दाएँ हाथ से दो तो बाएँ को पता ना चले || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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दाएँ हाथ से दो तो बाएँ को पता ना चले || आचार्य प्रशांत (2013)

आचार्य प्रशांत: मैत्री को अगर समझना हो तो इस प्रकरण को ठीक-ठीक देख लें।

सुदामा माँगता नहीं, कृष्ण पूछ कर देते नहीं, जता कर देते नहीं। और दोनों ओर से मैत्री का इससे प्रगाढ़ उदाहरण नहीं मिल सकता। एक है जो कह रहा है कि "मुझे माँगना ही नहीं!" और दूसरा कह रहा है कि "मुझे जताना ही नहीं।" और इसमें कोई किसी पर एहसान नहीं कर रहा। कोई न छोटा है, न बड़ा है। एक कह रहा है, “मुझे माँगना ही नहीं”, और दूसरा कह रहा है, “मुझे जताना ही नहीं।”

और हमारी दोस्ती कैसी होती है?

प्र: दें न दें, जता देते हैं।

आचार्य: दे भी कई बार हम देते हैं, देने से भी हम पीछे नहीं हटते। ऐसा नहीं है कि हम देते नहीं। दोस्तों को कई बार देते भी हैं, पर जताने से नहीं चूकते। शब्दों से ना भी जताएँ तो मन में तो यह भाव रहता ही है कि दिया।

यहाँ कृष्ण ने, जितना सुदामा अपेक्षा कर सकता था, उससे कई गुना दे दिया और ज़िक्र तक नहीं किया। जितना सुदामा की अपेक्षा हो सकती थी उससे कई गुना, और ज़िक्र तक नहीं किया। और सुदामा कैसा? कि भूखों मर रहा था पर मुँह खोलकर कुछ माँगा नहीं। उसके लिए इतना ही बहुत था कि मित्र ने प्रेम से गले लगा लिया। उसके लिए इतना ही काफ़ी था। तो यह मैत्री के दो पहलू हैं। दोनों एक ही चीज़ें है, पर दो दिशाएँ हैं मैत्री को देखने की।

पहली, बिना माँगे उसमें सब कुछ मिल जाता है। यह सुदामा की दिशा है। पहली, यदि मैत्री सच्ची है, और सच्ची मैत्री और प्रेम में कोई विशेष अंतर नहीं है। अगर सच्ची है, तो उसमें बिना माँगे मिलेगा। माँग-माँग कर अगर कुछ मिल रहा है, तो उसमें कुछ है नहीं।

अगर मैत्री सच्ची है तो उसमें बिना माँगे मिलेगा।

आपकी कल्पना में जो कुछ है, उससे अलग कुछ मिलेगा। आपने जो उम्मीद बाँधी है, उसके अनुरूप नहीं मिलेगा। उससे हटकर कुछ मिलेगा। यह सुदामा की दिशा है - मित्रता की, या प्रेम की।

और कृष्ण की क्या दिशा है? वो निर्बंध रूप से देगी। एक क्षण को सोचेगी नहीं कि कितना देना है। नाप-तोल कर देने का हिसाब नहीं होगा। जितना दे सकती है देगी – “ले और ले, और ले। तूने तो इतना ही सोचा होगा कि इतना मिल जाए कि घर में छप्पर डलवा लूँ। ले! तेरे लिए एक आलीशान कोठी ही खड़ी कर दी।”

और गिनना नहीं है कि कभी सुदामा लौटाएगा या एहसान मानेगा। सुदामा वापस आएगा भी या नहीं, इसका भी कोई पता नहीं है। और ज़िक्र आता नहीं है। कृष्ण के जीवन में उसके बाद सुदामा का फिर कोई ज़िक्र नहीं आता।

बड़ा मज़ेदार है कृष्ण का जीवन। जब किसी से सम्बंधित होते हैं, तो ऐसे जैसे उसके अलावा कोई है ही नहीं।

जब गोपी के साथ हैं, तो गोपियों के अतिरिक्त कृष्ण के लिए कोई नहीं है। माँ के साथ हैं तो माँ के अलावा दुनिया खाली। बस माँ हैं, बस माँ। राधा, तो बस राधा। जब अर्जुन के साथ गीता में हैं, तो मजाल है कि कोई बीच में... और युद्ध का माहौल है, इधर-उधर से हज़ार व्यवधान रहे होंगे। पर जब अर्जुन के साथ हैं, तो बस अर्जुन के साथ हैं। बीच में इधर-उधर कुछ नहीं। और जब सुदामा के साथ हैं, तो बस सुदामा। उसके बाद सुदामा का कोई अता-पता नहीं। कहाँ गया? कौन? कुछ नहीं पता।

जहाँ पर यह तय करके दिया जाए कि इतना देना है, वो देना पूरा-पूरा मन का खेल है। ठीक है?

यह बात बिलकुल ठीक है कि जब भी आप दोगे तो उसकी एक संख्या तो होगी ही। ‘निर्बंध’ का मतलब यह नहीं है कि आप असीमित दे सकते हो। क्योंकि आपकी देने की क्षमता ही नहीं है असीमित, तो आप कैसे दे दोगे असीमित?

‘निर्बंध’ का मतलब यह है कि मन बंधा हुआ नहीं है। “अगर ज़रुरत पड़ी तो मेरी जितनी क्षमता है उतना भी दे सकता हूँ। अगर ऐसी स्थिति आ गई। स्थिति होगी तो मैं चूकूँगा नहीं” - निर्बंध का यह अर्थ है। स्थिति अगर आएगी तो मुझे कमज़ोर नहीं पाएगी।

‘निर्बंध’ का यह मतलब नहीं है कि—‘फ़ालतू ही अपने को दिए-दिए फिरूँगा।’ और ‘निर्बंध’ का यह मतलब भी नहीं है कि—‘मैं अपने ऊपर सीमा लगा दूँ कि दस प्रतिशत की सीमा है या दो प्रतिशत की सीमा है।’ यह सब कुछ नहीं।

‘निर्बंध’ का यह भी मतलब है कि—‘मैं इस बात के लिए भी मुक्त हूँ कि मैं कुछ न दूँ।’ ‘निर्बंध’ का यह भी मतलब है कि—‘माँग भी सकता हूँ, देना तो छोड़ दो! मैं माँगने के लिए भी निर्बंध हूँ। मुक्त हूँ।’

प्र: देने के बाद उसकी स्मृति भी न रहे।

आचार्य: हाँ! उसकी स्मृति भी मुझे बंधन में नहीं रख पाएगी। और माँगा, तो फ़िर उसमें मैं एहसान भी नहीं मानूँगा अगर तूने दे दिया। यह बात भी है। मित्रता में अगर किसी से मिल गया तो एहसान भी नहीं मानना होता। अपनी ओर से तो नहीं अपेक्षा करनी होती, मित्रता का एहसान चुकाने का एक ही तरीका होता है।

मित्रता का एहसान ऐसे नहीं चुकाया जाता कि एहसान माना जाए, उसका एहसान चुकाने का एक ही तरीका होता है। क्या? और गाढ़ी मित्रता।

प्रेम अगर व्यापार है तो उसमें लेन-देन एक ही तरीके से किया जा सकता है। कैसे? और प्रेम दो। और, और प्रेम मिलेगा भी।

उसमें और कोई लेन-देन नहीं हो सकता। अगर वो व्यापार है, तो भी। तो किसी ने मुझे बहुत कुछ दिया, दोस्त है मेरा, उससे बहुत कुछ मिला, और मुझे उसका एहसान चुकाना भी है, तो उसका एक ही तरीका है; वो दोस्ती और गहरी हो जाए।

उसमें यह भी हो सकता है कि दोस्ती और गहरी हो गई, तो अब मैं उससे और पाना भी शुरू कर दूँ। यह भी एहसान ही चुक रहा है। बड़ी अजीब-सी बात लगेगी। उससे मुझे कुछ मिला और मेरी दोस्ती का रंग और पक्का हो गया। यह भी हो सकता है कि और मिलने लग जाए।

लेकिन जिस दिन अपेक्षा की कि मिल जाएगा और, उस दिन आप भिखारी हो गए। अब यह दोस्ती में नहीं हो रहा। अब यह कुछ और चल रहा है।

प्र: इसलिए कहते हैं कि दान वो है जब आप एक हाथ से दें, तो दूसरे हाथ को पता भी ना लगे। वो इसलिए क्योंकि सिर बीच में आ जाता है।

आचार्य: हाँ, बहुत बढ़िया। यह सब दान के बारे में बड़ी कुछ अच्छी कहानियाँ हैं। अकबर के नौ रत्नों में से कोई एक थे, जो हर साल अपनी पूरी जायदाद दान में दिया करते थे। तो वो जब देते थे दान, तो सिर झुका कर देते थे लगातार।

उनका यह रहता था कि जिसको दे रहे हैं, उससे आँखें नहीं मिलनी चाहिए। “जिसको दे रहा हूँ, मैं उसको देखूँ भी नहीं”, क्योंकि उनको मन का पता था, “देख भी लूँगा अगर तो मन में यह ख़याल आ जाए शायद कि इसे दिया, इस पर एहसान किया।" तो बिलकुल ही सिर झुकाकर देते थे कि जानूँ भी नहीं कि किसको दिया।

तो इसी तरीके से समुद्रगुप्त राजा हुए हैं। वो और उनकी बहन दोनों साल में एक बार अपना सब कुछ दान कर देते थे। सब कुछ! “ले जाओ”, आख़िर में कपड़े तक दे देते थे, “यह भी ले जाओ।”

देने का भाव जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि अहंकार पलता है अर्जित करने पर, कि—‘मेरे पास कुछ है’। जिसने देना सीख लिया, वो पाएगा कि अहंकार भी दे दिया।

आप जितना भंडार करोगे उतना उस भंडार से लिप्त भी होओगे। जितना आप संचय करोगे उतना ही उस संचित सामग्री से सम्बन्ध भी जोड़ोगे।

जीसस जो बोलते हैं न कि, “यहाँ जो खाली बैठे हैं वो मेरे प्रभु के राज्य में सबसे आगे होंगे”, मामला यही है बिलकुल। यहाँ सबसे पीछे कौन होता है? जिसके पास कुछ नहीं। पर जिसके पास कुछ नहीं, उसके पास फ़िर क्या नहीं?

प्र: अहंकार नहीं।

आचार्य: अहंकार भी नहीं होगा, क्योंकि अहंकार को पलने के लिए कुछ तो चाहिए – या तो वास्तु, या विचार। और विचार बहुदा वस्तुओं से उठते हैं। तो वस्तुओं से मुक्त हो जाओ, यह बड़ा अच्छा है।

समझिएगा बात को।

ध्यान आपको मुक्त करता है विचार से, और दान मुक्त करता है वस्तु से। तो जब ध्यान और दान एक साथ हो जाते हैं तो आप विचार और वस्तु दोनों से मुक्त हो जाते हैं।

ध्यान किससे मुक्त कर देगा?

प्र: विचार से।

आचार्य: और दान किससे मुक्त कर देगा?

प्र: वस्तु से।

आचार्य: यही कारण है कि दुनिया के ज़्यादातर धर्मो में दान की बात ज़रूर की गई है।

प्र: कृष्ण के जीवन में, वस्तुएँ उनके आसपास पूरे जीवन में हैं, पर विचार नहीं हैं।

आचार्य: हाँ, हाँ, विचार नहीं हैं। असल में असल चीज़ तो विचार ही है। जिस चीज़ को छोड़ना हो, वो विचार ही है। वस्तुएँ रही भी आ रही हैं पर उन वस्तुओं से आप असंबंधित हो, तो वस्तुओं में कोई बुराई नहीं।

प्र: इसमें कबीर का एक दोहा भी है-

“बहुत पसारा मत करो, कर थोड़े की आश।

बहुत पसारा जिन किया, वे भी गये निराश।।”

आचार्य: बुद्ध कहते हैं कि जब इकट्ठा हो जाए तो उसको दोनों हाथ उलीचो। वो नाव का रूपक देते हैं। कहते हैं कि जैसे जब नाव में इकट्ठा होने लग जाता है, क्या?

प्र: पानी।

आचार्य: तो उस नाव का क्या होता है?

प्र: डूबने लगती है।

आचार्य: तो कहते हैं कि जितना तुम इकट्ठा कर रहे हो वो तुम्हारी नाव में इकट्ठा हो रहा है! नाव हल्की रखो तभी पार जाओगे। ‘पार जाने’ का अर्थ?

प्र: मुक्त होना।

आचार्य: तो कह रहें है कि नाव से अगर पार जाना है तो उस नाव को हल्का रखो। जैसे ही तुमने इकट्ठा किया, नाव डूब जाएगी। दोनों हाथों से उलीचो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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