दफ़्तर में डाँट पड़ती है || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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दफ़्तर में डाँट पड़ती है || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमन, हमें एक बैंक शाखा के रूप में कुछ-न-कुछ लक्ष्य दिये जाते हैं जिसको मैं शाखा प्रबन्धक होने के नाते अपने स्टाफ़ को बाँट देता हूँ।

कुछ स्टाफ़ मेम्बर्स उसको पूरी लगन से करते हैं परन्तु कुछ जानबूझकर उसको पूरा नहीं करते। जिस कारण शाखा का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाता और फिर क्षेत्रीय कार्यालय से डाँट पड़ती है और मन विचलित रहता है और काफ़ी क्रोध भी आता है। कभी-कभी मन करता है कि उस स्टाफ़ मेम्बर के खिलाफ़ कार्यवाही कर दूँ परन्तु फिर ये भी लगता है कि अगर ऐसा करूँगा तो उसके करियर और उसकी पदोन्नति में दिक्कत हो सकती है इसलिए नहीं कर पाता। मन इसी के बीच दुविधा में रहता है, कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: छोटी बात है; नहीं? (श्रोताओं को संकेत करते हुए) या बड़ी बात है?

आपके आसपास कोई ऐसा है अगर जिसको सहायता की ज़रूरत है तो ज़रूर करें। मैं उस सहायता की उपेक्षा कर देने को नहीं कह रहा हूँ। वो जो आप विचलित हो जाते हैं जब हेडक्वॉटर से डाँट पड़ती है; लिखा न आपने कहाँ से कि ज़िला मुख्यालय से थोड़ी झाड़ पड़ जाती है तो मन खिन्न हो जाता है, मैं उसकी बात कर रहा हूँ।

एक बार आपने कोई नौकरी पकड़ ली तो आपने जैसे इस करार पर दस्तखत कर दिये कि कोई आपको डाँटेगा और कोई होगा जिसे आप डाँटोगे। अब इससे बच नहीं सकते, वो तो होगा। उसका काम, वो ये न करे तो क्या करे? समझ लीजिए कि उसको तनख्वाह ही इसी बात की मिलती है; कौन? जो आपका वरिष्ठ है। तो पहली बात तो ये कि आपको अपने उच्चाधिकारियों से डाँट वगैरह पड़ गयी, ये सब हो गया। अरे छोड़ो, क्या ये सब? उसको भी तो दर्शाना है न कि उसे किस बात की तनख्वाह मिल रही है, कुछ तो करेगा। दो-चार इधर मेमो (ज्ञापन) भेजेगा, किसी को इधर डाँट लगाएगा, बीच-बीच में किसी की थोड़ी बहुत तारीफ़ भी कर देगा, तो ठीक है।

दूसरे मुद्दे पर आते हैं कि जो आपके आसपास के लोग हैं जो काम नहीं करते, जिसकी वजह आपको डाँट पड़ जाती है। इनकी ज़िन्दगी में जाना पड़ेगा। सिर्फ़ ये सोचकर के आप हस्तक्षेप करेंगे कि उनकी वजह से आपको डाँट पड़ रही है तो आप फिर सिर्फ़ अपने बारे में सोच रहे हैं। आप कह रहें हैं कि मुझसे तेरा रिश्ता ये है कि तू काम ऐसा कर कि मुझे डाँट न पड़े, बाकी तेरे साथ जो होता है सो होता रहे।

अपने बारे में सोचना छोड़ दीजिए, वही चीज़ जो सवाल के पहले हिस्से के उत्तर में कही। अपने बारे में सोचना ज़रा कम करें, उसके बारे में थोड़ा सोचें। जो आदमी तनख्वाह तो लेता है पर काम नहीं करता; आनन्दित तो नहीं हो सकता।

चाहे वो दुनिया के किसी बैंक में काम करता हो, किसी कम्पनी में काम करता हो, स्वरोजगार में हो और चाहे कुछ न करता हो बाप से पैसे लेता हो। जो आदमी बिना काम करे तनख्वाह ले रहा है वो अपनी ही नज़रों में ज़रा गिरा हुआ रहता है। जानवर को मुफ़्त की रोटी मिल जाए उसके लिए अच्छी बात है; आदमी को मुफ़्त की रोटी मिल जाए, बड़ी गड़बड़ हो गयी। क्योंकि जानवर के लिए कोई धर्म नहीं होता, मनुष्य के लिए धर्म होता है और मनुष्य का धर्म है कि अगर रोटी खा रहे हो तो ईमान की रोटी खाओ।

जो लोग बैठे हैं दफ़्तर में और बेईमानी की रोटी खा रहे हैं वो स्वयं भी आन्तरिक रूप से कहीं-न-कहीं पीड़ित होंगे। जो सज़ा का तरीका है वो बहुत कारगर होता नहीं कि आप पकड़कर उनको सज़ा ही दे डालें। और सज़ा देने का ही विचार पहले आएगा क्योंकि उनकी वजह से आपको तकलीफ़ हुई है तो आपको लगेगा अब मैं तुम्हें भी तकलीफ़ दूँगा। तुम्हारी वजह से मुझे ऊपर से डाँट पड़ जाती है तो अब तुम मुझसे खाओगे। आप उन्हें डाँट सकते हैं, आप अधिकारी हैं उनके, आपको हक है लेकिन ये तरीका बहुत चलेगा नहीं। उनके जीवन में जाना पड़ेगा, देखना पड़ेगा, बात करनी पड़ेगी। कुछ कड़े, सीधे, सच्चे सवाल पूछने पड़ेंगे, थोड़ा उन्हें चौंकाना पड़ेगा।

सरकारी बैंक है?

प्र: जी।

आचार्य: कुछ पूछना पड़ेगा। देखिए एक आदमी जब सरकारी नौकरी में प्रवेश करता है तो एक सरकारी नौकरी में नहीं एक सरकारी ज़िन्दगी में प्रवेश करता है, ये बात समझिएगा। सरकारी नौकरी सिर्फ़ नौकरी नहीं होती, वो एक सरकारी ज़िन्दगी होती है। वो एक अलग दुनिया है, उस दुनिया में सिर्फ़ नौकरी के दिन के आठ-दस घन्टे शामिल नहीं हैं या छः घन्टे जो भी या दो घन्टे (व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए)। सिर्फ़ उतना ही शामिल नहीं है वो पूरी एक जीवनपद्धति है, एक लाइफ़स्टाइल है। जानते ही हैं न आप?

प्राइवेट बैंक में कोई काम करता हो, सरकारी बैंक में कोई काम करता हो, ऐसा नहीं है कि बस बैंको के नाम अलग हैं, इनके जीवनों के केन्द्र अलग हैं! ये जिएँगे ही अलग-अलग तरीके से।

उस केन्द्र के बारे में थोड़ी सी बात करनी पड़ेगी। और जब वो केन्द्र के बारे में बातचीत हो तो आप बहुत खुलकर के व्यर्थ ही ये सब न कहें कि देखो मैं ये बातचीत इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि तुम्हारी इस महीने की उत्पादकता ठीक नहीं थी। ये न कहें कि मैं तुम्हारी मन्थली परफॉर्मेन्स (मासिक प्रदर्शन) पर चर्चा करना चाहता हूँ। वो बहुत ज़्यादा संकुचित बातचीत हो जाती है और आप जिससे बात करेंगे वो पहले ही अपने कवच-कुंडल डालकर आएगा अपनी रक्षा के लिए। वो कहेगा, ‘ये मुझपर इल्ज़ाम लगाने जा रहे हैं कि मैं नाकारा हूँ, मैं पहले से ही अपनी रक्षा के लिए कुछ सामग्री, कुछ तर्क, कुछ प्रमाण इत्यादि लेकर आऊँ’। कुछ बहाना वो पहले ही लेकर आ जाएगा।

खुली बातचीत करें, सीधे पूछें ‘बेटा मोहनलाल, खुश हो ऐसे? पूरे महीने जो तुमने किया वो तुम भी जानते हो मैं भी जानता हूँ, मैं तुम्हारे अफ़सर की तरह बात नहीं कर रहा हूँ; इंसान की तरह बात कर रहा हूँ। जो काम तुम यहाँ कर रहे हो, वही तुम्हारा बेटा तुम्हारे साथ करे, जिस तरह की परफॉर्मेन्स और प्रोडक्टिविटी तुमने दफ़्तर में, बैंक में दिखाई है वही तुम्हारा बेटा अपने स्कूल में दिखा दे तो तुम कहोगे बड़ा नाकारा है, महामक्कार है, कहोगे न’? ‘हाँ’। ‘खुश हो ऐसे’?

फिर थोड़ा भाभीजी की बात करो। क्योंकि जब मैंने कहा कि सरकारी नौकरी एक जीवनपद्धति होती है तो उसमें सरकारी बीवी भी शामिल होती है। दो तरह की बीवियाँ होती हैं, प्राइवेट बीवियाँ और सरकारी बीवियाँ और भी एक-दो तरह की होती हैं और अलग होती हैं बिलकुल। बिलकुल बता रहा हूँ आपको; जानी, समझी, परखी, अनुभव की बात।

आप अपना परिचय इस तरह से दें कि आप आईआईटी, आईआईएम से हैं तो एक तरह की लड़कियों के रिश्ते आते हैं और अपना परिचय ये बताकर दें कि आप सिविल सर्विसेस से हैं, फ़लाने इयर के यूपीएससी कैडर से हैं तो बिलकुल दूसरी तरह की लड़कियों के रिश्ते आते हैं। तो जो सरकारी नौकरी होती है उसी के अनुसार सरकारी बीवी भी मिल जाती है।

मोहनलाल से पूछिए ‘बेटा खुश हो? ये सब जो तुम कर रहे हो उसका बस एक हिस्सा बैंक में प्रकट हो रहा है। पर तुम्हारे जीवन की जो पूरी कहानी है वो उसी गुणवत्ता की है जिस गुणवत्ता का तुम काम तुम बैंक में कर रहे हो। खुश हो इससे? यहाँ दफ़्तर में भी नाकारा हो तुम, वहाँ घर में भी नाकारा हो तुम, खुश हो’?

मैं ये नहीं कह रहा कि आप ये पूछेंगे तो मोहनलाल का अचानक निर्वाण इत्यादि हो जाएगा और कहेगा, ‘मेरा नाम अब मोक्षलाल है’। हो सकता है थोड़ा बिफर ही खा जाए, बिफर ही जाए। कहते हैं न ‘खुन्दक खा जाए’। ये सब भी हो सकता है। पर आपने उसके भीतर का कुछ होगा जिसे स्पर्श कर लिया होगा। आपने उसे एक ऐसी जगह पर छू लिया होगा जहाँ उसकी पीड़ा का केन्द्र है।

वो जो केन्द्र है वो दवा माँग रहा है, वो समाधान माँग रहा है, कोई देने वाला नहीं है। बिलकुल नाटकीय तरीके से कहूँ तो एक पीड़ित व्यक्ति की चीत्कार है जो दफ़्तर में उसके नाकारेपन के रूप में प्रकट होती है।

अब उसको या तो ये कह लीजिए कि ये व्यक्ति मक्कार है, कामचोर है या अगर एक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से देखें, थोड़ी सहानुभूति के साथ देखें तो कह सकते हैं कि ये व्यक्ति अपनी ही ज़िन्दगी से ऊबा हुआ है, परेशान है। बिलकुल उसे अगर आप एक अफ़सर की तरह देखेंगे तो कहेंगे इसे सज़ा चाहिए, इंसान की तरह देखेंगे तो कहेंगे इसे दवा चाहिए।

दवा के हिस्से के रूप में थोड़ी-बहुत सज़ा आप दे दें तो चलेगा। कई बार सज़ा भी दवा का एक हिस्सा होती है, फिर ठीक है। आपकी मंशा दवा देने की ही है और दवा में सज़ा भी शामिल है, तब तो चलेगा। लेकिन अगर आप सिर्फ़ सज़ा ही देना चाहते हैं तो दे लीजिए सज़ा इससे आपके अहम् को थोड़ी तुष्टि हो जाएगी, आपको लगेगा मैंने बदला ले लिया लेकिन आपको कोई वास्तविक लाभ नहीं होगा।

और जहाँ तक अपनी परेशानी की बात है; सबसे पहले अपनी परेशानी को किनारे रख दीजिए। ये कोई बहुत परेशानी की बात नहीं है कि किसी ने आपको फोन पर फटकार लगा दी या कुछ कर दिया। ये सब कोई (ज़्यादा महत्व न देते हुए) और किसलिए नौकरी करी थी, क्या सोचकर आये थे, सरदार खुश होगा, शाबासी देगा?

ये जो इतनी मोटी तनख्वाह लेते हो बैंक में काम करके ये शाबाशी पाने के लिए मिलती है? भूल जाओ। दूसरों से अगर कोई सार्थक नाता रखना हो तो सबसे पहले अपने दुख-दर्द को भूलना पड़ता है।

YouTube Link: https://youtu.be/hZhK5IR3Oq8

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