दो तरह के डर

Acharya Prashant

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दो तरह के डर
डर दो तरह का होता है। हम सब तरीक़े के छोटे–छोटे डरों में लिप्त रहते हैं; और जो एक डर हमें लगना ही चाहिए, उसे हमने छुपा रखा है। हम पूरी दुनिया से डरते हैं, बस जीवन के व्यर्थ चले जाने से, अमुक्त रह जाने से नहीं डरते। असली डर अगर जीवन में आ गया, तो ये सब छोटे–छोटे, क्षुद्र डर विदा हो जाएँगे। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

When people do not fear what they ought to fear, that which is their great dread will come on them – Lao Tzu

जीवन के सबसे बड़े ख़ौफ़ को आमंत्रण है उस भय से विमुख हो जाना जिससे भयभीत होना ज़रूरी है। – लाओ-त्सु

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। लाओ-त्सु ने डर और डर में भेद किया है। मेरे अनुभव से तो डर एक ही जैसा होता है — जो मुझे अंदर से कंपा दे। कृपया समझाएँ कि जो पहले प्रकार का डर है, जिससे हमें डरना चाहिए, वह और दूसरे प्रकार के डर में क्या अंतर है?

आचार्य प्रशांत: बहुत अंतर है। डर एक तरह का नहीं होता, साफ़-साफ़ दो प्रकार का होता है — यह समझिए।

पहले प्रकार के डर से आप परिचित हैं। यह डर कहता है, “कहीं ऐसा न हो कि मुझे वह न मिले जो मैं चाहता हूँ, कहीं ऐसा न हो कि मुझसे वह छिन जाए जो मेरे पास है।” यह सामान्य, साधारण डर है — जिससे आपका परिचय खूब है।

दूसरे प्रकार के डर से आप उतने वाक़िफ़ नहीं होंगे। यह डर कहता है, “कहीं मुझे वह मिल ही न जाए जो मुझे वास्तव में चाहिए, और जिससे मैं बचता फिर रहा हूँ।”

लाओ-त्सु ने इन दोनों डरों में भेद किया है। संतों ने भी इसीलिए बार-बार आपको डरने के लिए कहा है। इसी डर से अंग्रेज़ी का शब्द आया है — God-fearing (भगवान का डर)। डरना सीखो — उस चीज़ से डरो, जिसे न पाया तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। और अहंकार उसी को पाने से डरता है।

हम सब छोटे-छोटे डरों में उलझे रहते हैं, लेकिन जो एक सच्चा डर है, उसे छुपा रखा है। हम बॉस से डरते हैं, पुलिस से डरते हैं, पति-पत्नी, साँस-ससुर, पड़ोसी — सभी से डरते हैं। हम पूरी दुनिया से डरते हैं; बस जीवन के व्यर्थ चले जाने से नहीं डरते।

जीवन की सार्थकता किसमें है? जीवन का अभीष्ट पाने में, मुक्ति पाने में। लेकिन अमुक्त रह जाने से हमें डर नहीं लगता, बाक़ी सब बातों से डरते हैं। ज़रा-ज़रा सी चीज़ें हमें कंपा देती हैं। जो एक अति भयावह घटना हमारे साथ रोज़ घट रही है — उससे हमारे कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती।

इसलिए जो हमसे प्रेम करते हैं, हमारे हितैषी हैं, वे बार-बार कहते हैं: “डरो! डरना सीखो!”

कबीर साहब कहते हैं, “भय पारस है जीव को।” असली डर आ गया जीवन में, तो ज़िंदगी तत्काल बदल जाएगी; लोहे से सोना हो जाएगी। और असली डर आ गया, तो ये सब छोटे-छोटे, क्षुद्र डर विदा हो जाएँगे। फिर दुनिया से डरना छूट जाएगा। फिर ज़रा-ज़रा सी बातों में रूह नहीं काँपेगी।

एक फ़ोन आया — काँप रहे हैं। बॉस ने थोड़ा सा डाँट दिया — रक्तचाप बढ़ गया। बच्चे के अंक कम आ गए — लगा कि संसार ही ख़त्म होने वाला है। रुपयों-पैसों की थोड़ी ऊँच-नीच हो गई — रात की नींद उड़ गई। कोई ग़लती या चोरी पकड़ी गई — मुँह छिपाए घूम रहे हैं।

यह सब उसी के साथ होता है जिसे असली डर नहीं लगता।

जीव हैं हम, इंसान बनकर पैदा हुए हैं। जीव का अर्थ ही है — जो डरा हुआ है।

तो कोई यह तो कहे ही नहीं कि, "मैं भयमुक्त हूँ, मैं निर्भय हूँ!" डरना तो तुम्हें पड़ेगा — अब यह चुन लो कि किससे डरना है। या तो दुनिया की सब मच्छर-मक्खियों और क्षुद्रताओं से डर लो, या फिर उस एक से डर लो जिससे डरकर तुम उसे पा ही लोगे।

God-fearing होने का, या भगवान से डरने का अर्थ क्या होता है? अर्थ होता है कि मुझे बहुत डर लगता है इस बात से कि कहीं वह मुझे मिले न। God-fearing होने का अर्थ है: The fear of missing out on God — भगवान से डर नहीं लगता, भगवान से दूरी से डर लगता है। और भगवान से मेरा आशय कोई काल्पनिक देवी-देवता इत्यादि नहीं है। जब "भगवान" कह रहा हूँ, तो मेरा सीधा-सीधा आशय सच्चाई से है।

आजकल बड़ा चलन है fearlessness (निडरता) का। बार-बार कहा जाता है, "देखो, किसी से डरना मत!" कितना भी समझा लो किसी से डरना मत, जो उससे नहीं डर रहा (ऊपर की ओर इशारा करते हुए), वह नीचे वालों से डरेगा ही डरेगा। तुम दे लो जितनी आधुनिक शिक्षा देनी है, कर लो जितना प्रचार करना है, छाती पीट-पीट कर बताते रहो कि: "साहब, हम किसी से नहीं डरते!" या "हम तो मिलेनियल पीढ़ी हैं, डरना-वगैरह हमने सीखा नहीं।"

डरना इत्यादि सीखा है या नहीं सीखा, वो तो तब पता चलता है जब ज़िंदगी ज़रा सी चुनौती देती है। जितना depression आज की पीढ़ी को होता है, उतना इतिहास में कभी किसी को नहीं हुआ। और जितनी बेख़ौफ़ और निर्भय आज की पीढ़ी बनती है, उतना कोई और पीढ़ी कभी नहीं बनी।

आज की पीढ़ी तो आदर और सम्मान देने को, झुक जाने को भी डर से ही संबंधित मानती है। तो यह न आदर देना जानते हैं, न सम्मान देना जानते हैं, न झुकना जानते हैं — यह सिर्फ़ cool हैं। Depression uncool नहीं लगता? बार-बार आकर बताते हो, "हमें तो anxiety हो गई!" वो uncool नहीं लगता?

वह इसीलिए है — जिसका तुम्हें डर लगना चाहिए था, उसके सामने तुम कभी डरे नहीं, झुके नहीं। सिर झुका लेने में, पाँव छू लेने में तुम्हें बड़ा अपमान लगता है। जिसका सिर झुकेगा नहीं, उसका सिर फटेगा। और जिसका सिर उसके सामने (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) नहीं झुकेगा, उसको सज़ा यह मिलेगी कि उसका सिर सौ जगहों पर झुकेगा — बहुत गलीच जगहों पर झुकेगा।

चिंता के सामने झुकेगा, क्रोध के सामने झुकेगा, कामवासना के सामने झुकेगा, लालच के सामने झुकेगा।

इनके सामने सिर झुकता है कि नहीं झुकता? इनके सामने तो सिर हमारा तत्काल झुक जाता है। सच्चाई के सामने सिर झुकाने में हमें बड़ी लज्जा आती है। हम cool हैं न! हम हाय करते हैं, नमन तो कर ही नहीं पाते। चरणस्पर्श करना तो दमन का सबूत है न? हम सोचते हैं कि ये सब करके हम दिखा रहे हैं कि हमें दुनिया में किसी से डर नहीं लगता।

बिना डर के ही आ गए क्या ये सैकड़ों मनोरोग? क्या इन सब का मूल संबंध डर से नहीं है? मनोवैज्ञानिकों की दुकान जितनी आज चल रही है, उतनी कभी नहीं चली।

क्या हर मानसिक बीमारी का गहरा ताल्लुक डर से नहीं है?

और डर का ताल्लुक सीधे-सीधे हमारी बेवफाई से है, हमारी अश्रद्धा से है। जो जितना बेवफ़ा और बेईमान होगा, उसको मनोरोग की संभावना उतनी बढ़ेगी।

समझो — अध्यात्म और क्या है? मानसिक स्वास्थ्य का विज्ञान है अध्यात्म। मन को और कुछ स्वस्थ रख ही नहीं सकता अध्यात्म के अलावा। उसी अध्यात्म के अभीष्ट को जो नाम दिया गया है, उसे कहते हैं ‘सच्चाई’।

तो मानो — मानसिक स्वास्थ्य की एक ही दवा है। क्या है? — सच्चाई। जो सच्चाई के सामने झुक गया, वह मानसिक रूप से बिल्कुल भला-चंगा रहेगा। जो सच्चाई के सामने नहीं झुका, वह पचास अन्य जगहों पर झुकेगा — परिवार के सामने, समाज के सामने, अपनी ही वृत्तियों और विकारों के सामने झुकेगा — और मनोरोगी रहेगा।

"मैं, मैं" खूब करता रहेगा — आई दिस, आई देट (मैं यह, मैं वो)। सब मनोरोगियों में ये बात तुम साझी पाओगे — "आई " (मैं) बहुत चलता है उनका: ‘Then I said, then I thought, then I felt, then I imagined, then I assumed’ (मैंने कहा, मैंने सोचा, मैंने महसूस किया, मैंने कल्पना की, मैंने अनुमान लगाया)। अंग्रेज़ी में इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि उनका अंग्रेज़ी से भी खूब ताल्लुक होता है — हिंदी तो पिछड़ेपन की भाषा है न।

और यह बात मैं यूँ ही कल्पना में नहीं कह रहा हूँ — सर्वेक्षण करके देख लो। अंग्रेज़ी भाषियों और देशीय भाषा वालों में तुलना करके देख लो कि मनोरोगों का अनुपात कितना है। जो भजन नहीं गा सकता, उसे पगलंट के अलावा और क्या बोलूँ? उसकी मानसिक विकृति तो सामने आ ही गई है — उससे भजन गाए ही नहीं जाते।

यहाँ महीने में चार शिविर होते हैं। हर शिविर में कुछ ऐसे आते हैं — उनको बोलो, "बैठो, भजन गाओ।" उनके बोल नहीं फूटते। वो अंदर से सख़्त हो गए हैं, कड़े हो गए हैं। कुछ आर्द्रता, कुछ नमी उनमें बची ही नहीं है।

तुमने गौर किया है — डर में तुम अकड़ जाते हो? गौर किया है? डर में बैठे रहो, डर के बैठे रहो, आधा घंटा, पौन घंटा — और उठोगे तो पाओगे कि अकड़ से गए हो। वो अकड़ गए हैं, वो सूख गए हैं। ज़्यादातर जिसे हम प्रगति कहते हैं, तरक्की बोलते हैं — वह कुछ नहीं है, दुनिया का डर है। दुनिया के डर से प्रेरित हुई घटना है। दुनिया को भी जीतने की ज़्यादा ललक उसी में रहती है जो दुनिया से डरा हुआ है। यही वजह है कि मनोरोग भी अधिकांशतः प्रगतिशील लोगों में ही ज़्यादा पाया जाता है। और यह प्रगतिशील लोग ही हैं जो अधिकांशतः अपने आप को घोषित करते हैं कि:

"नहीं साहब, हमारा धर्म इत्यादि से कोई ताल्लुक नहीं है। हम प्रगतिवादी हैं, हम लिबरल (उदारपंथी) हैं।"

हम चूँकि ऐसे मूरख हैं कि दुनिया की पचास चीज़ों से डरते हैं और जो डरने लायक है उससे नहीं डरते — तो फिर बेचारे धर्मों को विचित्र तरीके अख़्तियार करने पड़े। किसी धर्म ने कहा — स्वर्ग होता है, नरक होता है; गलत काम करोगे तो नरक में पड़ोगे। ये तुम्हें डराया ही जा रहा था। किसी ने कहा — क़यामत का दिन आता है; गलत काम करोगे तो कब्र से निकालकर तुम्हारा इंसाफ किया जाएगा। ये तुम्हें डराया जा रहा था। ये कृत्रिम तरीके हैं तुम्हें डराने के — क्योंकि स्वस्थ डर हमें पता ही नहीं।

और मैं बिलकुल नाप-तोल कर कह रहा हूँ — स्वस्थ डर । एक होता है रुग्ण डर, और एक होता है स्वस्थ डर। क्योंकि हम स्वस्थ डर जानते ही नहीं, इसलिए फिर धर्मों ने हेवन-हेल (स्वर्ग-नरक) इत्यादि की व्यवस्था करी। कि कुछ तो करके इस आदमी में खुदा का खौफ डाला जाए — नहीं तो ये डरता ही नहीं। ऊपर से डरता नहीं, और नीचे डर के अलावा कुछ जानता नहीं। अजीब इसकी हालत है।

ऋषियों को बड़ा सिरदर्द हुआ। उन्होंने देखा कि एक नई धारा चल निकली है—लोग कहने लगे हैं, "खाओ-पीयो, मौज करो; मर ही तो जाना है।" जीवन को हल्के में लिया जा रहा है, और मृत्यु को एक अंतिम विश्राम मानकर पूरी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ा जा रहा है।

इस प्रवृत्ति का उत्तर ऋषियों ने अपने ढंग से दिया। उन्होंने कहा—"नहीं, मरना कोई अंत नहीं है। तू लौटेगा! और यदि गड़बड़ करेगा तो गधा बनकर लौटेगा!" डर का एक पूरा तंत्र गढ़ा गया। क्योंकि जब तक आदमी डरता नहीं है , वह दुनिया में सबसे ज़्यादा डरा हुआ रहता है।

एक विचित्र सत्य सामने आया—जो ऊपर से डर गया, वह नीचे निर्भीक हो गया। जो ऊपर से नहीं डरा, उसकी नीचे हालत बेहद शोचनीय रही।

जब भी कोई व्यक्ति जीवन में बुरी तरह पिटा हुआ, टूटता-घिसटता, विवश और बेहाल दिखे—तो समझ लेना, वह ऊपर से नहीं डरा। यदि वह डरता, तो इस तरह नहीं पिटता।

आजकल बात-बात पर निर्भयता के नारे लगाए जाते हैं। पर यदि अपनी स्थिति दयनीय है, तो उसे ईमानदारी से स्वीकार करना चाहिए। इसी स्वीकार से जन्म लेता है—'स्वस्थ डर'।

स्वस्थ डर क्या कहता है? वह कहता है कि:

"तुम्हारी हालत खराब है, और यदि इसे ठीक नहीं किया गया, तो आगे और भी अधिक कष्ट आने वाले हैं।" यह डर बिलकुल उचित है।

यह डर होना चाहिए कि अगर अभी नहीं सुधरे, तो ज़िंदगी बर्बाद हो जाएगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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