डर बहुत लगता है?

Acharya Prashant

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डर बहुत लगता है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं कुछ भी करने बैठूँ जैसे पढ़ने बैठूँ, योगा करूँ, मैडिटेशन करूँ, यहाँ तक कि जब मैं आपसे ये सवाल भी पूछ रहा हूँ तो ये सवाल पूछते हुए भी मेरे दिमाग में कुछ और चल रहा है। तो प्रश्न ये है कि मन को नियंत्रित कैसे किया जाए और कैसे उसे एक समय में एक चीज़ में लगाया जा सके?

आचार्य प्रशांत: आपके पास अगर सोचने के लिए दस चीज़ें होती हैं तो उन दस चीज़ों में भी तो आप एक वरीयता बनाते हैं न। एक अनुक्रम बनाते हैं। हो सकता है आपको वो न पता हो जो पूरे तरीके से पाने लायक हो, पूरे तरीके से सोचने लायक हो, जो पूर्णतया उच्चतम हो। हो सकता है वो आपको न पता हो पर आपको कुछ तो पता है न।

हममें से हर एक को कुछ दस बातें पता हैं और ये दसों बातें विचार के मुद्दे बनते हैं कभी-न-कभी। हम कभी एक चीज़ के बारे में सोच रहे होते हैं, कभी दूसरी चीज़ के बारे में, कभी तीसरी, कभी चौथी, है न? ठीक है? हो सकता है वो ग्यारहवीं, बारहवीं या पचासवीं चीज़ जो पूर्णतया उच्चतम हो वो हमें न पता हो, लेकिन फिर भी जो कुछ भी हमें पता है उसमें भी एक वरीयता क्रम है न।

आपको जो चीज़ें पता हैं उसमें से जो चीज़ सबसे ज़्यादा कीमत रखती है, ईमानदारी का तकाज़ा है कि कम-से-कम उस पर सबसे ज़्यादा ध्यान दो।

मान लो पूर्ण की कीमत सौ है, वैसे पूर्ण की कीमत सौ होती नहीं, पूर्ण की कोई कीमत होती नहीं, पर हम मान लेते हैं कि जो सबसे ऊँची चीज़ हो सकती है ज़िंदगी में करने लायक उसकी कीमत सौ है, सौ यूनिट्स की। मुझे वो पता नहीं—जवान लोगों को वो अक्सर नहीं पता होती—हम सब तलाश रहे होते हैं कि क्या करें। क्या ऐसा मिल जाए जीवन में जो जीवन को सार्थक कर दे। जो काम वास्तव में जीने लायक हो। ठीक है? वो हमें पता नहीं।

पर हमें दस और काम पता हैं जिसमें से एक की कीमत है साठ, एक की पचपन, एक की पचास, पैंतालीस, पंद्रह, पाँच ये सब तो पता है न? तो आप इतना तो जानते हो कि जो काम आपको पता हैं उसमें से एक की कीमत पाँच की, और एक की पचपन की और एक की साठ की है। ये बात तो आपको पता है न? ईमानदारी का तकाज़ा ये हुआ कि पाँच वाली चीज़ पर क्यों मत्था रगड़ रहे हो? सौ वाली नहीं पता साठ वाली तो पता है। साठ के साथ जूझो।

और जो आदमी साठ वाली चीज़ के साथ जूझता है उसको इनाम ये मिल जाता है कि पैंसठ वाली चीज़ उसके लिए खुल जाती है। लेकिन अगर पाँच वाली चीज़ पर पड़े रहोगे जबकि साठ वाली चीज़ खुद ही पता है, अपने साथ ही बेईमानी कर रहे हो तो साठ वाली चीज़ भी धीरे-धीरे विलुप्त हो जाएगी।

पूर्णतया उच्चतम क्या है ये नहीं पता है, तुलनात्मक रूप से उच्चतम क्या है ये तो पता है, तो उसके साथ तो इंसाफ करो न। इतना तो करना चाहिए न। अगर यही कहते घूमते रहोगे कि मैं क्या करूँ, मैं क्या करूँ, मुझे तो अभी जो सर्वोच्च है वो पता नहीं चल रहा तो सर्वोच्च तो पता लगने से रहा।

सर्वोच्च तो वैसा ही है जैसा ज़ीरो केल्विन। पा सकते हो तो पा के दिखा दो। तुमको जितना मिल रहा है उसमें आगे बढ़ते रहो। बताओ इसके अलावा तुम्हारे पास विकल्प क्या है? पूर्ण या सर्वोच्च पता नहीं, उच्चतर की हम कद्र नहीं कर रहे तो फ़िर हम करना क्या चाहते हैं?

पूर्ण की तो परिभाषा ही यही होती है कि वो हाथ से पकड़ में नहीं आ सकता। ठीक? तुलनात्मक रूप से जो उच्चतर है वो पता है लेकिन उसको ये कहकर हम बेइज़्ज़त कर देते हैं कि ये तो सिर्फ़ उच्चतर है। तो फिर हम करें क्या?

जो भी तुम्हें आज यहाँ बैठे-बैठे समझ में आता हो कि तुम्हारे लिए ऊँचे-से-ऊँचा काम है वो अभी करो। उसको अगर करोगे जान लगाकर तो जैसा कहा, साठ का करोगे तो पैंसठ खुल जाएगा, पैंसठ में डूबोगे सत्तर खुल जाएगा, आगे की कहानी खुद ही सोच लो। और नहीं कोई चारा होता।

जिनको हम कहते हैं कि दुनिया के ऊँचे-से-ऊँचे लोग हुए हैं किसी भी क्षेत्र के, अध्यात्म के हों, विज्ञान के हों, खेल के हों, राजनीति के हों, दुनिया के किसी भी क्षेत्र के जो सर्वोच्च लोग हुए हैं, वो सब ऐसे ही तलाशते-तलाशते, ठोकर खाते हुए, कदम-दर-कदम बढ़े हैं। सब ने मेहनत करी है। मेहनत का कोई विकल्प नहीं होता। ये जो सडन रियलाइजेशन (अचानक बोध) होता है न, ऐसी कोई चीज़ होती नहीं है।

तुम सोचो कि कोई वैज्ञानिक है, वो अपनी लैब में बैठा है, बैठा है और अचानक उसको यूरेका हो जाएगा, तो ऐसा नहीं होता। उस यूरेका के पीछे बहुत सारी मेहनत है। उसी तरीके से तुम सोचो कि कोई आध्यात्मिक साधक है, वो पेड़ के नीचे बैठा है और अचानक उसे बोध मिल गया, तो ऐसा होता नहीं है। ये सब किस्से-कहानियों की बात है। आपको सीढ़ी-दर-सीढ़ी तरक्की करनी होती है। सारा काम तुलनात्मक रूप से होता है, रिलेटिव रूप से होता है।

जो आदमी एक-एक कदम मेहनत करने को तैयार नहीं है और सोच रहा है कि अचानक कुछ हो जाएगा। उसका कुछ नहीं हो सकता।

प्र: मेरा प्रश्न ये है कि हम कैसे बिना डर के जीवन जी सकते हैं? यदि हम जानते हैं कि हमारी मृत्यु तो होनी ही है, तो हर पल मृत्यु के डर के बिना, एक निर्भय जीवन कैसे जी सकते हैं?

आचार्य: इतनी फ़ुर्सत क्यों है कि सोचो कि, "मरने वाला हूँ, मरने वाला हूँ!" मौत से डरोगे तो तब न जब मौत के बारे में सोचोगे। ज़िंदगी में इतना खालीपन या ज़मीनी भाषा में कहूँ तो वेल्लापन है क्यों, कि बैठे-बैठे यही विचार रहे हो कि मौत कब आएगी?

ज़िंदगी इसलिए मिली है कि उसे जी लो पूरा, इसलिए थोड़े-ही मिली है कि जीते-जीते भी मौत के बारे में सोचे जा रहे हो। मौत के बारे में सोचना नहीं होता।

क्या करोगे मौत के बारे में सोच कर? तुम मरे तो हो नहीं? तो तुम्हें कैसे पता कि मौत कैसी होती है? हाँ इतना तुमको पता है कि जीवन का अंत होता है। मौत को तुम नहीं जानते, जीवन के अंत को जानते हो। एकबार ये जान गए कि जीवन का अंत होता है, अब सोचे क्या जा रहे हो? अब तो बहुत बड़ी बात पता चल गई कि तुम्हें जो जीवन मिला है वो ख़त्म होगा ही होगा। जीवन माने घड़ी चल रही है। ये जो घड़ी है ये कभी-न-कभी रुकनी है। ये बात समझ में आ गई। अब सोचते थोड़े ही रहोगे।

जब आप बैठते हो कोई एग्जाम (परिक्षा) लिखने। एक बार देख लेते हो कि कितना समय मिला है शीट भरने के लिए। अब मान लो दो घंटे मिले हैं, तो दो घंटे में बैठकर यही सोचते रहोगे कि कितने मिनट बचे हैं या अब काम करोगे?

जान तो गए न कि मर जाना है। कोई तीस में मरेगा, कोई पचास में मरेगा, कोई नब्बे में मरेगा, अब ये पता है कि मर जाना है, इस बारे में अब सोच कर क्या कर लोगे? सोच के कोई नई बात पता चलती हो तो सोच लो। दस घंटे लगा लो। बैठकर के खूब सोचो और कोई नई बात पता चलती हो मौत के बारे में तो बढ़िया है। कुछ नहीं पता चलेगा। यही पता चलेगा कि मैं जिसको जीवन कहता हूँ, ये जो शरीर की गतिविधि है, ये जो प्राणों का पूरा खेल है ये रुक जाना है और ये कभी भी रुक सकता है। हमें नहीं मालूम ये कब रुकेगा।

तो मेरे पास समय सीमित है। जब मेरे पास समय सीमित है तो ज़िंदगी में जो कुछ भी करने लायक है उसको मैं करूँ और समय बर्बाद न करूँ। मौत को जानने का मतलब होता है कि अब समय का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गँवाया जा सकता।

दो तरह के लोग होते हैं; एक जो मौत को जानते हैं। हिंदुस्तान में बड़ी प्रथा रही है। पश्चिम मौत से घबराता रहा है, हिंदुस्तान में तुम देखोगे तो कितने ही गीत हैं और बहुत प्यारे और बहुत मीठे गीत हैं जो मौत के ही ऊपर हैं। तो यहाँ पर जानने वालों ने मौत को गाया है। मौत को कहा है बार-बार याद रखो। काल को याद रखो। क्यों? क्योंकि अगर तुम्हें मौत याद है तो ज़िंदगी बर्बाद नहीं कर सकते। जिसको मौत याद है वो ज़िंदगी बर्बाद नहीं कर सकता और ज़िंदगी बर्बाद करने का सबसे बेहतरीन तरीका होता है: मौत के बारे में सोचना।

समझो। मौत याद होनी चाहिए, जब याद है तो उसके बारे में विचार क्या कर रहे हो? मौत याद है तो ज़िंदगी बर्बाद नहीं करनी। मौत याद है तो अब मौत के बारे में सोचना नहीं है। सोचना क्या है? पता तो चल गया है।

डूब कर काम करो। अक्सर जब आप तैयारी कर के नहीं आए होते हो न परीक्षा की, तो ये होता है कि सबलोग तो जूझ रहे हैं और जल्दी-जल्दी लिखे जा रहे हैं, आप हाथ में पेन लेकर पूरे हॉल को देख रहे हो और कह रहे हो “ये सब नश्वर है। ये सब मरेंगे।" और ये नश्वरता का ख्याल आ क्यों रहा है? इसलिए आ रहा है क्योंकि पिछली रात मेहनत करनी चाहिए थी तब बढ़िया खा-पीकर सो रहे थे। सब जानते हैं कि सब नश्वर है, बार-बार उसे दोहराओ मत। जान लो और जिओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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