डर लगता है, तो खूब डरो || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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डर लगता है, तो खूब डरो || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: आपको जिस भी चीज़ का डर लगेगा वो कभी-न-कभी तो होनी ही है कि नहीं होनी? दुनिया में मुझे बताना कौन-सी चीज़ है जो नष्ट कभी हुई नहीं, न होने वाली है। और डर सदा इन्हीं चीज़ों का होता है न — कुछ नष्ट हो जाएगा, कुछ नहीं रहेगा, कुछ छिन जाएगा, कोई उम्मीद टूटेगी, कोई योजना विफल हो जाएगी। कौन-सी योजना है आदमी की बनायी हुई जो पुरातन काल से आज तक चली ही जा रही है? सभ्यताएँ मिट गयीं, संस्कृतियाँ बह गयीं, धर्म ख़ाक हो गये, आदमी का बनाया कुछ बचता नहीं।

इसी बात को जानने वालों ने यहाँ तक कहा है कि ये तो छोड़ दो कि आदमी का बनाया हुआ कुछ बचेगा आदमी ने जिस चीज़ का विचार कर लिया वो तक नहीं बचने वाली। बाप-रे! आदमी का निर्माण ही नहीं, आदमी की कल्पना भी शेष नहीं रह जाने वाली है। सिर्फ़ वही नहीं जिसके आप रचयिता हैं, वो भी जिसके आप मात्र दृष्टा हैं, कल नहीं रहेगा।

चांद और सूरज आपने तो नहीं बनाए न, कि बनाए हैं? अरे, वो भी कल नहीं रहने वाले। ये तो गड़बड़ हो गयी! बड़ी-बड़ी आकाशगंगाएँ, अभी जब हम बात कर रहे हैं ठीक इस समय विलुप्त हुई जा रही हैं। मैं ग्रह, उपग्रह, किसी सूरज, किसी तारे, किसी चांद की बात नहीं कर रहा। मैं बात कर रहा हूँ आकाश-गंगाओं की। ठीक इस वक्त न जाने कितनी हैं जो मिट रही हैं, तो बचेगा क्या यहाँ पर?

हम जिनको सूर्य देव बोलते हैं ये क्या हैं? ये मध्यम आकार के एक तारे हैं महाराज। आपको क्या लग रहा है ये चलने वाले हैं बहुत? इनकी भी लिखी हुई है एक्सपायरी-डेट (समाप्ति तिथि), ये भी जाएँगे। ये तो गड़बड़ हो गयी!

हममें से कौन है यहाँ पर — हम सब कहते तो अधिकांश लोग यही हैं न कि वैदिक धर्म के अनुयायी हैं — यहाँ कौन है अब जो मारूत की पूजा करता हो? इन्द्र राजा की भी अब पूजा कितने लोग करते हैं, बताइएगा? ये तक उस मानसपटल से मिट गये जिस मानसपटल पर इनका अस्तित्व था। देवी-देवता भी आते हैं और चले जाते हैं। तो आपको जिस भी चीज़ के मिटने का डर लग रहा हो, डर वाजिब है; लग रहा होगा, सही लग रहा है।

अन्दर की बात ये है कि सबको लगता है, टेबल के इधर जो बैठा है (खुद को सम्बोधित करते हुए) उसे भी लगता है। कोई नहीं है जिसकी दुनिया मिट नहीं जानी, कोई नहीं है जिसका संसार क्षणभंगुर नहीं है। कोई मूरख ही होगा जो इस प्रति-पल बदलती दुनिया में स्थायित्व की कामना करेगा। दिख रहा है न अपनी आँखों से जो आज है वो कल नहीं रहेगा।

कंघी करो तो बाल झड़ जाता है ससुरा! कल तक सर पर बैठा होता था, चढ़ा है यहाँ पर। अभी मैं ही आ रहा था, कंघा मारा, ऐ यार! महाराज दिन-प्रतिदिन गंजा हो रहे हैं। जो सिर के ऊपर चढ़ कर बैठा है जब वो कंघे की चोट नहीं बर्दाश्त कर पाता तो सर के नीचे जो कुछ है वो काल की चोट कैसे बर्दाश्त कर लेगा? कर लेगा क्या? तो भईया यहाँ तो कुछ भी बचना है नहीं।

तो जितने लोग डरे हुए हैं वो सही ही डरे हुए हैं; एकदम ठीक। अब बात को यहाँ रोक दूँ या आगे बढ़ाऊँ?

प्र: आगे बढ़ाएँ।

आचार्य: तो आगे बढ़ाते हैं।

तो डर झूठ नहीं बोल रहा पर डर जो बात बोल रहा है वो अधूरी है। झूठी नहीं है, अधूरी है। और कई बार झूठ से ज़्यादा घातक होता है आधा सच।

डर ने खुल्लम-खुल्ला झूठ बोल दिया होता तो हमारा कम नुक़सान कर पाता। डर आधी बात बताता है। ये भी कह सकते हैं आप कि डर निन्यानवे प्रतिशत सही बताता है, एक प्रतिशत कुछ है जिसे दबा जाता है। सब कुछ है जिसे मिट जाना है यहाँ तक बात ठीक है, वाक्य लेकिन अभी पूरा नहीं हुआ है, पिक्चर अभी बाकी है।

पूरी बात क्या है? पूरी बात ये है कि चूँकि सब कुछ मिट ही जाना है इसीलिए उसके मिट जाने से पहले हमें जी जाना है। अब बोलो जो मिट रहा है उसका डर मनाओगे या उसके मिट जाने से पहले उसे पी जाओगे?

गृहिणी हैं आप, कुछ ले करके आती हैं, कुछ चॉकलेट-शेक या कुछ बच्चों के लिए बाज़ार से, लाती होंगी न ऐसी चीज़ें और उनमें अक्सर लिखा होता है कि अगले तीन दिन के भीतर इनका उपयोग कर लें, तो पता है न कि तीन दिन के बाद इसका क्या होना है? क्या होना है, भाई?

प्र: तिथि समाप्त।

आचार्य: एक्सपायर होना है। ये शब्द तो हमने सुना हुआ है न, 'एक्सपायर '? एक्सपायर माने क्या होता है?

टनक गये!

तो फिर उससे पहले फिर क्या करती हैं आप? वो एक्सपायर हो जाए उससे पहले क्या करना है? जो उसका समुचित उपयोग है वो कर डालना है तो हम क्या करते हैं फिर उसका? हम उसको पी जाते हैं।

ये पीना क्या बात है? पीने का मतलब क्या होता है?

एक बात बताइएगा, ये आपने कैसे कह दिया समुचित उपयोग है? भाई, तीन दिन के बाद वो नाली में चला जाता। तीन दिन से पहले आपने उसे आँत में डाल दिया। ये आँत में डालना बेहतर उपयोग कैसे हो गया नाली में डालने से, थोड़ा समझाइएगा। और नाली भी तो आँत जैसी ही है, आँत भी नाली जैसी है। बल्कि अमेरिका की नालियाँ तो साफ़ होती होंगी, अन्दर वाली नाली में अक्सर कब्ज़ रहता है। वो बन्धी हुई है उसमें से कुछ निकल नहीं रहा है दस तरह के बैक्टीरिया घुस गये हैं, न जाने क्या क्या! तो यहाँ वाली (मुँह की ओर इशारा करते हुए) नाली में डाल दिया वो बात बेहतर कैसे हो गयी ज़मीन वाली नाली में डालने से, बताइएगा?

कैसे?

क्योंकि जो भीतर डाला है न वो प्राण बनेगा। वो आदमी की चेतना को बढ़ाने में काम आएगा। जो कुछ आपकी चेतना को बढ़ाए वो जीवन का समुचित उपयोग है। नाली में डाल दिया होता तो उससे आपकी चेतना आगे नहीं बढ़ती न, पेट में गया तो ऊर्जा मिली और अब सम्भावना है कि उस ऊर्जा का उपयोग आप सही जीवन जीने के लिए कर डालें।

जो चीज़ हमें पता है कि मरण-धर्मा है वो मिट ही जाए उससे पहले उसका उपयोग कर डालो चेतना को बढ़ाने के लिए।

तो डर जो आकर आपसे बाते बोल रहा है वो सही बोल रहा है और अगर हम थोड़ा तटस्थ दृष्टि से देखें तो डर तो दोस्त है हमारा। डर यही कह रहा है न, 'ये चीज़ कल नहीं रहेगी'?

वो तो दोस्त की तरह याद दिला रहा है कि जल्दी से इसका इस्तेमाल कर लो ये कल रहेगी नहीं। जी लो! छक कर पी लो! कल ज़िंदगी रहेगी नहीं।

और कुछ अच्छा तो नहीं लगेगा कि मौत से महीने-दो-महीने पहले या घंटे-दो-घंटे पहले ख़याल आ रहे हैं कि 'कैसे ज़िन्दगी सुबकते हुए गुज़ारी थी। भईया, जल्दी ही मार दो नहीं तो इस तरीके के ख़याल और आएँगे, और गड़बड़ हो जाएगी।' आदमी इसीलिए तो घबराता है न?

मृत्यु का मैं विषय इसलिए ले आया क्योंकि मृत्यु और डर बिलकुल जुड़ी हुई बाते हैं; डर हमेशा मिटने का ही होता है और मिटना मानें मौत।

कैसा अजीब सा लगेगा न, सत्तर के हो गये, अस्सी के हो गये, नब्बे के हो गये और फिर पीछे देख रहे हैं तो दिखाई क्या दे रहा है?

बस एक विराट सूनापन।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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