देहभाव के कारण ही डर और दबाव झेलते हो || (2018)

Acharya Prashant

6 min
79 reads
देहभाव के कारण ही डर और दबाव झेलते हो || (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं तो सच की राह पर ही चलना चाहता हूँ मेरे हिसाब से, लेकिन परिवार वाले कहते हैं, "तुम ज़िम्मेदारी निभाओ!" मतलब जो भी सामाजिक दायित्व हैं उनको पूरा करो, फैमिली (परिवार) बनाओ।

आचार्य प्रशांत: उनको बोलो, "फिर तुम काहे के लिए हो? हम ही सब करेंगे कि तुम भी कुछ करोगे?"

प्र: वह कहते हैं हमने अपनी ज़िम्मेदारी निभाई अब तुम्हें भी निभानी है।

आचार्य: और निभाओ! अगर ज़िम्मेदारी इतनी ही अच्छी चीज़ है तो और निभाओ न! कुछ अगर इतना बढ़िया लगा है तुम्हें तो रुक क्यों रहे हो? उसे और करो! अगर ज़िम्मेदारी प्यारी चीज़ है, तुमने दो निभाई, तो तीन निभाओ, चार निभाओ! हमें इतना प्यार है तुमसे कि हम अपनी ज़िम्मेदारी भी तुम्हें देते हैं। ये उपनिषद् रखा है (सामने इशारा करते हुए) , इसकी सुननी है या किसी की भी सुननी है? किसी की भी सुननी है, तो फिर तो फालतू ही थे ऋषि-मुनि जो तुम्हारे लिए इतनी बातें कह गए। फिर तो उन्हें एक बात कह देनी थी - "मम्मी से पूछ लेना!" फिर तो व्यर्थ ही गीताएँ हैं और उपनिषद् हैं और कबीर साहब हैं, गुरु नानक हैं और अष्टावक्र हैं। फिर तो इन्हें होना ही नहीं चाहिए था। एक ही सूत्र होना चाहिए था - मम्मा बताओ!

वहाँ वो (सामने रखे उपनिषद् की ओर इशारा करते हुए) बताते-बताते थके जा रहे हैं, असली बाप कौन है, सारी बातें ही 'परम-पिता' की हैं और तुम जब देखो तब माँ-बापों की कहानी शुरू कर देते हो! जब माँ-बाप तुम्हें पता ही हैं तो परमपिता का क्या करोगे?

अभी यहाँ बैठे हो सामने, "दुर्बल हूँ, उलझन में हूँ, दुविधा में हूँ", और जवान हो। कल को तुम भी एक बच्चा पैदा कर दो और उससे बोलो "नहीं! नहीं! नहीं! मैं अंतर्यामी हूँ, सिद्ध हूँ, कूटस्थ हूँ, मैं जो बोल दूँ वह ब्रह्म वाक्य है!" फिर तुम भूल जाओगे कि तुम कौन हो। तुम हो कौन? दुर्बल, नासमझ, आम इंसान। लेकिन हर दुर्बल, नासमझ, आम इंसान अपने बच्चे के सामने क्या बन जाता है? परमपिता और भगवान! कि, "माँ-बाप भगवान बराबर होते हैं, हमारी ही सुनना!" दुनिया में और किसी के सामने वो भगवान हों ना हों, दुनिया में और कोई उनकी सुने ना सुने, एक तो मिल ही गया है बकरा कि, "आजा बेटा चरणस्पर्श कर।" जिधर को ठेले उधर को चल दे। तुम भी यही करो! एकाध-दो साल में तुम भी बाप बनोगे और अभी यहाँ बैठे हो घुग्गु की तरह और उसके सामने क्या हो जाओगे? कि "हम ही ब्रह्म हैं, अब जो बोल रहे हैं हम वही करना तुम!"

यही तुम्हारे पिता ने किया और परपिता ने किया, यही तुम करोगे, फिर यही तुम्हारा लड़का करेगा, चक्र चलता रहेगा!

प्र: कुछ लोग तो यह भी बोलते हैं, "जब माँ-बाप हैं तो गुरु की क्या ज़रूरत है?"

आचार्य जी, जब माँ-बाप बिना मतलब दुखी होते हैं तो कभी-कभी दया भी आती है।

आचार्य: तुम्हारे ही जैसे हमदर्द थे कुछ, तो वो पहुँचे ऐसी जगह जहाँ घूम रहे थे सब टीबी के मरीज़, उन्हें इतनी दया आयी कि उन्होंने अपने को भी टीबी लगा ली।

(सभी श्रोता हँसते हैं)

वह कहें, "यह तो बड़ी दया की बात है कि यहाँ सब बीमार हैं तो हमारी दया की अभिव्यक्ति ये है कि हम भी इनके साथ बीमार ही हो जाते हैं। जो फूहड़पना इन्होंने किया है वही हम भी कर लेते हैं।" बीमार का इलाज बीमार बनकर होता है या स्वस्थ रहकर? उनकी ग़लती का सुधार तुम एक और ग़लती करके करोगे या ग़लती ना करके?

और उन्होंने ग़लतियाँ ना की होतीं तो तुम पैदा कैसे होते? तुम्हारा होना ही ये सिद्ध कर देता है कि उन्होंने खूब ग़लतियाँ की हैं। दुनिया की निन्यानवे प्रतिशत आबादी तो ग़लती से ही पैदा हुई है और फिर तुम कहो माँ- बाप से ग़लतियाँ नहीं होतीं, तो पूछो, "मैं कैसे फिर...?"

"तुमसे अगर कोई ग़लती नहीं होती तो मैं कहाँ से आया और ये चुनिया कहाँ से आई और वो चुन्नू कहाँ से आया? हम सब क्या हैं? तुम्हारी ग़लतियाँ ही तो हैं! और तुम क्या हो? कोई तपस्या का फल हो? साधना हुई थी तो आकाश से अमृत की बूंद उतरी थी? तुम नहीं जानते हो? कौन सी बूंद कहाँ से उतरती है?"

जवान हो, अगर ख़ुद को जानते हो तो दुनिया को भी जानते हो। आज से पाँच हज़ार साल पहले के आदमी को भी जानते हो, सब को जानते हो और कह रहे हो सत्य की राह पर चलना है। सत्य की राह पर चलना कोई मिमियाते हुए होता है? भेड़ें नहीं चलती हैं सत्य की राह पर, वहाँ सिंह गर्जना करनी पड़ती है। शेर मम्मी के साथ जाता है शिकार खेलने? 'सच' इतना सस्ता है? कि किसी का भी अनुगमन करके पा लोगे? क़ीमत अदा करो!

बड़ी-से-बड़ी भूल होती है क़ीमत ना अदा करना। तुम जो चाहते हो वो चाहने में कोई बुराई नहीं है। तुम्हें परम महत्वाकांक्षी होना चाहिए। प्रश्न ये है जो तुम चाहते हो उसकी क़ीमत अदा करी है क्या? क़ीमत अदा किए बिना चाहना चोरी कहलाता है। ठीक? चोरी मत करो। उत्कृष्ट को चाहते हो तो दाम चुकाओ, मेहनत करो, साधना दिखाओ। कहाँ है साधना? वो करी नहीं और चाहते हो जो ऊँचे-से-ऊँचा है उसकी नज़दीकी मिल जाए, कैसे मिलेगी? फिर तो चोरी की नियत है तुम्हारी।

जितना ज़्यादा तुम में देहभाव होगा उतना ही ज़्यादा तुम उनसे डरोगे और दबोगे और मोहित रहोगे, आसक्त रहोगे जिनसे तुम्हारा देह का रिश्ता है, बात ख़त्म!

जितना ज़्यादा तुममें देहभाव होगा उतना ज़्यादा वे लोग तुम्हारे लिए तकलीफ़ का कारण रहेंगे जिनसे देह का रिश्ता है। बात ख़त्म!

और देहभाव रख कर तुम सत्य की राह पर चलोगे? देह ही अगर सत्य है तो कौन-सा और सत्य पाना है तुमको? फिर तो मिल गया सत्य!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
Categories