आचार्य प्रशांत: तुम कहते हो कि, "क्या सोचेगा, वो दुश्मन है मेरा! कहीं हँसने न लग जाए मेरे ऊपर। मेरी भाषा ठीक नहीं है, मेरे पूछने का अंदाज़ बढ़िया नहीं है। और ये सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं।" प्रमाण ये रहा कि ये सब-के-सब न हों तो तुम्हारा डर भी नहीं रहेगा। स्वयं से अकेले में बोलते हुए कोई नहीं डरता, या डरते हो? दूसरों की मौजूदगी डराती है न? ठीक कह रहा हूँ? इसी भीड़ का डर है न? यही भीड़ है जिससे खौफज़दा हो?
तुम्हारी दुनिया में तुम बड़े अकेले हो। और तुमने एक दिमागी मॉडल (प्रतिमान) बना रखा है, जिसमें तुम हो, और एक भीड़ है जो तुम्हें खा जाने को उतारू है। और एक संकुचित दीवार है जिसके भीतर तुम छिपकर खड़े हुए हो अपने-आपको भीड़ से बचाकर। वो तुम्हारी चुप्पी की दीवार है इस वक़्त। जो तुम चुप थे, जो तुम बोल नहीं पा रहे थे—वो वही मानसिक दीवार है मैं जिसकी बात करे जा रहा हूँ। उस दीवार के बाहर ये सब अजनबी, ये सब पराये लोग खड़े हैं, जिनको तुमने दुश्मन का लेबल लगा दिया है, कि, "ये तो दुश्मन हैं"।
दुश्मन हैं नहीं, तुमने बना रखा है। ज़बरदस्ती बना रखा है।
तुमने सवाल पूछा तो लोग हँसे? किसी ने ताना मारा? कोई दुर्घटना हो गई? कोई धमकी वगैरह आई है कि दोबारा पूछा तो गोली मार देंगे? पर कईयों का ऐसा ही मानना है कि, "हमने अगर सवाल पूछा तो हम आतंकवादियों की हिट-लिस्ट में आ जाएँगे।" अजीब-अजीब ख्याल पक रहे होंगे – "अगर मैंने बोला तो मेरे चरित्र पर उंगली उठ जाएगी"। कुछ भी ख्याल पका सकते हो, ख्यालों का क्या है?
ये दीवार भद्दी है, बेहुदी है! कोई तर्क नहीं है इसका, बस है। अभी गिरा दो! मानसिक ही तो है। पर वो गिरेगी तो साथ में थोड़ा अहंकार भी गिरेगा। उससे मोह छोड़ो। वो तुम्हें दुःख के अलावा कुछ नहीं दे रहा है।
प्रश्नकर्ता: अगर डर अवास्तविक है तो पूरी दुनिया डर पर ही क्यों चलती है?
आचार्य: प्रश्नकर्ता का जो सवाल है, उसको मैं थोड़ा और चौड़ा करूँगा। वो कह रहा है कि, "डर अगर सिर्फ एक विचार है, अवास्तविक, उसकी कोई हकीकत नहीं है, तो पूरी दुनिया फिर डर पर ही क्यों चलती है? क्यों हम लोगों को धमकियाँ देते हैं? क्यों हर व्यवस्था में, हर सिस्टम में, लगातार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से डर का ही इस्तेमाल किया जाता है? चारों तरफ डर-ही-डर दिखाई क्यों पड़ता है?”
क्योंकि डर काम करता है। क्योंकि हम जैसे हो गए हैं, हम डर पर ही चलते हैं। हम में से कोई ऐसा नहीं है जिसने ये दीवारें नहीं खड़ी कर रखी हैं। हम में से कोई ऐसा नहीं है जो प्रेम से बिलकुल खाली नहीं है। ओर जो ही इंसान प्रेम से खाली होगा, जो ही इंसान पूरी दुनिया को पराया बनाकर बैठा होगा, वो डर पर ही चलेगा। सच तो ये है कि उसको चलाने का कोई और तरीका नहीं है। और वो बड़ी आसानी से चलाया जा सकता है; थोड़ा-सा डर दे दो, या थोड़ा लालच दे दो। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं—डर और लालच।
इन दीवारों में कैद रहने का सबसे बड़ा दुष्परिणाम ये है कि तुम अपने सत्तर मालिक खड़े कर लेते हो। हर मालिक जानता है कि तुम्हें कैसे चलाना है। थोड़ी-सी चाबी घुमाई और तुम चल दोगे। कौन-सी चाबी? डर की। क्योंकि डर के अलावा तुम्हारा किसी और प्रेरक से परिचय है ही नहीं।
तुम्हारे ऊपर बात छोड़ दी जाए कि अपनी समझ से करो, अपनी चेतना से करो, तो तुमने उसको इतनी गहरी नींद सुला रखा है कि तुम कहोगे, "किस से करो? चेतना से? उसको हम जानते नहीं।"
तुमसे कह दिया जाए कि, "कोई परीक्षा आ रही है, इस कारण पढ़ लो,” तुम पढ़ने बैठ जाओगे। डर!
पर तुमसे कहा जाए कि, "अपनी मौज में पढ़ो। इसलिए पढ़ो क्योंकि पढ़ना सुंदर है।"
तुम कहोगे, "क्या है पढ़ना, सुंदर, सुन्दरता? ऐसा तो हम कुछ जानते नहीं"।
तुमसे कहा जाए कि, "इसलिए पढ़ो कि पढ़ने में आनंद है"।
तुम कहोगे, "कौन है? आनंद माने? हम नहीं जानते।"
तुमसे कहा जाता है किसी को नमस्कार कर लो क्योंकि नहीं करोगे तो वो नराज़ हो जाएगा, तो तुम डर के मारे कर देते हो। गुड मॉर्निंग (सुप्रभात) कर लोगे, हो सकता है किसी के पाँव भी छू लो। और हम डर के मारे ही छूते हैं बहुत बार पाँव। पर प्रेम के कारण तो तुम नहीं किसी को नमस्कार करते, खौफ़ के कारण कर लेते हो, और खौफ़ पर पूरी दुनिया नमस्कार किए जा रही है। अब इनका और तरीका क्या है? क्योंकि प्रेम में जो नमन होता है, वो इन्होंने कभी जाना ही नहीं। किसी नकली पर चले जा रहे हैं बस।
ये जो जीने का तरीका है, जो डर पर चलता है, ये गहरी ग़ुलामी का तरीका है, क्योंकि तुमने अब बिलकुल एक लेबल लगा लिया है अपने ऊपर। प्रचारित करे जा रहे हो, "मैं डरपोक हूँ। डंडा लेकर आओ और मुझसे जो कराना चाहते हो, वो करा लो। जो ही डंडा दिखाएगा, हम उसी के ग़ुलाम हो जाएँगे।" और ऐसा ही तो है, बिलकुल ऐसा ही है।
व्यवस्था डंडा दिखाती है, तुम चल देते हो। समाज डंडा दिखाता है, तुम चल देते हो। टीवी-मीडिया लालच दिखाते हैं, तुम चल देते हो। पढ़ते भी इन्हीं वजहों से हो कि डर है बेरोज़गारी का। नौकरी इसलिए करते हो कि डर है बदहाली का। कुछ भी अपनी समझ से होता कहाँ है? है न बड़ी बेचारगी की हालत? और ये बेचारगी की जो हालत है, इसपर रोया कम जा सकता है, हँसा ही ज़्यादा जा सकता है। क्योंकि ये बेचारगी, सेल्फ इन्फ्लिक्टेड (आत्म प्रवृत्त) है। कोई और दुश्मन है ही नहीं तुम्हारा। तुमने खुद अपनी ये हालत कर रखी है, कि, "मेरा तो एक ही इंजन है, डर! मैं तो उसी से चलता हूँ।"
कोई आवश्यक नहीं कि जीवन ऐसा हो। तुम सबमें पूरी योग्यता है, पात्रता है। दूसरे भी इंजन हो सकते हैं, जीवन दूसरे तरीकों से भी जिया जा सकता है, और जीना चाहिए। पर हम खुद भी डरते हैं और दूसरों को भी डराते हैं। "जीवन भर मैं इसी डर में रहा कि मेरा क्या होगा। भविष्य में बड़े-बड़े खतरे खड़े हैं। मेरा न जाने क्या हो जाए। और अब मैं अपने बच्चों को भी डराऊँगा।"
एक डरा हुआ मन अपने पास वाले सबको डरा देगा, और एक दीवार के भीतर जो हैं, सब डरे हुए हैं। वो एक दूसरे को और डर में रखते हैं। जैसे कि एक ही बीमारी के कई मरीज़ एक साथ कर दिए गए हों। और बीमारी संक्रामक हो तो कोई भी मरीज़ ठीक हो कैसे पाए? जो ठीक होने लग जाता है, बाकियों के कीटाणु उसको दोबारा लग जाएँगे। बाकी उसको ठीक होने दे ही नहीं रहे। तो बड़ी विचित्र हालत है।
दीवार में हो, भीतर सब बीमार हैं, वो तुम्हें स्वस्थ नहीं होने देंगे। दीवारों से बाहर जाने में तुम्हें डर लगता है, तो तुम जाना नहीं चाहते। न अन्दर के हो, न बाहर के हो।
अगर डर हमारी नियति होती तो मैं उसपर कुछ बोलता ही नहीं। अगर घुटा-घुटा जीवन जीना पक्का ही होता कि ज़िन्दगी ऐसी ही है, और हँस कर जियो या रोकर जियो, जियोगे डर में ही, तो मैं तुमसे कोई बात नहीं करता। पर तुम्हें आश्वस्त कर रहा हूँ, कि जीवन ऐसा ही नहीं है।
जीवन खुला आकाश है, उसमें मज़े से उड़ सकते हो। कोई सीमित्ताएँ नहीं हैं। जितनी दीवारें खड़ी करी हैं, तुमने खुद खड़ी करी हैं और वो मानसिक हैं। और उन्हें आज गिरा दो, अभी गिरा दो। बस थोड़ी सुविधाएँ छोड़नी पड़ सकती हैं, और वो भी मानसिक ही हैं। सुरक्षा का ख्याल छोड़ना पड़ सकता है, और वो भी मानसिक ही है। कैसी सुरक्षा? जो डर-डर कर जीते हैं, क्या वो मरते नहीं? तो कैसी सुरक्षा? डर में कौन-सी ख़ास सुरक्षा मिल गई तुमको?
जो सब यहाँ पर डरे हुए लोग बैठे हुए हों, वो मुझे बताएँ कि डर कहाँ पर है—इस पंखे में है? इस दीवार में है? कुर्सी के नीचे बैठा हुआ है? कहाँ पर है डर? कहीं नहीं है! डर यहाँ (सर की तरफ इशारा करते हुए) पर है। और नकली है! यहीं पर है, यहीं से गायब कर दो उसको।
दुर्भाग्य की बात ये है कि मैं अभी तुमसे बोलूँ कुछ ऐसी बातें जो डर का समर्थन करती हों, तो शायद तुम्हें मुझपर ज़्यादा विश्वास आ जाएगा। तुम कहोगे, "ये हमें कुछ काम की बात बता रहे हैं। आज मिला कोई हितैषी। ये बता रहे हैं कि दुनिया में कैसे-कैसे खतरे हैं और उनसे कैसे बचना चाहिए।"
जो भी तुम्हें बताता है कि दुनिया खतरों से भरी हुई है, तुम्हारे डर को ही पक्का कर रहा है।
यही काम मैं करना शुरू कर दूँ तो तुम कहोगे, "हाँ, आए थे, और बहुत बढ़िया बात करके गए। सावधान किया उन्होंने हमें कि उस मोड़ पर कोई खड़ा हुआ है बन्दूक लेकर के। और उधर कदम मत रखना। ज़मीन में लैंडमाइन बिछी हुई है, विस्फोट हो जाएगा। और अपने बाएँ तरफ तो कभी देखा ही मत करो, वहाँ भूत-प्रेत-जिन्न वगैरह हैं। बड़े शुभाकांक्षी थे, ये सब बातें बता गए हैं!" और तुम्हें वही लोग अच्छे लगते हैं जो तुम्हें डराते हैं।
अभी कोई आए और तुमसे कहे, "देखो बेटा, जीवन खतरों की खान है। जीवन में बड़ी उलझनें हैं। पैदा होने का मतलब ही है सज़ा भुगतना," तो तुम कहोगे, "ये देखो, इन्होंने करी कुछ बात।" "देखो, तुम ऐसा करा करो, रोज़ शाम को सात-आठ बजे तक घर वापस आ जाया करो। आठ बजे के बाद सड़कों पर साँप और बिच्छू तैरने लगते हैं।" तुम कहोगे, "ये देखो, ये हमारा भला चाहते हैं।"
पर मैं तुमसे कह रहा हूँ, "खुलकर उड़ो, आकाश तुम्हारा है"।
"मरवाएँगे! कौन-सा आकाश? कौन-सा उड़ना? पर तो हमारे हैं नहीं!”
हमें भले ही वही लोग लगने लगे हैं जो डराएँ। देखा है न इस तरह की बातें लिखी हुईं, "ज़िन्दगी एक जंग है”, "भविष्य का सामना करने के लिए तैयार रहो”? 'भविष्य का सामना' माने क्या? भविष्य में कोई बम धमाके चल रहे हैं? भविष्य कोई तुम्हें खा जाने को आतुर है? पर जैसे ही कोई तुमसे ऐसी बात करता है, "हम तुम्हें भविष्य का सामना करने के लिए तैयार करेंगे”, तुम कहते हो, "ये बढ़िया आदमी है। आइए सर, बताइए, भविष्य का सामना कैसे करें?"
अब तुम देख रहे हो कितनी हिंसा है इस बात में, कितना डर है इस बात में? – "भविष्य का सामना करना"। क्या सामना करना? यहाँ बैठे हो, भविष्य अपने आप आता जा रहा है। तुमने पहले ही तय कर लिया कि खतरा है। और अगर खतरा है तो भविष्य तो लगातार बह ही रहा है, आ ही रहा है, एक नदी की तरह। फिर तो जीवन ही खतरा है। फिर तो सबसे बड़ा खतरा मौत है क्योंकि अंततः वो आनी ही है। फिर तो मरे रहो, गिरे रहो।
"ज़िन्दगी के खतरे!" तुम ये तो नहीं कहते, "ज़िन्दगी का प्रेम।” तुम ये तो नही कहते, "ज़िन्दगी का उत्सव।” ये भी नहीं कहते, "ज़िन्दगी की स्वतंत्रता।” तुम बातें करते हो – "ज़िन्दगी के खतरे" की, क्योंकि डर को ये भाषा बहुत पसंद है।
"कुछ आ रहा है, तलवार बाहर निकालो। हिंसा! लड़ते हैं!”
"बेटा, अपने भविष्य के बारे में क्या सोचा है? सोचना शुरू कर दो। अब तुम बड़े हो गए हो।"
तुम देख रहे हो यहाँ पर आशय क्या है? कि सोचो, तैयारी करो, कुछ है आगे जो गड़बड़ है। तुम देखते हो किस तरीके से ये बीमा बेचने वाली कम्पनियाँ तुमको बार-बार बताती हैं कि डरो और बीमा कराओ? और तुम्हें लगता है, "इन्होंने हमारे हित की बात करी!" तो बीमे का विज्ञापन आएगा, उसमें एक बड़ी तस्वीर दिखाई जाएगी—जिसमें तुम हो, तुम्हारी बीवी है, और एक बच्चा है। और फिर एक दूसरी तस्वीर दिखाई जाएगी, जिसमें तुम गायब हो जाओगे, और कहा जाएगा, "अब कुछ करो!" और तुम तुरंत जाओगे और वो बीमा खरीद लाओगे।
एक दूसरा विज्ञापन आएगा, जिसमें तुम चले जा रहे हो। और तुम अपने साधारण कपड़ो में हो, कोई इत्र नहीं लगा रखा है, और लड़कियाँ आती हैं तुम्हारे आस-पास, नाक-भर सिकोड़ करके चली जाती हैं। अब तुमसे कहा जाएगा, "ये लो, ये ख़ास मर्दाना इत्र। इससे तुम्हारा पुरुशत्व जागेगा। अन्यथा जीवन सूना रह जाएगा, साथी पास नहीं आएँगे।"
डर लगातार बैठाया जा रहा है। पर तुम इसको समझोगे नहीं। तुम कहोगे, "भले की बात करी,” और जाओगे और वही इत्र खरीदकर ले आओगे।
हर उस आवाज़ को अस्वीकार कर दो जो तुम्हें डराती हो। वो आवाज़ तुम्हारी हितैषी नहीं हो सकती। बिलकुल अस्वीकार कर दो।
"हाँ, करूँगा, काम करूँगा, पर अपने आनंद में करूँगा, प्रेम में करूँगा। डरा कर कराओगे, नहीं करूँगा!”
क्योंकि डर के जीना जीवन का अपमान है। एक दबा-सहमा जीवन, जीवन है ही नहीं, वो सिर्फ घुटते रहने की एक दुखद प्रक्रिया-भर है। और हमें उस प्रक्रिया में नहीं रहना, बिलकुल नहीं रहना। अपने आप से अभी बोल दो, "मुझे उस प्रक्रिया से बाहर होना है। मैं ऐसे सिस्टम में नहीं रहूँगा जो डर पर आधारित हो।"
और सिस्टम , तुमसे फिर कह रहा हूँ, बाहर ही नहीं है, कि तुम कहो कि, "सर क्या हम पूरी व्यवस्था को बदल सकते हैं?" मैं वो सब बात नहीं कर रहा हूँ। मैं तुम्हारी मानसिक व्यवस्था की बात कर रहा हूँ। याद रखना, ये दीवारें।
ठीक कहा था प्रश्नकर्ता ने कि बचपन से ही डर बैठाया गया है। बचपन में तुम नहीं जान पाते थे, तो अब जानो न कि किन माध्यमों से, किन साधनों से उस डर को ख़ुराक दी जा रही है। उसे रोक दो, खुराक को।
अब बड़े नुकसान हैं उसके। डरा आदमी हिंसक हो जाता है, बहुत हिंसक हो जाता है। डरा आदमी उलझा हुआ रहता है, बोरियत में जीता है। उसकी ज़िन्दगी में कोई ऊर्जा नहीं होती, गर्मी नहीं होती, सिर्फ एक संकुचन होता है। वो अपने आप में सिकुड़ जाता है। उसमें विस्तार नहीं होता कि वो फैले, दूसरों तक भी पहुँचे। उसमें घुटन होती है, एक संकुचन। वो कहीं पर होता है तो उसको लगता है, "बस किसी तरीके से सिकुड़ जाऊँ। यहाँ न आऊँ तो ज़्यादा अच्छा है।" या उसके विपरीत उसको लगता है कि, "सबको मार दूँ!" हिंसा डर से ही निकलती है। वो जीवन को बस ढोता है।
हमें ढोना नहीं है!
हम सब काबिल हैं, और हमारे सामने एक पूरा जीवन पड़ा हुआ है, उसको पूरी निडरता में हमें जीना है।