दारू और चिकन वाला बाज़ार (एक राज़ है वहाँ) || (2021)

Acharya Prashant

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दारू और चिकन वाला बाज़ार (एक राज़ है वहाँ) || (2021)

आचार्य प्रशांत: टीवी पर लिसियस और इस तरह की कंपनियाँ हैं वो अब सीधे-सीधे बच्चों का इस्तेमाल करके लोगों को माँस खाने की ओर ललचा रही हैं।

जो हिंदुस्तानियों के पसंदीदा फिल्मी कलाकार हैं वो इन कम्पनियों के विज्ञापन में काम कर रहे हैं और वो विज्ञापन हर घर में दिखाए जा रहे हैं, सिर्फ एक दिन नहीं, साल भर और सिर्फ एक समुदाय के घर में नहीं, हर समुदाय के घर में दिखाए जा रहे हैं।

इससे पता क्या चलता है? इससे पता ये चलता है कि पूरे समाज ने ही जैसे जानवरों की हत्या करने को स्वीकृति दे दी है, कि, "हाँ मारो जानवरों को, हमें अपने स्वाद से मतलब है हम तो मारेंगे!" आप बात समझ रहे हैं?

आने वाला समय ऐसा होने वाला है — ये पीढ़ी ऐसी है कि ये माँस को दाल-भात की तरह खा रही है। मैंने जिस कम्पनी की बात करी थी, लिसियस, उसका जो विज्ञापन आता है उसमें छोटे-छोटे बच्चे होते हैं दो, छोटे-छोटे मासूम बच्चों के मुँह खून लगाया जा रहा है कि लो तुम माँस चबाओ।

और वो जो माँस है वो कैसे पशुओं की क्रूर हत्या करके आ रहा है, ये नहीं दिखाया जा रहा। वो उसको इस तरीके से पैकेज कर दिया गया है और बता दिया गया है कि अब ये तो स्प्रेड है, ये तो एक स्वादिष्ट स्प्रेड है। इसको मक्खन पर और इसको रोटी पर और इसको ब्रेड में लगा लो और खाओ।

जब वो स्प्रेड के रूप में आ जाता है तो उसमें जो हत्या और क्रूरता और शोषण छुपा हुआ है वो दिखाई कहाँ देता है। और पाँच साल, सात साल के बच्चों को आप जब इस तरीके की आदतें डाल देंगे खाने की तो भविष्य क्या है भारत का, विश्व का, पशुओं का, पर्यावरण का, मानवता का और अध्यात्म का?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे अभी आपने बताया कि कुछ कंपनी हैं जो बहुत सक्रियता से माँस का प्रचार कर रही हैं और उसमें टीवी कलाकार जो हैं वो भी काम कर रहे हैं। तो ऐसा कभी पहले नहीं देखा। ये अभी इसी साल या फिर पिछले छः महीनों में ही अचानक से ऐसा कुछ हुआ है कि बहुत आक्रमकता से माँस का प्रचार हो रहा है। पहले मैंने ऐसा नहीं देखा। तो ये अचानक से ऐसा क्यों हो रहा है?

आचार्य: देखिए हुआ ये है कि हमने कल्चर को कैपिटल (पूँजी) के हवाले कर दिया है। हमने बाज़ार के सुपुर्द कर दिया है संस्कृति को। उन्नीस-सौ-इक्यानवे में भारत की अर्थव्यवस्था विश्व के लिए खोल दी गई। तो अंतर्राष्ट्रीय पूँजी भारत में आने लगी। जब पूँजी भारत में आएगी तो वो ये भी चाहेगी न कि लोग उसके उत्पादों को ख़रीदें।

कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी भारत में आई है तो ये चाहेगी कि ये जो कुछ भी यहाँ ला रही है आयत करके या जो कुछ भी यहाँ पर बना रही है हिन्दुस्तान में, उसको फिर देशी लोग खरीदेंगें भी तो।

हिन्दुस्तान में भोग बहुत बड़ी बात कभी रही नहीं है, ठीक है? हिन्दुस्तानी भी भोगवादी होते हैं लेकिन हिन्दुस्तान में भोगवाद की जो टेंडेंसी (प्रवृत्ति) ही है वो बाकी दुनिया के मुकाबले हमेशा कम रही है।

यहाँ तक कि जब भारत सोने की चिड़िया था, जब दुनियाभर के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का लगभग एक-चौथाई भारत देता था, सिर्फ कुछ सौ साल पहले, तीन सौ-चार सौ साल पहले, तब भी भारत भोगवादी नहीं था। आज कोशिश की जा रही है भारत को भोगवादी बनाने की, क्योंकि अगर लोग भोग नहीं करेंगें, लोग खरीदेंगें नहीं तो कम्पनियों का मुनाफ़ा कैसे होगा?

तो पैसे का इस्तेमाल करके आम जनता के जो आध्यात्मिक संस्कार हैं उनको नष्ट किया गया है। ख़ासतौर पर ये जो वर्तमान पीढ़ी है इसको बर्बाद किया गया है। इस पूरी पीढ़ी को भोगवादी पीढ़ी बना दिया गया है, जिन्हें कुछ और नहीं पता, बस ये पता है कि ज़िन्दगी भोग के लिए है। इसीलिए जो भारत में माँस का इतना इस्तेमाल बढ़ा है वो पिछले बीस सालों में बढ़ा है।

और आपको एक और रोचक बात बताता हूँ, खतरनाक भी — माँस का सेवन और शराब की खपत लगभग बराबर रूप से सम्बंधित रहे हैं। जिस हिसाब से ये जवान पीढ़ी माँस खा रही है, उसी हिसाब से ये शराब भी पी रही है। ये दोनों चीज़ें एक साथ हमारे नए हिन्दुस्तानियों की आदत में डाल दी गई हैं। और इनको डाला है कैपिटल ने, बाज़ार ने। क्योंकि जबतक लड़का बर्बाद नहीं होगा तबतक वो हज़ार चीजें खरीदेगा कैसे?

जब तक तुम उसके भीतर सारे उच्चतर मूल्य नष्ट करके सिर्फ एक वेल्यु नहीं डाल दोगे कि भोगो-भोगो, ख़ुशी की ओर बढ़ो, सुख की ओर बढ़ो, तब तक तुम्हारी कंपनी का माल बिकेगा कैसे? और कंपनी को तो बस ये करना है कि माल बेचना है। कंपनी का माल भी क्यों बेचना है? क्योंकि पूरे देश की, समाज की, पूरे राजनैतिक वर्ग की मान्यता ये है कि विकास का मतलब ही होता है भोग, जीडीपी बढ़ना चाहिए भई। कंज्यूम करो, कंज्यूम करो, कंज्यूम करो। भोग आधारित *जीडीपी*। और माल आए, और लोग और उसको भोगें।

अब ठीक है माल आए, लोग भोगें लेकिन वो किस तरीके का माल है इसपर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। उदाहरण के लिए कोई देश अगर ये तय कर ले कि उसे दुनिया बर्बाद करनी है और वो अपनी जो सैन्य शक्ति है, उसी में निवेश करता जाए, करता जाए तो भी उसका जीडीपी बढ़ जाएगा। वो क्या कर रहा है? वो सिर्फ हथियार तैयार कर रहा है। कोई देश ऐसा हो जाए जो ये नीति बना ले कि, "मुझे सिर्फ हथियार तैयार करने हैं, एक-से-एक खतरनाक हथियार", तो भी उसका जीडीपी बढ़ जाएगा।

तो बिलकुल आप जीडीपी बढ़ाएँ, बेशक, पर आप क्या उत्पात कर रहे हैं और आप किस चीज़ का भोग कर रहे हैं इसपर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कंपनियों को बुलाया जा रहा है जो सिर्फ कोल्ड ड्रिंक पिलाती हैं। अब ये जो कोल्डड्रिंक होता है इसमें अपने-आपमें ऐसा कुछ नहीं होता जो आपके लिए अच्छा हो।

ये सब आईआईएम में भी भर्ती करने आती थीं कम्पनियाँ। एक प्रस्तुतिकरण दे रही थी तो मैंने पूछा कि आपके उत्पाद की आंतरिक मूल्य क्या है? बिलकुल यही सवाल था। आपके उत्पाद की आंतरिक मूल्य क्या है? — यही सब थे कोक, पेप्सी वगैरह। ये सब आईआईएम में जाते हैं भर्ती करने के लिए, खूब पैसा देते हैं। — तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। ले-देकर उन्होंने एक शब्द इस्तेमाल किया, बोले — रिफ्रेशिंग है।

मैंने पूछा —रिफ्रेशिंग माने क्या? कुछ है इसमें जिससे ये रिफ्रेशिंग हो? जो आप रिफ्रेशिंग चीज़ बोल रहे हो वो तो बायोलॉजिकल एक्सपेरिएंस है, वो किस चीज़ से आता है? उनके पास कोई जवाब नहीं था। क्योंकि ले-देकर उसमें क्या है सिर्फ? उसमें पानी है जिसमें शक्कर पड़ी हुई है और कार्बन डाइऑक्साइड घुली हुई है। ये दोनों चीज़ें भीतर जाती हैं तो आपका जो सिस्टम है उसको आक्सिजनेट कर देती हैं, उसमें आग लगा देती हैं, आपको थोड़ी देर के लिए एनर्जी मिल जाती है। लेकिन जितना आप इनको अन्दर ले रहे हैं उतना आप अपने इंटरनल सिस्टम को बिलकुल ख़राब करते जा रहे हैं।

अब इनको हिन्दुस्तान में अपना माल बेचना है, ये कैसे बेचें? ये सिर्फ एक तरीके से बेच सकते हैं कि ये एक गंदी चीज़ की आपको लत लगा दें। और गंदी चीज़ की लत तो गंदे विज्ञापनों और गंदे प्रमोशन और गंदी स्पॉन्सरशिप से ही लगेगी।

सात्विकता का पाठ पढ़ाकर के फिजी ड्रिंक तो आप बेच नहीं पाएँगे न? तो आपको कोई घटिया पाठ ही पढ़ाना पड़ेगा ताकि आपका माल बिके। वो घटिया पाठ पढ़ाया जा रहा है, माल बिक रहा है। वो नई पीढ़ी उस माल का अंधा कंजम्पशन कर रही है। ये खेल चल रहा है।

देखिये कल्चर को कैपिटल के हवाले नहीं किया जा सकता। ठीक है, वो पूँजीपति हैं, कैपिटलिस्ट हैं पर उसे देश का भाग्यविधाता क्यों बना रहे हो? वो थोड़े ही बताएगा कि धर्म क्या है, अध्यात्म क्या है, संस्कृति कैसी होनी चाहिए, तुम्हें जीना कैसे चाहिए।

पर आज हमको वो इंडस्ट्रीलिस्ट और उनके खरीदे हुए भाड़े के ये फ़िल्मी कलाकार, ये हमको बता रहे हैं कि ज़िन्दगी कैसे जीनी है।

और जैसे आपको ज़िन्दगी जीनी है उसके मूल में क्या है? पैसा उड़ाओ, मालदीव जाओ, भोगो। सबकुछ भोगो, एक-दूसरे की देह भोगो, बहुत सारा सेक्स करो, बहुत सारे जानवरों को मारो, बहुत सारी कार्बन डाइऑक्साइड पैदा करो, बहुत बड़ा अपना कार्बन फुटप्रिंट रखो। ये गुड लाइफ़ है, ये हमको शिक्षा दी जा रही है। किसलिए? ताकि कुछ लोगों की जेबें भरती रहें।

और जो आपको शिक्षा दे रहे हैं वो आपके सबसे बड़े दुश्मन हैं लेकिन इतना अफ़सोस की बात है कि आप उन्हीं की पूजा करते हैं। हम अपने सबसे बड़े दुश्मन की पूजा कर रहे हैं।

जो लोग हमें घटिया शिक्षा दे रहे हैं, टीवी के माध्यम से, इंटरनेट के माध्यम से, हर तरीके से वो हमारे सबसे बड़े दुश्मन हैं और हमने उनको अपना आदर्श, अपना रोल मॉडल बना रखा है, उन्हीं के जैसा बनना चाहते हैं।

एक घटिया प्रोडक्ट तभी बिक सकता है जब एक घटिया खरीददार भी पैदा किया जाए। आपका प्रोडक्ट घटिया है और आप उसको बेचना चाहते हैं तो आपके लिए ज़रूरी हो जाता है कि आप खरीदने वालों की पूरी नस्ल को, पूरी कौम को घटिया बना दें। और हमारे साथ वही किया गया है।

और समझिएगा, एक बात और बोल देता हूँ — भोगवाद के खिलाफ जो सबसे बड़ी ताक़त होती है वो होती है अध्यात्म, तो मार्केट खा-खाकर और मोटी हो सके, कैपिटलिस्ट और ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सकें इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि अध्यात्म की हत्या कर दी जाए।

पिछले बीस साल में जैसे दारू और मुर्गे की खपत बड़ी है वैसे ही आध्यात्मिक मूल्यों में गिरावट आई है। ये दोनों चीज़ें एक साथ चलेंगी-ही-चलेंगी, और दोनों के पीछे ताक़त एक ही है — किसी पूँजीपति की लालसा कि उसकी जेबें और भर जाएँ। वो दोनों काम कर रहा है — आपमें गंदी आदतें डाल रहा है और आपको अध्यात्म से दूर कर रहा है। क्योंकि अगर आप आध्यात्मिक हो गए तो आपके भीतर ये भाव ज़रा कम हो जाता है कि, "मैं ये ठूस लूँ, ये पहन लूँ, ये खा लूँ, मालदीव में छुट्टियाँ मना लूँ, फलानी जगह पाँच हनीमून कर लूँ, पंद्रह बच्चे पैदा कर लूँ", ये भाव आध्यात्मिक आदमी में ज़रा कम हो जाता है।

आपको बेचनी है फ्लाइट टिकट्स , आपको बेचने हैं हॉलीडे टूर्स , आपको बेचने हैं ऊँचें कपड़े, ऊँचे जूते, आपको बेचनी है एक कामुक जीवन शैली तो बहुत ज़रूरी है कि अध्यात्म का गला घोट दिया जाए।

कुछ लोगों की पैसे की अंधी वासना के पीछे पूरे देश से अध्यात्म को पिछले बीस साल में मिटाया गया है – असली अध्यात्म को। नकली अध्यात्म तो फल-फूल रहा है। असली अध्यात्म को मिटाया गया है, एक पूरी पीढ़ी को तबाह किया गया है, उनमें गंदी आदतें डाली गई हैं। नतीजे हमारे सामने हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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