प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं अठारह साल का हूँ और मेरे मन में लगातार एक डर बना रहता है। यहाँ तक कि जब मैं आपकी वीडियो के अनुसार अपने डरों का सामना करने कि कोशिश करता हूँ, तो भी मैं हर बार स्वयं को असुरक्षित ही पाता हूँ। मैं एक सोशल एंग्ज़ाइटी (सामाजिक चिंता) में जी रहा हूॅं। ये मानसिक असंतुलन दूर नहीं होता। मैं इससे बाहर निकलना चाहता हूँ। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: आप कह रहे हैं कि डर बहुत रहता है, सोशल एंग्ज़ाइटी रहती है और फियर (डर) बहुत ज़्यादा है। बार–बार फियर का ही पूछा है। ख़ास बात यह है कि आप अठारह साल के हैं और अठारह साल में ये…. (डर से पीड़ित हैं)!
आप भी, वास्तव में पूछो तो दूसरों की करनी का फल भुगत रहे हो। तुम्हारी ये जो पूरी पीढ़ी ही है न — एटीन (अठारह) हो, टीनएज़र (किशोर) हो। हम तो जब थे, तब जेन-एक्स ही बोल देते थे। अब तो जेन-एक्स, जेन-वाइ, जेन-जेड ये सब पीछे छूट गया। अब तो मिलेनियल्स (सहस्राब्दि) हो गये न ये लोग? अठारह का है न, तो ये क्या हुए?
ख़ैर, जो भी हो तुम, तुम्हें वास्तव में वो चीज़ दी ही नहीं गयी है जो ज़िन्दगी में पाने लायक़ है। जो पाने लायक़ होता है न, वो जब तुम्हारे पास आता है तो तुम्हें डराता नहीं है; वो तुम्हें एक ग़ज़ब विश्वास से भर देता है। और जब तुम्हारी पूरी पीढ़ी को ही ऐसी चीज़ें दे दी गयी हैं जो ज़िन्दगी में होनी ही नहीं चाहिए, तो ज़िन्दगी ऐसी चीज़ों से भर जाती है जो तुम्हें बिलकुल डराकर, दबाकर रखती हैं।
सोशल एंग्ज़ाइटी कह रहे हो। सोशल एंग्ज़ाइटी बेटा, इसलिए है क्योंकि तुम्हारे पास जो है वो बस सोशल-ही-सोशल है। सोशल मीडिया है, सोशल इंफ्लूएंसर्स (सामाजिक प्रभावकर्ता) हैं, सोशल लाइफ़ (सामाजिक जीवन) है। और ये जितने लोग तुम्हारी सोसायटी (समाज) में हैं, जो तुम्हारे इंफ्लूएंसर्स बने हैं, जो तुम्हारे रोल मॉडल (आदर्श) बने हैं — ये सब तुमको ग़लत सोच से जीने के ग़लत तरीक़ों से लगातार भरे हुए हैं। उन्हीं ग़लत विचारों का, ग़लत तरीक़ों का अंज़ाम है — डर।
इन्होंने तुम्हें बता दिया है कि ज़िन्दगी में सबसे क़ीमती वो चीज़ें हैं, जो तुम्हें दूसरों ने दी हैं। माने कि अब इस उम्र में, अठारह में — तुम जा रहे हो और तुमको ग्रुप एक्सेप्टेन्स (सामूहिक स्वीकृति) अगर मिल रही है, तो तुमको लगता है कि मैं तो एकदम सुपरस्टार हो गया। और वही जब नहीं मिलती, तो तुमको तमाम तरह के तनाव हो जाते हैं। एंग्ज़ाइटी, डिप्रेशन (अवसाद) भी हो जाता है।
तुम्हारे आदर्श ऐसे होने चाहिए थे जो तुम्हें बताते कि तुम्हारे पास सच का एक अंदरूनी केंद्र होना चाहिए।
लेकिन वैसे आदर्शों से तुम्हारा किसी ने कोई परिचय ही नहीं कराया। मैं आज तुमसे पूछ दूँ कि 'आर्यभट्ट' के बारे में कुछ बताना; मैं तुमसे 'लिओनार्दो दा विंची' के बारे में ही कुछ पूछ दूँ, मैं तुमसे 'पिकासो' के बारे में कुछ पूछ दूँ, वापस भारत पर आऊँ तो 'सुश्रुत' के बारे में कुछ पूछ दूँ; नहीं पता!
हाँ, एक-से-एक फूहड़, गलीच एक नंबर के इधर–उधर घूम रहे होंगे; उनका तुम्हें ख़ूब पता होगा! तुम इसीलिए डरे हुए हो क्योंकि तुम्हें ग़लत लोगों के बारे में बहुत कुछ पता है और जिनके बारे में तुम्हें पता होना चाहिए उनका तुम्हें कुछ पता नहीं है।
एक अभी मिला। वह ऐसे ही बिलकुल एकदम लुचुर–पुचुर हालत में, लगा कि गिर पड़ेगा। तो बात हो रही थी, मैं उससे पूछ रहा था —- साल–डेढ़ साल पहले की बात है — मैंने कहा, 'तुम्हारे आदर्श कौन हैं?'
बोला, 'व्हाट इज़ आदर्श (आदर्श क्या होता है)?'
मैंने कहा, 'रोल मॉडल।'
तो बोलता है, 'एमसी रौन।'
मैंने कहा, 'गाली क्यों दे रहा ये।' मैंने कहा, 'कौन?'
बोला, 'एमसी रौन'।
मैंने कहा, 'भाई तू रौन बोल ले, तू बार–बार एमसी एमसी क्यों?'
बोला, 'नहीं, एमसी रौन।'
मुझे कुछ समय लगा समझने में कि ये जो भी एमसी वाले लोग होते हैं, यही अब रोल मॉडल हैं। तुम रोल मॉडल हो ही नहीं सकते अगर तुम एमसी नहीं हो! मैं इस नयी पीढ़ी की बात कर रहा हूँ।
समझ में आ रही है बात?
पूछा, 'करता क्या है?'
बोले, 'रेपिंग'। (मूलशब्द रैपिंग, गायन की विधा है, जबकि 'रेपिंग' यौन बलात्कार का कार्य)
मैंने कहा, 'तेरी उम्र अभी बहुत छोटी है। नहीं तो, मेरा हाथ अभी बहुत बड़ा हो जाता। पटाक से पड़ता।'
फिर उसने मुझे सुनाया कि देखो, ये करता है। और वो जो रैप संगीत था, वो म्यूज़िक (संगीत) भर नहीं था, वो अपनेआप में पूरी फिलॉसफी (दर्शन) थी ज़िन्दगी की — 'ज़िंदग़ी जुआ है खेल जाने दे। ज़िन्दगी दारु है, पी जाने दे।'
(हथेली को तिरछा सामने करते हुए, ऊपर–नीचे करते हैं)
ये (हाथ पर इशारे करते हैं) पता नहीं, ये क्या है। जुए का इससे क्या सम्बन्ध है और दारु का क्या सम्बन्ध है इससे; सहलाने से दारु में फ़र्मन्टेशन (उफ़ान) ज़्यादा होगा या जुआ जीत जाओगे? कुछ होगा एमसी वाला काम, मैं नहीं जानता।
इन ख़ुराकों पर तुम्हारी हस्ती बड़ी और खड़ी हुई है। इस तरह की चीज़ें मानसिक रूप से सोखकर, खाकर-पीकर तुम सोलह साल के, अठारह साल के, बीस के, शायद और पच्चीस–तीस के भी हो रहे हो। अब तुम्हारी ज़िन्दगी लड़खड़ाती हुई सी नहीं रहेगी, तो कैसी रहेगी, मुझे बताओ?
मैंने पूछा, 'लाल–बाल–पाल कौन थे बताना?' और यह मैंने कोई बहुत ख़ूफ़िया बात नहीं पूछ दी है। यह ऐसा भी नहीं कि तुम यूपीएससी (संघ लोक सेवा आयोग) की तैयारी करो तो ही पता रहेगा। यह साधारण किसी भी बोर्ड की इतिहास की किताब में आठवीं–नवीं–दसवीं में रहता है।
बोला, 'नाइस मैन (अच्छा आदमी) लाल-बाल-पाल।'
मैं तो नहीं कह रहा कि तुम ऐसे हो, पर थोड़ी देर पहले कहा था न कि गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है। जब एक पूरी-की-पूरी पीढ़ी ही बर्बाद हो गयी हो तो उसमें कितना बचे रहोगे? और उसमें तुम्हारा दोष नहीं है।
मैं तो पूछता हूँ पचास और सत्तर और नब्बे के दशक वाली पीढ़ियों से, कि 'तुमने क्या विरासत सौंपी है आज के इन बच्चों को?' क्योंकि ये बेचारे तो नन्हें से ही पैदा हुए थे। इनको जो खिलाया–पिलाया; तुमने पिलाया। इनको जो सिखाया–पढ़ाया; तुमने पढ़ाया। यह क्या पढ़ाया है इनको कि ये नस्ल ऐसी निकल गयी?
अच्छे लोगों के सम्पर्क में आना होगा तुम्हें और अच्छे लोग — तुम जैसे हो गए हो— अच्छे लोग तुम्हें अच्छे नहीं लगेंगे; वो तुमको थोड़े बोरिंग (उबाउ) से लगेंगे; वो तुमको थोड़े अजीब से लगेंगे पर और कोई तरीक़ा नहीं है। तुम्हें अच्छे लोगों के सम्पर्क में आना होगा, भले ही वो तुमको कितने भी 'ओ माय गॉड, सो ऑड (हे भगवान! कितने अजीब हैं) लगें।'
हॉट (आकर्षक) से ऑड की तरफ़ बढ़ो। जो तुम्हें हॉट लगते हैं न, वही तुम्हारी ज़िन्दगी का बोझ हैं। ऑड लोगों की तरफ़ बढ़ो जो तुम्हें अजीब लगते हैं।
किताबें तुम पढ़ते नहीं, तुम तो सात–सात, आठ–आठ मिनट के, युट्यूबर्स के वीडियो देखते हो; तुम्हें किताबों की ओर आना होगा। ज़्यादातर काम जो तुम्हारी पीढ़ी करती है, उससे तुम्हें हटना पड़ेगा अगर तुम डर को हटाना चाहते हो तो।
दो दिशाओं में आगे बढ़ो! पहली बात — जो तुम्हारा सामान्य ज्ञान है उसको गहरा करो। हम कौन हैं, हम कहाँ से आये हैं, इसकी जानकारी इकट्ठा करो।
दूसरी बात — तुम्हारी उम्र अब इतनी है कि तुम विज़डम लिटरेचर (बोध साहित्य) की ओर बढ़ सको। तुम्हें बढ़ना होगा। शुरुआत करो साधारण आध्यात्मिक कहानियों से। और वो कौन–सी किताबें हैं, जानना है तो संस्था से सम्पर्क करो; नम्बर सार्वजनिक है, फोन करो, तुम्हें बता दिया जाएगा। शुरुआत करो साधारण आध्यात्मिक कहानियों से और उसके बाद धीरे–धीरे हम तुमको उपनिषदों तक लेकर जाएँगे। वो डर का आख़िरी इलाज हैं।
उपनिषद् ख़ुद कहते हैं कि हम लिखे ही इसलिए गये हैं ताकि तुम्हारे तापों का नाश कर सकें। ताप माने— हर वो चीज़ जो तुम्हें फ़िवरिश (ज्वरित) कर देती है, डरा देती है, तुम्हारा पारा बड़ा देती है।
ताप समझते हो? ताप को गर्मी भी बोल सकते हो और ताप को पीड़ा, माने संताप, ऐसे भी बोल सकते हो। तो ताप–त्रय का नाश हो सके, उपनिषद् कहते हैं, "हम लिखे ही इसलिए गये हैं।" तो डर तो अंततः तभी हटेगा जब उपनिषदों के पास आओगे।
इन उपनिषदों तक आने के लिए तुम्हें थोड़ी–सी यात्रा करनी पड़ेगी।
पहला कदम है — जिन लोगों से, जिन विचारधाराओं से, जिस तरह के आदर्शों से जुड़े हुए हो; उनको बर्ख़ास्त करो। बर्ख़ास्त माने डिसमिस (निरस्त)।
दूसरा — कुछ सामान्य ज्ञान अर्जित करो कि यह दुनिया क्या चीज़ है, राजनीति क्या चीज़ है, अर्थव्यवस्था क्या चीज़ है, इतिहास क्या चीज़ है।
तीसरा — अध्यात्म की जो साधारण किताबें हैं, प्रवेशिकाएँ हैं एन्ट्री लेवल (प्रवेश स्तरीय), उनसे शुरु करो।
और चौथा — अंततः आओ और साथ बैठकर के उपनिषद् पढ़ो। अगर वाक़ई तुम गंभीर हो, जो मैं समझता हूँ कि तुम्हें होना चाहिए। तुम्हें बहुत लम्बी ज़िन्दगी जीनी है, अभी मात्र अठारह के हो। वाक़ई गंभीर हो तुम एक अभीत निर्भय ज़िन्दगी जीने के लिए, तो आओ।