प्रश्नकर्ता: सर हमें डर क्यों लगता है?
आचार्य प्रशांत: डर तुम्हें हमेशा किसी बाहर वाले से लगता है। और डर में तुम्हें हमेशा ये लगता है कि कोई बाहर वाला तुम्हारा बड़ा भारी नुकसान कर देगा। डर हमेशा तुमसे यही कहता है कि बाहर की कोई परिस्थिति, कोई दुर्घटना, कोई व्यक्ति तुम्हारा कोई बहुत बड़ा नुकसान कर देगा।
डर यही है न? “ऐसा हो गया तो क्या होगा?” यही लगता है न डर में?
सभी श्रोतागण: (एक स्वर में) जी, सर।
आचार्य: डर तुम्हें इसलिए लगता है क्योंकि तुम्हें अपने ऊपर ये विश्वास नहीं है कि, “कुछ भी हो जाए, मैं सलामत रहूँगा। कितना भी बड़ा नुकसान हो जाए, हम झेल लेंगे, हम मस्त रहेंगे।” तुम्हें लगातार ये एहसास बना रहता है कि तुम्हारे पास जो कुछ है वो तुम्हें दुनिया ने दिया है, और दुनिया अगर छीन ले गई तो तुम बिलकुल भिखारी हो जाओगे। तुम्हारे पास कुछ बचेगा ही नहीं।
समझो, डर का सिर्फ एक निवारण है कि, “आओ! जो ले जा सकते हो, ले जाओ। जितनी बुरी-से-बुरी घटना होनी हो, हो। हम जी जाएँगे। हम ये नहीं कह रहे कि तुम हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, हम कह रहे हैं कि तुम हमारा जो बिगाड़ सकते हो, बिगाड़ लो। हम बिलकुल मना नहीं कर रहे हैं कि तुम्हारी ताकत नहीं है हमारा कुछ बिगाड़ लेने की। हम कह रहे हैं, तुम्हारी पूरी ताकत है हमारा नुकसान कर देने की और तुम जितना चाहो हमारा नुकसान कर लो। हम बस इतनी-सी बात कह रहे हैं कि उस सारे नुकसान के बाद भी हम जी जाएँगे।” अब डर नहीं लगेगा। तुम कहो कि, “जो बुरे-से-बुरा हो सकता है हो जाए, हम कायम रहेंगे। हम नहीं कहते कि कुछ बुरा नहीं होगा।”
तुम ये इच्छा करो ही मत कि तुम्हारे साथ कुछ बुरा न हो। तुम ये कहो कि, “जो बुरे-से-बुरा भी हो सकता हो, मुझमें ये सामर्थ्य हो कि उसमें भी कह सकूँ कि 'ठीक है, होता हो जो हो'।” लेकिन याद रखना, जो बुरे-से-बुरे में भी अप्रभावित रह जाए उसे अच्छे-से-अच्छे में भी अप्रभावित रहना होगा। तुम ये नहीं कह सकते कि, “ऐसा होगा तो हम बहुत खुश हो जाएँगे, लेकिन बुरा होगा तो दुखी नहीं होंगे।” जो अच्छे में खुश होगा, उसे बुरे में दुखी होना ही पड़ेगा। तो अगर तुम ये चाहते हो कि तुम्हें डर न लगे, कि तुम्हें दुःख न सताए, कि तुम्हें छिनने की आशंका न रहे, तो तुम पाने का लालच भी छोड़ दो। जो पाने पर खुश होता है वो छिनने पर दुखी…?
सभी श्रोतागण: (एक स्वर में) ज़रूर होगा।
आचार्य: तो अगर तुम चाहते हो कि छिनने का दुःख न हो तो पाने की खुशी भी छोड़ो। जब मिले कुछ, तो शांत रहो, सहज रहो। कोई बड़ी बात नहीं हो गई। मिठाईयाँ मत बाँटो कि, “पास हो गए, पास हो गए।" जो पास होने पर मिठाईयाँ बाँटेगा, वो फ़ेल होने पर आँसू बहाएगा। जो मिलने पर खूब हँसेगा वो बिछड़ने पर…?
सभी श्रोतागण: (एक स्वर में) रोएगा।
आचार्य: उतना ही रोएगा। मिलना हो कि बिछड़ना हो, पाना हो कि गँवाना हो, तुम एक से रहो। मानो खेल रहे हो। जैसे खेल होता है न? अपनी पूरी ताकत से दौड़े, दौड़ है, रेस * । जीत गए तो बस हल्के से मुस्कुरा दिए और अगर हार गए तो भी बस हल्के से मुस्कुरा दिए, बात खत्म। ये नहीं कि जीत गए तो पागल हो गए, अट्टाहास कर रहे हैं, * विक्ट्री लैप ले रहे हैं, ये सब नहीं।
जो उत्तेजित बहुत होते हैं वही फ़िर अवसाद में जाते हैं। साइन वेव देखी है? क्रेस्ट और ट्रफ़ उसी में होते हैं। ऊपर जाती है तो फिर नीचे भी आती है और यही उसका जीवन भी है। जैसे किसी गाड़ी में बैठे हो जो बार-बार गड्ढे में गिरती हो और ऊपर आती हो – क्या हालत होगी तुम्हारी उसमें?
चोटों से सूज जाओगे। सूज कर कुप्पा हो जाओगे।
(सभी हँसते हैं)
प्रश्नकर्ता: सर, अगर किसी इंसान को हमारी ज़रूरत हो, तो क्या हमें उसकी मदद करनी चाहिए?
आचार्य: मदद क्या होती है पहले ये जान लो। तुम मदद के नाम पर पता नहीं क्या-क्या कर जाते हो।
“भाई तू आज बहुत उदास लग रहा है। ले ये सुट्टा मार।”
(सभी हँसते हैं)
मदद का अर्थ तो जानो क्या है। तुम्हें अपने जीवन का अर्थ नहीं पता, तुम आज तक अपनी मदद नहीं कर पाए, किसी और की क्या मदद करोगे? अपनी मदद कर पाए हो?
ये ऐसा ही है जैसे कोई शराबी निकले और बोले, “आज पूरी दुनिया को होश में लाकर मानूँगा!"
(सभी हँसते हैं)
मदद का बहुत शौक है और पूरी दुनिया मददगारों से भरी हुई है। जिसको देखो उसी को मदद करनी है क्योंकि मदद करने में अहंकार बड़ी खुशी पाता है।
हम कौन?
सभी श्रोतागण: (एक स्वर में) मदद करने वाला।
आचार्य: “ये सब दबे-कुचले, गिरे हुए लोग हैं – हम इनकी मदद करते हैं।”
और तुम्हारी मदद कौन करेगा?
तुम जग जाओ, तुमने दुनिया की बड़ी मदद की। तुम ज़रा होश में आ जाओ, सबकी मदद अपनेआप हो जाएगी।