दबंगों और बाहुबलियों से घबराते हो? || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी दिल्ली महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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दबंगों और बाहुबलियों से घबराते हो? || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी दिल्ली महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, सबसे पहले तो आचार्य जी आपको कोटि-कोटि धन्यवाद, मेरी और मेरी माताजी की तरफ़ से।

मेरी माताजी सन् २०२० से आपको सुनती आ रही हैं। उनका खोया हुआ हौसला, आत्मविश्वास और मानसिक सम्बलता, जो खो गयी थी, वो आपके वीडियो के माध्यम से वापस आयी है। उन्हीं के द्वारा भेजे गये वीडियो से फिर मुझे आपके बारे में ज्ञान हुआ। तो मैंने आपको कुछ महीनों से सुनना शुरू किया है। आचार्य जी, जैसे हम सबको पता है कि जो हमारे माता-पिता होते हैं, वो सभी बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा का सोचते हैं।

मैं थोड़ा अपने बारे में आपको बताना चाहूँगा। मैं छठी कक्षा में एक छोटे से स्कूल को बदलकर अपने शहर के सबसे टॉप स्कूल में गया। मैं शायद इस बदलाव को समझ नहीं पाया। वहाँ मुझे शिक्षकों से और सहपाठियों से बातचीत करने में या कक्षा में सबके सामने सवाल पूछने में असहजता होती रही। मैं अलग से स्टाफ़ रूम में जाकर शिक्षक से सवाल पूछा करता था; मतलब भीड़ से अलग, अकेले में।

फिर जब मैं आठवीं कक्षा में था, मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया। मैंने ये बात अपने स्कूल में साझा नहीं की, क्योंकि मैं न उनकी सहानुभति चाहता था और न ही चाहता था कि कोई मुझसे अलग या विशेष व्यवहार करें कि जैसे कि ये तो कुछ अलग सा है।

मेरी माता जी के अनुरोध करने पर स्कूल वालों ने मेरी काउंसलिंग (परामर्श) शुरू की। तो जब काउंसलर (सलाहकार) आता था, वो मुझे पढ़ाई के बीच में ही कक्षा से बुला लिया करता था। मैं जब कक्षा के बीच से उठकर जाता था तो सब लोग मुझे ऐसे देखते थे कि जैसे मैंने कोई अपराध किया हो। जिससे मैं अपनेआप को एक अपराधी समझने लगा कि मैं ही क्यों कक्षा के बीच से उठकर जाता हूँ।

फिर नौवीं कक्षा में मैंने अपना स्कूल बदल लिया। और मुझे आज भी याद है कि जब मैं स्कूल बदल रहा था तो जो मेरे सबसे फेवरेट (पसन्दीदा) शिक्षक थे, उनसे मैं आई कॉन्टेक्ट (नज़रें मिलाना) भी नहीं कर पाया, जैसे कि मैं स्कूल बदलकर कोई अपराध कर रहा हूँ। जब मैं वापस छोटे स्कूल में आया तो मेरे मन में था कि अब तो मैं छोटे स्कूल में हूँ, अब तो मेरा कॉन्फिडेंस बूस्ट (आत्मविश्वास में वृद्धि) होगा क्योंकि यहाँ बहुत कम लोग हैं, और बात करने के लिए भी कम लोग हैं। पर ऐसा नहीं हुआ।

अब तो मेरी बीटेक की पढ़ाई पूरी हो गयी है। पर जब मैं प्रथम वर्ष में था, मुझे एहसास हुआ कि ये एक काफ़ी बड़ा कॉलेज है, काफ़ी लोग हैं और यहाँ मेरी अपनी ख़ुद की कोई पहचान नहीं है, तो यहाँ कैसे हो बात पाएगी।

आज के समय में ऐसा होता है कि अगर मैं ख़ुद से उम्र या पद में बड़े व्यक्ति से बात करता हूँ या परिचय देता हूँ, तो मुझे संकोच होता है। परन्तु किसी छोटी उम्र या पद के व्यक्ति से अगर मैं बात करता हूँ, तो ऐसा नहीं होता। ऐसा नहीं है कि उनके लिए मेरे मन में आदर कम है, पर संकोच वहाँ कम होता है और किसी बड़े से बात करने में संकोच ज़्यादा होता है।

तो आचार्य जी, मेरी माता जी कहती हैं कि जैसे हमारा बचपन संघर्षों में बीता, तो शायद कोई बात तुम्हारे मन के कोने में फिर बैठ गयी है और वो तुम्हें आज तक चुभ रही है।

तो मुझे इसमें आपका मार्गदर्शन चाहिए।

आचार्य प्रशांत: इसका बचपन से सम्बन्ध कम है, इसका सम्बन्ध जो हमारा वैल्यू सिस्टम है, हमारी मूल्य व्यवस्था है, उससे ज़्यादा है।

किसी को तुमने बड़ा मान लिया है न! तो भाव ये आता है कि अगर इसने मुझे छोटा या बुरा बोल दिया, तो उस बात को मैं ठुकराऊँगा कैसे, वो बात तो पत्थर की लकीर हो जाएगी, क्योंकि बोलने वाला बड़ा है। चूँकि बोलने वाला बड़ा है, तो फँस जाते हो कि अब ख़तरा खड़ा हो गया। किसी बड़े के सामने अपना परिचय देना है या उससे कोई बात बोलनी है, ख़तरा है न? उसने अगर झिड़क दिया तो? उसने ये कह दिया कि तुम मूर्ख हो, तो? भाई, वो बड़ा है। अगर उसने कह दिया कि मूर्ख हो, तो ये बात बिलकुल प्रमाणित ही हो जाएगी कि मैं मूर्ख हूँ। इस बात से डर जाते हो। छोटे को लेकर आश्वस्ति रहती है कि ये तो छोटा है, ये कुछ बोल-बाल भी देगा तो क्या हो जाता है।

सारा जो झंझट है, वो मूल्यों का है। तुमने किसको इतना मूल्य दे दिया है कि उसको बड़ा मान लिया है; प्रश्न ये है। और जिसको मूल्य दे देते हो, बड़ा बना लेते हो, फिर उससे उम्मीदें भी बैठ जाती हैं। पहली उम्मीद तो यही होती है कि वो ये प्रमाणित करे रहे कि मैं अच्छा आदमी हूँ। और भी दूसरी उम्मीदें होती हैं, जैसे कि उससे कुछ मिल जाएगा — नौकरी मिल जाएगी, सहायता मिल जाएगी, कुछ और मिल जाएगा। तो लालच भी है वहाँ पर।

आसानी से किसी को बड़ा मत मानो। और बड़ा वो नहीं है जो तुम्हारे लालच वग़ैरा की पूर्ति कर सके। बड़प्पन कहते किसको हैं, पहले ये परिभाषा साफ़ करो। आ रही बात समझ में?

इंटरव्यू रूम (साक्षात्कार-कक्ष) में जाते हुए लोग काँपने लग जाते हैं। क्यों काँपने लग जाते हैं? वही जो व्यक्ति वहाँ बैठे हैं, वो सड़क पर मिलें तो आप पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। यहाँ पता है कि बात लालच की है। कोई चीज़ दाँव पर लगी हुई है। आप काँपना शुरू कर देते हो। लालच क्यों रखते हो? डरे क्यों बैठे हो?

कोई बहुत मशहूर आदमी है, उसके सामने चले जाओ, बात करते ज़बान लड़खड़ाती है। अरे, वो मशहूर होगा, बड़ा है क्या? बड़ा होना बिलकुल अलग बात होती है। प्रसिद्धि वग़ैरा तो अधिकांशतया ज़लील काम करके भी मिल जाती है। आप यहाँ पर कोई बिलकुल भद्दी हरकत कर दीजिए। बहुत सम्भव है कि कल आप अख़बारों में आएँ, प्रसिद्ध हो जाएँ। और जो लोग साधारण बैठे हैं, सामान्य, उन्हें प्रसिद्धि नहीं मिलेगी। लेकिन आप यहाँ कुछ बिलकुल ही भद्दा कर दीजिए, आप तुरन्त प्रसिद्ध हो जाएँगे। प्रसिद्धि तो ज़्यादातर भद्दे लोगों को ही मिलती है।

प्रसिद्धि से या किसी के पैसे से इतना क्यों दबते हो? लेकिन दबोगे; दुनिया में जो भी कोई दमदार-रुतबेदार है, उससे दबोगे। इसलिए दबोगे क्योंकि जिससे दबना चाहिए, उससे नहीं दबते हो। उसके सामने पूरी ऐंठ में रहते हो। पूरी ऐंठ है उसके सामने।

मैं बहुत सालों बाद अभी यहीं कैम्पस के अपने एक दोस्त से मिला। अपने जीवन में कुछ कठिनाइयों से गुज़र रहा है। तो मैंने उससे गीता पर बात शुरू करी। तो उसने इस तरह बोलना शुरू करा, ‘नहीं, जब कृष्ण ऐसा कहता है तो कृष्ण समझाना क्या चाह रहा है?’

जहाँ झुकना चाहिए वहाँ झुकने में कितनी तकलीफ़ हो रही है! हार्दिक छोड़ दो, शाब्दिक सम्मान भी नहीं दे पा रहे। और जो कृष्ण के सामने नहीं झुकेगा, फिर उसे दुनिया के जितने बाहुबली होंगे, सबके सामने झुकना पड़ेगा। वही सबकी हालत है।

एक मानसिक प्रयोग करके सोच लीजिए। आप यहाँ बैठे हुए हैं; यहाँ गीता पर, उपनिषदों पर, वेदान्त पर चर्चा चल रही है। इसी क्षण यहाँ पर कोई बड़ा रुतबेदार आदमी आ जाए, कोई बहुत बड़ा राजनेता। ईमानदारी से अपनेआप से पूछिएगा — मानसिक प्रयोग कर लीजिए — आप भूल जाएँगे; कृष्ण को भूल जाएँगे, उपनिषदों को भूल जाएँगे, मुझको भूल जाएँगे।

यहाँ सामने वो खड़ा हो, आपका सारा ध्यान उसकी ओर चला जाएगा और आप आतुर हो जाएँगे कि उससे कुछ बातचीत हो जाए, कुछ सुनने को मिल जाए, इत्यादि-इत्यादि। हो सकता है सब ऐसा न करें, पर फिर भी, बहुतों के साथ ऐसा ही होगा। होगा कि नहीं होगा? आपके लिए कृष्ण भी बड़े नहीं हैं। यहाँ पर आकर के कोई बड़ा उद्योगपति खड़ा हो जाए, कोई बड़ा नेता खड़ा हो जाए — आपके लिए वो बड़ा है।

‘बड़ा कौन है?’ ये एकदम मूल प्रश्न है न? ‘किसको बड़ा मानना है?’ कह सकते हैं कि इसी प्रश्न से जीवन का एकदम निर्धारण हो जाता है कि तुमने बड़ा मान किसको लिया, और जिसको ही बड़ा मान लोगे, झुकना तो उसके सामने पड़ेगा ही। क्यों इन दुनिया वालों को बड़ा मानते हो? न इनको बड़ा मानो, न इनके सामने झुकना पड़ेगा।

अध्यात्म इसीलिए होता है ताकि दुनिया के सामने झुकना न पड़े। दुनिया में भिखारी बनकर न जियो! आध्यात्मिक आदमी की पहचान यही होती है, वो झुक नहीं सकता। आपको जो करना हो कर लीजिए; आप उसका रुपया-पैसा लूट लीजिए, जो करना है कर लीजिए। बहुत आपको चिढ़ मचे तो उसको जान से मार दीजिए; कोई बात नहीं। झुकेगा वो तब भी नहीं।

आप बात-बात में झुक जाते हो — ‘जी सर, जी सर; ज़रूर सर!’ प्राइवेट हों, सरकारी हों; दफ़्तरों में जाकर देखो न। फर्श बिलकुल साफ़ होते हैं, उन पर लगातार पोछा पड़ा होता है। जितने मातहत कर्मचारी हैं, सब लगातार चाट रहे होते हैं न। और फिर कहते हो कि जीवन में डर बहुत है, क्योंकि जीवन में लालच और स्वार्थ बहुत है।

घरों में भी है। सिर्फ़ इसलिए कि कोई उम्र में बड़ा आ गया है तुरंत — ‘जी ताऊजी!’ ताऊजी किस लायक़ हैं, थोड़ा पहले देख तो लो। मैं नहीं कह रहा हूँ कि ताऊजी को डंडा मारो, लेकिन उन्हें बड़ा क्यों मान लिया है?

उम्र तो अपनेआप बढ़ जाती है। उम्र के बढ़ने से कोई बड़ा हो जाता है क्या? उसमें कोई उपलब्धि है? तुम साठ साल सोते भी रहो या साठ साल नशे में पड़े रहो बेहोश, तो भी साठ साल के हो जाओगे। उम्र तो बढ़ ही जाएगी। तो किसी की उम्र हो गयी है साठ की तो सम्माननीय हो गया? कैसे? ऐसे तो बेचारे आचार्य शंकर, स्वामी विवेकानन्द होने ही नहीं पाए कभी साठ के। बेचारों का तो कोई सम्मान ही नहीं बचा!

हम जानते ही नहीं हैं कि कौन बड़ा है! किसी की उम्र बड़ी हो जाए तो वो बड़ा हो गया, किसी का पैसा बड़ा हो गया तो वो बड़ा हो गया, किसी की सत्ता बड़ी हो गयी, वो बड़ा हो गया! किसी की प्रसिद्धि बड़ी हो गयी, वो बड़ा हो गया। पूछो तो — ‘किसको बोलूँ बड़ा?’

डरो, ज़रूर डरो; पर जो सचमुच बड़ा है, सिर्फ़ उससे डरो। और डरो ये कि जो सचमुच बड़ा है, कहीं मैं इतना छोटा न रह जाऊँ कि उसको पा ही न पाऊँ — ये डर होना चाहिए। ज़िन्दगी में ये एक डर बैठा लो, बाक़ी सारे डर छूमन्तर हो जाएँगे। जो सचमुच बड़ा है कहीं उसको पाने से चूक न जाऊँ, ये डर होना चाहिए बस। जो सचमुच बड़ा है, कहीं उससे दूर न रह जाऊँ — इस डर में जियो। इस डर में जियोगे तो संसार के सामने पूरे निडर हो जाओगे।

जिन भी लोगों को डर इत्यादि की या हिचक की यहाँ समस्या है, उन्हें कह रहा हूँ — एक डर पकड़ो, बाक़ी सब डर हट जाएँगे। किसी का ‘पद' बड़ा है, ठीक है; वो ‘बन्दा' नहीं बड़ा हो गया। हाँ, आप उससे नीचे के पद पर हो, तो ऊपर के पद से बात करने के, व्यवहार करने के कुछ तौर-तरीक़े होते हैं, उनका पालन कर लेंगे औपचारिकतावश। क्यों कर लेंगे पालन? औपचारिकतावश; ठीक है! लेकिन दिल से नहीं झुक जाएँगे। हें-हें-हें-हें! (झूठी हँसी का अभिनय करते हुए) फौनिंग-क्रॉलिंग-सायकोफेंट् (ख़ुशामद करते, रेंगनेवाले चापलूस)! हम दिल से ही झुक जाते हैं, मन से ही छोटे हो जाते हैं।

हम स्वार्थ के भक्त हैं तो जो हमारे स्वार्थों की थोड़ी बहुत भी पूर्ति कर सकता है, वो हमारा भगवान हो जाता है। अब कृष्ण के लिए क्या जगह बची?

आ रही बात समझ में?

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=bUGTCHY-Oe4

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