प्रश्नकर्ता: आप ये जो बातें बताते हैं वो एक व्यक्ति के लिए तो सही हैं, वो इनको व्यवहार में ला सकता है, या सीख सकता है, अंदर से खुद ऐसा बना सकता है, लेकिन एक समूह में आने के बाद वो सारी बातें निरर्थक-सी हो जाती हैं। तो ये अलग बात है कि सब जानते हैं कि ये सही बातें हैं, लेकिन कोई इन्हें फौरन व्यवहार में नहीं लाना चाहता।
जैसे अगर आप सेना में जाकर ये बात बोलेंगे कि ये सीमाएँ क्यों बना रखी हैं, तो वहाँ कई लोगों को आपकी ये सारी बातें निरर्थक लगेंगी, वो ये मानने को तैयार ही नहीं होंगे। मार्कोस कमांडोज़ होते हैं जो देश की सुरक्षा के लिए जान देते हैं। उनको एक बिल्ला दे दिया जाता है कि यही तुम्हारी पहचान है, यही तुम्हारी वर्दी है, इसकी इज़्ज़त रखनी है। उनके लिए वो वर्दी ही इस देश की पहचान है, तो वो उस वर्दी तक के लिए जान दे सकते हैं। इन्हें ये बातें कि, "सीमाएँ नहीं होनी चाहिए", ये निरर्थक लगेंगी। मैं ये जानना चाहता हूँ कि इन बातों की क्या सार्थकता है? क्या सभी बातों का एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है?
आचार्य प्रशांत: नहीं। तुमने ठीक कहा। बिलकुल ऐसा हो सकता है कि कुछ लोग इन बातों से सहमत न हों। पर इससे तुम्हें क्या फर्क पड़ रहा है?
प्र: सर हम भी तो इसी…
आचार्य: ‘हम’ नहीं, अपनी बात करो। तुम्हें क्या फर्क पड़ रहा है?
(मौन)
हो सकता है कि सेना के लोग मेरी बातों से नाखुश हो जाएँ। इससे तुम्हें क्या फर्क पड़ रहा है?
प्र: कुछ नहीं।
आचार्य: तो पूछ क्यों रहे हो? तुम्हें फर्क पड़ रहा है क्योंकि तुम डरे हुए हो। तुम कह रहे हो, "सर मैं आपकी बातें जान रहा हूँ कि सही हैं, पर इन पर चलूँगा तब जब कम-से-कम पाँच-हज़ार लोग और चलें। और चूँकि आपके पास पाँच-हज़ार लोगों की भीड़ नहीं है, इसलिए मेरी हैसीयत नहीं है इन पर चल पाने की। मैं आपकी बात मान लूँगा अगर आर्मी वाले भी आपकी बात मानें।" तुम्हें क्या फर्क पड़ रहा है? तुम्हें दिख रहा है कि बात ठीक है। और मैं अपनी बात की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ कि तुम्हें सच दिख रहा है।
सच दिख रहा है, तो चलो उस पर। इधर-उधर की क्यों बात कर रहे हो कि समूह और ये और वो। डरते हो समूह से?
प्र: नहीं सर।
आचार्य: बस यही बात है न? तो तुमने सवाल ही गलत पूछा। सवाल ये पूछो कि, "सर मैं डरता क्यों हूँ समूह से?" उसकी जगह तुमने कितनी बातें बना दीं कि मार्कोस कमांडोज़ ने देश के लिए जान दे दी है। इधर-उधर की तमाम गाथाएँ गा दीं। सीधा सवाल नहीं पूछा कि, "मैं डरा हुआ क्यों हूँ? मैं जो जानता हूँ कि ठीक है, उस पर जानते हुए भी अमल क्यों नहीं कर सकता?" जो असली प्रश्न था वो नहीं पूछा।
नहीं पूछा न? इतने संवाद में बैठ चुके हो। एक चीज़ मैं तुम्हें नहीं सिखा पाया, साफ़ बयानी। जो बात स्पष्ट हो उसको स्पष्ट बोलो। स्पष्ट बोलो, सीधा सवाल पूछो कि, "मैं समूह से डरता क्यों हूँ?" पूछो कि, "मुझे झुंड में चलने की आदत क्यों है?"
(एक दूसरा श्रोता सवाल पूछने के लिए हाथ उठाता है)
अरे, अभी तो मैंने उत्तर देना शुरू ही नहीं किया। असली सवाल तो अब सामने आया है। असली बात यह है कि, "मुझे दूसरों की मान्यता क्यों चाहिए? दूसरों का अनुमोदन, स्वीकृति चाहिए ही क्यों?"
आज तुमको पता चल जाए कि मैं तुमसे जो कह रहा हूँ, दस-लाख लोग यही बात कह रहे हैं, तो तुम्हें कोई उलझन नहीं रहेगी। बिलकुल ठीक कह रहा हूँ न? तुम तुरंत खड़े होकर कहोगे कि, “हाँ, हाँ, मैं तो अच्छे से जानता हूँ, मैंने पाँच संवादों में यही बात सुनी है और ये बात बहुत समय से कह रहा हूँ कि यही सच है।” तुम्हें बस ये चाहिए कि दस-लाख लोग यही कहने लग जाएँ। पर ये बेहूदगी है। ये काम तो भेड़ें करती हैं, इंसान नहीं।
ये काम बहादुरों के तो नहीं हैं। ये सूरमाओं के तो विचार नहीं हैं। ये तो बड़े घुटते हुए मन का लक्षण है कि जिधर को धारा जा रही है, उधर को ही बह लिए।
‘अपनी मर्ज़ी के कहाँ अपने सफ़र के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर है, उधर के हम हैं।'
जैसे झड़ा हुआ पत्ता, जिधर को हवा चली, उधर को चल दिया। कभी देखना जब बहुत सारे झड़े हुए पत्ते एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं। क्यों? क्योंकि हवा उधर को ही चल रही होती है। तो सब एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं। तो जो एक जगह बहुत सारे इकट्ठे हों, उनको समझ लेना कि ये झड़े हुए पत्ते ही हैं। झड़ा हुआ पत्ता होना चाहते हो, या खिलता हुआ फूल?
(मौन)
तो दम क्यों नहीं है तुम में? सत्य कोई जनतंत्र थोड़े ही है कि दस-हज़ार लोग बोलेंगे अगर, तो सत्य का प्रस्ताव पास होगा। अरे कोई ना माने तो भी सत्य, सत्य है। वहाँ सिर थोड़े ही गिने जाते हैं कि कितने लोग मान रहे हैं कि सत्य है। मत मानो।
(मुस्कुराते हुए) कोई मत मानो, तुम्हारी बला है, मत मानो। जो नहीं मानेगा, वो खुद दुःख भोगेगा। इससे सत्य को क्या अंतर पड़ता है?
जी नहीं पाओगे अगर भीड़ की तरफ ही देखते रहोगे। मैं तुमसे नहीं कह रहा हूँ, सबसे कह रहा हूँ। तुम में से जो भी कोई झुंड में काम करता है, जी नहीं पाएगा क्योंकि तुम झुंड में नहीं पैदा हुए थे। अकेले आए हो, अकेले जाना है, और बीच में भी सब कुछ अपना ही है। अपने इस अपनेपन को नहीं पाया, तो तुम जीये ही नहीं।
कबीर ने कहा है, “सिंहों के नहीं लहड़े।” ‘लहड़े’ मतलब झुण्ड। भेड़ जिसमें चलती हैं न, ये सब, पूरा जत्था।
शेर को कभी देखा है कि वो कह रहा हो कि, "पन्द्रह-बीस शेर और अगर शिकार कर रहे हों तो मैं जाऊँगा शिकार करने, नहीं तो मेरी अकेली क्या हिम्मत है? अरे ये पाँच-सौ हिरण हैं, मैं कैसे जाऊँ?" ‘हंसों की नहीं पात’। छोटी-मोटी चिड़ियाँ होती हैं, वो पंक्तियाँ बनाकर चलती हैं। हंस पात में नहीं चलता है।
जो सुंदर होता है वो भी अकेला होता है, जो बहादुर होता है वो भी अकेला होता है। पर्वतों को देखो, नीचे घाटियाँ होती हैं, वहाँ हज़ार लोग बैठे मिल जाएँगे। चोटी पर कितने हो सकते हैं? चोटी पर बड़ा अकेलापन है, पर उस अकेलेपन को तुम्हें पाना पड़ेगा, क्योंकि वही तुम्हारा स्वभाव है।
जब मरोगे तो पंद्रह-बीस को साथ लेकर मरोगे क्या? कि, "अब आगे भी अकेला कैसे रह जाऊँ, भीड़ को लेकर चलूँगा आगे।" पैदा हुए थे तो कितनों को साथ लेकर आए थे? साँस लेते हो तो तुम्हारे साथ कितने लोग साँस लेते हैं? तुम्हारे मन में दुःख उठता है, तो कितनों को दुःख उठता है? कैसे डर रहे हो अपने अकेलेपन से?
एक डाकू था। नाम था वाल्मीकि। उसने जा कर एक दिन एक सवाल पूछा अपने परिवारजनों से – उसकी बीवी थी, बच्चे थे। उसने पूछा कि, “ये सब जो मैं कर रहा हूँ पाप तुम्हारे लिए, जब इसका फल मुझे मिलेगा, क्या तब भी तुम मेरे साथ खड़े होओगे? ईमानदारी से बताना।" बच्चों ने कहा, "नहीं!" बीवी ने कहा, "नहीं!" वो समझ गया। उसने कहा कि, "अकेले ही तो भुगतना है। अकेले ही किया है और अकेले ही भुगतूँगा। तो वो करूँ जिसमें मेरी मुक्ति है।" छूट गई डकैती, उसी दिन छूट गई। उसी दिन समझ में आ गया कि भीड़ में कुछ रखा ही नहीं है।
दुनिया में जिन लोगों ने कोई क़ायदे का काम किया है, वो भीड़ में चले या उन्होंने अकेले किया? जल्दी बोलो।
सभी श्रोतागण: (एक स्वर में) अकेले किया।
आचार्य: तो तुम अकेलेपन से क्यों भाग रहे हो? क्या तुमने ये देखा है कि चैराहों पर भीड़ की मूर्तियाँ लगती हैं, या तुमने ये देखा है कि मन्दिरों में भीड़ की मूर्तियाँ लगती हैं? क्या तुम्हें ये बताया गया है कि जो परम है वो एक भीड़ है? भीड़ कुछ नहीं होती है। भीड़ माने क्या? भीड़ की कोई संवेदना नहीं होती।
प्र: सर फिर एकता की क्यों बात करते रहते हैं?
आचार्य: एकता की बात इसलिए करनी पड़ती है क्योंकि जहाँ कहीं ज़बरदस्ती भीड़ का हिस्सा बनोगे वहाँ मन विद्रोह करेगा भागने के लिए। तो इसलिए प्रवचन देना ज़रूरी हो जाता है कि एकता रखो। असली एकता है प्रेम और असली एकता वही कर सकता है जिसने पहले अपने आप को पाया है। मैं तुमसे कह रहा हूँ, जिसने अपने आप को नहीं पाया वो क्या दूसरे को पा लेगा?
(सभी श्रोतागण इशारे से ‘ना’ करते हैं)
तो एकता कैसी, प्रेम कैसा? एकता के नारे लगाने ही इसलिए पड़ते हैं क्योंकि तुम अपने आप से दूर हो। अपने अंतस को नहीं पाया है, अपनी अखंडता को नहीं पाया है, इसलिए बाहर-बाहर से एकता के नारे लगाने पड़ते हैं। और तुम्हारे एकता के नारे, कितने झूठे हैं, क्या तुम ये जानते नहीं? लगाते रहो एकता के नारे।
मानव जाति के पूरे इतिहास में आज तक कभी एकता आ पाई है? कभी आ पाई है? आदमी लड़ता ही रहा है। जानते हो कितनी लड़ाईयाँ हुई हैं आज तक? तीन-चार-हज़ार साल का मानवता का इतिहास है और उसमें पाँच-हज़ार, सात-हज़ार लड़ाईयाँ हो चुकी हैं। लगातार आदमी लड़ता ही रहा है, एकता के नारे लगाता रहा है।
और कौन लड़ते हैं? झुंड लड़ते हैं आपस में। व्यक्ति से व्यक्ति नहीं लड़ रहा है, झुंड लड़ रहे हैं आपस में। व्यक्ति से व्यक्ति थोड़े ही लड़ता है। हिंदू से मुस्लिम लड़ता है, भीड़ से भीड़ लड़ती है। जब ये दिखे भी कि व्यक्ति से व्यक्ति लड़ रहा है, तो एक मन की भीड़ दूसरे व्यक्ति के मन की भीड़ से लड़ रही होती है। व्यक्ति से व्यक्ति का तो प्रेम होता है। ये जो लड़ाईयाँ होती हैं, हिंसा होती हैं, ये भीड़ों के मध्य होती हैं और तुम कहते हो कि मुझे भीड़ का हिस्सा बन जाना है। तो जाओ, लड़ो, मरो, यही अगर तुमने तय ही कर रखा है तो।
प्र: सर, लेकिन जो अकेला इंसान होता है वो हमेशा भीड़ के लिए ही क्यों काम करता है?
आचार्य: भीड़ के लिए करता नहीं है। फिर वो जो कुछ भी करता है उससे सबका कल्याण होता है। वो किसी के लिए नहीं कर रहा है।
प्र: नहीं सर मूलभूत चीज़ तो भीड़ ही होती है। उसको देख कर वो सारी चीज़ें करता है।
आचार्य: नहीं, वो किसी को देख कर नहीं करता है। भीड़ बड़ी ओछी चीज़ है। वो किसी को देखकर कुछ नहीं करता। हाँ, उसका जीवन ऐसा हो जाता है कि फिर वो जो कुछ भी करता है, उससे सबका भला होता है। भले ही लोगों को बुरा भी लगे, पर उससे उनका भला ही हो रहा होता है। वो फूल की तरह हो जाता है जिसकी खुशबू सबको मिलती है।
प्र: सर, गाँधी जी ने भी तो हमारे पूरे देश के लिए ही तो किया था, खुद के लिए थोड़े ही किया था!
आचार्य: तुम्हें कुछ पता है गाँधी का? तुम जानते हो? किसी का पता करने के लिए कुछ-कुछ पहले वैसा होना पड़ता है। तुम्हें सिर्फ कहानियाँ पता हैं। तुम्हें सिर्फ अफवाहें पता हैं जो तुमने सुन ली हैं। तुमने जाना है गाँधी को? तुमने गाँधी की पूरी प्रक्रिया को जाना है? गाँधी यूँ ही नहीं ‘गाँधी’ हो गए थे। गाँधी ने अपना पूरा शोधन किया था, अपने आप को पाया था पहले, फिर वो महात्मा हुए। भूलना नहीं, गाँधी बाद में थे, महात्मा हुए थे पहले। पहले वो करना पड़ता है न। गाँधी की बात मत करो, अभी अपनी बात करो।
दूसरों के तो तब हो पाओगे न जब पहले अपने हो जाओगे। गाँधी पहले अपने हुए। और जो अपना होता है, वो भीड़ के साथ, दूसरों के साथ, प्रेम से संबंधित होता है, डर से नहीं। तुम्हारा भीड़ से जो संबंध है, तुम्हारा दूसरों से जो संबंध है, तुम्हारा समाज से जो संबंध है, वो डर का है और लालच का है; कि, "समाज मुझे इज़्ज़त दे दे", ये तुम्हें लालच है, और, "समाज में कहीं कोई मेरा नुकसान ना कर दे", ये तुम्हें डर है। तुम्हारा प्रेम का थोड़े ही संबंध है। सिर्फ अकेला व्यक्ति प्रेम जान सकता है। सिर्फ वो जो अपने अकेलेपन से राज़ी है, अपने अकेलेपन में खुश है, सिर्फ वो प्रेम कर सकता है। तुम थोड़े ही प्रेम कर पाओगे।
(मुस्कुराते हुए) बात थोड़ी अजीब सी है कि जिसने अपना एकांत पा लिया, अपने आप को पा लिया, उसे पूरी दुनिया मिल गई। और जो दुनिया में ही खोया रहा, उसे दुनिया तो मिली ही नहीं, उसने अपने आप को भी नहीं पाया। तो वो हर अर्थ में भिखारी रह गया। जिसने अपने-आप को पा लिया, उसे पूरी दुनिया भी मिल जाएगी। पर जो दुनिया के ही पीछे भागता रहा, वो अपने आप से तो हाथ धोएगा ही, दुनिया को भी नहीं पा पाएगा। अब तुम देख लो कि तुम्हें क्या करना है।
पहले हिम्मत पैदा करो, पहले थोड़ा अपने डरों को जल जाने दो, उन्हें पोषण मत दो। तुम तो अपने डर के पक्षपाती बन कर खड़े हो जाते हो। तुम तो चाहते हो कि तुम्हारे डर कायम रहें। तुम तो अपने डरों की हिमायत में खड़े हो जाते हो कि, "नहीं, हमें डर कायम रखने हैं।" मैं कह रहा हूँ कि इन डरों को जल जाने दो। जहाँ डर जले, वहाँ तुमने अपने आप को पा लिया। डर ही तो रास्ता रोक रहे हैं। एक बार अपने आप को पा लोगे फिर सबके हो जाओगे।
प्र: तो सर उसकी प्रक्रिया क्या होगी?
आचार्य: जब डर दिखे तो उससे भागो मत, उसके करीब आओ। दबाओ मत, बेईमानी मत करो। ये मत कहो कि, "मैं डर ही नहीं रहा हूँ।" साफ़-साफ़ कहो कि, "हाँ डर है!" और डर से आँखें चार करो, डर को समझो। जब करीब जाओगे, उसे देखोगे, समझोगे। जैसे ही इतना करोगे, तुम पाओगे कि इसमें तो कुछ था ही नहीं। यूँ ही डरे रहते थे।
कठिन नहीं है, अगर तुम मानना छोड़ दो कि कठिन है। तुमने घुट्टी पी रखी है कि ये कठिन है। कठिन है नहीं। एक कहानी है, मुझे बड़ी पसंद है, सुनाता हूँ।
एक राजा था, बड़ी मौज में रहता था। छोटा-सा ही उसका राज्य था, पर जितने उसके राज्य में रहने वाले लोग थे, उन सब से उसका बड़ा प्रेम था – राजा कम था, उनका दोस्त ज़्यादा था। खूब मस्त रहे।
उसके आसपास और बड़े राज्य थे। उन्हें ये बात समझ में न आती थी कि ये इतनी मौज में, मस्ती में क्यों रह रहा है। ज़रा सा इसका राज्य है, कुछ विशेष इसके पास है नहीं। उस राजा से जल कर, चिढ़ कर, एक दिन उन्होंने आक्रमण कर दिया। वो राजा पहले तो हारे ही ना। चार-पाँच बड़े राज्यों की सेनाएँ मिल गईं तब भी ये हार नहीं रहा है, मौज में लड़ रहा है। और जब हार भी जाए, नुकसान भी हो जाए, तो भी पता चले कि खिलखिला रहा है। चोटें लगी हैं, घाव लगे हैं, दोस्त-यार हैं जो मारे गए हैं, तब भी वो खिलखिला रहा है।
ऐसा देखकर बाकि सब शत्रु राजा बड़े परेशान हो गए। उन्होनें कहा कि इसकी मौज में तो कोई अंतर ही नहीं पड़ता। तो उन्होंने एक आखिरी चाल चली। उन्होंने एक जादूगर को बुलाया। उन्होंने उससे कहा, "हम हारे, तुम कुछ करके दिखाओ।" जादूगर ने कहा, "बड़ी बात नहीं है, अभी करके दिखाता हूँ। ये पानी लो और उसको पिला देना। ये पानी पीते ही वो भूल ही जाएगा कि वो राजा है, बिलकुल भूल जाएगा।"
उन्होंने कुछ जुगाड़ करके उसको वो पानी पिलवा दिया, और राजा भूल गया कि वो राजा है। उसके मन पर ये बात छा गई कि वो भिखारी है। उसका पूरी दुनिया से जो दोस्ती का संबंध होता था वो टूट गया। दोस्ती गई, गुलामी आ गई, अब वो बाहर निकल कर सबसे कह रहा है कि, "मालिक कुछ दे दो न।" किसी से दो रोटी माँग रहा है, किसी से थोड़ा पैसा माँग रहा है, किसी से प्रेम माँग रहा है, "थोड़ा सा प्रेम मिलेगा?"
उसने तमाम राज्यों के ही लोगों से नए संबंध बना लिए, और हर संबंध में वो गुलाम था, क्योंकि भिखारी ही तो सबका गुलाम होता है, हर संबंध में वो सिर्फ़ गुलाम था। जहाँ जाता, वहाँ भीख माँगता फिरता। उसने अपनी नई दुनिया ही रच ली, कि सुबह ऐसे भीख माँगनी है, फिर ये करना है, और जहाँ बहुत सारे लोग खड़े हों तो उनकी हाँ-में-हाँ मिलानी है। "उनकी हाँ-में-हाँ मिलाऊँगा, तो ही मुझे भीख मिलेगी।"
तो उसने ये भी सीख लिया, भीड़ से डर के रहना, और जिधर को भीड़ जा रही हो उधर को ही चल देना। जहाँ मेला लगा हो वहाँ खड़े हो जाना क्योंकि वहाँ बहुत सारे लोग हैं, भीख मिलने की संभावना बढ़ती है। उसके दोस्त बड़े परेशान। उसका एक खासतौर पर प्यारा मित्र था, वो बहुत परेशान हो गया। उसने कहा कि इसकी सारी मौज खो गई, इसकी सारी मालकियत खो गई और इसने नई ही दुनिया रच ली है। जहाँ ये बस एक कटोरा लेकर सबके सामने खड़ा है कि, "थोड़ा सा कुछ दे दो, मैं महाभिखारी हूँ।"
खैर कोशिश कर-करके, कर-करके किसी तरीके से इस दोस्त ने अंततः उसको याद दिलाया कि, "तू भिखारी नहीं है, तू राजा है, तू बादशाह है, और तेरी बादशाहत, तेरी मौज कभी छिन ही नहीं सकती।" जैसे ही उसको दोबारा याद आया, उसने जितने अपने रिश्ते-नाते बना रखे थे, उसने भीड़ की गुलामी की जो आदत डाल रखी थी, वो तुरंत छूट गई। क्यों? क्योंकि उसके सारे रिश्ते नाते डर पर आधारित थे, वो सबसे डरता था।
वो जिनको प्यारा बोलता था उनसे भी वस्तुतः डरता ही था। उसने तुरंत अपने फटे हुए कपड़े फेंक दिए, कटोरा फेंक दिया। जिनको कल तक वो 'मालिक! मालिक!' कहता था, जब वो सामने आए तो उसने कहा कि, "मालिक तो नहीं हो, दोस्त बन सकते हो तो आओ गले लगो, कोई मालिक नहीं।" जिस भीड़ के पीछे वो कल तक भागता था, उसने कहा, "भीड़? अरे भीड़ के साथ जाना किसको है? हम बादशाह हैं, कोई भीड़ हमारा क्या बिगाड़ सकती है? हमारी मौज पर कोई अंतर नहीं पड़ सकता।"
तुम सब भी वही पानी पिये बैठे हो। वो डर का पानी है जो बचपन से ही तुमको पिलाया गया है, और तुम पूरी तरह डर गए हो। बात-बात में तुमको वही पानी पिलाया गया है और तुम्हें बता दिया गया है कि तुम बादशाह नहीं हो, तुम भिखारी हो। घर, समाज, शिक्षा, धर्म, मीडिया, दोस्त, हर तरफ जहाँ भी जा रहे हो सुबह से शाम तक वही पानी पी रहे हो। तुम्हें कई तरीकों से बताया जा रहा है कि तुम में कमियाँ हैं और तुम भिखारी हो। कैसे-कैसे तरीके हैं, जानते हो?
टी.वी. खोलते हो, टी.वी. तुमसे बोलता है कि, "जब तुम्हारे पास ये वाली कार हो जाएगी तब तुम्हारा जीवन सार्थक होगा।" कपड़ों का विज्ञापन आता है तो विज्ञापनदाता बोलता है, "द कमप्लीट मैन।" वो तुमसे कह रहा है कि, "जब तक तुमने ये वाला कपड़ा नहीं खरीदा, तुम पूर्ण नहीं हुए।" घर के लोग बोल रहे हैं कि, "इज़्ज़त भी तुझे तब मिलेगी जब तू कुछ बन कर दिखाएगा।" भाई-बंधु बोल रहे हैं कि, "तू प्यार के काबिल भी तब होगा जब तू पहले दुनिया में कुछ अर्जित कर लेगा अन्यथा तुझे प्यार भी नहीं देंगे।"
हर तरीके से, सुबह से शाम तक तुम्हारे मन में यही बात डाली जा रही है कि तुम भिखारी हो और तुम्हें कुछ पाना है। इस बात को ध्यान से समझना। जब भी तुमसे ये कहा जाए कि कुछ पाओ, तो वो व्यक्ति तुमसे यही कह रहा है कि वर्तमान में तुम भिखारी हो। और वो व्यक्ति तुम्हारा दुश्मन है। ऐसा नहीं कि उसकी नियत खराब है। वो नासमझ है और वो अपनी नासमझी के कारण तुम्हारा बड़ा नुकसान कर रहा है। जो भी तुमसे कह रहा है कि कुछ बन कर दिखाओ, कुछ पाओ, वो तुम्हारा बड़ा नुकसान कर रहा है, उसने तुम्हारे दिल में डर बैठा दिया है, उसने भीड़ को तुम्हारा मालिक बना दिया है।
मैंने अंतस की बात की थी। अंतस का अर्थ यही होता है — "हम बादशाह हैं, हम पूरे हैं और हम मौज में है, हमारी मस्ती अखण्ड है। स्थितियाँ बदलती रहें, हमारी मस्ती नहीं बदलती।" यही है अंतस, यही है तुम्हारी बादशाहत। ये तुमसे भुलवा दी गई है।
(मुस्कुराते हुए) ये डर का पानी पी-पी कर तुम भिखारी बन गए हो। मैं कोशिश कर रहा हूँ कि फिर से तुम्हें याद आ सके कि तुम सच में क्या हो।