिया निहित है, मुक्ति नहीं। बादल का धर्म बरसना है, बरसने से मुक्ति पाना नहीं। बादल का धर्म है बरसना, बरसने से मुक्त हो जाना बादल का धर्म नहीं है। घास का धर्म है बढ़ना, बढ़ने से मुक्ति पाना घास का धर्म नहीं है। और गाय का धर्म है चरना, चरने से मुक्ति पाना नहीं।
मनुष्य अकेला है जिसका धर्म मुक्ति है। मनुष्य का क्या धर्म है? मुक्ति। मुक्ति किससे? जो हो, उससे। इसीलिए स्वधर्म सबके एक होते हुए भी अनेक होते हैं। क्योंकि एक अर्थ में हम सब एक हैं, कि आत्मा भी एक है और मूल अहम्-वृत्ति भी एक है, उस अर्थ में हम सब बिलकुल एक समान हैं – एक आत्मा और एक अहंता। लेकिन जड़ एक होते हुए भी हम सब अलग-अलग तरह के फूल-पत्तियाँ, टहनियाँ, रंग, शाखा-प्रशाखा; जैसे कल्पना कर लो कि अति विशाल वृक्ष हो, तो उस पर ये सब अलग-अलग होते हैं न? एक फूल इधर है, एक उधर है, एक टहनी है, एक फल है, एक पत्ता झड़ने को तैयार है, एक कोपल नई फूट रही है; तो ये सब अलग-अलग हैं, तो वैसे ही हम अलग-अलग हैं।
तो आप जो कुछ भी हैं, वहाँ से आपको मिटने की ओर बढ़ना है। उसी मिटने को आप तृप्ति भी बोल सकते हैं, आनंद भी बोल सकते हैं। पूर्णता बोल लो, शून्यता बोल लो, जो बोलना है बोल लो – वो सबका अपना धर्म है। तो इसलिए स्वधर्म, इसलिए धर्म एक होते हुए भी सबके लिए अलग-अलग है। किस अर्थ में सबका धर्म एक है? कि सबको पूर्णता तक पहुँचना है; ऐसे कहोगे तो धर्म सबका एक ही है, साझा धर्म है सबका। इनको (एक श्रोता) भी पूर्णता तक पहुँचना है, आपको (प्रश्नकर्ता) भी पूर्णता तक पहुँचना है, तो सबका धर्म एक है।
लेकिन दूसरे अर्थ में धर्म सबका अलग-अलग है; स्वधर्म सबका अलग-अलग है। किस अर्थ में? कि इनकी (एक श्रोता) जो परिस्थिति है, इनकी जो मानसिकता है, इनके जो विशिष्ट व्यक्तिगत बंधन हैं, वो आपके (प्रश्नकर्ता) विशिष्ट बंधनों से अलग हैं। तो जो विधि इनके ऊपर उपयुक्त होगी, वो शायद आप पर न हो; जो रास्ता इनको लेना पड़ेगा, वो हो सकता है किसी और के काम न आए। तो उस अर्थ में कोई व्यक्ति दूसरे के पथ का बिलकुल अंधा अनुकरण नहीं कर सकता। सबको अपना रास्ता ख़ुद ही निकालना होता है, यद्यपि मंज़िल सबकी एक ही है।
बहुत सारे जहाज आ रहे हैं, सबको इंदिरा गाँधी हवाई अड्डे पर उतरना है। ठीक है? एक काबुल से आ रहा है, एक बम्बई से आ रहा है, एक अमेरिका से आ रहा है, एक बैंगलोर से आ रहा है, एक उधर कलकत्ता से आ रहा है, एक बीजिंग से आ रहा है; उतरना सबको कहाँ है? दिल्ली। धर्म सबका क्या है? दिल्ली उतरना। और स्वधर्म सबका क्या है? अपने-अपने फ़्लाइट पाथ (उड़ान पथ) पर अडिग रहना; और वो सबका अलग-अलग होगा। बम्बई से भी अगर दो उड़ान दिल्ली की ओर आ रही होंगी, तो उनका फ़्लाइट पाथ एक ही नहीं हो सकता, भिड़ जाएँगी। उनको ऊँचाइयाँ अलग-अलग दी जाती हैं, उनके बीच में दूरी रखी जाती है, और वो उन्होंने अगर छोड़ दी तो क्या होगा? “परधर्मो भयावह:”; ‘दूसरे का फ़्लाइट पाथ काहे को पकड़ रहे थे, हो गई न गड़बड़?’ उतरना लेकिन सबको दिल्ली ही है; वही राम हैं, वहीं उतरना है।
प्र२: आचार्य जी प्रणाम, मेरा प्रश्न कल के सत्र से है। जो आपने कालिया फ़िल्म का एक गाना चलाया था सत्र में, तो उसमें जैसे अमिताभ जी जेल से भागने की कोशिश कर रहे थे, और उससे पहले आपने जो तामसिक, राजसिक और सात्विक के बारे में बात करी थी, तो समझ में आ रहा था कि चलो ये जो दायरा है उसको तोड़कर के इससे बाहर जाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन जो बाकी इनमेट्स (क़ैदी) थे, जो गाना गा रहे थे, एक तरह से वो सहायता तो कर रहे थे हीरो की, पर वो ख़ुद नहीं भाग रहे थे। तो फिर वो क्या कहलाएँगे? क्या वो तामसिक हैं? जैसे जेलर तो वहाँ अंदर है, तो वो एक तरह से बन्धनों को कायम रख रहे थे, तो वो समझ में आ रहा है, लेकिन इनका क्या रोल (भूमिका) है? इनको किस तरह से समझा जाए, जो क़ैदी वहाँ पर गाना गा रहे थे?
आचार्य: अब इतनी दूर तक तो किसी ने हिसाब करा नहीं होगा।
(श्रोतागण हँसते हैं)
पर करना ही है तो ये समझ लो कि प्रकृति में बहुत सारे तत्व विद्यमान हैं जो स्वयं तो मुक्त नहीं हो सकते, उनको मुक्ति की कोई अभीप्सा भी न हो शायद, लेकिन आपकी मदद कर सकते हैं; बशर्ते आप मदद लेने को तैयार हों। मदद भी वो उन्हीं की करते हैं जो भागने को तैयार हों। जो भागना नहीं चाहता, उसको कहते हैं, ‘आओ, हमारे साथ तुम भी थाली बजाओ, तुम इसी लायक हो; कम-से-कम उनकी मदद कर दो जो निकल सकते हैं।‘
तो प्रकृति में ही दोनों चीज़ें हैं – वो सब भी जो आपको बाँधकर रख सकता है, और वो सब भी जो आपकी सहायता कर सकता है बाहर निकलने में। विवेक का अर्थ है इसी दुनिया में उनको पहचानो जो तुम्हारी मदद कर देंगे। यहाँ जेलर भी है और यहाँ सहायक भी है; बाँधने वाला भी मौजूद है, बंधन खोलने वाला भी मौजूद है। वो तुम पर निर्भर करता है कि वास्ता किससे रखना है।