आचार्य प्रशांत: डर कैसे निकाल सकते हैं? कितने लोगों के लिए डर का सवाल महत्वपूर्ण है, कि डर है जीवन में?
(कई श्रोतागण हाथ उठाते हैं)
तो सिर्फ एक व्यक्ति का सवाल नहीं है, बहुतों का है।
(मुस्कुराकर) और कौन है ऐसा जो कह रहा है कि जीवन में डर है ही नहीं?
तो कुछ इतने डरे हुए थे कि इस बात पर भी हाथ नहीं उठा पाए थे कि हम डरते हैं। और अब मैं कह रहा हूँ कि यही कह दो कि निडर हैं तो यहाँ तो सवाल ही नहीं उठता हाथ उठाने का। इसलिए फिर पूछता हूँ, कितने लोगों के जीवन में डर बैठा हुआ है, पाते हैं कि डर है? जब पिछले सवाल में हाथ नहीं उठाया तो अब तो उठाओ। अपनी ईमानदारी की बात है, अपने लिए है।
एक बात समझना साफ़-साफ़ – डर निश्चित रूप से उस समय तक रहेगा जब तक तुम ये पाओगे कि तुम एक अनजानी जगह पर हो, एक खतरनाक स्थिति में हो जहाँ तुमसे कुछ छिन सकता है। हमारा सारा डर इसी बात का है कि हम एक खौफनाक दुनिया में आ गए हैं और इस जगह पर लुटने का खतरा है।
सारा डर मूलतः यह है कि; मेरा कुछ छिन सकता है, मैं कम हो सकता हूँ और अंततः मैं ख़त्म हो सकता हूँ।
मूल रूप से सारा डर यही है और यही कारण है कि डर आदि-काल से मनुष्य की गहरी-से-गहरी वृत्तियों में से है। आदमी हमेशा डरा हुआ रहा है, यह आज की बात नहीं है। हर काल में, हर स्थान पर, हमारा जीवन बस डर की ही कहानी रहा है। हमने जो कुछ किया है, डर के कारण ही किया है, कभी प्रकट रूप से, कभी छिपे रूप से।
तुम्हें डर तब तक रहेगा जब तक तुम इस गहरी श्रद्धा में प्रवेश नहीं कर जाते कि, "मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता, मैं किसी अनजान जगह पर नहीं आ गया हूँ, मैं वहीं पर हूँ जो मेरा घर है, और कोई मुझे यहाँ से बेदखल कर नहीं सकता, मेरा कुछ नहीं बिगड़ सकता।"
ये भाव जब तक तुम में गहराई से प्रतिष्ठित नहीं हो जाता, (ज़ोर देकर) ‘मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता’, तब तक तुम्हें डर के कुछ-न-कुछ बहाने ज़रूर मिलते रहेंगे। जब तक तुम ये नहीं देखना शुरू करते कि, "बड़े-से-बड़ा नुकसान हो जाए तब भी मेरा कुछ गया नहीं, गहरी-से-गहरी असफलता मिल जाए मैं तब भी पूरा-का-पूरा हूँ, कष्टकर-से-कष्टकर बीमारी हो जाए, अंततः मृत्यु हो जाए, तब भी मेरा कुछ बिगड़ नहीं गया, तब तक तुम्हें डर सताएगा।" जब तुम इस मौज में आ जाते हो, तब और सिर्फ तब जीवन से डर जाता है, अन्यथा जा नहीं सकता, तुम डरे हुए ही रहोगे।
अब हम देखते हैं कि इस डर को हम और बैठाते कैसे हैं। हमने कहा डर तब नहीं रहेगा जब तुम ये जान जाओ कि तुम्हारा कुछ बिगड़ नहीं सकता, तुम्हारे पास खोने को कुछ है नहीं। हम इसका विपरीत कर रहे हैं। हम जीवन में लगातार उन चीज़ों को भर रहे हैं जो खोई जा सकती हैं। जो कुछ भी खोया जा सकता है, अगर वो तुम्हारे जीवन में मौजूद है तो उसके साथ डर भी मौजूद रहेगा।
मैं दोहरा रहा हूँ, जो कुछ भी खोया जा सकता है अगर वो तुम्हारे जीवन में मौजूद है, तो उसके साथ-साथ डर भी मौजूद रहेगा।
उदहारण देता हूँ – अगर तुम्हारे जीवन में प्रतिष्ठा मौजूद है, तो उसके साथ डर भी रहेगा क्योंकि प्रतिष्ठा खो सकती है। दूसरों ने दी है तुम्हें प्रतिष्ठा और दूसरे वापस भी ले सकते हैं। अगर तुम्हारे जीवन में पैसे से आसक्ति है, तो तुम डरे हुए रहोगे क्योंकि पैसा कहीं से तो आया था और किसी दिन लुट भी सकता है। अगर तुम्हारे जीवन में किसी व्यक्ति से विशेष आकर्षण है तो तुम डरे हुए रहोगे क्योंकि व्यक्ति तुम्हें छोड़ भी सकता है।
तुम जिस भी चीज़ से अपने आप को जोड़ लोगे वही तुम्हारे डर का कारण बन जाएगी। और तुमने, ऐसा बहुत कुछ है, जिससे अपने आप को जोड़ रखा है। तुमने डर के लिए बड़ी ज़मीन तैयार कर रखी है। जितना अपने आप को निर्भर बनाओगे, जितना अपनी पहचान को दूसरों से बाँध कर के देखोगे, उतना ज़्यादा डरे हुए रहोगे।
निडर होने का एक ही मंत्र है – कि ये सब खेल चल रहा है, कुछ आए कुछ जाए, बढ़िया बात, लेकिन उससे हमारा कुछ बिगड़ेगा नहीं। बहुत सारा पैसा मिल गया, बहुत बढ़िया बात, लेकिन उससे “हमें कुछ नहीं मिल गया।” पैसे का बड़ा नुकसान हो गया लेकिन फिर भी हमारा कुछ नहीं बिगड़ गया।
आज दस लोग हमें ऊँचे पायदान पर खड़ा कर रहे हैं, सम्मानित कर रहे हैं, लेकिन इससे ‘हमें’ कुछ मिल नहीं गया, हम अभी भी वही हैं जो हम पहले थे, जो हम सदा से हैं, जो होना हमारा स्वभाव है। पचास लोगों ने गालियाँ दे दीं, दो-चार ने जूते मार दिए, ये होना तो ठीक नहीं है, पर हो गया तो हो गया, हमारा कुछ बिगड़ नहीं गया। मार लो जूते, तुम हमसे कुछ छीन नहीं सकते। जो हमारा है वो इतना हमारा है, हमसे कभी छिन नहीं सकता।
पर हमने क्या कर रखा है? दूसरे हमें प्रमाण-पत्र दे दें, हम खुश हो जाते हैं। हमारा जीवन लगातार इस आशा में बीत रहा है कि कुछ मिल जाए और जो मिल सकता है वो छिन भी सकता है।
जिसे मिलने का लोभ है उसमें छिनने का भय भी बना ही रहेगा और तुम लगातार मिलने के लोभ में बैठे हुए हो, ये मिल जाए, वो मिल जाए।
जो आशाओं में जीता है, वो लगातार डरा हुआ रहेगा, और तुमने सौ आशाएँ बाँध रखी हैं, फिर तुम कहते हो कि डर क्यों है। डर की गठरी तो तुम खुद बाँध कर चल रहे हो।
मुक्त हो जाओ। करो जो करना है पर सब करते हुए एक बात बनी रहे कि फर्क नहीं पड़ता इसका होगा क्या। "हम खेल रहे हैं और खेल इसलिए नहीं रहे हैं कि सिर्फ़ जीतें। जीत गए तो बहुत बढ़िया, पर ऐसा नहीं है कि जीतने से हम कुछ और हो गए, कुछ बढ़ नहीं गया। हम खेले, पूरी ताकत से खेले, जीतने के लिए ही खेले, पर हम हार गए। चाहते तो नहीं थे कि हारें पर हार गए लेकिन हारने से कुछ चला नहीं गया, ठीक है, सब बढ़िया है।"
जब तुम ऐसे हो जाओगे तब जीवन तुम्हारे लिए एक मज़ेदार खेल बनेगा, तब तुमने जीवन को जाना। तब तुम कहोगे, "डर, वो क्या होता है? हमारे पास तो आता नहीं, ऐसा नहीं है कि हम उसे दबा देते हैं, ऐसा नहीं कि हम डर से लड़ते हैं, वो आता ही नहीं, क्योंकि डर आता ही उनके पास है जो उसे आमंत्रित करते हैं।"
तुम खुद आमंत्रित करते हो डर को। तुम आमंत्रण देना छोड़ दो, डर आना छोड़ देगा। डर को आमंत्रण देते हैं – तुम्हारा लालच, तुम्हारी आसक्तियाँ। डर को आमंत्रण देती हैं – तुम्हारी आशाएँ। तुम ये आमंत्रण पत्र भेजना छोड़ो, डर बिन बुलाया मेहमान नहीं है, वो आएगा ही नहीं। गया डर, तुम्हारे बुलाने से आया था, अब गया।