प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, भय का सामना करना ही भय से मुक्ति पाने का एकमात्र तरीक़ा क्यों है? क्या कोई दूसरा तरीक़ा भी हो सकता है?
आचार्य प्रशांत: भय तथ्य नहीं है, भय कल्पना है। दिनभर तुमने डर में बिताया हो, रात को सो जाते हो, भय बचता है? दिनभर तुम डरे-सहमे घूम रहे थे, झपकी आ गयी, भय कहाँ गया? कहाँ गया भय? हाँ, पुनः जाग्रत चेतना में आओगे, भय का संचार पुनः हो जाएगा। देख नहीं रहे हो कि भय का रिश्ता तुम्हारी चेतना की अवस्था से है। भय में अगर कुछ तथ्य होता या भय में कोई वस्तुगत सत्य होता तो तुम्हारी चेतना बदलते ही भय कैसे हट जाता?
और उदाहरण देता हूँ, मान लो सोये नहीं, मान लो जग ही रहे हो। दस रुपये खो जाने के डर में डूबते थे, उतराते थे और तभी कोई और बड़ी घटना हो गयी, कुछ ख़ास मिल गया या कुछ और बड़ा खो गया। तब उस दस रुपये वाले डर का क्या होगा? बचेगा या खो जाएगा? देख नहीं रहे हो कि भय भी सिर्फ़ तब तक है जब तक विचार कर रहे हो। ख़याल नहीं तो डर नहीं। ख़याल नहीं तो डर नहीं और ख़याल अगर कर रहे हो तो डर कहीं से भी पैदा किया जा सकता है। अब तुमने पूछा है कि भय का सामना करने के अतिरिक्त और कोई उपाय क्यों नहीं है। इसलिए ताकि जब सामना करो तो तथ्य से रू-ब-रू हो जाओ, और तरीक़ा क्या है!
डरते हो बहुत ज़्यादा कि पीछे ये जो कक्ष है (बगल की ओर हाथ से इशारा करते हुए) , इसमें बड़े भूत-प्रेत हैं, हज़ारों क़िस्म की आफ़तें हैं, दानव हैं, हत्यारे बैठे हुए हैं, बड़े-बड़े गड़ासें लेकर, बन्दूकें लेकर और तोपें लेकर तुम्हें मारने के लिए। और यहाँ से आवाज़ें उठ रही हैं और हो सकता है आवाज़ें वास्तव में उठती भी हों, कुछ अजीब सी आवाज़ है जो यहाँ से आ रही है। और तुम यहाँ बैठे-बैठे सिहरे जा रहे हो, रोये जा रहे हो, ‘मेरा होगा क्या! इतने सारे दुश्मन यहाँ इकट्ठे हो गये हैं मुझे मारने के लिए।’
तब मैं कहता हूँ कि ज़रा श्रद्धा रखकर, दिल पर हाथ रखकर दरवाज़ा खोल दो और जिससे डर रहे हो उसका सामना कर लो, तुम देखोगे कि वहाँ पर दो बकरी के बच्चे हैं, वो मिमिया रहे हैं। और उनके साथ एक बिल्ली का बच्चा, एक कुत्ते का पिल्ला भी हो सकता है। वो सब बेचारे ख़ुद परेशान हैं। सब मिला-जुला, सामूहिक एक आर्तनाद कर रहे हैं कि हमें बचाओ! और तुम उनसे डरे बैठे थे, तुम्हें लगता था ये पता नहीं कैसी विचित्र आवाज़ें उठती हैं, मेरे सब दुश्मन इकट्ठा हो गये हैं और मेरे विरुद्ध साज़िश कर रहे हैं। तुम इस डर में सिर्फ़ उस क्षण तक रह सकते थे जिस क्षण तक तुमने दरवाज़ा खोला नहीं। दरवाज़ा खोलना बहुत ज़रूरी है। जिससे डर रहे हो उसको ठीक-ठीक देखना बहुत ज़रूरी है। अन्यथा कल्पना का कोई अन्त नहीं है।
होता उल्टा है, जिससे डर जाते हो उसके दर्शन तो कभी भी नहीं करना चाहते। जबकि उसके दर्शन सर्वप्रथम करने चाहिए। हाँ, जिससे डरे हो उसको केन्द्र बनाकर तुम हज़ार अन्य चीज़ों के दर्शन खूब कर लेते हो। मन्दिरों के दर्शन कर आओगे, तीर्थों के दर्शन कर आओगे, सुरक्षा के हज़ार जुगाड़ कर लोगे। और वो सब क्यों कर रहे हो? क्योंकि 'किसी’ से डरे हुए हो। भगवान के पास भी चले जाओगे इसलिए क्योंकि डरे हुए हो। भगवान के पास जाना ज़्यादा ज़रूरी है या दरवाज़ा खोल देना?
अन्धेरे में रहना मात्र हमारी मजबूरी ही नहीं है, ज़बरदस्ती अपनेआप को अन्धेरे में रखने में हमारा बड़ा स्वार्थ छुपा हुआ है। दो समुदाय हैं, दोनों में आपस में अगर वैमनस्य हो जाए तो देखिएगा, वो मिलना-जुलना बन्द कर देते हैं। दो परिवारों में आपस में वैमनस्य हो जाए, वो मिलना-जुलना बन्द कर देते हैं। दो देशों में हो जाए, उनमें नागरिकों की आपसी यात्राएँ बन्द हो जाती हैं। आप ये न समझिएगा कि ये सबकुछ इसलिए हो गया है क्योंकि बैर है। मामला ज़रा अलग है। बैर को बचाये रखना है इसीलिए मिलना-जुलना बन्द करना ज़रूरी है। मिलना-जुलना शुरू हो गया, बैर बचेगा नहीं। बैर, दूजापन, परायापन, भय — ये सब कल्पना में ही फलित होते हैं। जो सामने है, उसके बारे में कल्पना कैसे करोगे? असुविधा हो जाएगी न।
तुमने तो कल्पना बैठा ली थी कि इसके (सामने बैठे स्वयंसेवी की ओर इशारा करते हुए) चौसठ दाँत और चार सींग हैं और इसकी शैतान जैसी पूँछ है और ये ज़हरीली साँसें लेता है। और जैसे ही तुमने ये कल्पना करी थी वैसे ही जैसे तुम्हें अनुज्ञा मिल गयी थी, लाइसेंस मिल गया था इस कल्पना के इर्द-गिर्द अपना संसार बसा लेने का।
भई, दुनिया में कुछ है जो बहुत ताक़तवर है और जो मेरा दुश्मन है तो अब मैं अपना संसार कैसा बसाऊँगा? मेरे संसार में मेरी सुरक्षा के बहुत सारे इन्तज़ाम होंगे। मेरे संसार में वो सारे लोग होंगे जो मेरी ही तरह उस दुश्मन से डरते हों। मैं घर नहीं बनाऊँगा फिर, मैं किला बनाऊँगा। मोटी दीवारें होंगी, पक्के दरवाज़े होंगे। मेरे पास फिर जो कुछ भी होगा, अस्त्र की तरह होगा। मेरा ज्ञान भी फिर क्या होगा मेरा? अस्त्र होगा, हथियार होगा, क्योंकि मैं अब लगातार लड़ाई पर हूँ, 'आई ऐम ऐट वॉर (मैं युद्ध में हूँ)। कोई है अज्ञात दुश्मन कहीं छुपा हुआ, जिसको मैं जानता नहीं लेकिन जो लगातार मेरा नुक़सान करने पर उतारू है और जिसके पास बड़ी ताक़त है। उसके पास इतनी ताक़त है, तो मुझे भी तो उसी तरह का इन्तज़ाम करना होगा।'
अब ये सारा इन्तज़ाम आपने कर लिया है, एक काल्पनिक दुश्मन को केन्द्र में रखकर। आप कभी चाहेंगे अब कि उस दुश्मन से वास्ता पड़े? उस दुश्मन को देख लिया तो बड़े अपमान की बात हो जाएगी। अपमान क्यों? सिद्ध हो जाएगा कि हम मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं में जीवन बर्बाद करते रहे। जिस दुश्मन से निपटने के लिए ये इतनी योजनाएँ करीं, इतनी बन्दूकें खरीदीं, इतनी तोपें खरीदीं, इतना पैसा इक्ट्ठा किया, इतने रिश्ते बनाये, इतने लोगों की ग़ुलामी करी, इतनी जगह जाकर तलवे चाटे, वो दुश्मन तो था ही नहीं। जिस दुश्मन से निपटने के लिए मैंने अपनी ज़िन्दगी बेंच दी, अपनेआप को बर्बाद कर लिया, वो दुश्मन तो था ही नहीं। बड़े अपमान की बात होगी न?
तो यहाँ बिल्ली के बच्चे, बकरी के बच्चे, कुत्ते के बच्चे रिरिया रहे हैं, मिमिया रहे हैं और वो जितना वहाँ से कूँ-कूँ-कूँ-कूँ कर रहे हैं, उतना यहाँ आप और सतर्क हुए जा रहे हैं। आयातित तोपें मँगवायी हैं और सबका मुँह दरवाज़े की ओर कर रखा है कि ज्यों ही राक्षस दिखायी देगा, बोलोगे 'फायर!' ('हमला!') इसीलिए कहता हूँ कि सामना करना ज़रूरी है। सामना करने से मेरा मतलब लड़ाई करना नहीं है। भय का सामना करने से मेरा अर्थ ये नहीं है कि जिससे भय लगता है उससे जाकर उलझ जाओ, उसको जाकर पटक दो। मेरा आशय है कि जिससे डरे जा रहे हो, उसको एक बार देख तो लो, उसमें कुछ ऐसा है भी कि जिससे डर सको या नहीं।
डरने में हमारी 'सीमित सत्ता' का बड़ा स्वार्थ है। न डरने में हम मिटते हैं। समझिएगा! आप जो हैं, आपको बचाये रखने के लिए डर आवश्यक है। जैविक रूप से भी डर इसीलिए होता है ताकि शरीर बना रहे। वो जो जैविक डर होता है, वो कम ख़तरनाक होता है। वो ऐसा ही होता है कि अचानक आपके सामने एक ज़हरीला साँप आ जाए, आप बिदक कर दूर हो जाते हैं। वो डर ख़तरनाक नहीं होता क्योंकि उस डर की कोई आयु नहीं होती। आप और साँप अचानक एक-दूसरे के सामने पड़ जाएँ, आप देखिएगा क्या होगा, दोनों बिदक कर एक-दूसरे से दूर हो जाएँगे। वो डर मन पर कोई गहरा आघात नहीं करता क्योंकि समय ही नहीं मिलता डरने के लिए।
आप सड़क पर जा रहे होते हैं, ज़रा बेख़याली में हैं। आप देखते हैं एक ट्रक आ रहा है आपकी ओर। आपने देखा है आप झटके से हट जाते हैं? है वो एक प्रकार का डर ही, पर वो वैसा डर नहीं है जिस डर में हम जीते हैं। वो, वो डर नहीं है जो रातों को आपकी नीन्द ख़राब कर दे। वो, वो डर है जो बस शरीर की रक्षा के लिए आवश्यक है और उस डर में कोई बुराई नहीं। वो एक तरह की नैसर्गिक सतर्कता है, बस। उसे डर कहना भी उचित नहीं होगा।
हम दूसरे डर में जीते हैं। हम उस डर में जीते हैं जो शरीर की नहीं, अहंकार की रक्षा करता है। शरीर मात्र की रक्षा करने वाला डर दूसरी चीज़ है। वो ऐसी सी बात है कि आपने अचानक गरम चाय उठा ली और बहुत गरम लगी तो आप तुरन्त झटके से उसे वापस रख देते हैं या आप खेल रहे हैं, अचानक आपकी ओर बहुत तेज़ी से गेन्द आ रही है, आप तुरन्त कुछ इस तरीक़े से उसको लेते हैं कि वो आपके सीने पर न लगे, आपकी आँख पर न लगे।
हम सीना या आँख नहीं बचाना चाहते, हम भीतर बैठे अपने पिद्दीपन को बचाना चाहते हैं। अब डर गड़बड़ है। अब डर गड़बड़ है। लेकिन आप कहेंगे, ‘इसीलिए तो डर ज़रूरी है, डर बचाता है न मुझे और मैंने अपनेआप को उस 'पिद्दी' के अतिरिक्त और कुछ जाना ही नहीं है।’ ग़ौर से सुन लीजिएगा,
डर मजबूरी नहीं है, स्वार्थ है। जो कोई बहुत डरता दिखायी दे, वो सहायता का, सन्वेदना का बाद में पात्र है, पहले ये जान लीजिएगा कि ये इंसान बड़ा कुटिल है अपने ही ख़िलाफ़ साज़िश करने में।
डरपोक आदमी सहायता का पात्र बाद में है, पहले तो उसकी जो आन्तरिक साज़िश है अपने ही ख़िलाफ़, उसको बेपर्दा किया जाना चाहिए। वो डर इसीलिए रहा है क्योंकि डरने में सुविधा है, डरने में न्यस्त स्वार्थ हैं। वो डरना छोड़ देगा तो बहुत सारी सुविधाएँ जो उसको मिलती हैं वो नहीं मिलेंगी।
घर का एक बच्चा है। उसकी उम्र हो गयी है अब अकेले सोने की। माँ उसको अकेला सुला देती है। वो कुछ बातें सीख लेता है। वो कहता है, 'अगर मैं चिल्लाऊँ कि मुझे डर लग रहा है तो मुझे माँ की संगति मिल जाएगी।' यही बच्चा ज़रा बड़ा हो गया है, मोटा है, थुलथुल है। इसको साईकिल थमा दी जाती है कि इससे स्कूल जाया करो। ये चिल्ला दे कि साईकिल से स्कूल जाता हूँ, सामने से बस आती हैं, ट्रक आती हैं, सड़क पार करनी पड़ती है, मुझे डर लगता है कि कहीं दुर्घटना न हो जाए, मर न जाऊँ। इसको तुरन्त घर की कार से स्कूल जाने की सुविधा मिल जाएगी। डरने में बड़े स्वार्थ हैं।
लेकिन जब कोई डरकर के आपसे सहायता माँगता है तो देखिएगा आपके अहंकार को कितना भला लगता है। कोई आपके सामने घोषणा कर दे, ‘मैं निर्भय, निडर, अभीत हूँ!’ आपको ज़रा बुरा सा लगेगा। आप कहेंगे, ‘बहुत चौड़ा हो रहा है। कहता है निर्भय हूँ, निडर हूँ, अभीत हूँ, मुझे डर नहीं लगता।’ और कोई आपके पास आकर कहे, ‘सुनो जी! बड़ा दिल घबराता है, अपना हाथ दोगे?’ फिर रसगुल्ला आ जाएगा, ख़ून में शक्कर घुल जाएगी। कितने ही ख़ानदान ऐसे चल निकले। ‘सुनो जी! रात बड़ी गहरी है, डर लगता है। अपना हाथ दोगे? एकदम धक्-धक् धड़कता है दिल, यहाँ पर।’ और फिर वहाँ से पूरा एक वंश निकल पड़ेगा! और कोई खड़ा हो और कहे, ‘न, हम नहीं घबराते।’ आप कहेंगे, ‘अच्छा! नहीं घबराता है? अभी बताता हूँ। अब घबराया कि नहीं? और लगाऊँ चार? फिर बताना कि घबराता है कि नहीं।‘ जो न घबराता हो, आप उसको ये फल देंगे। कहेंगे, ‘तू तो घबराता ही नहीं है न? आ जा! तेरा इम्तिहान लेता हूँ।’
डर स्वभाव नहीं है, डर स्वार्थ है। स्वार्थ — स्व-अर्थ। मन को, मन के ढर्रों को, धारणाओं को, झूठों को, कल्पनाओं को बचाये रखने के आन्तरिक षड्यंत्र को कहते हैं डर। डर का अर्थ है ‘कुछ छिन जाएगा।’ क्या छिन जाएगा? हमारे झूठ छिन जाएँगे। सच से सामना होगा तो झूठ छिन ही जाएँगे न? इसीलिए हम दरवाज़ा खोलेंगे नहीं। यही तो डर है, दरवाज़ा खुल गया तो राज़ भी खुल जाएँगे। 'खोलना नहीं, बकरी के बच्चे को प्रेत साबित किये रहना।'
अब मैं ये आपके ऊपर छोड़ता हूँ कि ये सौदा खरा है कि नहीं है। डरते हो तो कुछ मिलता है, बिलकुल मिलता है, क्या मिलता है? सहारा मिलता है, सुविधाएँ मिलती हैं। डरते हो तो सहारा मिलता है, सुविधाएँ मिलती हैं। और नहीं डरते हो तो कुछ मिटता है, क्या मिटता है? झूठ की बुनियाद पर खड़ा हुआ हमारा संसार मिटता है। उधर कुछ मिलता है, इधर कुछ मिटता है। ऊपर-ऊपर से तो ऐसा ही लगता है कि उधर को जाओ जहाँ कुछ मिलता है लेकिन आप गुणी-ज्ञानी लोग हैं, आपके ऊपर छोड़ता हूँ।
एक सवाल पूछिएगा अपनेआप से, ‘डर न हो जीवन में तो क्या वैसे ही जिएँगे जैसे जी रहे हैं? डर न हो जीवन में तो क्या एक क़दम भी उधर को उठाएँगे जिधर को रोज़ चले जाते हैं?’ तो देखिए डर ने कर क्या डाला है। और इन छोटे डरों में उलझकर के जो सबसे बड़ा नुक़सान है, वो करे जा रहे हैं। छोटे डर, छोटे नुक़सान के होते हैं न? छोटे नुक़सान का छोटा डर। छोटा नुक़सान बचाने के लिए छोटे डर पाल-पालकर कितना महत् नुक़सान करे जा रहे हैं, ये नहीं देखते न।
एक सवाल और है, ‘डरे न हों आप यदि, तो आपकी आँखें क्या वैसी ही होंगी जैसी हैं? चेहरा वैसा ही होगा जैसा है?’ हमारा चेहरा यूँही कैसा भी नहीं होता। उसकी रूप-रेखा माँ के गर्भ से मिली होती है लेकिन उसमें भावों को हमने प्रविष्टि दी होती है। मन बदलता है, चेहरा बदल जाता है। ये हमारा चेहरा नहीं है, ये डर का चेहरा है। जैसे-जैसे आपके चेहरे से डर जाता रहेगा, वैसे-वैसे आपकी आँखें, आपका चेहरा, आपके भाव, आपके माथे की त्योरियाँ सब बदलते रहेंगे।
डरे न हो तो क्या रोज़ दाढ़ी बनाओगे? डरे न हो तो इतने प्रसाधन लगाओगे? डरे न हो तो कपड़े वैसे ही पहनोगे जैसे पहनते हो? डरे न हो तो चलोगे वैसे ही जैसे चलते हो? डरे न हो तो उन्हीं लोगों से मिलोगे जिनसे मिलते हो? आप परेशान किनसे रहते हो ज़िन्दगी में, उन लोगों से जिनको आप जानते ही नहीं, जो दूर-दूर के हैं, जिनका न नाम देखा, न गाँव, या उनसे परेशान रहते हो जो आपके जीवन में सम्मिलित लोग हैं, जिनसे रोज़ाना साक्षात्कार है?
श्रोता: जिनसे रोज़ साक्षात्कार है।
आचार्य: तो जिनसे रोज़ मिलते हो, उन्हीं से परेशान हो। पर अगर परेशान हो तो रोज़ मिलते क्यों हो?
श्रोता: क्योंकि उनके बिना रह नहीं सकते।
आचार्य: 'छोटा सा दिल है, धड़क जाता है, क्या करें!' 'सुनो जी, बहुत डर लागे है!' और ये सबकुछ किसके कारण है? क्यों ज़िन्दगी यन्त्रणा और नर्क है? बिल्ली का बच्चा! वो बिल्ली का बच्चा जिसको प्रेत बनाये रखने में हमारा बड़ा स्वार्थ है। डर का सामना कर लो!