लकड़ी जल डूबे नहीं, कहो कहाँ की प्रीति।
अपनी सीची जानि के, यहीं बड़ने की रीति।।
~ गुरु कबीर
आचार्य प्रशांत: “लकड़ी जल डूबे नहीं, कहो कहाँ की प्रीति” — सवाल उठा रहे हैं कबीर, यह कौन सा प्रेम है, यह किसका प्रेम है, क्या प्रकार है इसका कि एक निराश्रित, छोटी, कण बराबर, बेसहारा लकड़ी इतने बड़े विराट समुद्र में तैरती जाती है, तैरती जाती है, डूबती नहीं? डूबने से अर्थ है कि उसका कुछ बिगड़ता नहीं, विनिष्ट नहीं हो जाती, यह कैसे संभव है? और प्रेम की इससे सुन्दर परिभाषा हो नहीं सकती कि अपने आपको छोड़ दिया है ‘विराट’ के हवाले, कि रख लेगा मेरा वो ध्यान।
प्रश्नकर्ता: आजतक उसी ने सींचा है, आजतक वही सींचता आया है, तो रख लेगा ध्यान। “अपनी सींची जानि के”।
आचार्य: “अपनी सीची जानि के, यहीं बड़ने की रीति”। तो कहाँ की प्रीती? यही बड़ने की रीति। यही अस्तित्व की रीति है कि जो तैरने लग जाते हैं वो नहीं डूबते, कि जो ‘बहना’ सीख लेते हैं उनका ‘डूबना’ बंद हो जाता है।
प्र१: जो मौजी हो गए। जो हलके हो गए।
आचार्य: यहाँ पर हलके होने की बात नहीं है, यहाँ पर अपने आपको हवाले छोड़ देने की बात है। हर लकड़ी का मानना यह है कि, ‘मुझे अपनी परवाह खुद करनी है, कि मैं अनाथ हूँ, मेरा कोई नाम-लेवा नहीं है, मुझे कुछ तैयारी करनी पड़ेगी, मुझे हाँथ-पाँव चलाने पड़ेंगे।’ जब तक लकड़ियों का यह मानना है, उनका डूबना तय है। हम डूबने वाली लकड़ियाँ हैं।
हमें लगातार यह भाव रहता है कि अस्तित्व की हमसे कोई शत्रुता है। कबीर हमें समझा रहे हैं अस्तित्व की तुमसे शत्रुता नहीं है, गहरी प्रीति है। हमारी सारी शिक्षा, हमारी सारी व्यवस्था, हमको एक ही चीज़ सिखाती है, विरोध।
विकास, जो अंत है हमारी सारी शिक्षा का। हमारी सारी जो शिक्षा है, वो प्रगति की ओर अनमुख है, विकास की ओर अनमुख है और हमारा सारा विकास, विकास की हमारी अवधारणा विरोध पर आधारित है। आप ध्यान से देखेंगे तो आप पाएँगे, आदमी ने तथाकथित रूप से जो भी ‘विकास’ किया है उसने उसमें प्रक्रति का ‘विरोध’ किया है।
प्रक्रति ने कहा ‘रात को अँधेरा होगा’, तुमने विरोध करके कहा, ‘नहीं! आग जलाऊँगा, उजाला होगा।’ प्रक्रति ने कहा ‘बारिश होगी, भीगो’, तुमने कहा, ‘ना! घर बनाऊँगा।’ प्रकृति ने कहा ‘कंदमूल खाओ पेड़ों को दिए हैं’, तुमने कहा, ‘ना! ज़मीन से लोहा निकालूँगा, कुल्हाड़ी बनाऊँगा और पूरे पेड़ को ही काट दूँगा।’
आदमी के ‘विकास’ की सारी यात्रा उसके अपने स्वभाव के विरोध की यात्रा है। ‘विकास’ अस्तित्व से शत्रुता का नाम है और यही कारण है कि आज आदमी का ‘विकास’ वहाँ पहुँच गया है जहाँ अस्तित्व समूल विनाश पर खड़ा है। आदमी जितना विकसित होगा प्रकति का उतना विनाश होगा क्योंकि विनाश की हमारी परिभाषा ही यही है, ‘विरोध’।
जो कुछ भी प्राकृतिक है उसका विरोध करना ही हमारे लिए विकास है। यही ‘विरोधी मानसिकता’, यही ‘विरोधपूर्ण मानसिकता’, हमें गहराई से डरा कर रखती है। यह श्रध्दाहीनता है, यह अहंकार है।
हमारे मन में छवि कुछ ऐसी रहती है कि पूरा अस्तित्व हमें नुकसान पहुँचाने के लिए आतुर है और हमें अपनी रक्षा करनी है। हम लगातार सुरक्षा तलाशते रहते है। सुरक्षा तलाशने में हमारी अवधारणा यही है की यह जगत एक मूलतः असुरक्षित जगह है। हम असुरक्षा से घिरे हुए हैं और हमें अपनी रक्षा आप करनी है। और इसमें अहंकार पोषण पता है।
यही कारण है कि आप पाएँगे कि चारों तरफ से आपको वही-वही ख़बरें दी जाती हैं, जो आपके भीतर इस बात को बैठाएँ कि जगत एक खौफ़नाक जगह है, कि जगत हमला करने को उतारू है; और तुम इन-इन साधनों से अपनी रक्षा कर सकते हो, ऐसे तुम अपने कवच बना सकते हो।
हमसे कहा जाता है, दूसरे लोग हम पर हमला करने को उतारू हैं। हमसे कहा जाता है, प्राकृतिक आपदाएँ हम पर हमला करने को उतारू हैं। हमसे कहा जाता है कि सारी व्यवस्थाएँ हम पर हमला करने को उतारू हैं। और बड़ी-से-बड़ी बात यह कि हमसे कहा जाता है कि तुम इनसे भाग भी जाओ, तो मौत तुम पर हमला करने को उतारू है।
प्र१: इसमें सत्य तो है ही।
आचार्य: इनमें सत्य तब तक है जब तक आपने अपनी परिभाषा, अपनी स्वयं की परिभाषा, “मैं कौन हूँ”, उस परिभाषा में अस्तित्व को अपने से पृथक रखा है। इनमें पूरा-पूरा तथ्य है पर वो तथ्य इस बात पर निर्भर करता है कि आपने अपने-आप को कैसे परिभाषित किया है। आपको आपकी परिभाषा ही गलत थमा दी जाती है।
निश्चित रूप से यदि आप शारीर हैं, तो मौत आप पर हमला करने को उतारू है। अपकी परिभाषा क्या है, अपने-आप की? निश्चित रूप से यदि आप सम्मान को तरसती हुई एक व्यक्ति हैं, तो दूसरे आप पर हमला करने को उतारू हैं, दूसरे ही आपको सम्मान देते हैं और दूसरे ही आपसे सम्मान वापस भी ले सकते हैं। तो आपकी अपनी परिभाषा क्या है? हमें हमारी परिभाषाएँ गलत दे दी गई हैं।
प्र१: प्रकृति से जैसे पेड़ जब कट गए सब, विकास हुआ तो प्रकृति में भी एक बदला या क्रिया उठती है। “हर क्रिया की प्रतिक्रिया” उसका वो जो ‘भू-अपरदन’ या जो भी होता है उससे प्रकृति में और ज़्यादा प्रतिक्रिया उत्पन्न हो जाती है, तो डर तो पैदा होगा ही इंसान में। यह हमारी अपनी ही पैदावार है।
आचार्य: डर पेड़ों के काटने के बाद आया या पेड़ों के कटने से पहले ही था, इसी कारण पेड़ काटे गए? पेड़ कट गए उसके बाद डर पैदा हुआ, या वो पहले से ही डरा हुआ मन था जो पेड़ों को काट रहा था?
प्र: पहले से ही डरा हुआ मन था।
आचार्य: अस्तित्व आपका दुश्मन नहीं हो सकता। आपको अपनी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है। आप इसी मिट्टी से उपजे हो। किसी ने बहुत अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा करी, इस कारण आप हो। जिसने वो सारी अनुकूल परिस्थितियाँ बनाई थी वो आपका दुश्मन कैसे हो सकता है? यदि अस्तित्व आपका दुश्मन होता तो आप होते कैसे?
ब्रह्मसूत्र पहले ही अध्याय में कहते हैं, बहुत छोटा सा सूत्र है, कि ‘वो’ कौन जो जन्म देता है? ‘वो’ कौन है? उसकी बड़ी संशिप्त परिभाषा। वो कौन है, जो जन्म देता है? जिसने आपको जन्म ही दिया है वो आपका दुश्मन कैसे हो सकता है?
आप एक बहुत छोटे से तापमान के रेंज में जी सकते हो, उससे यदि कम होता तो आप कैसे होते? उससे यदि थोड़ा ज़्यादा भी हो जाए तो आप कैसे रहोगे? भाप बन जाओगे। जिसने आपको हवा में बिलकुल नाप-तोल कर ऑक्सीजन दी, उससे कम हो जाए तो भी नहीं जी पाओगे, उससे ज़्यादा हो जाए तो भी नहीं जी पाओगे। वो आपका दुश्मन कैसे हो सकता है? जो आपको श्रम के लिए रौशनी और विश्राम के लिए रात देता है वो आपका दुश्मन कैसे हो सकता है?
आपने अपनी मेहनत से तो सोचने-समझने की शक्ति नहीं पाई? जिसने आपको समझ दी, चेतना दी, वो आपका दुश्मन कैसे हो सकता है?
पर यह हमारी गहरी अश्रद्धा है, कृतघ्नता है, एहसान-फरामोशी है कि हम अपनी रक्षा खुद करना चाहते हैं। ‘आचार्य जी, थोड़ी तो वित्तीय सुरक्षा चाहिए न।’ यह गहराई से कृतघ्नता है, गहराई से।
संतो ने कहा “अमर बेल बिन मूल की प्रति पालत है ताहे।” अमर बेल होती है, कहते हैं उसकी जड़ नहीं होती। वो ऐसे ही पेड़ से लिपटकर अपना पोषण पा लेती है। कह रहे हैं कि, ‘तू क्या अपनी रक्षा-रक्षा के लिए चिल्लाता रहता है कि पैसे जोड़ लूँ,और दोस्ती-यारी कर लूँ, अपना पूरा एक सुरक्षा तंत्र कवच बना लूँ। जिस बेल का मूल भी नहीं, जिसकी जड़ भी नहीं वो उसको भी पाल देता है तो तुझे नहीं पाल देगा?’
‘तू क्यों चिल्ला रहा है की मुझे-मुझे-मुझे खुद अपने लिए कुछ करना है। जब तक मेरे खाते में इतने पैसे न हो, मेरा दिल धड़कते ही रहता है, कि हे! राम पता नहीं क्या आपदा, कब आ जाए और जब तक मेरे पास इतने लाख रुपये न इकट्ठा हों तब मैं फोर्टिस के वर्ल्ड-क्लास कैंसर केयर का कैसे फायदा उठाऊँगा?’
तन तुम्हें तुम्हारी मर्ज़ी से नहीं मिला, मन तुम्हें तुम्हारी मर्ज़ी से नहीं मिला, जीवन तुम्हें तुम्हारी मर्ज़ी से नहीं मिला। अब तुम क्यों बौराए जाते हो कि इसकी रक्षा मुझे करनी है?
कबीर कह रहे हैं, “अपनी सीची जानि के।” जिस वृहद ने तुम्हें सींचा है, जिस विराट ने तुम्हें जन्म दिया है और जीवन दिया है, अरे! वो तुमको डूबने नहीं देगा। तुम में क्यों इतनी श्रद्धा-हीनता है?
प्र१: आचार्य जी, आज मैंने न एक जगह पढ़ा कि वो जो गर्भ, जैसे बच्चा गिरा देते हैं उसमें साढ़े–तेरह हफ्ते तक जान होती है। मतलब जिसको जो भी कहना है, कह दे। जब हम यह सब कुछ होता देख रहे हैं तो सुरक्षा की बात नहीं आएगी?
प्र२: आचार्य जी, अभी आप कह रहे थे तो इतिहास के कुछ पन्ने याद आ गए कि कैसे हमें पढ़ाया गया है कि यह बहुत अनिवार्य था कि जंगली जानवरों को मारने के लिए मनुष्य को आग की खोज करनी पड़ी।
आचार्य: तुम कह रहे हो कि जंगली जानवर हैं इसलिए आदमियों को आग की ज़रुरत है। जंगली जानवर को क्यों नहीं ज़रुरत है आग की? तुम्हें उनसे अपनी रक्षा करनी है उन्हें अपनी रक्षा खुद क्यों नहीं करनी है? और जिन्होंने अपनी रक्षा नहीं करी उनका कुछ बहुत बिगड़ गया? जंगल का जानवर कुछ नहीं करता अपनी रक्षा के लिए। उसका क्या बिगड़ जाता है और तुम क्या पा लेते हो रक्षा कर-कर के अपनी?
एक रोज़ हम रात में जब घूमने जाते हैं, ढाबे से लौट रहे थे तो सड़क के बीच में कतार से पेड़ लगे हुए हैं। हमने कहा पेड़ खूब हँस रहे होंगे और खूब आपस में एक दूसरे को चुटकले सुनाते होंगे। उसी सड़क के बगल में अपार्टमेंट बने हुए थे और रात का समय था, दो-तीन बज रहे थे तो पूरे अपार्टमेंट में अँधेरा और लोग सो रहे हैं। तो वो पेड़ भी हँसते होंगे, “आह! देखो-देखो उन्होंने घर बनाए हैं। आदमी इतना बेवकूफ हो सकता है कि घर बनाए।” पेड़ों का क्या बिगड़ गया उन्होंने घर नहीं बनाए तो? और तुमने क्या पा लिया घर बना-बना कर और पेड़ क्यों न हँसते हों तुम्हारे ऊपर कि, "ये देखो ये घर बनाएँ हैं"?
तुमने जंगली जानवर से सुरक्षा के लिए आग का आविष्कार कर लिया, आग खोज ली। जंगली जानवर ने नहीं खोजी आग उसका क्या बिगड़ गया? और तुम बेहतर हो उससे? किस तरीके से तुम कहते हो कि तुम्हारा जीवन, जंगल में घूमते जानवर से ज़्यादा आनंदपूर्ण है? ठीक-ठीक बता दो ईमानदारी से।
उसने नहीं सीखी भाषा, उसने नहीं बनाए नगर, उसने सभ्यताएँ नहीं बनाई पर वो मौज में है। तुमने क्या पा लिया है अपनी रक्षा कर-कर के, उजड़ी हुई शकल? किसी जानवर से कभी कहो कि, "चल खेलने चलते हैं", वो नहीं कहेगा तुमसे कि, "पहले थोड़ा दो-चार दिन का खाना इकट्ठा कर लूँ, फिर खेलेंगे।" कोई मिल जाए ऐसा जानवर तो बता देना कि तुम उससे कहो कि, "चल खेलें!" और फिर वो कहे कि, "नहीं, पहले थोड़ी वित्तीय सुरक्षा होनी चाहिए। अभी हम खेले कैसें?"
कौन बेहतर है, तुम कि जानवर?
जानवर में बड़ी गहरी श्रध्दा है। वो कहता है, “जिस मिट्टी से मैं उपजा हूँ, वो मिट्टी मेरी देखभाल कर लेगी। मैं लगातार अपनी माँ की गोद में ही हूँ। मुझे चिंता क्या करनी है?” उसमें बड़ी गहरी श्रद्धा है। हम में नहीं है, हम एहसान-फरामोश हैं। हमें इकट्ठा करना है, हमें सोना चाहिए, इकट्ठा करो, खूब सोना-वोना, तिजोरीयाँ हों, और लड़ो। और जितना तुम अस्तित्व से लड़ते हो उतना तुम अपने आप को ‘विकसित’ बोलते हो।
‘विकसित आदमी’ का अर्थ ही वही है कि “जो अब अस्तित्व से बिलकुल ही दूर हो गया है।” जिसके बाल उगते हैं शरीर पर तो बाल नोच लेगा, काट देगा।
कोई कह रहा था कल कि यह जो अदाकार और कलाकार होती हैं, इनके बारे में एक का कथन आया था। ‘जब यह मरती हैं, तो वातावरण में बड़ा प्रदूषण फैलता है क्योंकि हड्डियाँ तो होती नहीं, प्लास्टिक होता है वही जलता है। इनके पूरे शरीर में ऊपर से लेकर नीचे तक प्लास्टिक-ही-प्लास्टिक रह जाता है। ये सर्जरी वो सर्जरी, प्लास्टिक-ही-प्लास्टिक लगा हुआ है तो बड़ा वातावरण दूषित होता है, इनके मरने पर।’
इतना दूर हो गए हो तुम प्रकृति से इसी को तुम विकास कहते हो कि ऊपर से लेकर नीचे तक अब प्लास्टिक हो गए हैं अब?
प्र२: क्षमताएँ भी तो दी गई हैं। जैसे पक्षी हैं, वो भी घोंसला बनाते हैं।
आचार्य: घोंसला भर बनाते हैं। आप भी बना लो घोंसला, आपको नहीं रोका जा रहा।
प्र२: समझ भी तो उसी ने दी है न।
आचार्य: यह समझ नहीं है, यह बेफकूफी है। अहंकार देखिए कि आप कह रहे हो कि आपने जो यह खड़ी करी हैं, इनका नाम समझ है। किस दिन चेतोगे?
बाहर सामान्य से चार डिग्री ज़्यादा तापमान चल रहा है, अभी होश नहीं आ रहा? यह इमारतें बना-बना कर ही है। बाहर अभी सामान्य से चार डिग्री ज़्यादा तापमान है।
कब चेतोगे?
इमारतें बनाओगे, तो उन इमारतों को चलाने के लिए बिजली चाहिए तुमको। जा कर अपनी नदियों की हालत देखो। तुम्हें तो लेकिन हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट बनाने हैं। और विकास में विकासों का विकास है अब इन्टरनेट और तुम सोचते हो कि यह तो साफ चीज़ है। यहाँ ज़रा सी भी तुम जो बात कहते हो न उसके लिए सर्वर हाउसेस होते हैं, डाटा फर्म्स होते हैं, और उनको जानते हैं कहाँ बनाया जा रहा है? वो सब बनाए जा रहे हैं आइसलैंड में। कोशिश की जा रही है कि आर्कटिक में बनाए जाएँ। वो इतनी गर्मी फेंकते हैं।
आप जो ज़रा सा भी इन्टरनेट पर कुछ करते हो, वो कहीं-न-कहीं तो इकट्ठा होता है न? और वहाँ उसमें ऊर्जा लगती है इकट्ठा होने में। और तुम उसे बर्फ पर यदि बना रहे हो, आइसलैंड में बना रहे हो, तो निश्चित सी बात है कि जब वो गर्म होगा तो बर्फ पिघलेगी। और आप इसको समझ का नाम दे रहे हैं कि, "हम बड़े समझदार हैं!"
क्या समझदारी है?
प्र: आचार्य जी, हमारा स्रोत तो फिर भी हमारी देखभाल कर ही लेगा।
आचार्य: कर लेगा, बिलकुल कर लेगा पर तुम्हें फायदा नहीं होगा। तुम ऐसे रहे आओगे जिसकी पूरी देखभाल की जा रही है, पर वो फिर भी चिंता में मरा जा रहा है। यह दोगुनी बेवकूफी है कि नहीं? देखभाल तो तुम्हारी फिर भी हो रही है पर तुम चिंता में मर जाओगे।
मन तो मन ही है और तुम अपने-आप को मन से कुछ और अलग नहीं जानते। जो मन लगातार इसी उधेड़-बुन में लगा है कि ‘मेरी चिंता हो रही है कि नहीं, मेरी परवाह हो रही है कि नहीं।’ उसकी परवाह हो भी रही हो, तो भी चिंता तो उसको लगी ही हुई है न? तो तुम तो मरोगे चिंता में ही। तुम तो असुरक्षा में ही मर जाओगे कि, 'मेरा क्या होगा?'
"अरे! कितना हुआ बैंक-बैलेंस ? बीवी तो नहीं भाग गई? रात के दो बज रहें हैं और यह पति कहाँ है? ज़रा व्हाट्सऐप करो और ज़िन्दगी उसकी नरक कर दो।"
कबीर कह रहे हैं, "थोड़ा भरोसा रखो। ‘उसको’ बहुत प्रीत है तुमसे और उस प्रीत का प्रमाण यह है कि ‘तुम हो’।" उसे तुमसे प्रीत न होती तो तुम होते कैसे? पागल। तुम कैसे बैठे होते यहाँ? तुम कैसे साँस ले रहे होते? तुम्हारा दिल तुमसे पूछ कर धड़क रहा है क्या? तुम्हारा दिल कौन धड़का रहा है? उसे तुमसे बहुत प्यार है, नहीं तो तुम्हारा दिल कैसे धड़कता? उसे तुमसे बहुत प्यार है नहीं तो तुम्हारी आँखों में रौशनी कैसे होती? पर तुम्हीं बेवकूफ भी हो और कृतघ्न भी हो। तुम्हें उसका प्यार दिखाई नहीं देता।
जो बात अभी थोड़ी देर पहले कही थी, जब प्यार बहुत गहरा हो तो दिखाई देना बंद हो जाता है। दो की जगह अगर वो तुम्हें एक ही पाँव देता, तो तुम्हें पता चलता और अगर अभी दो की जगह एक पाँव हो जाए तब कहोगे कि, "तूने अपना प्यार वापस क्यों छीन लिया?" अभी दो पाँव हैं, मज़े में चलते हो तो दिखाई नहीं देता उसका प्यार। अभी बातें ऐसी करते हो की समझदार हैं।
अरे! उसने दो ही पाँव दिए थे। हमने गाड़ियाँ बनाई। उसने हमें क्या दिया? जो हुआ हमने किया। पहले उसने पाँव भर दिए, हम पाँव से क्या करते हैं? क्लच दबाते हैं, एक्सेलरेटर दबाते हैं, अब बनी कुछ बात। यही तो पाँव की शान है। वो पाँव क्या जो ज़मीन पर चलें।"
समझदार हैं।
नहीं, यह नहीं कहा जा रहा है कि जंगल में रहे आओ। श्रद्धा-युक्त मन से जो भी करोगे, ठीक होगा। उसमें तुमने अस्तित्व को बैरी नहीं मान रखा होगा। ‘विकास’ की एक दूसरी यात्रा भी हो सकती है। यह नहीं कहा जा रहा है कि जैसे पशु हैं, वैसे ही तुम रहो। क्योंकि पशु-पशु में भी भेद होता है। पशु भी आपस में अलग-अलग तरीकों से रहते हैं। कोई ज़मीन के भीतर घुस कर रहता है, कोई गुफा में रहता है, कोई उड़ता है, कोई पानी में रहता है। तो यह नहीं कहा जा रहा है कि हम जानवरों की तरह ही रहें।
हम आदमी हैं, शरीर अलग है, मन अलग है, तो एक अलग यात्रा होगी पर वो यात्रा अश्रद्धा की यात्रा न हो। कीजिए, आप विकास कीजिए, पर वो विकास असुरक्षा से निकला विकास न हो। वो विकास अस्तित्व के प्रति शत्रुता पर आधारित न हो।
एक पोस्टर था, मैं अभी देख रहा था, उसमें लिखा था कि, "अगर आदमी रहा आया तो पचास वर्षों के भीतर हज़ारों प्रजातियाँ, जानवरों की, मछलियों की और कीड़ों की बचेंगी नहीं।" और पोस्टर नीचे कहता है कि, "सब बच जाएँगी बस एक आदमी को हटा दो।"
तो यह आँकड़ा चल रहा है अभी, विरोध का, कि या तो आदमी बचेगा या शेष अस्तित्व बचेगा।
आपने गणित ऐसा बैठा दिया है कि, "या तो हम रहेंगे, या बाकी पूरा अस्तित्व बचेगा।" और मज़े की बात यह है कि अगर बाकी पूरा अस्तित्व नहीं बचा, तो तुम भी नहीं बच सकते। अगर सिर्फ एक प्रकार की मधुमक्खी होती है, वो नष्ट हो जाए, एक भी न बचे, तो कुछ ही सालों के भीतर एक भी इंसान नहीं बचेगा।
यह पूरा तंत्र है। हम अलग-अलग नहीं है। यह पूरा एक विराट तंत्र है। उस तंत्र को काटते जाओगे, काटते जाओगे तो पूरा ही टूटेगा। यह न सोचे कोई कि कुछ उसमें से सलामत रह सकता है।
अस्तित्व से शत्रुता करके तुम सलामत नहीं रह सकते, क्योंकि तुम अस्तित्व ही हो। उससे पृथक कुछ नहीं हो।
जब भी कहीं कोई जानवर विलुप्त होता है, कोई प्रजाति ख़त्म हो जाती है, तो हमारे भीतर भी कुछ ख़त्म हो जाता है, हमें पता भले न लगता हो। जब भी कहीं किसी जानवर की अकारण हत्या होती है, तो पूरी मानवता के भीतर भी कुछ टूट जाता है, किसी चीज़ की हत्या हो जाती है; भले ही तुम्हें पता न लगता हो। क्योंकि सब एक है, सब जुड़ा हुआ है।
प्र१: आचार्य जी, तो क्या अगर वो हमें रौशनी नहीं देता तो वो हमसे कम प्यार करता है?
आचार्य: ऐसा हुआ क्या? अगर वो तुम्हें रौशनी नहीं देता, तो तुम, ‘तुम’ नहीं होते। हज़ारों इस प्रकार के जीव हैं जिन्हें आँखे नहीं दी गई हैं। उन्हें कुछ और दिया गया है। हज़ारों जीव हैं जिनकी आँखे होती ही नहीं या होती भी है तो बहुत कम देख पाती हैं, वो दूसरे साधनों से देखते है। अगर तुम्हें आँखे न दी होती तो तुम, ‘तुम’ नहीं होती, तो तुम कुछ और होती और जो तुम होती उसके पास दूसरे साधन होते।
तुम्हारे पास पाँच इन्द्रियाँ हैं। कितनी ही और प्रजातियाँ हैं जिनके पास पाँच इन्द्रियाँ नहीं है। कोई ऐसा है जो सुन नहीं सकता, कोई ऐसा है जिसकी इन्द्रियाँ बहुत सतर्क हैं, उभरी हुई हैं।
तुम कुत्ते जैसा सूँघ पाती हो? तो इसका क्या अर्थ है कि वो कुत्ते को ज़्यादा प्यार करता है? तुम चील और बाज़ की तरह देख पाती हो? तो उनकी तुलना में तो तुम अंधी ही हो। बाज़ से तुम्हारी तुलना की जाए तो तुम क्या अन्धी नहीं? हो कि नहीं हो? जिस ऊँचाई पर बाज़ ज़मीन में पड़ा छोटा सा कीड़ा भी देख लेता है, तुम्हें कुछ दिखाई देगा? तो तुम अंधी हुई। इसका अर्थ क्या यह है कि तुमसे वो कम प्यार करता है?
उसने सबको दिया है और जिसको जो दिया है वही उसका व्यक्तित्व है।
जिसको जो दिया है वही उसका व्यक्तित्व है।
तुम तैर नहीं पाती। मछली तैरती है, कुछ इंसान भी तैरते हैं। मैं आजतक नहीं तैरता, तो मैं क्या कहूँ कि मुझसे बड़ा कम प्यार है, मेरे प्रति द्वेष है? ऐसा तो नहीं है।
पत्ता होता है पेड़ का, वो तो न देखता है न सुनता है, तो उसको तो बिलकुल ही सौतेला बना दिया। अरे! आँख भी नहीं दी पत्ते को। पत्ता तुम्हारी तरह होता तो वो भी ‘विकास’ करना चाहता। वो कहता, "पहले तो आँखे फिट करो।" अब पत्ते आँखें लेकर घूम रहे हैं, अब होठ और ज़बान होनी चाहिए। समझदारी है भाई, ‘विकास’ की यात्रा है। वर्ल्ड क्लास पत्ता केयर और सारे पत्ते लाइन लगा कर खड़े हैं वहाँ पर। उनकी प्लास्टिक सर्जरी हो रही है। मुफ़्त की आँखों की वहाँ प्लास्टिक सर्जरी चल रही है। और पत्तियाँ खास तौर पर, और आँखे लगवा-लगवा कर बाहर निकल रही हैं तो वहाँ पर आइ-लाइनर की दुकानें हैं।
विकास!
पेड़ कह रहे हैं, "हम यहाँ खड़े रहे हैं, तुम्हें विकास करना है हमें नहीं करना?" पेड़ कह रहे हैं, "हम पागल हैं कि एक जगह पर खड़े रहें?" पेड़ रीबॉक के जूते लगा-लगा कर घूम रहे हैं। दौड़ हो रही है, विकास है भाई!
प्र: एक पोस्टर था एकदम एगोइस्टिक (अहंकारी) पूरा। कह रहे हैं कि “आप हिल सकते हो, यदि आप पेड़ नहीं हो; यदि आपको पसंद नहीं है आप अभी जहाँ पर हैं, आप हिल सकते हैं क्योंकि आप पेड़ नहीं।”
आचार्य: पेड़ों की बड़ी गुरुता है। वो बुरा नहीं मानते इन सब बातों का। कोई पेड़ आकर के नहीं कहेगा कि, "बड़ा निंदनीय है भाई, तुमने कह कैसे दिया?" पेड़ कहेंगे, "कहते रहो, हमें पता है तुम वैसे ही बहुत गिरे हुए हो।"
जा रहे थे अभी, तो जैसे ही पहाड़ शुरू हुए, वैसे ही बन्दर बैठे हुए थे बहुत सारे। तो हम बन्दरों को देख रहे हैं, कह रहे हैं कि बन्दर हैं। बन्दर हमें देखते होंगे तो क्या कह रहे होंगे? वो कह रहे होंगे, "ये बेचारे!"
प्र२: कह रहे हैं, "भाई लोग कपड़े पहन कर आ गए।"
आचार्य: भाई-लोग, भाई, आपको भाई बोलेंगे वो? आपको बड़ा गुमान है अपने ऊपर, बन्दर कहते होंगे "ये बेचारे।"
प्र१: हो सकता है वो हमें बन्दर बोलते हों।
आचार्य: क्यों बोलेंगे? कह रहे होंगे, "ये गिरे हुए लोग।" तो कहेंगे, "इनके साथ समस्या पता है क्या है? ये सोचते हैं। बीमारी लगी है इन्हें। नहीं, पहले तो ये ठीक थे, हमारे जैसे ही थे। उसके बाद इन्होंने सोचना शुरू कर दिया, 'ख्याल'।" कह रहे हैं, "आ गए कटा कर पूँछ।"
प्र२: ये भी हम सोच रहे हैं कि बन्दर क्या सोचते होंगे।
(श्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य: ये हम कहाँ सोचते हैं कि बन्दर क्या सोचते होंगे? किसी ने कभी सोचा? कहाँ सोचते हो? कभी ये सोच कर तो देखो कि बन्दर क्या सोचते आए हैं। कभी ये सोचा कि वो जो पेट में गए हैं, हज़ारों मुर्गे वो क्या सोचते होंगे जब कटते होंगे?
मन को देखो, कितनी जल्दी ये तर्क आ गया कि बन्दर क्या सोच रहा होगा? कभी सोचा वो मुर्गा और बकरा क्या सोच रहे थे? थोड़ी संवेदना लाओ, उनके बारे में सोचना कि वो क्या सोच रहे होंगे। “मुर्गी मुल्ला से कहे जबा करत है मोहे।” यह कबीर होता है जो ये विचार करता है कि मुर्गी क्या सोच रही होगी, जब उसको ज़िबाह किया जा रहा है? कभी सोचा? अगली बार जब माँस सामने आए, तो सोचना, उससे विचार होगा।
प्र३: आचार्य जी, मतलब कि वो सब्ज़ी को भी दर्द होता है। पेड़-पौधे, सभी को दर्द देता है, तो फिर हम तो कुछ तो खाएँगे ही।
आचार्य: देखो कितना ये है हमारा तर्कवान आदमी! बेटा, फल पेड़ पर लगता ही इसीलिए है की वो गिरे। कोई जानवर अपना सर नहीं गिरा देगा अगर तुम खाओगे नहीं। पर अगर फल नहीं भी खाओगे तो गिर जाएगा। उसे कोई दर्द नहीं है। बल्कि तुम उसे खा रहे हो तो पेड़ का भला हो रहा है। उसका बीज फ़ैल रहा है।
क्या-क्या खाते हो अब बता भी दो?
प्र३: आचार्य जी, मैं तो सब खता हूँ।
आचार्य: तो स्वभाविक ही था कि ये तर्क किस मन में उठेगा। जिन दो मनों में उठा, वो वही हैं जो सब कुछ खाते हैं।