चोट से अहं ही टूटता है, सत्य नहीं || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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चोट से अहं ही टूटता है, सत्य नहीं || आचार्य प्रशांत (2018)

आचार्य प्रशांत: पहला प्रश्न है श्याम कौर का। अपना परिचय देते हुए लिखा है, 'शरीर का नाम: श्याम कौर।' कहती हैं, 'प्रणाम आचार्य जी, चरण स्पर्श। जिनसे नफ़रत हो‌ गयी, उनका चेहरा देखने से भी क्रोध आता है। वाणी से जो मुझे चोट पहुँचाने की कोशिश करते हैं उनसे टकराव कैसे टालूँ और उन पर करुणा का भाव कैसे आये? कैसे देखूँ कि सब साफ़ हो जाए?'

श्याम, अपने परिचय में तो कह दिया कि श्याम कौर शरीर भर का नाम है। साफ़ भेद कर लिया शरीर में और सत्य में, शरीर में और आत्मा में। ये भेद करके बता ही दिया कि जानती हूँ कि शरीर के तल पर जो कुछ हो रहा है वो आख़िरी नहीं, पूरा नहीं, सच्चा नहीं। ये भेद करके जता ही दिया कि शरीर की हरकतों को बहुत गम्भीरता से लेना कोई होशियारी नहीं।

अब ये बताओ कि जो तुम्हें चोट पहुँचाते हैं, जिनसे कहती हो कि तुम्हें नफ़रत हो गयी है, उनका शरीर तुम्हें चोट पहुँचाता है या उनकी आत्मा? ये हिंसात्मक काम, ये चोट पहुँचाना, ये सब कृत्य किसके हैं? आत्मा के हैं क्या? या कुछ ऐसा है कि कई आत्माएँ होती हैं और किसी की आत्मा शुद्ध होती है और किसी की अशुद्ध, किसी की प्रेमपूर्ण और किसी की हिंसात्मक? ऐसा होता है?

तो जो तुम्हें चोट पहुँचा भी रहा है वो कौन हुआ? चोट देने वाला भी कौन हुआ और चोट खाने वाला भी कौन हुआ? और ये सारी बातें इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि शुरू में ही तुमने बता दिया कि तुम सार-असार का भेद समझती हो। सार-असार का, सत्य-असत्य का भेद अगर समझते हो तो असार को गम्भीरता से तो नहीं लोगे न। असार पर तो बस मुस्कुरा दोगे, अनदेखा कर दोगे, अनसुना करके, उपेक्षा करके आगे बढ़ जाओगे। कौन है चोट पहुँचाने वाला और कौन है चोट खाने वाला? बताओ। दोनों तरफ़ से भूल हो रही है न! जो चोट पहुँचा रहा है, उधर से भी आत्मा तो नहीं आ रही चोट पहुँचाने और जो चोट खा रहा है, उसकी भी आत्मा तो नहीं चोट खा रही। तो चोट देने वाला कौन है?

श्रोता: शरीर।

आचार्य: शरीर है। शरीर तो खिलौना है, यन्त्र है। चोट देने में किसकी रुचि रहती है? आत्मा की?

श्रोता: नहीं।

आचार्य: किसकी?

श्रोता१: शरीर की ही।

श्रोता२: अहम् की।

आचार्य: अहम् की। जो डरा हुआ होता है वो दूसरे को चोट पहुँचाना चाहता है। जहाँ डर है वहाँ बुद्धि को लकवा मार जाता है। वहाँ कुछ समझ में नहीं आता कि हित कहाँ है, अहित कहाँ है। जहाँ डर है वहाँ सारा संसार दुश्मन जैसा लगता है, है न?

आत्मा तो डरती नहीं क्योंकि उसका कुछ अहित हो नहीं सकता। है कुछ ऐसा — जानने वाले जानते हैं और आप भी जानती हो — जो पूर्ण है और जिसकी पूर्णता में कोई कमी आ ही नहीं सकती। उसकी तो कोई रुचि ही नहीं किसी को नीचा दिखाने में, किसी को ऊँचा उठाने में, उसकी तो कुछ करने में कोई रुचि नहीं। वो तो अपने में ही निमग्न है। है न?

किसने दी चोट? तन-मन को संचालित करने वाली अहन्ता ने। बात इतनी सी होती तो हम कहते, 'कोई बात नहीं।' अब ये बताओ, खायी किसने चोट? यहाँ तो लिख दिया कि शरीर का नाम 'श्याम कौर', आत्मा ने चोट खायी क्या? खायी किसने चोट? अरे! ये तो गड़बड़ हो गयी। अहंकार ही चोट दे रहा है, अहंकार ही चोट खा रहा है, अहंकार के अलावा किसी को चोट लगती नहीं। कभी घायल आत्मा देखी है कि डॉक्टर के क्लिनिक के सामने खड़ी हो लंगड़ाती कि चोट लग गयी है, दवाई बाँध दो, ऐसा देखा है कभी?

चोटिल कौन होता है सदा?

श्रोतागण: शरीर।

आचार्य: और शरीर के चोटिल होने से भी दुख नहीं आता है। अनिवार्य नहीं है कि शरीर पर चोट लगी हो तो दुख छा जाए, दुख तो आता है अहंकार के चोटिल होने से। अन्यथा बहुत सम्भव है कि शरीर पर चोट लगी हो, आपका आनन्द-उत्सव चल रहा हो और ऐसा बहुत हुआ भी है। दुख तो तभी आता है जब उस पर चोट लगती है जो बेचारा यूँही कमज़ोर है।

ये क्या हो रहा है? चोट देने वाला भी झूठा, चोट खाने वाला भी झूठा, पूरा खेल ही झूठा चल रहा है। आप पूछती हैं कि समाधान बताइए। समाधान क्या बताऊँ, समस्या में दम हो तो समाधान किया जाए। ये तो समस्या ही कुछ व्यर्थ है। शायद सारी समस्या ही यही है कि वो बने बैठे हो जो घाव में ही जीता है।

आदमी की बड़ी मज़बूरी है। वो कहता है, 'हम चोटिल रहेंगे पर कम-से-कम रहेंगे तो, हम चोटिल रहेंगे पर कम-से-कम रहेंगे तो। अगर शान्त हो गये और स्वस्थ हो गये तो ऐसा लगता है कि हम रहे ही नहीं, मिट ही गये।' तो आदमी दोनों हाथ खड़े कर देता है, आदमी कहता है, 'देखो भाई, हमें घायल और चोटिल रहना स्वीकार है, शान्त होना स्वीकार नहीं है। चोट लगी हुई है जब तक तब तक अपने वजूद का एहसास होता है, हम कुछ हैं।'

असल में एहसास और चोट एकदम साथ-साथ चलते हैं। आपके किसी अंग पर चोट लग जाए उस अंग का एहसास सघन हो जाएगा, हो जाएगा न? कोई दाँत अभी दुखने लगे, देखो उसका एहसास कैसे बढ़ जाता है, बढ़ जाता है न? चोट हमें चाहिए ताकि हमारी डरी हुई हस्ती को ये आश्वस्ति मिलती रहे कि हम मिट नहीं गये हैं, हम हैं।

जैसे कोई बेहोश पड़ा हो और तुम उसे झंझोड़ो और वो उठे न, तो तुम अपने भय में उसे एक ज़ोर से थप्पड़ मार दो। तुम थप्पड़ मारो, वो धीरे से आँख खोल दे। तुम कहोगे, 'ठीक किया हमने। ये घायल भले ही हुआ पर इसके घायल होने से ये तो सिद्ध हो गया कि ये अभी है।' इसी तरह से हमें घायल होना बहुत पसन्द है। हम घायल होते हैं तो हमें लगता है कि हम हैं। घायल न हों तो पता ही नहीं चलता कि हैं कि नहीं हैं।

तुमे जगे हो और कराह रहे हो, तुम अपनी ही नज़र में कितने महत्वपूर्ण हो जाते हो न! हो जाते हो न? और तुम सो ही गये, जो सो गया वो अपनी नज़रों में खो गया, सारा महत्व गया। सोते हुए को अपनी हस्ती का भी कुछ पता होता है क्या? स्वस्थ आदमी, आनन्दित आदमी, लीन आदमी को अपना कुछ पता नहीं होता। वो खोया हुआ होता है। इस खोने में बड़ा आनन्द है पर इस खोने के लिए निर्भयता की ज़रूरत होती है, सरलता की ज़रूरत होती है।

जिनका पानी से परिचय होता है, देखिए उन्हें गोता मारना कितना अच्छा लगता है। वो पानी में डूब जाते हैं। कुछ-कुछ देर तक तो नज़र ही नहीं आते। और खड़ा है कोई जिसका पानी से परिचय नहीं कुछ, उसके लिए ख़ौफ़नाक है, दुस्वप्न है पानी में डूबना। यही हालत हर इंसान की है। जो डूबे हैं उनके आनन्द का अतिरेक मत पूछो और जो दूर खड़े हैं उनका भय मत पूछो।

चोट दुर्घटना नहीं है, चोट हमारी सोची-समझी साज़िश है अपने ही खिलाफ़। चोट हमें संयोगवश नहीं लग जाती, हमें चोट चाहिए।

अस्तित्व उतारू नहीं है कि हमारे साथ कुछ बुरा करेगा, हम उतारू हैं कि कुछ बुरा हो। समझो। अहंकार सदा इस भाव में जीता है कि उसमें कुछ खोट ज़रूर है और जिसको पता होता है कि उसमें खोट है, उसके लिए परम आवश्यक हो जाता है कि वो अपनेआप को सही साबित करे। प्रवाह को समझना। अहंकार ने मूल में एक बड़ी भूल तो कर ही रखी है न, क्या? जहाँ झुकना चाहिए वहाँ झुका नहीं। वो अपनी ही अकड़, अपनी ही चौड़ में, अपनी ही अलग शान में चलता है और दिल-ही-दिल वो जानता है कि कर तो ग़लत ही रहा है। और जो जानता हो कि ग़लत कर रहा हो, उसको बड़ी ज़रूरत पड़ती है अपनेआप को सही साबित करने की।

और अगर आपको अपने आपको सही साबित करना है तो ज़माने को ग़लत साबित करना होगा क्योंकि हम तो तुलनात्मक रूप से चलते हैं, हम तो द्वैत में जीते हैं। मैं तो बड़ा तभी हूँ न जब दूसरा छोटा है, नहीं तो साबित कैसे होगा मैं बड़ा हूँ? बड़े तो हम बस अपेक्षाकृत होते हैं न, तुलना में होते हैं न। तो इसी तरीक़े से अगर मैं अच्छा हूँ और सही हूँ तो मेरे लिए आवश्यक है कि मैं साबित करूँ कि?

श्रोतागण: मैं सही हूँ, दूसरा ग़लत है।

आचार्य: दूसरा ग़लत है। समझे? प्रवाह क्या चल रहा है? अहंकार ने एक बड़ी भूल कर दी है, एक बड़ा दुस्साहस कर दिया है, एक बड़ा अपराध और वो अपराध क्या है? असमर्पण। वो अपराध क्या है? अकड़। वो अपराध क्या है? वियोग। और जिसने वो अपराध कर दिया होता है वो जानता होता है कि वो अपराधी है। और चोर की दाढ़ी में तिनका! अपराधी के लिए बहुत आवश्यक हो जाता है कि वो अपनेआप को पाक-साफ़ साबित करके रखे, वो खूब बता कर रखे कि देखिए हम तो अच्छे ही हैं, हम कुछ ग़लत नहीं हैं, हमने कोई भूल नहीं की, हमने कोई पाप-अपराध नहीं किया।

और अगर मुझे ये साबित करना है कि मैंने कोई पाप-अपराध नहीं किया तो मुझे ये लगातार साबित करते रहना होगा कि किसी और ने बहुत अपराध किया है। मैं अगर साफ़ हूँ तो दूसरे को गन्दा साबित करना पड़ेगा। तभी तो तुलनात्मक रूप से मैं साफ़ प्रतीत होऊँगा। तो अहंकार लगातार क्या साबित करने की कोशिश में रहेगा? ‘मैं भला तू बुरा, मैं भला तू बुरा। अगर मैं भला हूँ और तू बुरा है तो ज़रूर तू बुरे काम भी कर रहा होगा।’ अब ये कैसे साबित किया जाए कि दूसरा बुरे काम कर रहा है?

‘अरे! देखो न, मेरे घाव लगा है और ये दूसरे ने दिया।’ मुझे तुझे बुरा साबित करना है, मैं कैसे साबित करूँ? ‘अरे! ये देखो न, यहाँ ख़ून बह रहा है‌।’ किसने मारा? ‘तूने मारा। और ये देखो ये उसने मारा। और यहाँ चोट लगी है, ये इसने मारा।’

और ये जिन्होंने मारा ज़रूरी नहीं है कि वो इंसान हों, वो परिस्थितियाँ भी हो सकती हैं। ‘मैं क्या करूँ? मेरा तो अतीत ऐसा है, मेरा तो घर-परिवार ऐसा है, आर्थिक पृष्ठभूमि ऐसी है, शिक्षा-दीक्षा ऐसी है कि मेरे कलेजे में बड़ी चोट लगी हुई है। और साहब, हम तो इतने सरल और निष्पाप हैं कि जिधर निकलते हैं, हमें कोई-न-कोई मार ही देता है। हम जैसे सरल और भोले लोगों की तो ज़माने में बड़ी दुर्गति है और हमारी सरलता का प्रमाण क्या है? ये देखिए न इतने सारे हमें चोट लगी हुई है, घाव है।

मुझे तो शक होता है कि ये घाव दूसरों ने दिये भी हैं या नहीं? ये शक तुम भी करो अपने ऊपर — ये घाव तुम्हें वास्तव में कोई और दे रहा है या तुम ख़ुद अपनेआप को घाव दे रहे हो ताकि तुम नैतिक रूप से श्रेष्ठतर अनुभव कर सको? ताकि तुम इन घावों का प्रदर्शन करके अपनेआप को बेहतर, सही, सरल, भोला, श्रेष्ठ साबित कर सको? ‘देखो न, मुझे चोट लगी है, उसने चोट दी। मुझे चोट लगी है!’

ये अजीब बात है! स्वस्थ आदमी को अगर स्थितियाँ और संयोग और संसार चोट दे भी देते हैं तो वो उन चोटों से अछूता रहता है‌। ऐसा नहीं कि चोट लगती नहीं पर चोट वहीं लगती है जहाँ चोट लग सकती है, कहाँ लग सकती है चोट? तन में, मन में चोट लग जाती है। उसके स्वास्थ्य में कोई चोट नहीं लगती। वो जहाँ बैठा है वहाँ खरोच तक नहीं आती। ये बात हुई स्वस्थ आदमी की। उसको तुम चोट दे भी दो तो उसे चोट लगती नहीं।

और फिर आता है वो आदमी जो चोट का भोजन करता है, जो चोट का सेवन करता है, जो चोट की ही ख़ुराक पर जीता है। उसको तुम चोट नहीं भी दो तो उसकी काया में हर जगह घाव है। मिले होगे तुम ऐसे लोगों से, उनकी कहानियों पर अगर तुम विश्वास करो तो इस पूरे अस्तित्व का बस एक ही ध्येय है — उन सज्जन को सताना।

‘साहब, हम क्या बताये, रिक्शे वाले को बीस रुपये दिये, वो भी हमारे दो रुपये लेकर भाग गया। अट्ठारह में बात तय हुई थी, दो लौटाना था, बीस का नोट दिया, वो लेकर चला गया। पर कोई बात नहीं, जा माफ़ किया तुझे!’ ये बताने में रस कितना है, समझते हो? तुमने दो तरफ़ा बाण मारा, पहली बात तो तुमने साबित कर दिया कि वो रिक्शा वाला कितना ही निकृष्ट था और साथ-ही-साथ तुमने अपनी दरियादिली भी ज़ाहिर कर दी। ‘हमें देखिए वो हमारे पैसे लेकर भाग गया, हमने उसे माफ़ किया।’ ये तुमने माफ़ी दी है? उस दो रुपये से तुमने कितना बड़ा अहंकार ख़रीद लिया है! तुम तो अपनी नज़र में बहुत बड़े व्यापारी हो। दो रुपया ख़र्च कर रहे हो और इतना सारा अहंकार घर ले आ रहे हो।

‘हमने तो जिसका किया है भला ही किया है, हम उनमें से हैं साहब।’ ऐसी वाणी किसी की सुनना तो समझ लेना कि यहाँ चाल गहरी है। ‘हमारा किसी को सताने में कोई यक़ीन नहीं, हम तो देते ही रहते हैं। ये अलग बात है कि दुनिया बड़ा छल करती है हमारे साथ। हमने अपने पड़ोसियों तक को पढ़ाया-लिखाया, बेटे-बच्चों की बात तो दूर! भाइयों को, भांजों को, भतीजों को, हम तो वो हैं जिसने अपने बाप-दादा तक को पढ़ाया-लिखाया। लेकिन वाह री कपटी दुनिया! क्या सिला दिया हमको!’ मिले हो ऐसे लोगों से?

‘लेकिन कोई बात नहीं बेटा, हमें तुमसे कुछ नहीं चाहिए। तुम खुश रहो।’ इनसे सावधान रहना, ये ख़तरनाक हैं। जो आदमी बार-बार घोषणा करे कि उसे यहाँ लगी चोट और वहाँ लगी चोट, उससे सावधान रहना, उसका व्यापार ही है चोट लेना और चोट देना। वो अहंकार में लेन-देन करता है। ‘तुम मुझे चोट दो, मैं तुम्हें चोट दूँगा, दोनों के लिए अच्छा।’

जो मुँह लटकाकर ही घूमता हो, उससे सतर्क़ रहना। एक बात बताओ, जिसको पूरे अस्तित्व से शिकायत है, जिसको परमात्मा तक से शिकायत है, वो तुमको छोड़ देगा? तुमसे नहीं शिकायत रखेगा? जिसको ज़िन्दगी से ही शिकायत है, ‘हम तो आसमान के तारे थे, बस हमें कोई क़द्रदान नहीं मिला। साहब, हीरे की परख तो जौहरी ही जानता है। आवारा हूँ, आवारा हूँ, या ग़र्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ। हूँ तो मैं आसमान का तारा, ज़रा ग़र्दिश में चल रहा हूँ।’

जिसको जीवन मात्र से विरोध है, जिसको जीवन मात्र से शिकायत है, वो तुम्हारे प्रति सद्भावना से भरा हुआ होगा क्या? वो तो जिसको पाएगा उसका ही उपयोग करेगा। और अब तुम थोड़े भौंचक्के रह जाओगे जब मैं पूछूँगा कि बताओ वो जिसको भी पाएगा उसका उपयोग किसलिए करेगा। उसका वो उपयोग करेगा चोट खाने के लिए‌।

तुम कहोगे, 'ये अजीब बात! उसको जो भी मिलेगा, उसका वो ये उपयोग करेगा कि आओ, मुझे चोट दो?' हाँ, यही उपयोग करेगा, क्योंकि इस आदमी को अपनी जीवन कथा में नये-नये अध्याय जोड़ने हैं और हर अध्याय का लब्बोलुबाब एक ही होता है — एट् टू, ब्रूटे? तू भी चोट दे गया मुझे?

एक के बाद एक कहानियाँ, कभी प्रेम कहानी, कभी कुछ, लेकिन अन्त सबका एक। ये इतने सरल और भोले थे कि दुनियावाले फिर इनको चोट और धोखा देकर भाग गये। ‘सबने धोखा दिया, तू भी धोखा दे गयी! आज बयालीसवीं बार दिल टूटा है हमारा।’ ये तुम्हारा उपयोग करेंगे। तुम इनकी भी कहानी के एक पात्र बन जाओगे। और ये तुम्हारा उपयोग इसी रूप में करेंगे कि इस आदमी ने भी मेरा दिल तोड़ दिया, मुझे चोट देकर भाग गया। ये तुम्हें भी निकृष्ट, कठोर, हृदयहीन साबित कर देंगे, ‘तुम भी ऐसे ही निकले दोस्त!’ समझ रहे हो?

उदासी में बड़ा गहन अहंकार छुपा होता है। शिकायतें तुम किसी आदमी के ख़िलाफ़ नहीं करते, शिकायतें तुम परमात्मा के ही ख़िलाफ़ करते हो, शिकायतें तुम जीवन के ही ख़िलाफ़ करते हो। और अहंकार को अपना वजूद अगर क़ायम रखना है तो बहुत आवश्यक है कि वो शिकायत दर शिकायत करता चले, 'ये भी बुरा, वो भी बुरा, सब ग़लत, सब ग़लत, सब ग़लत, बस हम सही। और मैं बेचारा तो ऐसे जीता हूँ जैसे बत्तीस दाँतों के बीच ज़बान। कभी कोई काट सकता है, कभी कोई काट सकता है, बस फिर भी मैं जिये जा रहा हूँ। जैसे लंका में विभीषण, सब राक्षस-ही-राक्षस हैं, अकेला मैं हूँ जो राम नाम लेता है। बड़ी बुरी है दुनिया!’

जिन्हें दुनिया बुरी लगती हो वो दुनिया के बारे में नहीं, अपने बारे में कुछ बता रहे हैं। दुनिया न अच्छी है न बुरी है, तुम जैसे हो वैसी है दुनिया।

तुम्हें अगर हर कोई घातक ही लगता है, नालायक़ या कमीना ही लगता है, तो तुम बताओ तुम कौन हो। मत खाइए चोट! पूछिए अपनेआप से कि कौन है जिसे चोट का स्वाद इतना पसन्द है कि चोट ही खाता रहता है। जैसे कोई हो और वो भोजन में मँगाये — दो चोट तन्दूरी, एक चोट फ्राई, एक चोट मशरूम, एक कढ़ी चोट — उसे चोट-ही-चोट खानी है। उसका पेट ही नहीं भरता बिना चोट खाये। जिस दिन कुछ बुरा न हो उसको लगता है दिन सूना गया, कुछ हुआ ही नहीं! और दो-चार घंटे कुछ बुरा न हो तो फिर वो आयोजित करेगा कि अब कुछ बुरा तो होना चाहिए न, आज उपवास रहेगा नहीं तो। कुछ तो बुरा हो (मुस्कुराते हुए)।

चोटों के भोक्ता मत बनो, चोटों के दृष्टा रहो। चोट मत भोगो, चोट का सेवन मत करो। चोट होती है अस्तित्व में, मैं इनकार नहीं करता, तुम उस चोट के दृष्टा रहो। क्या हुआ? चोट लगी। मत कहो कि 'मुझे' चोट लगी, चोट लगी। ठीक। बार-बार कहोगे मुझे चोट लगी तो इस चोट खाने वाले की भूख बढ़ती जाएगी। समझे?

अब मज़ेदार बात है! अगर आपको लगी ही नहीं तो दी किसने? अगर चोट आपको लगी नहीं तो चोट आपको मारी किसने? किसी ने भी नहीं। ये तो गड़बड़ हो गयी, अब दूसरे को नीचा कैसे ठहराओगे? दूसरा नीचा और बुरा तो तब हुआ न जब मुझे लगी, अगर मुझे लगी ही नहीं तो किसी ने फिर मारी भी नहीं। ये तो गड़बड़ है। ‘तो क्या फिर हम और वो बराबर हो गये! नहीं-नहीं, वो नीचा रहे और बुरा रहे, इसके लिए आवश्यक है कि चोट हमें लगे।'

जिस क्षण चोट तुम्हें लगनी बन्द हो जाएगी, उस क्षण चोट मारने वाला भी विलीन हो जाएगा। फिर सब बदल जाता है, दुनिया ही बदल गयी। न आप 'आप' रहे, न वो 'वो' रहा। कहानी के किरदार ही बदल गये। सबकुछ बदल गया, जैसे कहानी ही बिलकुल नयी और अलग हो गयी।

समर्पण और शिकायत एक साथ नहीं चलते और अहंकार को अगर एक चीज़ से सबसे ज़्यादा डर लगता है तो वो है समर्पण। 'मैं झुकूँगा नहीं। हम तो अपनी ही चलाएँगे, हमारी अपनी अलग, स्वतन्त्र और व्यक्तिगत सत्ता है।' और अगर समर्पण नहीं करना है तो फिर ज़रूरी है कि बार-बार क्या करो? शिकायत, क्योंकि समर्पण और शिकायत एक साथ नहीं चलते।

अब समझ में आ रहा है कि हमारी शिकायतों में इतनी रुचि क्यों होती है? ‘नहीं साहब, आपका दरबार इतना भी न्यायपूर्ण नहीं है कि हम उस दरबार में झुक जाएँ। देखिए न, आपके दरबार में क्या-क्या अन्याय चल रहे हैं? ये जो आपने दुनिया बनायी है, ये ठीक नहीं है, हमें शिकायतें है इस दुनिया से। और चूँकि आपकी बनायी हुई दुनिया ठीक नहीं है इसीलिए आप भी तो ठीक नहीं हैं।’

परमात्मा और उसकी कृति एक है। अगर उसकी कृति में खोट है, ऐसा तुम्हारा दावा है तो तुम वास्तव में किसमें खोट निकाल रहे हो? परमात्मा में। और अगर परमात्मा में खोट है तो फिर हम समर्पण क्यों करें? इसलिए शिकायत ज़रूरी है।

‘दुनिया बनाने वाले, तूने ही ये सब इंसान बनाये न! ये सब इंसान ज़हरीले और कमीने हैं। और तूने इतने घटिया इंसान बनाये हैं तो तू भी बहुत अच्छा तो नहीं हो सकता। और तू अच्छा नहीं है तो फिर हमें हक़ मिल जाता है कि हम समर्पण न करें।' बस यही तो हम चाहते थे, किसी तरह खोट निकाल दो। खोट निकालते ही हमें हक़ मिल जाएगा अपना जाति, वजूद, अपनी व्यक्तिगत हस्ती बनाये रखने का। 'कुछ गड़बड़ ज़रूर है!’

पापियों की माफ़ी है, शिकायतियों की नहीं। समझ रहे हो? क्योंकि पापी में फिर भी एक सरलता है। उसने पाप कर डाला, अब वो खड़ा है कि आये कर्मफल। ये जो शिकायतों से भरा हुआ है ये तो कोई पाप कम-से-कम स्थूल तल पर तो करता भी नहीं। ये क्या करता है? ये सिर्फ़ ताने मारता है, ये सिर्फ़ शिकायतें करता है, ‘नहीं, ये भी नहीं ठीक है। नहीं, वो भी नहीं ठीक है।’

जो ग़लत लग रहा हो उसको जाकर तोड़ दो, तो तुम क्या कहलाओगे? पापी। नहीं, शिकायत करने वाला तोड़-फोड़ भी नहीं करता। वो सिर्फ़ नाक-भौं चढ़ाये बैठा रहता है और कहता रहता है, ‘नहीं, ये भी ग़लत है; नहीं, वो भी ग़लत है।’ तुम्हें इतना ही ग़लत लग रहा है तो जाकर तोड़ आओ न। तोड़ दो तो फिर तुम्हें पता चलेगा कि जिस चीज़ को तुमने तोड़ा, वो ग़लत थी या तुम ग़लत थे। नहीं, ये तोड़ेंगे नहीं क्योंकि इन्हें पता है कि तोड़ने से बात बनेगी नहीं। जो है उसको चलने दो, बस उसको निकृष्ट ठहराओ, बुरा बताओ।

कभी ग्राहक और दुकानदार की मोल-तोल संवाद देखा है? ग्राहक कभी कह रहा होता है कि ये चीज़ बहुत उम्दा है? अब खड़े हुए हैं और ग्राहक बार-बार बोल रहा है, ‘नहीं, ये चीज़ तुम्हारी कुछ ठीक नहीं है।’ चीज़ अगर ठीक नहीं है तो आगे बढ़ो भईया। नहीं, वो आगे नहीं बढ़ेगा, वो खड़ा वहीं रहेगा और बार-बार बोलगा, ‘नहीं, ये चीज़ तुम्हारी ठीक नहीं है।’ ये है शिकायती मन। उसका झूठ पकड़ रहे हो न?

पापी मैं उसको कह रहा हूँ जिसको चीज़ ठीक नहीं लगी, जिसको भ्रम हो गया कि चीज़ ठीक नहीं है, तो वो आगे ही बढ़ गया। उसे ये भ्रम हो गया कि परमात्मा ठीक नहीं है तो वो छोड़कर आगे ही बढ़ गया। उसे भ्रम हो गया कि धर्म ठीक नहीं है तो उसने धर्म को अस्वीकार ही कर दिया। ये पापी हो गया। पर शिकायती आदमी कौन है? जो खड़ा हुआ है ग्राहक की तरह, 'नहीं, ये तुम्हारी चीज़ ठीक नहीं है।' वो बस ये चाह रहा है कि दाम गिरता जाए, दाम गिरता जाए। ये कपट है।

बचना! और बहुत चीज़ें हैं दुनिया में अच्छी खाने के लिए, फल खाओ, सब्ज़ियाँ खाओ, चोट मत खाओ।

प्र२: किसी शिकायती मन को देखकर यह अहंकार उठता है कि इससे अच्छे तो हम हैं। इस भावना से बाहर कैसे आयें?

आचार्य: तुम शिकायतियों के ख़िलाफ़ शिकायत कर रहे हो।

प्र२: हम भी तो वैसे ही हो गये।

आचार्य: वैसे ही हो गये।

प्र२: उस समय पर हमें क्या प्रतिक्रिया करनी चाहिए?

आचार्य: यही देख लेना चाहिए कि मैं भी तो ऐसी ही हो गयी।

प्र२: मन को शान्त रखना चाहिए?

आचार्य: मन शान्त होता है। शान्ति स्वभाव ही है। मन को अशान्त करना नहीं चाहिए। ये मत कहो कि मन को शान्त रखना चाहिए। कुछ करके थोड़े ही मन शान्त होगा? शान्त तो मन रहता ही है, जैसे नीन्द में। तुम कुछ करतूत करते हो तो वो अशान्त होता है, मत करो वो करतूत।

प्र२: बहुत डिफ़िकल्ट (कठिन) है।

आचार्य: और जो कर रहे हो वो आसान है? जैसे कोई अपनेआप को घाव दिये जाए, दिये जाए। उससे कहा जाए, ‘मत दो’, तो कहे, 'घाव न मारना बड़ा मुश्किल है।' और जो घाव मारे जा रहे हो ये आसान है? ये आसान है?

प्र२: नहीं।

आचार्य: फिर? बड़े-से-बड़ा तमगा तो मिला हुआ है तुम्हें, कठिन-से-कठिन काम कर लेने का, तो फिर अब एक ज़रा छोटा और आसान काम भी कर लो।

जब किसी चीज़ की निस्सारता दिख जाती है तो उस पर मुस्कुराना आसान हो जाता है। कोई तुम्हारे सामने बैठ के उपद्रव कर रहा है, अपनी ही हानि कर रहा है, तुम्हें उसकी मूर्खतापूर्ण साज़िश में शामिल थोड़े ही हो जाना है। जब घट रही है घटना, उसी वक़्त समझ जाओ कि ये क्या हो रहा है, तुम घटना से अछूते रहे आओगे, तुम ज़हर से बच जाओगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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