चोट मिले तो आभार || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

8 min
22 reads
चोट मिले तो आभार || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। पिछले शिविर में जब आपसे वार्तालाप हुई थी तब, तब से थोड़ा ज़्यादा पता चला कि आप जो अहम्-अहम् कहते रहते हैं, उसका क्या मतलब है। मतलब वह मैं उससे ही चिपक जाता हूँ और मैं उसको ही केंद्र में रखकर कार्य करता हूँ।

तो ये इसके पहले वाला प्रश्न था, उससे ही एक उदाहरण मुझे याद आ रहा है। अभी कुछ परिस्थिति ऐसी हुई, जहाँ पर मैं बहुत ही उदास हो गया, एकदम डिप्रेस्ड हो गया क्योंकि फिर जब मैंने पीछे जाकर रेट्रोस्पेक्ट (पुनरावलोकन) किया तो अपने ध्यान से देखा, आपसे जो सुना है मैंने कि जो मेरा ऐक्शन (कार्रवाई) था, वो अहम् से था।

इन्कम्प्लीटनेस (अपूर्णता) से मैं यह सारी चीज़ें कर रहा था और वहाँ पर वो व्यक्ति से मैं जो चाह रहा था वह मिला नहीं, तो फिर मैं डिप्रेस्ड हो गया। तो ये तो बातें बाद में पता चलती हैं जब सब काम- धाम ख़त्म हो गया होता है।

पहले तो लग रहा है कि सब सही ही है। तो जैसे आपने बताया कि वो पहले से ही छुपा बैठा है पर संयोगवश कुछ परिस्थिति आयी, तब वो जाकर सामने आया, बट (परन्तु) जब वह स्थिति होती है तब तो वही लगता है कि वो मैं ही हूँ। इसीलिए तो आप उसको अहम् कहते हैं। तो फिर उसका कैसे उपचार करें?

आचार्य प्रशांत: उपचार करने से पहले अनुग्रह करो। अनुग्रह क्या, आभार। उपचार से पहले, आभार। कहो, ‘क्यों? चाह क्या रहे हो?’ जिसको चाह रहे हो, उसको शास्त्रीय तौर पर नाम दिया गया है सच। है न।

हम सब यहाँ बैठे हैं, हम सब क्यों बैठे हैं, इसलिए कि जितने झूठों में हम जी रहे हैं वो और पुख्ता हो जाएँ? हम यहाँ इसलिए बैठे हैं न कि मन का, जीवन का, सच पता चले।

क्यों सच चाहिये हमें, क्योंकि सच ही भरोसे के क़ाबिल होता है। झूठ पर अगर भरोसा कर सकते, झूठ अगर धोखा न देता, झूठ को ही अगर ज़िन्दगी का आधार बना सकते तो हमें ज़रूरत क्या थी सच की।

पर झूठ के साथ बड़ी गड़बड़ है। झूठ के साथ व्यर्थ का दुख है। है न। तो इसलिए हम क्या माँगते हैं, सच माँगते हैं न, सच। अब पकड़ लेना इस बात को।

हम चाह रहे हैं कि हमें सच मिले। अब हम सच की राह में चलते जा रहे हैं, चलते जा रहे हैं, चलते जा रहे हैं, चलते जा रहे हैं।

हमारा अपने बारे में ख़्याल है कि हम बड़े धुरंधर हैं, बड़े होशियार हैं, बड़े होनहार हैं। और बीच में पत्थर आ गया एक। अब जब साधक है तो वह पूरी रोशनी में तो चल नहीं रहा होगा। साधक माने थोड़ा तो अनाड़ी होगा, साधक माने थोड़ा अन्धेरा भी होगा और साधक माने उसके रास्ते में काँटा होगा, पत्थर होगा, कहते हैं न कँटकाकीर्ण पथ। तो पत्थर आ गया।

अब ये साधक महाराज अपने मन में क्या माने बैठे थे, हम कैसे हैं? धुरंधर हैं, होशियार हैं। चाहिए इनको क्या है, सच।

अब चोट लगी, गिर गये। चोट लगी, गिर गये। गिर गये तो इनको लगा कि घुटना टूटा। घुटना पता नहीं टूटा कि नहीं टूटा, लेकिन एक भ्रम तो टूटा, क्या? घुटने के टूटने के दर्द के साथ जो मुँह से निकली आह!

तो ये भ्रम तो टूटा कि हाँ, मैं वाह! वाह! ये भ्रम तो टूटा न, कि हम बड़े मज़बूत हैं, बड़े होशियार हैं और भ्रम माने झूठ। एक झूठ टूटा। क्या टूटा, एक झूठ टूटा। चाह क्या रहे हो?

श्रोतागण: सच।

आचार्य: झूठ टूटा, उपचार करोगे या आभार दोगे?

श्रोतागण: आभार देंगे।

आचार्य: क्योंकि तुम जो अन्ततः चाह रहे थे वो तुमको अभी-अभी तो मिल गया। आख़िर में तुम क्या माँग रहे थे?

श्रोतागण: सच के दर्शन।

आचार्य: और लो सच के दर्शन अभी हो गये, एक झूठ टूट गया। झूठ क्या था, हम बड़े धुरंधर हैं।

जिस अहम् को तुम कह रहे हो, कभी-कभी पकड़ लेते हो, वो अहम् यही तो है, जो जीवन के यथार्थ के सामने चोट खाता है, तिलमिलाता है। अहम् को मिथ्या क्यों कहा गया है, क्योंकि जब भी उसका यथार्थ से सामना होता है, वो ठहर नहीं पाता है।

वो कल्पना में जीता है। वह ज़मीन पर नहीं उतर पाता है। वो ऐसा है जैसे हवा में कोहरा नाच रहा हो। बड़ी आकृतियाँ बन रही हों, पर दम नहीं है कुछ उनमें। हाथ बढ़ाकर छुओ, कुछ हाथ नहीं आएगा।

ज़िन्दगी जब भी दर्द दे, तुम्हारी ओर से आभार उठना चाहिए, किसी ने तुम्हारी आँखों से पर्दा उठा दिया है। ये न कह देना कि दे दी है चोट। ऐसे कहना, ‘दिखा दी मेरी खोट।’ पहले चोट आयी या पहले तुममें खोट बैठी हुई थी, बोलो?

श्रोतागण: खोट।

आचार्य: तो चोट को दोष क्या देनाl खोट तो पहले हममें थी न, नहीं तो चोट हमें लगती क्यों। चोट के ख़िलाफ़ अब बोलो शिकायत करनी है या शुक्रिया?

श्रोतागण: शुक्रिया।

आचार्य: शुक्रिया। यह घटना नहीं घटती तो हमें पता कैसे चलता कि हम कितने पानी में हैं। हाँ, ये घटना नहीं घटती तो हम बड़े मज़े में अपनेआप को ग़लतफ़हमी में रखे रहते कि हम ही बड़े धुरंधर हैं। हम ही बड़े धुरंधर हैं, हम ही बड़े धुरंधर हैं। अच्छा हुआ ये घटना घटी। आँखों पर से पट्टी हटी।

याद रखना ये तुम्हारी नैसर्गिक, प्राकृतिक प्रतिक्रिया नहीं होने वाली, प्राकृतिक प्रतिक्रिया तो यही होगी कि स्सस! अगर ये घटना नहीं घटती तो मैं झूठे ही सही, पर अपने सुख और संतोष में रहा आता न!

इस घटना के — चोट देने वाली — इस घटना के घटने से ठीक पहले तक मेरी मनोस्थिति कैसी थी? हाँ, सब अच्छा है! देखो, मैं बिलकुल बढ़िया! चल रहा है, सब अच्छा है! इस घटना ने आकर के खेल ख़राब कर दिया।

इस घटना के होने के कारण मैं अपनी नज़रों में गिर गया। खोट दिख गयी। नहीं, ये प्राकृतिक प्रतिक्रिया है। प्राकृतिक प्रतिक्रिया कभी मुक्ति की ओर नहीं ले जाती। तुम्हें इस प्रतिक्रिया से अलग होना है।

हर चीज़ जो जीवन में कष्ट दे उसके प्रति अनुगृहीत रहना है।

जीवन के कष्टों का ऐसा ही है। (हँसते हुए) उनकी चाल उल्टी है। बुरा मानोगे, वो तुमसे चिपके रहेंगे और तुम कृतज्ञता जताओगे, कहोगे आइए-आइए, बैठिए, बड़ा एहसान है आपका। आइए, बताइए चाय, शर्बत क्या लेंगे, थोड़ा नमकीन कुछ…। तो कहेंगे ठीक, हम जा रहे हैं।

वो ऐसे मेहमान हैं, जो उनको भगाता है, उससे वो चिपक जाते हैं। कष्टों की बात कर रहे हैं हम। जो कष्टों को भगाता है, उससे चिपक जाते हैं कष्ट और जो कष्टों में आभार मानता है, कष्ट कहते हैं, ‘इसके साथ हमारा अब कोई काम नहीं, इसके साथ हमारा जो काम था वो पूरा हो गया।‘

हम इसके पास आये थे, हम कष्ट हैं। हम इस व्यक्ति के पास आये थे, इसे जीवन की कुछ सीख देने के लिए, इसने वो सीख, सीख ली। अब हमारा इसके साथ कोई काम नहीं, अब हम जा रहे हैं।

अब हम किसके पास जा रहे हैं, किसी ऐसे के पास जिसने अभी सीख पढ़ी नहीं। हम उसके पास जाएँगे, उसे सताएँगे, रुलाएँगे, कोचेंगे।

जितना हम उसको परेशान करेंगे उतना वो प्रार्थना करेगा, ‘अरे! भगवान कष्टों से बचा, कष्टों से बचा!’ और भगवान कहेंगे, ‘पागल! कष्ट के रूप में मैं ही तो आया हूँ।‘

(मुस्कुराकर) तुम भले ही ये कह रहे हो कि कष्टों को दूर करो, भगवान का तुमसे कोई दूर होने का इरादा नहीं, तुम दूर करोगे और पास आएँगे।

बात आ रही है …?

और कोई तरीका है आपके पास यह जानने का कि आपका घड़ा कच्चा है या पक्का, बताइए। बोलिए। जब तक उस पर ज़िन्दगी के धचके न लगें तब तक पता चल सकता है?

दो घड़े हों और दोनों की एक-सी लिपाई-पुताई कर दी गयी हो, कुछ पता लगेगा उनका, कौनसा कच्चा कौनसा पक्का, बोलो।

और कच्चे घड़े के साथ क्या दिक़्क़त है, उसको कितना भी बजाओ उसमें संगीत नहीं उठता। पानी जब भरो तो उसमें और पक्के में ज़्यादा अन्तर नहीं पता चलता।

सिर पर लेकर चलो, सिर पर फूट जाता है (हँसते हुए)। बीच रास्ते में धोखा देता है।

आ रही है बात समझ में?

YouTube Link: https://youtu.be/N_LDdXSqTeE

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles