क्रिकेट हो या जीवन, जीतने के लिए ही मत खेलो || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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क्रिकेट हो या जीवन, जीतने के लिए ही मत खेलो || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्न: आचार्य जी, मुझे डर रहता है कि मैं क्रिकेट के मैदान में आउट हो जाऊँगा। मन बार-बार यही याद दिलाता है कि – अगर आउट हो गया तो? ऐसा लगता है मैं स्वयं से ही लड़ रहा हूँ। कुछ भी हो, मुझे बिना लड़े खेलना है। और मैं जब बिना डर के खेलता हूँ, तो रन भी बनते हैं।

मैं क्या करूँ? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत जी: जीतने के लिए मत खेलो। ये बात सुनने में अजीब लगेगी क्योंकि खेल का तो उद्देश्य ही जीतना बताया गया है हमें।

तुम खेलो वो सर्वश्रेष्ठ कर सकने के लिए, जो तुम कर सकते हो। और जो सर्वश्रेष्ठ तुम कर सकते हो, वो जीतने से ज़्यादा ऊपर की बात है। जीत उसके सामने छोटी चीज़ है। तुम अपना सर्वश्रेष्ठ करो, उसके बाद तुम जीते तो जीते, अगर हारे भी, तो वो हार एक तल पर जीत से बेहतर होगी।

अगर सिर्फ़ तुम जीतने का उद्देश्य लेकर चल रहे हो, तो तुम्हारे दिमाग पर सामने वाला पक्ष ही हावी रहेगा। तुम यही देखते रहोगे कि दूसरा जैसा है, उससे बेहतर हो जाओ। और दूसरे का कुछ भरोसा नहीं। हो सकता है दूसरा बहुत कमज़ोर हो। बहुत कमज़ोर है दूसरा, उससे जीतकर क्या करोगे? कभी लगे दूसरा बहुत मज़बूत है, पर हो सकता है उसकी मज़बूती बस तुम्हारी दृष्टि में है।

दूसरे से होड़ मत करो, स्वयं से होड़ करो। और फ़िर जो उन्नति होती है, फिर जो खिलाड़ी का खेल चमकता है, उसकी बात दूसरी होती है। फ़िर जीत छोटी चीज़ हो जाती है। उसके बाद मैंने कहा कि – हार में भी जीत होती है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप क्रिकेट के शौकीन रहे हैं। अभी भारत और वेस्ट इंडीज़ के बीच मैच चल रहा है, पहली पारी अभी ख़त्म हुई है। भारतीय बल्लेबाज़ों का एक अलग ही तरीका रहा है खेलने का। आप उसपर कुछ कहना चाहेंगे?

आचार्य जी:

हर व्यक्ति अच्छा होता है। प्रतिद्वंदी और परिस्थियों को बहुत ज़्यादा ख़याल में न लेते हुए, लगातार अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करे। अगर आप कहेंगे कि सामने प्रतिद्वंदी थोड़ा हल्का है, इसीलिए उसके सामने आराम से खेला जा सकता है, अपने आप को बहुत खींचने की, अपने आप को बहुत परेशान करने की, बहुत पसीना बहाने की ज़रुरत नहीं है, तो ये आदत बन जाएगी।

इसीलिए, भले ही आपका मुकाबला सबसे कमज़ोर टीम से क्यों न हो, उसके सामने भी आपको अपने आप को पूरी तरह से चुनौती देते हुए, अपना शत-प्रतिशत ही देना चाहिए।

उत्कृष्टता, जीने का एक तरीका होती है।

आप ये नहीं कह सकते कि आप किन्हीं ख़ास मौकों पर, किन्हीं ख़ास मैचों में एक्सीलेंस (उत्कृष्टता) दर्शाएँगे, और बाकी साधारण, आम अवसरों पर थोड़ा कमज़ोर टीमों के सामने आप औसत दर्जे का खेल दिखाएँगे। औसत दर्जे का खेल दिखाना, आपको लगता है कि आपका चुनाव है। और वो चुनाव आपको पता भी नहीं चलेगा, कब आपकी आदत, आपकी मजबूरी बन जाएगा।

आज आप शायद सोचते हों कि यूँही हल्का खेल गए, कल आपको पता चलेगा कि आप चाहेंगे भी जमकर खेलना, चौड़ा होकर खेलना, तो आपको दिक़्क़तें आ जाएँगी, क्योंकि मन, शरीर, ये सब तो अभ्यास पर चलते हैं।

इसीलिए परिणाम की चिंता न करते हुए, प्रतिपक्षी की चिंता न करते हुए, जीवन के हर मैदान में, खिलाड़ी का धर्म है कि वो लगातार उत्कृष्टता की ही पूजा करे।

चाहे क्रिकेट का मैदान हो, चाहे जीवन का कोई भी क्षेत्र हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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