दलित महिला कब तक अतीत की कैद में रहेगी?

Acharya Prashant

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दलित महिला कब तक अतीत की कैद में रहेगी?
इससे बड़ी विडम्बना नहीं हो सकती कि जिस ज़मीन पर ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ उच्चारित हुआ, उस ज़मीन पर जाति और लिंग आधारित इतनी क्रूरता चली। कोई दलित महिला अतीत से बंध कर रहे, इससे ज़्यादा ताज्जुब की बात नहीं हो सकती। आपके लिए अतीत में रूढ़ियों और बंधनों के अलावा है क्या? उनसे आपको कुछ नहीं मिलने वाला। जितना उनका मुँह देखोगे, उतना आपका दिल टूटेगा। अपने आपको सही ज़मीन और सही आसमान दीजिए। अतीत को तोड़कर उड़ जाओ, इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा नाम कुसुम है, मैं आपके सामने कुछ बोलना चाह रही हूँ कि लोग मुझसे भी दुखी हैं और मेरा भी दुख है। मुझसे दुखी ये हैं क्योंकि ढोंग और आडंबरों को मानना मेरे बस की बात भी नहीं है। मैं जब छोटी थी, थोड़ी सी समझ आई तो मैं क्वेश्चन करती थी पेरेंट्स से कि एक तो मैं एस.सी. समुदाय से हूँ, तो मैंने मेरे गाँव में ये बर्बरता देखी है कि जो एस.सी. समाज के साथ होता है, वो मैंने देखा है।

तो मेरे पेरेंट्स ही नहीं, पूरा एस.सी. समुदाय बिल्कुल डर-डर के रहता था और मैंने उस पर क्वेश्चन उठाया, कि हम लोग पहले आते हुए भी हैंडपंप से पानी क्यों नहीं भर सकते? घर में पानी की कमी भी है। उसके बावजूद भी हम क्यों नहीं भर सकते? तो मैंने ये क्वेश्चन उठाया। तो मेरे घरवाले मुझसे दुखी क्योंकि, “सब चलता आ रहा है न, तू कौन सी कहाँ की आ गई है?" तो फिर वो मुझसे दुखी। तो मैंने कसम खाई कि मम्मी से पापा से बोला, "नहीं, मैं कुछ नहीं लूँगी तुमसे। मुझे ज़िंदगी में कभी कुछ नहीं चाहिए।" जहाँ पर भी कर्मकांड होते हैं, तो एक लड़की होने के नाते एक साठिया बना दो दीवार पर, उसका मुझे पैसा दिया जाएगा। मुझे तो यही समझ में नहीं आता था। इस वजह से भी मैंने नकार दिया, मैंने कहा मुझे कुछ चाहिए ही नहीं। तो भी वो दुखी हैं कि अब ये लड़की हमसे कुछ लेती ही नहीं है। वो तो भी दुखी। मैं देख रही हूँ, वो सब दुखी हैं।

और सर, मेरा दुख ये है कि मैंने थोड़ा बायो पढ़ी है, तो बायो पढ़ाना मैं शुरू करना चाहती थी। मैंने कहा मैं बायो पढ़ाऊँगी और मैंने स्कूल ढूँढे, कोचिंग भी ढूँढी। तो वहाँ पर देखा कि वो कम सैलरी देना चाहते थे। उन्हें सैलरी देना ही नहीं था और बहुत वर्कआउट करवाना चाहते थे। चलो ठीक है, पर मैं पढ़ाऊँगी तो स्ट्रेटजी मेरी होगी न, रिजल्ट आप ले सकते हो लेकिन स्ट्रेटजी तो मेरी होगी। मैं मेरे तरीकों से बच्चों को पढ़ा पाऊँगी, तो वो, “नहीं-नहीं आप हमारे तरीके से पढ़ाओगी," वहाँ बोला गया जहाँ मैं रहती हूँ। तो फिर मैंने कहा मैं नहीं पढ़ा सकती। तो मैंने नहीं पढ़ाया। फिर वहाँ पर मैंने देखा कि कुछ बच्चे हैं, जो भले ही कम मिलेगा, मैं गरीब बच्चों को पढ़ाऊँगी। तो वो गरीब बच्चों के पेरेंट्स को मैंने बोला, जिन्हें मैं जानती हूँ, कॉन्टैक्ट किया।

तो वो पेरेंट्स से बोला, मैंने कहा, "आप ना ऐसे ही भेज दिया करो, कम फीस दे देना मुझे, लेकिन मैं आपके बच्चों को बहुत अच्छे से पढ़ाऊँगी।" तो वो पेरेंट्स कहने लग गए, "आप इतनी कम फीस में कैसे पढ़ा सकती हो? इतना अच्छा नहीं पढ़ाओगी आप।" तो मैं इसलिए दुखी। इज़ीली स्टूडेंट को कुछ समझ में आ जाता है? सच बोल रही हूँ सर। कोई कॉन्सेप्ट अगर मैंने बहुत मेहनत करके उसे बच्चे के लिए इज़ी बनाया है न, तो बच्चा ऐसे डाउट में रहता है कि ये मुझे जल्दी से समझ में कैसे आ गया? तो वो विश्वास ही नहीं कर पाता। तो मैं दुखी। मेरा दुख कुछ और है, मेरे घर वालों का दुख कुछ और है। मैं क्या करूँ सर?

आचार्य प्रशांत: पहले तो बैठ जाइए। ठीक है, बताने का इनका तरीका रोचक था, मनोरंजक था। आप हँसे भी, आपने तालियाँ भी बजाई, पर उसके पीछे की जो पूरी बात है, उसको समझिए। एक तो महिला, वो भी उत्तर भारत से। कहाँ से हैं?

प्रश्नकर्ता: सर, मैं मध्य प्रदेश से आई हूँ, मुरैना जिले से।

आचार्य प्रशांत: ठीक है, एक ही बात है। बल्कि और गड़बड़ बात है। महिला हिंदी हार्टलैंड से और वो भी एस.सी. समुदाय से।

सबसे पहले तो उन लोगों को समझना चाहिए जो कहते हैं कि "नहीं, हमारी तो जो भारतीय और सनातन संस्कृति रही है, वो बहुत बढ़िया रही है।" ये होता है। वो अकेली नहीं है, हम भारत की दो तिहाई, तीन चौथाई आबादी की बात कर रहे हैं। इसमें आप जब ओ.बी.सी, एस.सी., एस.टी, महिलाएँ मिला दें, तीन चौथाई से भी ज़्यादा। समझ रहे हो आप? ये बात आप सबके लिए है, आप जो सब श्रोता वर्ग यहाँ बैठे हो। उनसे भी बात करूँगा, उन्होंने सवाल करा है, वो दूसरी बात होगी। वो दूसरे नंबर पर आएगी। पहली बात आप सबसे है।

ये अच्छा लगा, सब प्रसन्न हुए, ताली वाली बजी। अच्छी बात है। और जो हमने संस्कृति के नाम पर कर लिया, अब उसको दर्शन की पृष्ठभूमि में रखकर देखो, तो बताओ कैसा लग रहा है?

श्रोता: बहुत बुरा लग रहा है सर।

आचार्य प्रशांत: पृष्ठभूमि में दर्शन है और दुनिया का उच्चतम दर्शन वो है, वो बुनियाद है, वो पृष्ठभूमि है और उस पर हमने ये संस्कृति तैयार करी है। जैसे देने वाले हमें सोने की थालियाँ दे गए विरासत में और उसमें हमने अपने लिए कीचड़ परोसा है।

पीछे थे हमारे चिंतक, विचारक, दार्शनिक, ऋषि। वो हमें क्या दे गए हैं विरासत में? सोने की थाली, पुश्तैनी मिली हुई है। है दर्शन हमारे पास, उच्चतम दर्शन है हमारे पास। और उस पर हमने कौन सी संस्कृति परोस ली है? कीचड़। अब होगा, तुम्हारे पास सोने का बर्तन, खाओगे तो नहीं न उसको? खाओगे किसको?

श्रोता: कीचड़।

आचार्य प्रशांत: कीचड़ को खाओगे। वही हम खा रहे हैं। और ऊपर से नारा लगाते हैं कि महान है। हाँ, दर्शन हमारा महान है और धर्म सनातन होता है, और सनातन कहते ही महान भी कहने की ज़रूरत नहीं। सनातन माने कालातीत। जो कालातीत है, वो तो महान से भी आगे निकल गया। दर्शन हमारा महान है, धर्म सनातन है। पर संस्कृति के नाम पर तो ये है, और विडम्बना ये कि हम संस्कृति को ही धर्म बनाए बैठे हैं।

संस्कृति माने समझते हो क्या होता है? अच्छे से समझना। धर्म क्या होता है? क्या बात करी थी? जो तुम भीतर से अहंकार होने के नाते बने बैठे हो, बंधक, शूद्र और जो तुम हो सकते हो, आज़ाद, उन्मुक्त, उन दोनों को जो जोड़ता है, जो तुम्हें यहाँ से वहाँ जाने का रास्ता देता है, उसको बोलते हैं धर्म।

तुम्हारे संकीर्ण यथार्थ और तुम्हारी अनंत संभावना के बीच जो पुल है, उसको बोलते हैं धर्म। तो धर्म ये होता है। दर्शन जानते ही हो क्या होता है, सत्य की खोज को कहते हैं दर्शन।

ये संस्कृति फिर क्या चीज़ होती है? दर्शन हम समझ गए, धर्म हम समझ रहे हैं, गीता के साथ हैं हम। ये संस्कृति क्या चीज़ होती है? जिन बातों का तुमने अभ्यास कर लिया हो बहुत समय से, उसे बोलते हैं संस्कृति। जो आचार, विचार, आहार, व्यवहार तुम चलाते ही आ रहे हो, उसको बोलते हैं संस्कृति। संस्कृति इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं होती। कोई दम नहीं होता संस्कृति में, संस्कृति पूजने की चीज़ नहीं होती है। संस्कृति तो बस तुम्हारे चाल-चलन का तरीका होती है।

आप पूछोगे कल्चर में क्या तत्व आते हैं? तो आपको ये सब पता चलेगा, अच्छे से देख लीजिएगा, वहाँ विस्तार से पता चल जाएगा आप पढ़ोगे तो। उदाहरण के लिए आपका खाना-पीना कल्चर में आता है, डाइटरी हैबिट्स, वो कल्चर का हिस्सा हैं। आप किसी से मिलते हो तो बस यूँ (केवल झुकना) करते हो, कि यूँ (हाथ जोड़ते हुए झुकना) करते हो, ये कल्चर में आता है। व्यवहार का तरीका है।

आपकी जो मान्यताएँ होती हैं, बहुत सारी, कि पेड़ पर भूत रहता है कि नहीं रहता है, और मरने के बाद चार दिन शोक करना चाहिए कि आठ दिन शोक करना चाहिए, ये सब कल्चर में आता है। इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। और दर्शन से तो कोई संबंध ही नहीं। कल्पना भी कर लो कि इसका दर्शन से कोई रिश्ता निकलेगा, तो निकल नहीं सकता।

आप सीधे पल्लू की साड़ी डालती हैं, उल्टे पल्लू की साड़ी डालती हैं। ये किसका हिस्सा है? ये कल्चर में आता है, इसका धर्म से क्या लेना-देना। कहाँ कौन सा रंग शुभ माना जाता है, कौन सा अशुभ, ये सब कल्चर में आता है। कहाँ ऊँची आवाज़ में बात करना शुभ माना जाता है और कहाँ पर उसको ऑफेंसिव मान लिया जाएगा, ये कल्चर में आता है।

शिल्प, आर्किटेक्चर ये भी कल्चर का हिस्सा है, एक तरह से। लोग अपने घर किस तरह बनाते हैं, इमारतें किस तरह बनाते हैं, ये सब भी कल्चर में आता है। ये संस्कृति है। है तो बहुत छोटी चीज़, लेकिन जीते तो हम उसी को हैं न। तो इसलिए बहुत ज़रूरी है कि संस्कृति आदत पर नहीं, दर्शन पर आधारित होनी चाहिए। संस्कृति मान्यता पर नहीं, दर्शन पर आधारित होनी चाहिए। हमने एक बहुत बड़ी गलती कर ली है भारत में, हमने अपनी संस्कृति को अपनी परंपरा और अपनी आदत का ग़ुलाम बना लिया है। और उसी को हम महानता बोलते हैं। हम कहते हैं, जैसा अभी सौ-दो सौ साल पहले जो हो रहा था, यही तो है सनातन संस्कृति। संस्कृति पहली बात तो सनातन होती नहीं, संस्कृति रोज़ बदलती है। और दूसरी बात, संस्कृति को प्रेरणा किससे लेनी चाहिए? दर्शन से, वास्तविक धर्म से।

लेकिन हमारी संस्कृति किसके पीछे-पीछे चल रही है? हमारी पुरानी मान्यताओं के। और पुरानी भी माने ऐसा नहीं कि ऋग्वैदिक इतनी पुरानी हमारी संस्कृति चल रही है, जो हमारी सौ-दो सौ साल पुरानी मान्यताएँ, उनके पीछे। अगर आप डेढ़ हज़ार साल पहले के भारत में जाएँगे, मान लीजिए आप गुप्त काल में पहुँच जाएँ, जिसको आप स्वर्ण युग बोलते हैं, तो वहाँ जो संस्कृति चलती थी, वो तो आप आज चला ही नहीं रहे हो।

भाई, हम कहते हैं कि सोने की चिड़िया और, द गोल्डन एज ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री। वो सब क्या था? ठीक है। तो आप उतना पीछे चले जाओ फिर। जब पीछे से ही लेना है तो उतना पीछे जाओ न, जब हम कहते थे कि हमारा गोल्डन पीरियड चल रहा था, फिर वहाँ जाएँगे न। तो गोल्डन पीरियड वाला तो हम कुछ कर ही नहीं रहे अपनी संस्कृति में। बल्कि वो, आप करो तो स्कैंडल हो जाएगा। संस्कृति के नाम पर हम मान्यता चलाते हैं, वो मान्यता भी कितनी पुरानी? दो-सौ साल पुरानी। उसमें समस्या क्या है, आपको बताए देता हूँ। दो-सौ साल पुराने, दो-सौ या तीन-सौ या चार-सौ हो, जितना भी ले लो, उससे पीछे हम नहीं जाते।

उतने साल पुराने भारत की दशा क्या थी? शिक्षा कितनी थी? मानसिकता कैसी थी? तो यानी हम दो-सौ से चार-सौ साल पहले जैसा सोचते थे और जैसा व्यवहार करते थे, उसको हम कह रहे हैं कि संस्कृति है। और उस समय हमारी दशा बहुत-बहुत ख़राब थी। हम अपनी उस समय की मानसिक और आर्थिक दशा और व्यवहार को एक आधुनिक जीवन पर लादना चाहते हैं और इसको कहते हैं, कल्चर। कि गाड़ी भी आ गई है, तो नींबू फोड़ेगी पहले, और अभी-अभी वो देवी जी नींबू फोड़ रही थी, बताओ। और वो क्यों न फोड़े, हमारे तो जब फाइटर जेट भी आते हैं, तो पहले नींबू फोड़ते हैं। समझ में आ रही है बात?

जब आप बोलते हो कि पीछे जो चला आ रहा है, वही कल्चर है। तो मैं पूछ रहा हूँ, कितना पीछे? चलो फिर सीधे वैदिक काल में चलते हैं न, क्योंकि तभी तो हमारे ऋषि थे। चलते हैं ईसा से लगभग दो हज़ार-तीन हज़ार साल पहले। उस समय की संस्कृति का पालन करेंगे, पर उस समय की संस्कृति तो बहुत उदार थी और बहुत खुली हुई थी। वो संस्कृति आज ले आओ तो आपको बोलेंगे कि "ये तो नास्तिक है, और समाज विरोधी है, और धर्म विरोधी है, और राष्ट्र विरोधी है।" सब लगा देंगे आप पर। जो असली वैदिक संस्कृति है, तो ले दे कर के परंपरा का पालन करने के नाम पर भी बस जो दो-सौ से चार-सौ साल पहले चलता था, आपको वो चलाना है।

और खेद की बात ये है कि जो दो-सौ से चार-सौ साल पहले का काल था, वो भारतीय जीवन का सबसे अंधेरा काल था। आज से हज़ार साल पहले नहीं सती होती थी, सती भी ज़्यादा हालिया बात है। तब होती थी, वही समय था जब सती परंपरा भी चली है।

आप जाएँगे तो आपको कोई मौर्य काल में या फिर गुप्त काल में, उस समय थोड़ी आपको सती वग़ैरह का उदाहरण मिलेगा। मौर्य की बात करें तो उस समय थोड़ी इतना जातिवाद मिलेगा। चंद्रगुप्त मौर्य क्या था? सवर्ण था, ब्राह्मण था, क्षत्रिय था? लेकिन सबसे बड़ी सल्तनत का राजा था मगध। हम डायोज़नीस की बात कर रहे थे। अलेक्ज़ेंडर को किसने वापस भेजा था? वो सवर्ण नहीं था चंद्रगुप्त मौर्य, जिसने सिकंदर को वापस भेज दिया था।

ये उस समय की संस्कृति थी, तुम्हें संस्कृति ही लेनी है तो फिर उतना पीछे जाओ न। हम अभी का जो चलता था, ये लेना चाहते हैं और उसको हम कहते हैं कि नहीं, हमें “शुद्ध देसी” रखनी है। अब शुद्ध देसी में तुम क्या रखोगे?

अभी हमने कहा, आपका खाने-पीने का जो तरीका है, वो संस्कृति में आता है। आपकी प्लेट पर कुछ बचेगा ही नहीं खाने-पीने को, अगर आप वो सब हटाना चाहते हो जो भारतीय नहीं है। चाय - विदेशी, समोसा - विदेशी, जलेबी - विदेशी, आलू - विदेशी, टमाटर - विदेशी, पुलाव - विदेशी, बिरयानी - विदेशी।

श्रोता: बर्थडे केक।

आचार्य प्रशांत: बर्थडे केक, तो खैर फिर भी पता है विदेशी है, पर वो सब चीज़ें जो आप बिल्कुल अपना मान के खाते हो, वो सब विदेश से आई हैं।

आलू तो बहुतों का दिल तोड़ता है। कहते हैं, आलू ये विदेशी है? हाँ। कोई शर्ट-पैंट में आ रहा हो तो उसको कहेंगे ये देखो ये ज़्यादा, जो बहुत संस्कृतिवादी होते हैं, वो शर्ट-पैंट भी नहीं पसंद करते। वो कुर्ता-पायजामा पहनते हैं। ये कुर्ता-पायजामा कहाँ से आया है? हमारे ऋषि कुर्ता-पायजामा नहीं पहनते थे, उस समय कोई नहीं पहनता था। ये भी, कुर्ता-पायजामा भी विदेशी है।

संस्कृति के नाम पर ये सब चल रहा है अभी भी। नहीं तो एक पढ़ी-लिखी लड़की को उपहास, उपेक्षा, अपमान का सामना क्यों करना पड़ेगा?

बस यही कह के तो कि “ये हमारा कल्चर है।” ऐसा होता आया है। कोई तर्क नहीं है, कोई विज्ञान नहीं है। तर्क क्या दोगे? वो पढ़ी-लिखी हैं। वो पढ़ी-लिखी नहीं, वो पढ़ाती हैं। कैसे उपेक्षा कर लोगे?

उपेक्षा सिर्फ़ एक तरीके से आप जायज़ ठहराते हो, क्या बोल के? “कल्चर है जी हमारा।” वो उपेक्षा चाहे वृहद समाज कर रहा हो, चाहे इनका अपना परिवार कर रहा हो, दोनों करते हैं कल्चर ही बोल के, तो उसे जायज़ बताते हो ना। तो कहाँ से आया वो कल्चर? क्या कल्चर? तीसरे नंबर पर आती है, संस्कृति। सबसे ऊपर आता है दर्शन, फिर आता है धर्म।

श्रोता: संस्कृति।

आचार्य प्रशांत: फिर संस्कृति आती है। हमने संस्कृति को धर्म और दर्शन दोनों से बड़ा बना दिया।

अब आप पर आ रहा हूँ। एक अच्छे से बात समझ लीजिए, सारे जवाबों का वही जवाब है। आपकी बहुत सारी समस्याएँ हैं। आपने बार-बार बोला, “मैं भी दुखी, सब मुझसे दुखी।” आपका बहुत सारा ये जो दुख है, सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि आप उम्मीदें अभी पकड़कर बैठे हो।

आप जो हो न, फिर बोल रहा हूँ, हिन्दी-भाषी क्षेत्र की महिला और वो भी एस.सी. समाज से। आपको किसी से कोई उम्मीद नहीं रखनी है। इतिहास में, परंपरा में, आपके लिए कुछ नहीं है, कोई उम्मीद मत रखना, उम्मीद रखोगे दिल टूटेगा। और ये आपके लिए शुभ समाचार है। अच्छे से समझिए क्यों? क्योंकि अगर वहाँ आपके लिए कुछ है ही नहीं तो फिर आपको उसकी क़द्र करने की भी कोई ज़रूरत नहीं है।

कोई महिला अतीत से बंध कर रहे, इससे ज़्यादा ताज्जुब की बात नहीं हो सकती। और कोई दलित महिला भी अतीत से बंध कर रहे, ये तो महान आश्चर्य की बात है। अतीत में तुम्हारे लिए है क्या रूढ़ियों और बंधनों के अलावा? क्यों पकड़ रहे हो अतीत को? जिनको अतीत से माल, मलाई, मसाला मिलता है, वो अतीत के गुणगान करें, तो समझ में भी आता है। क्योंकि वो अतीत की जितनी बात करेंगे, उन्हें कुछ लाभ होगा। और कोई लाभ हो न हो, अहंकार तो चौड़ा होगा कि “हमारा अतीत ऐसा। अतीत में ये बोला गया था कि हम आए हैं।” आपके लिए अतीत में क्या है? आप क्यों पकड़े बैठे हो? बस आप उम्मीद करते हो, आप उम्मीद करते हो कि देखो, ये है, इनसे हमें ये मिलेगा। उनसे आपको कुछ नहीं मिलने वाला। आप जितना उनका मुँह देखोगे, उतना आपका दिल टूटेगा बस, और कुछ नहीं।

प्रश्नकर्ता: सर, मैं उम्मीदें नहीं करती, वो तो मैंने बात आपके सामने रखी ही थी।

आचार्य प्रशांत: आप उम्मीद नहीं करते तो आपको ये समस्या क्यों होती कि “वो मुझसे दुखी है, वो मेरी ऐसे कर रहा है, ये ऐसे कर रहा है?” वो ऐसा ही करेंगे, क्योंकि अतीत ऐसा ही रहा है। और आपको इस बात के लिए तैयार होना चाहिए।

आपका जवाब क्या होना चाहिए सुनिए, “तुम वो करोगे ना जिसमें तुम्हें तुम्हारा हित दिखता है। तुम्हें तुम्हारा हित दिखता है अतीत पर चलने में, और मुझे मेरा हित दिखता है अतीत को तोड़कर उड़ जाने में।” उड़ जाओ। इसके अलावा तुम्हारे पास कोई रास्ता नहीं है, कोई रास्ता नहीं है।

प्रश्नकर्ता: और सर, मेरी ऐसी कोई लालसा नहीं है कि मुझे लोग सुनें। अगर सुनें तो सुनें फिर। पर मैं ये बोलना चाह रही हूँ कि मैं बायो पढ़ाती हूँ, तो मैंने कई बार कई महिलाओं को मेरी जैसी समस्याएँ भी देखी हैं मैंने महिलाओं की। पर मैंने उन्हें बहुत समझाने की भी कोशिश की है, कि जैसे मैंने सब छोड़ दिया, लेन-देन छोड़ दिया, सब छोड़ दिया, तो कम से कम मैं अपने आपको आज़ाद कर पाई हूँ। तो आप छोड़ो, उन्हें मैंने समझाने की भी कोशिश की है, सब बात। किसी ने नहीं समझा।

और स्टूडेंट जो मेरे आते हैं, मैं उनको भी बोलती हूँ, लेकिन नहीं समझा। लेकिन अच्छी बात ये है कि मैं जब एक चैप्टर है, ‘इवॉल्यूशन’ बायो में, उसके थ्रू मैं बच्चों को गीता से और आपसे कनेक्ट करने की कोशिश करती हूँ। तो पहले से ज़्यादा।

आचार्य प्रशांत: नहीं अभी कनेक्ट नहीं कर पाओगे, क्योंकि अभी आपने ही नहीं समझी मेरी बात।

आप जिन्हें समझा रही हो न, बहुत कम संभावना है कि वो समझेंगे। बहुत कम संभावना है। हर तरह का बीज अपने अनुकूल ज़मीन माँगता है पहले। बहुत सारे लोग ऐसे हैं जिन्हें मैं ही नहीं समझा सकता, आप कैसे समझाओगे? और आप उन्हें किसी तरह मेरे पास ले भी आओ, तो मेरा सर दर्द बढ़ेगा।

प्रश्नकर्ता: सर, मैं स्टूडेंट की बात कर रही थी ज़्यादातर तो।

आचार्य प्रशांत: तो स्टूडेंट आधे तो हमारे स्टूडेंट ही हैं यहाँ पर। उनमें से बहुत सारे हैं, जिनको ‘इवॉल्यूशन’ से समस्या है, बहुत सारे हैं। हमारे भी स्टूडेंट्स हैं जो कहते हैं, कि अगर ‘इवॉल्यूशन’ हुआ है, माने क्या, ये बंदर वाली बात हमें अच्छी नहीं लगती। “हमारे दादा को बंदर बोल रहे हो? हम नहीं मानते। हम ब्रह्मा के मुख से निकले हैं, बंदर-वंदर नहीं हैं।”

अच्छी बात है कोई समझ जाए तो, मैं भी आपको समझा रहा हूँ तो अच्छा लगता है आप समझ जाओ तो। पर तथ्यों को आप ध्यान में रखो। आप अच्छी स्थिति में, अच्छी जगह में नहीं हो, और आपका लिंग भी ख़तरनाक है। तथ्य ये है कि यहाँ ये संभावना कि लोग आपकी बात को सुनेंगे, समझेंगे, बहुत कम है। हाँ, संयोग से आपको मिल गई हो ऐसी ऑडियन्स जो आपकी बात समझ लेती है तो बधाई हो। आपको मिल गया हो ऐसा माहौल और ऐसा प्रिंसिपल स्कूल का या कॉलेज का, जो भी है जो आपको आपके हिसाब से बच्चों को पढ़ाने देता हो, तो अच्छी बात है। पर संभावना कम है।

तो उम्मीद बाँधे मत बैठे रह जाना, “कबीरा तेरी झोपड़ी, गल कटीयन के पास।” आप उम्मीद ही बाँधे रह जाओगे कि “मैं तो आई हूँ और सत्य का संदेश सबको बता रही हूँ और गीता सब तक ले जा रही हूँ, लोगों को आचार्य जी तक पहुँचा रही हूँ।” आप यही सोचते रह जाओगे और उधर हो सकता है मंसूबे ये हों कि आपको ही बाँध लें। अपने आपको सही ज़मीन और सही आसमान दीजिए। समझ में आ रही है बात?

और शिकायत करने मत आ जाइए, कि “नहीं पर मैं ऐसा करना चाहती हूँ। पर मेरे पापा इतना मुझसे प्यार करते हैं, फिर भी वो मुझे समझते क्यों नहीं?” वो आपसे करते हों ना करते हों प्यार, वो कठपुतली संस्कृति के हैं। आपके देखे, वो आपके पिताजी हैं, अपने केंद्र से वो संस्कृति की कठपुतली हैं, वो उसकी ख़ातिर आपकी बलि भी देने को तैयार हो जाएँगे। ये देख रहे हो न ये सब, जो ऑनर किलिंग और ये और वो, ये और क्या होता है? और आप ऐसे बिल्कुल नादान, मासूम बन के आओगे। “नहीं, पर मेरे डैडी और मेरे हबी मुझे समझते क्यों नहीं? आई एम कन्विन्स, दे लव मी। बट स्टिल दे डोंट लेट मी बी फ्री।”

गोलू! कुछ पता भी है तुझे कुछ? भोलापन कहूँ इसको, कि क्या कहूँ? बहुतों को ये रहता है कि नहीं, “वैसे तो यू नो, सब बहुत अच्छे हैं मेरे उधर। लेकिन वो अभी न, वो थोड़ा प्रेशर आ रहा है वो।” क्या? एमआईएल, उसकी ओर से। वो कई अर्थों में इस्तेमाल होता है। ये तो हिंदी समझ गए, कि “एक बेबी तो और कर लो न। वैसे तो सब बहुत अच्छे हैं, लेकिन वो पता नहीं इस बात को क्यों नहीं समझ रहे।”

तुम नारी हो। तुम्हें बात समझ में क्यों नहीं आ रही? ये जो हमारा ऊँचे से ऊँचा देश था न, अभी जो ये बन गया है, इसमें तुम्हारे लिए बहुत कम जगह है।

और फिर कहता हूँ, इससे बड़ी विडम्बना नहीं हो सकती कि जिस ज़मीन पर “अहम् ब्रह्मास्मि” उच्चारित हुआ था, उस ज़मीन पर जाति और लिंग आधारित इतनी क्रूरता चली। तो किसी दिवा स्वप्न में मत रहना, बुलबुलों के भीतर जिओगे तो बहुत चोट लगेगी। नीचे गिरोगे।

देयर इज़ नथिंग एट ऑल फॉर यू इन दिस सिस्टम। और जब वो सिस्टम तुम्हें कुछ देने को तैयार नहीं है, तो तुम क्यों मजबूरी ढो रहे हो सिस्टम का पालन करने की? इस सिस्टम पर चलकर तुम्हें कुछ नहीं मिलना है। जब कुछ मिलना नहीं है तो?

श्रोता: चल ही क्यों रहे हो?

आचार्य प्रशांत: हाँ तो महिलाओं को सबसे आगे होना चाहिए, सिस्टम को बाय-बाय करने में। कि अपना सिस्टम अपने पास रखो, मैं अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से अलग जिऊँगी। मुझे तुम्हारे सिस्टम की किसी चीज़ पर नहीं चलना है। लेकिन देखने में उल्टा आता है, जितनी ज़्यादा रूढ़िवादिता की चीज़ें होती हैं, उसमें सबसे आगे महिलाएँ नज़र आती हैं, और अक्सर दलित महिलाएँ भी। उदाहरण, बाबाओं के पंडाल। और इससे बड़ा अचरज नहीं हो सकता, कि भाई, तेरे लिए वहाँ सिर्फ़ और ज़्यादा बेड़ियाँ हैं। तू वहाँ क्या करने गई है? यू शुड बी द फर्स्ट टू डिस्कार्ड पास्ट। इट होल्ड्स नथिंग फॉर यू।

भारत आज़ाद हो गया, हमने यूनियन जैक सलामत रखा क्या? बोलो। क्योंकि उस पास्ट में हमारे लिए कुछ नहीं था। हमने वो सब बिल्कुल अस्वीकार कर दिया। हमने कहा, “नहीं, नहीं भाई, वो सब है अतीत है, पर हम उसको थोड़ी अपनी ज़िंदगी बना लेंगे।” हमने अंग्रेजों की इमारतों के नाम बदल दिए, सड़कों के नाम बदल दिए, झंडा बदल दिया, संविधान बदल दिया। जो बदल सकते थे, सब बदल दिया। क्योंकि वो था, लेकिन उसमें हमारे लिए कुछ नहीं था। वो था, लेकिन उसमें?

श्रोता: हमारे लिए कुछ नहीं था।

आचार्य प्रशांत: इसी तरीके से इस संस्कृति का जो अतीत है, उसमें तुम्हारे लिए कुछ नहीं है। हाँ, भारतीय दर्शन में आपके लिए बहुत कुछ है। भगवद्गीता में आपके लिए बहुत कुछ है, उपनिषदों में आपके लिए बहुत कुछ है। लेकिन ये जो कॉन्टेम्पररी कल्चर है, इसमें आपके लिए कुछ नहीं है। बात आ रही है समझ में?

प्रश्नकर्ता: जी सर।

आचार्य प्रशांत: तो बिल्कुल भीतर से गिल्टी मत अनुभव करना कि “मैं भीड़ के ख़िलाफ़ क्यों जा रही हूँ।” आप लोग भीतर से ना बहुत जल्दी वैसे भी हो जाते हो, कि “अरे, मैं तो अच्छी बच्ची हूँ न।” हमारी परवरिश भी वैसे ही होती है। लड़के तो नालायक निकल जाएँ, तो उनको नालायक होने की भी छूट होती है। लड़कियों को तो नालायकी की भी छूट नहीं होती।

तो लड़कियाँ सब अच्छी बच्चियाँ होती हैं। भाई, गंदा होता है। वो रात में दीवार फांद के भी घर आ सकता है, लेकिन जो बहन होगी, वो सुशीला होगी। वो सही समय पर उठती है, सही खाती है, माँ का हाथ बटाती है, अच्छे नंबर लाती है और सो जाती है। यही करती है न?

तो आपको आदत लग जाती है सबकी नज़रों में अच्छी बच्ची बनकर जीने की। अब मैं कह रहा हूँ, बुरी बच्ची बनो। बहुत अनुशासन चाहिए, ख़ासकर एक महिला को और वो भी एक तथाकथित दलित महिला को। बहुत अनुशासन चाहिए। एकदम ये मत करो, दाएँ-बाएँ। बहुत सारे तैयार बैठे हैं तुम्हें फँसाने के लिए। ठीक है?

प्रश्नकर्ता: जी सर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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