डर एक साज़िश है सच के ख़िलाफ़ || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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डर एक साज़िश है सच के ख़िलाफ़ || आचार्य प्रशांत (2018)

आचार्य प्रशांत: हम लोगों की बातचीत में ईमानदारी बहुत ज़रूरी होगी। प्रवचन नहीं है ये, संवाद है। हम बात करते हैं। भले ही अधिकांश मैं ही बोलता रहता हूँ लेकिन फिर भी यह संवाद है, बातचीत है। बीस में से उन्नीस वाक्य मेरे होंगे, लेकिन फिर भी ये डायलॉग है, संवाद है।

और दो लोग अगर आपस में बातचीत कर रहे हों, तो पहली दोनों को बात करनी होती है। और दोनों को खुलकर के बात करनी होती है। फिर मज़ा आता है।

तो बताइए, बोलिए।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब समूह में कोई कार्यक्रम होता है जिसमें बारी-बारी से सबको बोलना होता है तो अगर मुझे पहले बोलने को मिल गया तब तो ठीक है लेकिन अगर मुझे इंतज़ार करना होता है तो मैं घबराने लगता हूँ और दूसरे की बात भी समझ नहीं आती जब तक कि मेरी बारी न आ जाए।

आचार्य: तो इससे ज़िन्दगी के बारे में क्या पता चलता है? समझो उसने क्या कहा। उसने कहा कि एक समूह है, कुछ लोग हैं, उनके सामने क्या करना है? जवाब देना है। और वो जवाब देना उसके लिए इतनी बड़ी बात है, इतनी गम्भीर बात है कि वो लगातार उस जवाब के बारे में ही सोचे जा रहा है। और उस जवाब के बारे में ही वो लगातार सोचे जा रहा है इसीलिए और क्या चल रहा है, दूसरे लोग क्या बोल रहे हैं, इसका उसे कुछ होश नहीं लगता।

इससे हमें ज़िन्दगी के बारे में क्या पता लगता है? मन और ज़िन्दगी एक है। चाहे ये बता दो कि आदमी के मन के बारे में क्या पता चलता है, चाहे बता दो ज़िन्दगी के बारे में।

प्र: जो डरा हुआ है, वह स्वस्थ सम्बन्ध कैसे बना सकता है?

आचार्य: जो डरा हुआ होगा, जो अपनी सुरक्षा को लेकर चिन्तित होगा वो किसी से भी स्वस्थ, सहज सम्बन्ध नहीं बना सकता। उसकी सारी ऊर्जा, उसकी सारी चेतना किस मुद्दे पर केन्द्रित रहेगी? आत्मसुरक्षा। ‘मुझे क्या करना है? अपनेआप को बचाना है।’

कोई यहाँ (कनपटी) पर खड़ा हो पिस्तौल लगाये और कोई खड़ा हो छाती से खंजर टिकाये और उधर (बगल में इशारा करते हुए) चलता हो सुन्दर नाच और इधर बच्चे गीत गा रहे हों, उधर इन्द्रधनुष खिला हो। मुझे क्या दिखायी देगा? कुछ भी नहीं!

जो डरा हुआ होता है उसे कुछ भी नहीं दिखायी देता, उसे सिर्फ़ एक चीज़ दिखायी देती है, क्या? अपनी सुरक्षा। ये तो गड़बड़ हो गयी! अगर दिखायी नहीं देता हो तो हो सकता है कि सुनायी भी न देता हो। तो ये तो और बड़ी गड़बड़ हो गयी! अब क्या करें! समझ रहे हैं?

डर आपको एक कमरे में क़ैद कर देता है, जहाँ आप हैं और? आप हैं। एक आप वो हैं जिसको आपने नाम दिया है 'मैं' और दूसरे आप वो हैं जिसको अपने नाम दिया है 'डर का विषय'। डर आपको एक कमरे में क़ैद कर देता है जिसमें आप हैं और आप हैं। पर वो जो दूसरा है उसको आप, 'आप' का नाम नहीं देते, उसको आप क्या बोलते हो? उसे आप बोल देते हो, 'डर का विषय' है, ये कोई दूसरी चीज़ है, बेगानी चीज़ है, मुझसे अलग है, मैं इसको जानता नहीं, अजनबी है, ये मुझे डराने आयी है, ख़त्म करने आयी है।

द्वैत की यही बात है — जब भी दो दिखायी दें, समझ लेना दूसरा पहला ही है। दूसरे और पहले में रूपगत, आकारगत, दृष्टिगत अन्तर है। कोई मूल भेद नहीं है।

तो अब आप एक कमरे में क़ैद हो, जिसमें आप हो और आप हो। बाहर क्या हो रहा है? हमें क्या पता! बाहर क्या हो रहा है? हमें क्या पता! बाहर कोई कुछ कह रहा है, बाहर कोई कुछ समझाना चाहता है, बाहर हो सकता है किसी को मदद की ज़रूरत हो, बाहर कुछ भी हो सकता है पर मेरे लिए तो मैं हूँ और मैं हूँ!

बाहर कोई कुछ कह भी रहा हो तो मुझे सुनायी क्या देगा? अपनी ही आवाज़। इसको कहते हैं आत्मसंवाद। मैं ख़ुद से ही बात करने में तल्लीन हूँ। मुझे सुनायी ही नहीं दे रहा कि मुझसे बाहर कौन है, क्या है, क्या संदेश दे रहा है, क्या बोलना चाहता है। और ऐसा नहीं कि मैं सुन नहीं रहा, सुन मैं रहा हूँ, पूरे तरीक़े से सुन रहा हूँ। मैं किसको सुन रहा हूँ? मैं ख़ुद को सुन रहा हूँ। हममें से अधिकांश लोग यही कर रहे होते हैं। ये मनोरोग है, ये विक्षिप्तता है, पागलपन। हम लगातार किससे बात कर रहे है?

प्र: स्वयं से।

आचार्य: हम लगातार किससे डरे हुए हैं?

श्रोता: स्वयं से।

आचार्य: हमें लगातार क्या दिख रहा है? अपने ही द्वारा प्रक्षेपित कोई रूप, कोई छवि, कोई घटना, कोई आकार, कोई भी निर्मित्ति जिसको हमने ही प्रक्षेपित किया है, प्रोजेक्ट किया है। और हम लगातार उसके साथ मशगूल हैं, हम उसके साथ गुत्थम-गुत्था हैं। जैसे कोई पहलवान अपनी छाया के साथ लड़ाई कर रहा हो।

छायाओं के साथ एक बड़ी अजीब बात है, वो कभी हारती नहीं। तुम बड़े-से-बड़े पहलवान को हरा सकते हो, अपनी छाया को हराकर नहीं दिखा पाओगे। प्रतिपक्षी असली हो तो उस पर कोई दाँव चल सकता है, पर छाया को कैसे हराओगे? इसलिए समझाने वाले बोल गये हैं, "माया छाया एक सी।" माया को भी इसीलिए हराया नहीं जा सकता। समझ में आ रही है बात?

अहंकार के साथ दो बातें एक साथ चलती हैं और दोनों सुनने में एक-दूसरे के विपरीत लगती हैं। ये समझना। पहली बात ये कि अहंकार बहुत अकेला होता है और दूसरी बात ये कि अहंकार हमेशा भीड़ में होता है। ये बातें सुनने में कैसी लग रही हैं? एक-दूसरे के विपरीत। चूँकि वो अकेला होता है तो जानते हो क्या करता है? अपनेआप को वो घेर लेता है अपनी ही बहुत सारी छायाओं से। अब भीड़ बन गयी, अब वो बात करेगा कभी इससे, कभी उससे, कभी इससे, कभी उससे। और वो वास्तव में बात किससे कर रहा है? अपनेआप से ही।

और अहंकार के अतिरिक्त जो है, उससे बात करने की उसे फ़ुर्सत ही नहीं मिलेगी, क्यों? क्योंकि वो घिरा हुआ है, व्यस्त है, मसरूफ़ है। वह लगातार कुछ-न-कुछ कर रहा है, बहुत व्यस्त है। पर वो जो कुछ भी कर रहा है, सब नकली है, करने वाले की ही तरह नकली।

डरा हुआ आदमी कोई असली काम नहीं कर सकता। ये एक छोटा सा अवलोकन था। ज़रा सी इन्होंने एक झाँकी दी अपनी ज़िन्दगी से कि मुझे बोलना था, मुझे एक समूह को सम्बोधित करके बोलना था और जब तक मेरी बारी नहीं आ गयी बोलने की, तब तक मैं सुन ही नहीं पाया कि मुझसे पहले वाले क्या बोल रहे हैं। क्यों नहीं सुन पाया? क्या कुछ भी नहीं सुन रहे थे आप? नहीं, ऐसा नहीं है कि कुछ भी नहीं सुन रहे थे। जिस समय बाक़ी लोग बोल रहे थे उस समय आप सुनने में तल्लीन थे, पर किसको? अपनेआप को। अपनी ही डरी हुई आवाज़ को सुनने में तल्लीन थे और वो आवाज़ झूठी है। झूठी क्यों है? क्योंकि वो आपके सामने ये कहकर के आती है कि वो किसी और की है।

जब डरते हो तो कभी ये कहते हो क्या कि डर का विषय मेरा ही उत्पाद है? कहा कभी? डर हमेशा क्या बन कर आता है? कोई विदेशी, कोई अनजाना, कोई अपरिचित, एलियन , है न? यही तो बन कर आता है न। और वास्तव में वो है क्या? अपनी ही पैदाइश। इसलिए डर झूठा है क्योंकि वो अपना पता ग़लत बताता है, अपने बाप का नाम ग़लत बताता है, अपनी पहचान ग़लत बताता है। वो बताता ही नहीं कि वो किसके द्वारा निर्मित है, किसने उसे पैदा किया है। इसलिए डर झूठा है।

पढ़ा है न खूब? जानने वाले खूब समझा गये हैं कि डर झूठी बात है। क्यों झूठी बात है? क्योंकि वो अपना असली नाम नहीं बताता, पहचान नहीं बताता। सबकुछ फ़र्जी है उसका। जैसे तुम्हारे साथ तुम्हारी छाया लगी हो और तुम हो रमेश, और छाया बोले, 'मैं हूँ सुरेश' तो बहुत गड़बड़ हो गयी न? तुम रमेश हो, तो छाया सुरेश कैसे हो सकती है? तुम राजू हो, तो छाया काजू कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती न? पर डर हमेशा ये कहता है कि तुम जो हो, तुमसे अलग मैं कुछ हूँ और मैं तुमसे अलग हूँ और मैं तुम पर हमला करने आ रहा हूँ।

तुम चुन्नू हो यदि, तो डर है? डर कौन है? मुन्नू। और मुन्नू क्या बोल रहा है? मैं चुन्नू पर हमला करने आ रहा हूँ। नहीं तो डरोगे क्यों? वो ये थोड़े ही बोलेगा कि माला लेकर आ रहा हूँ, गले मिलने आ रहा हूँ। तो तुम हो चुन्नू और मुन्नू बोल रहा है, 'मैं आया हमला करने!' अब डरे बैठे हैं और ये सबकुछ करके अन्ततः प्रयोजन बस एक सिद्ध हो रहा है कि जो बात सुनने लायक़ थी वो तुमने सुनी नहीं, जो बात देखने लायक़ थी वो तुमने देखी नहीं।

कोई पूरा चक्र चला हो, कोई पूरी व्यवस्था चली हो, चक्की चली हो एक, घटनाओं का पूरा एक जाल हो, एक के बाद एक घटनाएँ, कभी इधर, कभी उधर और तुम्हें समझ में ही न आता हो कि ये सबकुछ क्या हुआ तो एक सूत्र दिये देता हूँ — बस ये देख लेना कि ये जो सबकुछ हुआ, इसका अंजाम क्या हुआ। जो उन सारी घटनाओं का अंजाम था उसी अंजाम की ख़ातिर वो सारी घटनाएँ घटीं। बात समझ में आ रही है?

इसने इससे ये कहा, उसने उससे वो कहा, ये कहा, वो कहा। पचास चीज़ें हुईं और पचासों चीज़ें छोटी-छोटी हैं। तुम ये देख लेना कि इन पचासों चीज़ों के बाद क्या हुआ। पचासों चीज़ों के बाद जो हुआ शायद उसी की ख़ातिर ये पचासों चीज़ें हो रही थीं।

डर की घटना जब भी घटेगी उसका अंजाम सदा एक रहेगा — तुम सच्चाई से अलग हो जाओगे, तुम सच्चाई के प्रति अन्धे-बहरे हो जाओगे, तुम वर्तमान को अनुपलब्ध हो जाओगे। इसका मतलब है कि ये डरने की, शक करने की सारी साज़िश होती ही इसलिए है ताकि तुमको सच्ची बात न दिखायी पड़े, न सुनायी पड़े और समझ में तो आये ही नहीं।

इस बात को गाँठ बाँध लो अच्छे से। डर का कोई और मक़सद नहीं है। डर एक साज़िश है 'मैं' की 'मैं' के ख़िलाफ़ और वो साज़िश क्यों रची जाती है? ताकि नकली 'मैं' का असली 'मैं' से कभी वास्ता न पड़े। मुझे देखना ही न पड़े कि हक़ीक़त क्या है, इसके लिए मैं ढँक लेता हूँ अपनेआप को, किससे? अपने ही आप से।

मैं बैठा हूँ और चमक रहा है सच्चाई का सूरज। मैं क्या कर रहा हूँ? मैं एक कोहरा निर्मित करता हूँ और उस कोहरे से अपनेआप को ढँक लेता हूँ। वो कौहरा मैंने ही निर्मित किया है, वो कोहरा मैं ही हूँ और ये सबकुछ मैंने सिर्फ़ इसलिए किया ताकि जो 'असली' है वो मुझे दिख न जाए। जो असली है वो दिख गया तो मुझे विलुप्त होना पड़ेगा न, मुझे हटना पड़ेगा। इसलिए ये सारी चाल चली जाती है।

भयजनित, अहंकारजनित जो भी कुछ होगा, तुम देख लेना, शर्तिया तरीक़े से देख लेना, सिर्फ़ एक मक़सद के लिए होगा — तुम सच्चाई से अछूते रहो, तुम सच्चाई से बचे रहो। बात आ रही है समझ में? और बड़ा मज़ा आएगा अगर तुम डर को या संशय को इस प्रकार पकड़ना शुरू कर दो। जब डर उठे, जब शक उठे, तो ज़रा बुद्धि लगा लेना, देखना कि अगर मैंने डर की बात मान ली तो होने क्या जा रहा है। और जैसे ही तुम्हें पता चलेगा कि क्या होने जा रहा है अगर तुमने डर की बात मान ली तो तुम समझ जाओगे कि डर किस मक़सद से उठा है। डर इसी मक़सद से उठा है ताकि वो हो जाए जो डर के उठने के कारण होता है।

छोटी-छोटी बातों में मत उलझ जाना! छोटी बातों में जो उलझता है वो 'बड़े' से वंचित रह जाता है। हम छोटे हैं और हम अपने इर्द-गिर्द तमाम छोटी-छोटी घटनाओं का और उलझनों का निर्माण करते ही इसलिए हैं ताकि किसी तरीक़े से हम विराट से बचे रह सकें।

जैसे कि अब कबीर साहब का भजन चल रहा हो और एक छोटा सा कीड़ा आकर किसी के माथे पर बैठ जाए (अपने ऊपर बैठे कीड़े की ओर इशारा करते हुए)। कीड़ा कितना बड़ा? छोटा सा। एक कीड़ा आकर बैठा, दूसरा आकर बैठा, फिर तीसरा। जब चार-पाँच दफ़े हो गया तो तुम्हारा सब्र टूट गया। तुम उठकर के चल दिये। अब अच्छे से समझ जाओ कि चित्त कीड़े को इतनी गम्भीरता से क्यों ले रहा था।

कीड़ा तो छोटी सी चीज़ थी न? उन छोटे-छोटे कीड़ों को मन ने इतना महत्व क्यों दिया, इतनी क़ीमत क्यों दी? इतनी गम्भीरता से क्यों लिया? ठीक है, हो सकता है उस कीड़े ने तुम्हें काट भी लिया हो। अरे! काट लिया तो कौनसी बड़ी बात हो गयी! उस छोटी सी पीड़ा को, उस छोटे से कीड़े को, उस ज़रा सी खुजली को मन ने इतना महत्व क्यों दिया? ताकि तुम कबीर साहब को छोड़ सको।

कीड़ा छोटा सा था, पर मन कीड़े के माध्यम से एक बहुत बड़ी चाल चल रहा था कि छोटे-छोटे कीड़ों द्वारा तुमको तंग कर दिया जाए और तुम कबीर साहब को ही त्याग दो। जो छोटे में उलझेगा, वो बड़े को त्याग देगा। और दुनिया की सबसे बड़ी बेवकूफ़ी यही हुई कि नहीं? छोटे में उलझकर के बड़े को त्याग देना, बड़ा नुक़सान कर लेना।

हाँ, हम होशियार लोग हैं, हम जब उठकर चले तो हम ये थोड़े ही कहेंगे कि हम कबीर साहब को त्याग रहे हैं, हम कहेंगे, 'हम वहाँ उधर दूर बैठकर सुन लेंगे। हम अकेले ही गा लेंगे या हम बाद में रिकॉर्डिंग देख लेंगे या बाद में किसी से पूछ लेंगे कि भाई, बताओ कौनसा भजन था।' कुछ तो दिलासा देंगे अपनेआप को हम, कुछ तो सान्त्वना देकर निकलेंगे न? अगर खुलेआम बोल दिया कि हम तो अब कबीर साहब को ही त्यागकर जा रहे हैं कीड़ों की वजह से, तो अपनी ही नज़रों में गिरेंगे। तो इतनी खुली बात नहीं बोलेंगे हम।

छोटे में उलझने से बचना! ये सब छोटे-छोटे मिलकर के बड़े का दुश्मन बन जाते हैं। ज़रा सा एक बालू का कण, छोटे से भी छोटा, अगर तुम्हारी आँख में पड़ जाए तो तुम्हें बड़े-से-बड़ा सूरज दिखायी देना बन्द हो जाएगा; छोटे की इतनी औक़ात होती है। मिट्टी का, रेत का, छोटे-से-छोटा कण तुम्हारी आँख में पड़ जाए तो तुम्हें विराट सूर्य भी दिखायी देना बन्द हो जाता है। छोटे को कभी आँख के इतने निकट मत आने देना। वो दिखने में छोटा है, उसके इरादे बहुत बड़े हैं। हम किसी बड़े के सामने लड़ाई थोड़े ही हारते हैं! हम तो इतने छोटे हैं कि छोटे से ही हार जाते हैं। आ रही है बात समझ में?

अब समझने वालों को तो सबकुछ समझ में आ गया होगा, इससे ज़्यादा क्या बोलूँ? हम अपनेआप को बहुत कमज़ोर समझते हैं। हम भूल गये हैं कि चुनाव का हक़ हमें है। हम भूल गये हैं कि विवेक की ताक़त हमारे पास है। कोई छोटी सी चीज़ आती है, हमारे ज़ेहन पर छा जाती है और हम कहते है कि वो हमारे ज़ेहन पर छा गयी, हम क्या करें! हम तो मजबूर हैं, दुर्बल! कोई ताक़त नहीं है हमारे पास!

हम भूल गये हैं कि घटनाएँ सारी बाहर घटती हैं। भीतर आपका एकछत्र स्वामित्व होता है। भीतर के बादशाह आप हो। बाहर की घटना, भीतर हलचल तब तक नहीं मचा सकती जब तक आप उसको अनुमति न दो। दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है 'मजबूरी'।

तुम पूछोगे, 'पाप क्या होता है? हत्या पाप है? मद, मोह, मात्सर्य, काम-क्रोध, परिग्रह, हिंसा, शोषण – ये पाप हैं?' मैं कहूँगा, 'हटाओ ये सारी बातें, दुनिया का सबसे बड़ा पाप है मजबूरी।'

'मैं क्या करता, मैं तो?'

श्रोता: 'मजबूर था!'

आचार्य: नीच-से-नीच काम करने से पहले तर्क़ यही दिया जाता है, 'मैं मजबूर था।'

आत्मा का दूसरा नाम है 'बल', तुम मजबूर कैसे हो गये? हुआ होगा बाहर कुछ, उसने भीतर तुम्हारी सत्ता में कम्पन कैसे पैदा कर दिया? चोट हाथ पर लग सकती है, चेतना पर कैसे लग गयी? जिस्म गोलियाँ खाकर छलनी हो सकता है, सच्चाई कैसे छलनी हो गयी? तुम्हारे हाथों को कोई मजबूर कर सकता है, तुम्हारे बोध को किसने मजबूर कर दिया?

बेड़ियाँ कहाँ पड़ती हैं? हाथों में। तुम अगर ये कहो कि मेरे हाथ बँध गये थे, बात ठीक है। हाथ तो छोटी चीज़ होते हैं, दूसरा उनको बेबस कर सकता है। पर जब तुम ये कहते हो कि तुम बँध गये थे, तुम मजबूर हो गये थे, ये महाझूठ है, महापाप है।

मत भूलो कि प्रति पल विवेक की ताक़त तुम्हारे पास मौजूद है। भीतर का मौसम कैसा है, ये तुम्हारे चुनाव पर निर्भर करता है, तुम्हारा निर्णय है, तुम्हारा विवेक है। किसी ने कुछ अच्छा-बुरा करा, ये करने वाले की बात है, ये बाहर की घटना है। तुम्हारे भीतर अच्छा-बुरा हुआ या नहीं हुआ, इसके निर्धाता तुम ख़ुद हो।

तो कोई ये न कहे कि मैं क्या करूँ, उसने मुझसे इतनी बुरी बात बोली कि मुझे गुस्सा आ ही गया। ये तो तुमने फिर वही अपनी मजबूरी की बात कर दी न? 'मैं मजबूर था। मुझे गाली मिली, मुझे गुस्सा आया। मैं मजबूर था।' नहीं, मजबूर यन्त्र होता है। पूर्व निर्धारित कृत्य मशीन के होते हैं। मशीन कहे कि मैं मजबूर थी, बटन दबा तो मुझे चलना पड़ा, तो ठीक बात है। बटन दबा, पंखा चलने लग गया, बात ठीक है। पर इंसान कहे कि मेरा बटन दबा और मैं बकने लग गया, तो वो झूठ बोल रहा है।

हम जो करते हैं वो हमारा चुनाव होता है। इसीलिए मजबूरी बहुत झूठा शब्द है, कोई मजबूर नहीं होता। हमसब चुनते हैं। हाँ, कुछ लोग ग़लत चुनते हैं और जो ग़लत चुनते हैं वो अपनी ग़लती छुपाने के लिए किस शब्द का सहारा लेते हैं? मजबूरी। तुम क्यों नहीं मानते कि तुम जान-बूझकर ग़लत चुनाव कर रहे हो? तुम क्यों नहीं मानते कि तुम्हारी आदत बिगड़ गयी है? तुम क्यों नहीं मानते कि तुम्हें दुख में रस आने लग गया है? इन सब कारणों से तुम स्वयं ही बार-बार ग़लत चुनाव करते हो और चुनाव की ज़िम्मेदारी न उठानी पड़े इसलिए तुम कह देते हो, 'मैंने तो चुना ही नहीं, मैं तो मजबूर था।'

आध्यात्मिक आदमी सबसे पहले अपने प्रति ज़िम्मेदार हो जाता है। आध्यात्मिक मन सबसे पहले अपने प्रति ज़िम्मेदार हो जाता है। वो ये कहना बिलकुल छोड़ देता है कि मेरे साथ ऐसा हो गया। वो कहता है, 'मेरे साथ जो हो रहा है वो मेरी ज़िम्मेदारी है। मेरे साथ जो कुछ भी हो रहा है वो मेरी ज़िम्मेदारी है।'

ऊपर पतंगा घूम रहा होगा, पर मेरे भीतर पतंगा घूम रहा है या नहीं, वो मेरी बात है, मेरी ज़िम्मेदारी है। मैं तय करूँगा कि भीतर पतंगा प्रवेश करेगा कि नहीं करेगा। और मैं पतंगे से अपेक्षा नहीं रखता कि वो बाहर शोर न मचाये, घूमे नहीं। पतंगा है, वो अपने धर्म का पालन कर रहा है। उसका धर्म प्रकृति है। उसने यही सीखा है कि जहाँ प्रकाश हो वहाँ चक्कर लगाओ। मैं अपने धर्म का पालन कर रहा हूँ। मेरा धर्म 'आत्मा' है। वो अपना काम करे, मैं अपना काम करूँ। मेरा काम, मेरी ज़िम्मेदारी। मैं बहाने नहीं दूँगा। बात आ रही है समझ में?

प्र: जिस क्षण में डर होगा, उस क्षण में डर से निकलने के लिए क्या किया जा सकता है?

आचार्य: देखो, तुम्हारी सत्ता तब भी बनी रहती है जब अहंकार दहाड़ मार रहा होता है। जब अहंकार कह रहा होता है कि मैं ही मैं हूँ। और तुम्हारी उस सत्ता को लगातार हक़ है कि भीतर के झूठ की सुने या न सुने, भले ही भीतर झूठ दहाड़ रहा हो। जो तुम हो, वो कभी हट नहीं सकता। जो तुम हो, उसकी मुक्ति उससे कभी छीनी नहीं जा सकती। चूँकि वो कभी हट नहीं सकता इसीलिए सदा उसका चुनाव किया जा सकता है, भले ही दूसरा पक्ष कितना भी दहाड़ रहा हो।

ये दहाड़ने वाला अभी दहाड़ रहा है, थोड़ी देर में मिमियाएगा भी, रोएगा भी और जो तुम हो, वो न दहाड़ता है, न रोता है, उसका काम है मौन। वो चुप बैठे रहता है। लेकिन उसके साथ एक बात ख़ास है — उसकी हस्ती शाश्वत है। उसके होने में एक निरन्तरता है, उसका होना अपरिवर्तनीय है, उसके रंग नहीं बदलते, उसके मौसम नहीं आते। और जो दूसरी तरफ़ खड़ा है वो अभी दहाड़ता है और अभी मिमियाता है। उधर सब बदलता रहता है।

लेकिन हो सकता है तुमको उधर का खेल ज़्यादा आकर्षक लगे, क्योंकि उधर कुछ हो रहा है, अहंकार की तरफ़ सदा कुछ हो रहा होता है। क्या हो रहा होता है? कभी मिलन कभी बिछोह, कभी हँसना कभी रोना, कभी बारिश कभी धूप, कभी अच्छा कभी बुरा, उधर सदा कुछ चल रहा है। और इधर? इधर कुछ हो नहीं रहा। इधर कुछ हो नहीं रहा तो तुम्हें ये भ्रम भी हो सकता है कि इधर कुछ है ही नहीं। नहीं साहब! इधर बहुत कुछ है, बस जो है वो अचल है। चूँकि वो अचल है इसलिए वहाँ कुछ होता प्रतीत होगा नहीं।

उधर बहुत कुछ हो रहा है और हमारा जो पूरा तन्त्र है वो आकर्षित 'गति' की तरफ़ होता है। एक अभी यहाँ पर पतंगा बैठा हो, तुम्हारा ध्यान उसकी ओर नहीं जाएगा। वो उड़ने लग जाए, तुम्हारा ध्यान उसकी ओर चला जाता है। आँखें सदा किसको पकड़ती हैं? गति को। कुछ हिलेगा, तुरन्त आँख उसकी और मुड़ जाएगी।

मन गति का प्यासा है। सारी इन्द्रियों का निर्माण गति को, बदलाव को, पकड़ने के लिए हुआ है। और 'आत्मा' तो बदलती नहीं, तो इन्द्रियाँ उसे पकड़ पाती नहीं। इन्द्रियाँ बस उसे ही पकड़ पाती हैं जो लगातार बदल रहा है, कौन लगातार बदल रहा है? वही जो झूठा है। जो झूठा है वही तो बदलेगा। सच्चा बदलता है क्या? जो बदल जाए उसी को क्या बोलते हैं?

श्रोता: झूठा।

आचार्य: जो सच्चा है वो तो 'एक' रहता है, अविरल, अचल। झूठा लगातार बदलता रहता है और इन्द्रियाँ जब भी पकड़ेंगी, किसको पकड़ेंगी? जो बदल रहा है। तो इन्द्रियों को आकर्षक वही लगता है, 'बदलू'। तो हम कहते हैं बस वही-वही है और उसी के पक्ष में चुनाव कर लेते हैं।

विवेकी वो है जो उसके पक्ष में भी चुनाव कर सके जो न दिखायी देता है, न सुनायी देता है, न समझ में आता है, न पकड़ में आता है, न उठता है, न बैठता है। उसके पक्ष में चुनाव करना सीखो! वो है, मात्र वही है!

ये जो शोर मचाने वाले हैं, ये तो बहुरूपिये हैं, दो दिन के मेहमान हैं। आएँगे, बुद्धू बनाएँगे, भग जाएँगे। भग के कहाँ जाएँगे? तुम में ही समा जाएँगे क्योंकि तुम्हीं ने तो बनाये थे। अजीब हैं हम! ख़ुद को ही बुद्धू बनाने के लिए क्या-क्या तमाशे रचते हैं। ऐसे ही हैं न हम? जो चीज़ शोर मचा रही होती है, वही हमें सच्ची लगने लग जाती है और जो कुछ चुपचाप बैठा हो, उसका हम ख़याल ही नहीं करते, क़ीमत ही नहीं देते, उसका ध्यान ही नहीं करते। इसीलिए तो अशान्ति जीतती है और शान्ति हारती है।

शोर किधर होगा? अशान्ति में। अशान्ति माने शोर। और हमारा ध्यान तुरन्त किसकी ओर जाता है? शोर की ओर। अशान्ति जीत गयी, शान्ति हार गयी। शान्ति तो चुप होगी, शान्ति माने चुप। उसकी ओर ख़याल ही नहीं जाएगा, उसको क़ीमत ही नहीं दोगे, वो हार गयी बेचारी! फिर जिन्हें तुम्हारा मन पकड़ना होगा वो तुम्हारी कमज़ोरी जान जाएँगे। वो शोर मचाएँगे, उन्हें पता है जिधर को शोर होता है, तुम उधर को ही चल देते हो।

मजबूरी भ्रम है। मजबूरी आत्मप्रवंचना है। मजबूरी पाप है। कोई मजबूर नहीं होता। सही चुनाव करो, मजबूरी का बहाना मत बताओ।

प्र२: आचार्य जी, जैसे आप अभी शोर की बात कर रहे थे, तो मेरे मन में भी काफ़ी बार ये शोर रहता है कि मैं ज़िन्दगी में क्या करूँ, कभी ये रास्ता चुनूँ या वो रास्ता चुनूँ। कहीं ठीक से कुछ हो नहीं पाता और एक दुविधा की स्थिति बन जाती है। तो उसके लिए क्या उपाय है? या फिर एक रास्ता पकड़कर उस पर चलना है?

आचार्य: जो रास्ता शोर से शुरू होता हो और शोर को बढ़ाता हो, वो तुम्हारे लिए ठीक कैसे हो सकता है? रास्ता चुनना तो बहुत आसान है। रोशनी की ओर अगर बढ़ रहे हो और रास्ता सही चुना है तो हर क़दम के साथ रोशनी बढ़ेगी। शान्ति की ओर बढ़ रहे हो और अगर रास्ता सही चुना है तो हर क़दम के साथ शान्ति बढ़ेगी। लो, हो गया रास्ते का चुनाव!

पर अजीब हमारे तर्क होते हैं। हम कहते हैं, 'हम शान्ति की ओर जा रहे हैं', और हम देखते ही नहीं कि हर क़दम के साथ बढ़ती क्या जा रही है? अशान्ति। ये कौनसी शान्ति की तरफ़ तुम जा रहे हो जिसमें हर क़दम के साथ अशान्ति ही बढ़ रही है!

बस इतनी ही बात करने के लिए इतनी दूर से आये हो? (एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए)

प्र२: मेरे दफ़्तर में एक वरिष्ठ व्यक्ति थे जिनसे मैं बहुत चिढ़ता था। लेकिन जब उनकी सेवनिवृत्ति का दिन आया तो उस दिन उनके लिए मेरे मन में एक सेवा और ख़याल की भावना उठ रही थी। ये अचानक से कहाँ से आ गया?

आचार्य: ये सब संस्कार हैं। जाने वाले में अच्छाइयाँ नज़र आने लग जाती हैं क्योंकि अभी तक उसमें जो अच्छाइयाँ थीं उनका तुमने जबरन निषेध किया होता है। जैसे तुम्हारी तनख्वाह से पीएफ काटा जाए और जिस दिन तुम रिटायर हो उस दिन एक-मुश्त दे दिया जाए।

ऐसा ही हम सम्मान देते हैं, जिसको जब मिलना चाहिए तो हम काट देंगे और जब वो विदा हो रहा होगा तो एक साथ बहुत सारा दे देंगे, फूल-माला फिर चढ़ाएँगे उसकी तस्वीर पर। जब देना था तब दिया नहीं, अब सिर पटकते हैं, 'अरे! बड़े अच्छे आदमी थे।'

यहाँ एक-से-एक पापी को यही कहा जाता है ब्रह्मलीन हो गये। हमने सुना ही नहीं है किसी को कहा जाए कि ये तो नर्कवासी हुए होंगे। यहाँ जो मरता है वो स्वर्गवासी ही कहलाता है। भले जब वो जी रहा हो तो तुमने उसको दस जूते रोज़ मारे हों, पर मरेगा वो तो स्वर्गवासी होगा। ये सब आम नैतिकताएँ हैं हमारी, कुछ और नहीं हैं, कोई बड़ा राज नहीं।

जिसका जो बनता है, उसको तभी दे दो, बकाया राशि मत रखो। जो प्रेम का हक़दार है उसको प्रेम दे दो। जाने वाला डुगडुगी बजाकर थोड़े ही जाएगा और फिर जितना प्रेम तुमने बकाया रखा वो किसको दोगे? वो तो चला गया!

तुम न जानते होते तो मुझे समझाना आसान पड़ता। जो जानता हो उसको समझाना बहुत मुश्किल होता है। चलो, बिलकुल बुनियादी तौर पर ही कह देता हूँ — प्रेम आकर्षण है। हाँ, जैसे तुम होते हो वैसा ही तुम्हारा आकर्षण होता है। तुम सच्चे हो तो सत्य के प्रति आकर्षण होगा तुम्हारा, उसको जानने वालों ने कहा है, 'सच्चा प्रेम','परम प्रेम'। और तुम झूठे हो तो एक से एक झूठी वस्तुओं के प्रति आकर्षण होगा तुम्हारा, उसको जानने वालों ने 'सांसारिक प्रेम' कह दिया है, 'आई लव यू'।

प्र२: इसके बारे में पढ़ा बहुत है लेकिन अनुभव नहीं हुआ है।

आचार्य: आज तुमको रात के खाने के बारे में पढ़ाएँगे! कितने बजे लगना है? (एक श्रोता से पूछते हैं)

श्रोता: ग्यारह बजे।

आचार्य: ग्यारह बजे। ग्यारह बजे आप सब भोजन कीजिएगा और आप (प्रश्नकर्ता से) भोजन के बारे में पढ़िएगा।

तुम्हें कोई खिंचाव नहीं होता किसी के प्रति? जो भी खिंचाव हो रहा हो जान लो कि वो प्रेम ही है। प्रेम माने खिंचाव। अब बस सवाल ये उठता है कि किसकी ओर खिंचे चले जा रहे हो।

भक्त होता है तो भगवान को ओर खिंचता है। कामी होता है तो कामना की ओर खिंचता है, पतंगा होता है तो प्रकाश की ओर खिंचता है। लोभी होता है, पैसे की ओर खिंचता है। तुम जैसे हो वैसा ही तुम अपने लिए आकर्षण का विषय चुन लोगे। ज्ञानी ज्ञान की ओर खिंचेगा, मुमुक्षु मुक्ति की ओर खिंचेगा। तुम कौन हो, उसी से निर्धारित हो जाएगा तुम्हारे लिए प्रेम की व्याख्या क्या है। और अपने बारे में जानने का एक अच्छा तरीक़ा है — 'कौन खींचता है तुमको?'

कहते तो रोज़ यही थे, 'मैं सोना हूँ, हीरा हूँ, चाँदी हूँ।' और चुम्बक आयी और तुम खिंचे चले गये तो झूठ ही कहते थे भाई! जो चुम्बक से खिंचे चले जाएँ, वो सोने के तो नहीं हो सकते। कहते यही थे कि सत्य का साधक हूँ और ज़ुल्फ़ें ज़रा लहरायीं और तुम खिंचे चले गये तो तुम सत्य के साधक तो नहीं हो। साधक होओगे पर किसी और चीज़ के, जिस्म के साधक होओगे या जो भी। क्या खींचता है तुमको?

देखो, जब हमने पतंगे वाली बात करी थी उसी समय कुछ पतंगों ने तय किया कि ये जो वक्ता बहुत बढ़-चढ़कर बोल रहे हैं इनकी ज़रा परीक्षा ली जाए और तीन-चार अन्दर घुस गये हैं (कुर्ते के अन्दर की तरफ़ इशारा करते हैं)। और हम भी कह रहे हैं कि चलो देखते हैं! तुम्हें लग रहा है तुम अन्दर घुस गये हो, हम भी देखते हैं कि तुम अन्दर घुस सकते हो कि नहीं। तो वो अपनी समझ से अन्दर घुस गये हैं, पर उन्हें अन्दर का मतलब नहीं पता, वो मेरे अन्दर नहीं घुस सकते।

अब वो अन्दर कुछ कर रहे होंगे। सत्र पूरा होगा तो देखा जाएगा कहाँ लाल है, कहाँ काला है। पर कोई ज़रूरी तो नहीं न कि कीड़े इतने क़ीमती हो जाएँ कि उनकी ख़ातिर संवाद को, सत्संग को, कबीर साहब को ही विराम दिया जाए? अर्द्धविराम भी क्यों दिया जाए?

मज़ेदार बात, पहले-पहल जब अन्दर घुसे थे तो उन्होंने खूब धूम मचायी! छाती पर, पेट पर, वो जितने तरह के नृत्य जानते थे, सब किये। अब ससुरे शान्त हो गये हैं। हमने भी कहा, 'हम देखते हैं, तुम हमें अशान्त कर देते हो या हम तुम्हें शान्त कर देते हैं।' अब शान्त पड़ गये हैं। जाने मर ही गये हों, कौन जाने!

मजबूरी झूठ है! किसी भी स्थिति में ताक़त तुम्हारे पास होती है। कभी मत कहना, 'मैं विवश हो गया', कभी मत कहना कि मैं क्या करूँ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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