आचार्य प्रशांत: तो दुर्गा सप्तशती के दूसरे चरित्र का हम आरम्भ करते हैं। और जो ये दूसरा या मध्यम चरित्र है, इसमें अध्याय दो, तीन और चार सम्मिलित हैं। और इस चरित्र की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी हैं। ठीक वैसे जैसे प्रथम चरित्र की अधिष्ठात्री देवी महाकाली थीं।
तो क्या होता है इसमें? आरम्भ होता है देवासुर संग्राम से। बड़ा लम्बा संग्राम है जो सौ वर्षों तक चलता है। ये जो देव-दानव संग्राम की कथा है, ये हमें लगातार मिलती है, पुराणों में, महाकाव्य, इतिहासों में। तो ये क्या है?
व्यक्ति के भीतर ही कुछ ऐसा है जो सच्चाई की ओर जाने के लिए आतुर रहता है और व्यक्ति के भीतर ही कुछ ऐसा है जो निरंतर सत्य के विरोध की स्थिति में रहता है। आपकी ही आतंरिक वृत्तियाँ और अज्ञान जिनका दावा रहता है कि वो सच्चाई और दैवीयता के बिना भी प्रसन्न रह लेंगी, ताकतवर रह लेंगी, ये आपकी दानवीयता हुई। और आपकी ही वृत्तियों का वो रुझान जो आपको सच की ओर ले जाता है वो दैवीयता हुई।
तो जो निरंतर हमसे कहा जाता है कि देव और दानव आपस में संघर्षरत हैं, वो वास्तव में मनुष्य के भीतर का ही संघर्ष है आतंरिक। कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जो मानसिक तौर पर बंटा हुआ न हो, खंडित न हो, और जिसके खंड परस्पर विरोधी भाषा न बोलते हों। और ये सदा से हो रहा है, ये जो गृहयुद्ध है, आतंरिक महासंग्राम है, ये मन की रणभूमि पर चेतना के उदय के क्षण से ही खेला जा रहा है। ये बहुत पुराना युद्ध है, देवासुर संग्राम। और क्योंकि बहुत पुराना है इसीलिए जब आप इसका वर्णन पाते हो कहीं तो ये लिखा होता है कि एक बार देवताओं में और असुरों में सौ वर्षों तक युद्ध हुआ।
अभी प्रथम अध्याय में आपने सुना था कि भगवान विष्णु और मधु कैटभ का पाँच हज़ार वर्षों तक युद्ध हुआ। तो आपको पूछना चाहिए था पाँच हज़ार वर्ष कैसे? पाँच हज़ार वर्ष ऐसे कि पचास हज़ार साल से हर व्यक्ति के भीतर वो युद्ध लड़ा जा रहा है। वो युद्ध तब भी चल रहा था, वो युद्ध आज भी चल रहा है। न देव कभी मारे जाते हैं, न दानव कभी पूरी तरह परास्त होते हैं। जो भी पक्ष पीछे हटता है, वो लौट-लौटकर आता है। यही प्रकृति का चक्र है।
दोनों ही पक्षों का सत्य, माने शिव, से कुछ सम्बन्ध ज़रूर है। क्या संबंध है?
सम्बन्ध ये है कि देवता जब जाते हैं, मान लो हार करके शिव के पास, तो शिव के पास नमित हो करके खड़े हो जाते हैं कि “देखिए, दानवों ने उत्पात मचा रखा है, और जो आपकी व्यवस्था है, उसको वो नहीं मानते। वो अपने-आपको ही परम सत्ता घोषित किए दे रहे हैं।” तो देवता जब जाते हैं शिव के पास तो देवताओं की शिकायत होती है कि देखिए परम सत्ता दानवों के पास कैसे हो सकती है? ये ग़लत है, ये अधर्म है।
और दानव भी जब उपासना करते हैं शिव की तो शिव से कुछ माँगते हैं। क्या माँगते हैं? वो शिव से ये नहीं माँगते कि आपकी परम सत्ता बनी रहे, वो शिव की यदि उपासना करते हैं तो शिव से माँगते हैं कि परम सत्ता हमारी हो जाए। अंतर समझिएगा। इतना ही नहीं कई बार तो वो कभी विष्णु को, कभी शिव को ही मिटा देने को आतुर हो जाते हैं।
तो देवता हो या दानव हो हमारे भीतर का, उसका सत्य से कुछ-न-कुछ सम्बन्ध तो रहेगा ही। सत्य बड़ा जैसे दुर्निवार है, उससे आप पीछा नहीं छुड़ा सकते, वो आपका आधार है। प्रश्न यह है कि उस आधार से आपका सम्बन्ध क्या रहता है।
देवताओं का सम्बन्ध रहता है नमन का, समर्पण का और दानवों का सम्बन्ध रहता है संघर्ष का। तो इसीलिए आप फिर बार-बार इन प्रतीक कथाओं में पाते हैं कि सत्य देवताओं के पक्ष में खड़ा हुआ है। और अगर साफ़ कहा जाए तो देवता सत्य के पक्ष में खड़े हुए हैं।
तो इतने में हमने अभी दो बात कही कि पहला — जब भी आप पढ़िएगा कभी कि इतने ज़्यादा वर्षों तक किसी ऋषि ने साधना करी या इतने सहस्त्र वर्षों तक कोई संग्राम चला, तो उस बात को बस काल्पनिक कह करके उड़ा मत दीजिएगा, उस बात के पीछे एक संकेत है। संकेत आपको स्पष्ट हो रहा है?
क्या संकेत है? कि वो जो हुआ, वो किसी एक काल-खंड की, किसी एक विशिष्ट समय की बात नहीं थी, वो चीज़ हज़ारों वर्षों से चल रही है। जैसे वो अस्तित्व में घटने वाली एक निश्चित घटना हो ही।
आपकी ही वृत्ति है जो आपके ही विरुद्ध आपसे आपके ही भीतर संघर्षरत रहती है — ये है देव-दानव संग्राम।
और ये बात जितनी आज से दस हज़ार साल पहले के व्यक्ति पर लागू होती थी, उतनी ही ये लागू होती है आज के व्यक्ति पर। तो इस अर्थ में कहा जाता है कि ये संग्राम दस हज़ार साल से चल रहा है या इतने सौ सालों तक चला, ऐसा हुआ, वैसा हुआ।
देव-दानव कौन हैं? हमने समझा। और संग्राम या तपस्याएँ इतनी लम्बी कैसे चलती हैं? ये हमने समझा। तपस्याओं का भी आप ऐसे ही सुनते हैं न कि ऋषि थे एक, उन्होंने एक नदी के किनारे इतने सौ वर्ष तक तपस्या की। तो आपको आश्चर्य होता होगा कि कोई व्यक्ति इतने लम्बे समय तक तपस्या कैसे कर सकता है। वो बात वही है। वो तपस्या किसी एक विशिष्ट व्यक्ति ने नहीं करी है, वो तपस्या हम सबके भीतर चल रही है। तपस्या भी तो एक तरह का संघर्ष ही है न।
आपकी ही वृत्तियाँ हैं जो आपको भोग में, और निद्रा में और अज्ञान में लीन रखना चाहती हैं। उनको सत्य से कोई प्रत्यक्ष मतलब नहीं। और आप ही हैं जो उन वृत्तियों के विरुद्ध जा करके मुक्ति की साधना करना चाहते हैं। ये भी एक देवासुर संग्राम ही है। तपस्या भी युद्ध है, जैसे रणभूमि पर युद्ध सैकड़ों सालों तक चलते थे, वैसे ही तपोभूमि पर भी युद्ध सैकड़ों सालों तक चले हैं।