डर और सावधानी में क्या रिश्ता है? || आचार्य प्रशांत, युवाओ के संग (2014)

Acharya Prashant

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डर और सावधानी में क्या रिश्ता है? || आचार्य प्रशांत, युवाओ के संग (2014)

प्रश्न: आचार्य जी, दर और सावधानी क्या एक ही चीज़ हैं?

आचार्य प्रशांत जी: दो-तीन बातें हैं, उन्हें समझ लेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा। सावधानी कभी-भी मन में डेरा डालकर नहीं बैठती। तुम गाड़ी चला रहे हो, चला रहे हो, सामने कोई आ गया, तुम क्या करते हो? ब्रेक लगा देते हो। और फ़िर वो व्यक्ति पीछे छूट गया। क्या तुम उसके बारे में सोचते रहते हो, सोचते रहते हो, सोचते रहते हो?

सावधानी तात्कालिक होती है, उसी समय की। वो अपना कोई अवशेष पीछे नहीं छोड़ती है। सावधानी कुछ और नहीं है – जागरूकता है, सजगता है। *“मैं जगा हुआ हूँ”-* *जगा होना ही सावधानी है ।* उसके लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना होता।

*(*श्रोताओं से प्रश्न करते हुए) तुम में से कितने लोग गाड़ियाँ चलाते हैं? जब तुम लोग गाड़ियाँ चलाते हो, तो तुम्हें क्या बार-बार सोचना पड़ता है कि – “मैं सावधान रहूँ , सावधान रहूँ?” तुम्हारा बस जगा होना काफ़ी है ना? मैं पूरी तरह जगा हुआ हूँ। बल्कि अगर सोच रहे हो बार-बार कि – “मैं सावधान रहूँ” – तब ज़रूर दुर्घटना हो जाएगी। तुम तो सहज भाव से गाड़ी चला रहे हो, और सामने स्पीड-ब्रेकर आ गया तो? ब्रेक लगा दिया। सामने कुत्ता आ गया तो? गाड़ी मोड़ लिया, ब्रेक लगा दिया।

ये सावधानी है।

सावधानी कोई विचार नहीं। सावधानी सजगता की तात्कालिक प्रतिक्रिया है। उसकी कोई तैयारी नहीं करनी है। वो पूर्वनियोजित नहीं है।

बात आ रही है समझ में?

जैसे मैं अभी तुमसे बोल रहा हूँ। तुमने कुछ पूछा, मैंने बोलना शुरू कर दिया। ये पूर्वनियोजित है क्या? बस मेरा जगा होना काफी है – आँखों भर से नहीं, मन से। बस जगा होना काफ़ी है। तो सावधानी बस यही है। इसके अलावा सावधानी कुछ नहीं। इसके आगे अगर कोई सावधानी की बात करता है, तो वो फ़िर डरा रहा है। सजगता के अतिरिक्त अगर कोई सावधानी की बात करता है, तो फिर वो सिर्फ़ डरा रहा है, क्योंकि फ़िर सावधानी विचार बन जाएगी, और वो तुम्हारे मन में चक्कर काटेगी- “मुझे सावधान रहना है, मुझे सावधान रहना है।”

डर बिलकुल अलग बात है। डर ऐसा कि जो मन में घर करके बैठ जाए कि – “स्पीड-ब्रेकर तो पीछे छूट गया, और मैं अभी भी उसके बारे में सोच रहा हूँ।”

क्या हो सकता था?

“अभी फ़िर से आएगा स्पीड-ब्रेकर, तो कैसे करना है?”

“और दो साल पहले सुना था स्पीड ब्रेकर पर मौत हो गई थी।”

और दुनिया भर के ख़याल मन में घूम रहे हैं।

ये डर है।

आईना देखा है? आईने के सामने अगर कभी साँप आए, तो आईने में साँप कब तक रहता है? जब तक वो आईने के सामने है। मन को आईने की तरह रखो, साफ़। जब साँप सामने है, तो साँप दिखाई दे – ये सावधानी है। जब है सामने, तो दिखाई देना चाहिए। ये नहीं कि अंधे हो गए, दिखाई ही नहीं दे रहा। सामने है साँप, तो दिखाई दे रहा है साँप। पर जिस क्षण साँप गया, तो आईने से भी साँप चला गया।

मन ऐसा रहे।

जब सामने है, तो साफ़-साफ़ दिखाई दे कि सामने है। और जब सामने नहीं है, तो अब नहीं है। तो अब हम विचार नहीं कर रहे कि – “साँप आया था। आओ दोस्तों अब कथा सुनाएँ साँप की।” और दो साल तक उनका साँप-पुराण चल रहा है। और हम ऐसे ही जीते हैं ना? “तुम्हें पता है, दो साल पहले मेरे साथ क्या दुर्घटना हुई थी?” अब ये डरा हुआ मन है। साँप तो चला गया, पर इसके मन में निशान छोड़ गया।

एक आईना लो, बिल्कुल साफ़। बिल्कुल साफ़। और एक दूसरा आईना लो, जिसपर ढेरों गंदगी जमा है, धूल-ही-धूल, धूल-ही-धूल। दोनों आईनों के ऊपर से साँप रेंग जाता है। निशान कहाँ छूटेगा?

श्रोता: गंदगी वाले आईने में।

आचार्य प्रशांत जी: डर और सावधानी का अंतर समझ में आ गया? डर ये है कि इतनी धूल पड़ी थी कि उसपर निशान पड़ गए, और वो निशान अब मिट नहीं रहे। दुर्घटना हुई थी छः साल पहले, और खौफ़ अभी भी कायम है। और खौफ़ का अर्थ है कि – आईने पर धूल जमी है। और धूल का क्या अर्थ है? मान्यताएँ, धारणाएँ, तमाम तरह के विश्वास – यही सब धूल होती है।

अपने को कुछ-का -कुछ समझ लेना , अपने से परिचित न होना।

यही सब धूल है।

तो सावधानी की ओर तुम्हें प्रयत्नपूर्वक नहीं जाना पड़ेगा। तुम ये नहीं कहोगे कि – “मैं सावधानी कर रहा हूँ।” सावधानी तो स्वभाव है। सावधानी का ही दूसरा नाम है – सजगता। “मैं जान रहा हूँ।”

अगर तुम वाकई जान रहे हो, और जागे हुए हो, तो तुम्हारे सामने अगर कुछ ऐसा चला आ रहा है जिससे तुम्हारे शरीर को हानि हो सकती है, तो तुम्हें विचार नहीं करना होगा। तुम खुद ही हट जाओगे।

गाड़ी चला रहे होते हो सामने से कोई ट्रक आ रहा होता है कितने लोग विचार करते हैं कि – “अब क्या करना है?”? और अगल-बगल वालों से पूछते हैं, या जो पीछे बैठा होता है उससे, या गूगल सर्च करते हैं- सामने से ट्रक आए तो क्या करें? कितने लोग ऐसे हैं?

तो सावधानी तो बड़ी ही सहज एवं सरल बात है। जितने सरल और सहज रहोगे, समझ लो उतना ही सावधान भी हो। बड़ी हल्की चीज़ है सावधानी, उसमें कुछ करना नहीं पड़ता। कोई प्रयत्न, कोई विचार, कोई आयोजन उसमें शामिल ही नहीं है। आँखे खुली हैं, इतना काफ़ी है। *ध्यान बस इतना रहे कि आँखें खुली होनी चाहिए,* *वास्तव में खुली होनी चाहिए।* *कहाँ की? आँखों की भी, और मन की* *भी।*

सावधानी की चिंता छोड़ो, डर से बचो। डर से।

और अक्सर जो डरपोक लोग होते हैं वो कहते हैं – “डरता कौन है? मैं तो बस अलर्ट हूँ, सावधान हूँ।” ये तुम क्या कर रहे हो? तुम अपने ही डर के पक्ष में खड़े हो गए। तुम अपने ही डर को बचाना चाहते हो। उसे एक झूठा नाम देकर, ‘सावधानी’ का? सीधे क्यों नहीं कहते कि – “डरपोक हूँ।”

“नहीं-नहीं डरपोक नहीं हूँ। डरपोक कौन है? डरता कौन है? हम थोड़े ही डरते हैं।” और काँप रहे हैं। गिर जाएँगे थोड़ी देर में।

सावधानी तो बेख़ौफ़ होती है। सावधानी में कोई चिंता, निराशा, भारीपन नहीं होता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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