देह का रिश्ता नष्ट हो जाएगा, क्या है जिसे काल छू नहीं पाएगा? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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देह का रिश्ता नष्ट हो जाएगा, क्या है जिसे काल छू नहीं पाएगा? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय। अब के बिछड़े न मिले, दूर पड़ेंगे जाय॥ ~ कबीर

वक्ता: आमतौर पर एक-दो शब्द होते हैं जो केन्द्रीय होते हैं, उनको पकड़ लीजिये, तो पूरी साखी उसके आसपास ही होती है। इसका जो केन्द्रीय हिस्सा है, वह नीचे की आधी साखी है, “अब के बिछड़े न मिले।” जो कुछ भी दिखाई देता है, भौतिक है, प्रकट है, वहाँ तो ऐसा ही है कि – “अब के बिछड़े ना मिले”। तुम कितना पकड़ कर रखो, होगा तुम्हारा शरीर का रिश्ता – पेड़ का और पत्ते का, शरीर का रिश्ता है, वो उसके शरीर से उद्भूत हुआ है – कितना ही पकड़ कर रखो, लेकिन, “अब के बिछड़े ना मिले,” एक बार बिछड़ोगे, दोबारा नहीं मिलोगे।

इस शरीर की यही कहानी है, संसार में जो कुछ है उसकी यही कहानी है। जो तुमने इधर से और उधर से पाया है, उसकी तो बिसात ही क्या है? जो खुद तुम्हारे शरीर से ही पैदा है, उससे भी एक बार अलग होगे दोबारा मिलेगा नहीं वो, “दूर पड़ेंगे जाय”।

संतों ने बार-बार हमें, हमारी हरकतों की, हमारे सम्बन्धों की, इस संसार की, निस्सारता का एहसास कराया है। तुम क्यों चीज़ों को पकड़ कर बैठे हुए हो? इनमें जान कितनी है? इनकी अवधि कितनी है? कभी कबीर कहते हैं कि – शरीर कच्चे घड़े की तरह है, एक बार टूटेगा, तो दोबारा नहीं ठीक होगा। कभी कहते हैं कि पेड़ पर लगे पत्ते की तरह है, कभी कहते हैं कि पानी की तरह है – “पाणी ही ते हिम भया , हिम है गया विलाई। जो कुछ था सोई भया, अब कछु कह्या न जाई”।

जो कुछ भी दिखाई पड़ता है तुम्हारा, उसको तो विलुप्त ही हो जाना है, वो तो विलए हो जाएगा। “जो कुछ था सोई भया, अब कछु कह्या न जाई,” उसे तो वापस उसी में मिल जाना है जो दिखाई नहीं देता, क्योंकि वही असली है। क्यों इनको ये बार-बार करना पड़ता है? क्यों यह एहसास बार-बार दिलाना पड़ता है? क्यों करना पड़ता है ये?

श्रोता १: सर, हम भौतिकवादी दुनिया में जीते हैं, और बार-बार उसे असली मान लेते हैं।

वक्ता: उसको असली मानने से क्या होता है?

श्रोता १: उसी के होकर रह जाते हैं।

वक्ता: उसको असली मानने से ये होता है कि जो है ही ‘असली’, वो भूल जाता है। *(एक श्रोता की ओर इंगित कर*ते हुए) कल मैं कुणाल से कह रहा था कि यही विधर्म है, यही कुफ़्र है – नकली को असली मान लेना, और इस प्रक्रिया में ‘असली’ को भूल जाना। यही तो ब्लास्फेमी(पाप) है ना? और आप किसको कहोगे, बड़े से बड़ा पाप? आपने उस ‘एक’ के विकल्प तैयार कर लिए, और आप विकल्पों में उलझ कर रह गए, ‘उसको’ भूल गए। ‘वो’ एकमात्र सहारा हो सकता था, आपने पाँच-छ: वैकल्पिक सहारे खड़े कर लिए। और इन सहारों के कारण जो ‘एक’ सहारा था, उसको आप भूल गए।

‘वो’ एक मात्र प्रेमी है, और आपने झूठे पाँच-सात प्रेमी खड़े कर लिए, और इन झूठे प्रेमियों के कारण आप असली को भूल गए। वही एक मात्र लक्ष्य हो सकता है, पर आपने पाँच-सात दूसरे लक्ष्य खड़े कर लिए, और इन नकली लक्ष्यों के कारण आप असली लक्ष्य को भूल गए। तो संसार निस्सार है, ये बार-बार संतों को इसलिए बताना पड़ता है कि नकली को असली समझ कर, कहीं असली को न भूल जाओ।

यही परिभाषा है काफ़िर की – जो नकली को असली समझ ले, और असली को भुला दे। और ‘नकली को असली’ समझने का क्या अर्थ है? जो ‘उसके’ अलावा किसी को भी महत्त्व देने लगे, वही काफ़िर है। जिसने उस ‘एक’ के अलावा किसी को भी महत्त्व दे दिया – रुपया, पैसा, पति, पत्नी, धन, दौलत, इज़्ज़त – वो ‘हेरेटिक’ है। ‘हेरेटिक’ (विधर्मी) वो नहीं है जो कहे कि – “ईश्वर नहीं है”। ‘हेरिटिक’ की जो हमारी परिभाषा है वो आमतौर पर कहती है – “जो कहे, ‘ईश्वर नहीं है,’ वो ‘हेरिटिक’।”

नहीं। आप कह रहे हो, “ईश्वर है,” उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। महत्त्व तो आपने दूसरी चीज़ों को दे रखा है ना। ‘हेरिटिक’ वो हुआ जिसने कुछ भी और मूल्यवान मान लिया। जिसने किसी भी और चीज़ को ये कह दिया कि – “कीमती है”। क्योंकि कीमती तो ‘एक’ ही है, उसके अलावा जिसने भी किसी भी और चीज़ को कीमत दी, उसी ने पाप कर दिया।

~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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