छोटे लफ़ड़ों में फँसकर बड़ा मौका गँवा दिया || आचार्य प्रशांत, अवधूत गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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छोटे लफ़ड़ों में फँसकर बड़ा मौका गँवा दिया || आचार्य प्रशांत, अवधूत गीता पर (2020)

य: प्राप्य मनुषाम् लोकम् मुक्तिद्वारपावृतम् । गृहेषु खगवत सक्तस्तमारूढ़च्युतम् विद: ।।१.७४।।

यह मनुष्य शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपने घर गृहस्थी में फँसा हुआ है, वह बहुत ऊँचा चढ़कर भी गिर रहा है। शास्त्र की भाषा में ऐसा पुरुष 'आरूढ़च्युत' है।

~ अवधूत गीता, अध्याय १, श्लोक ७४

आचार्य प्रशांत: चौहत्तरवाँ श्लोक है, अवधूत गीता, प्रथम अध्याय।

"यह मनुष्य शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है। यह मनुष्य शरीर, मुक्ति का, खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपने घर-गृहस्थी में ही फँसा हुआ है, वो बहुत ऊँचा चढ़ के गिर रहा है।" बहुत ऊँचा चढ़ के गिर रहा है। ऊँचा चढ़ के माने? मनुष्य का शरीर पाना। इतनी ऊँचाई मिली कि मनुष्य का शरीर पा लिया। और श्लोक कह रहा है कि जो मनुष्य का शरीर है मुक्ति का द्वार है, इतनी ऊँचाई मिली। लेकिन इतनी ऊँचाई मिलने के बाद भी वह ऊपर से नीचे गिर रहा है।

ऊपर से नीचे क्यों गिर रहा है? क्योंकि श्लोक कहता है — ‘क्योंकि कबूतर की तरह अपने घर-गृहस्थी में ही फँसा हुआ है।‘ फिर आगे कहता है श्लोक – ‘शास्त्र की भाषा में ऐसा पुरुष आरुढ़च्युत है।‘ आरुढ़ माने? चढ़ा हुआ। उस वाहन पर चढ़ा हुआ है जो उसको गंतव्य तक, मंज़िल तक पहुँचा सकता है। लेकिन फिर भी वह मंज़िल से दूर है। च्युत; च्युत माने जुदा, दूर, विलग। आरूढ़च्युत। गाड़ी पर तो बैठे हैं लेकिन मंज़िल से दूर हैं। जैसे कि गैराज़ के भीतर बंद हो गाड़ी और उस पर हम बैठे हों। कह रहे हैं कि गाड़ी पर तो बैठे हैं, पर मंज़िल तक काहें नहीं पहुँचती?

गाड़ी पर तो बैठे हो, पर गाड़ी किसके अंदर है? गाड़ी गैराज के अंदर है और गैराज का शटर? बंद है। और चाबी किसके पास है? वो घर-गृहस्थी वालों के पास है। वो कह रहे हैं कि जाओ गाड़ी पर बैठ लिया करो। गाड़ी माने? ये जो संस्था के शिविर लगते हैं, इसमें तुम आकर बैठ जाया करते हो। कहते हो, ‘ठीक है, बढ़िया है। आचार्य जी की मोटर चली रम-पम-पम। जाकर बैठ जाएँगे गाड़ी पर, पहुँचा ही देंगे।‘

ये भूल ही जाते हो कि अपने गैराज़ का शटर तुमने गिरा रखा है और चाबी दे दी है, शटर का ताला लगाकर चाबी दे दी है (घर गृहस्थी वालों को)।

तो श्लोक कह रहा है कि ‘इस मनुष्य शरीर को पाकर भी जो कबूतर की तरह घर-गृहस्थी में ही फँसा हुआ है, वो बहुत ऊँचा चढ़ के भी गिर रहा है। शास्त्र की भाषा में वो आरूढ़च्युत है।‘

प्रश्नकर्ता: मेरा अभी तक का जीवन बहुत ऊँचे चढ़ने की कोशिश में गया है। आपकी सानिध्य में कुछ समय के लिए अपने को इस दौड़ से बाहर निकाल पाता हूँ। कुछ समय बाद स्थिति ज्यों का त्यों पाता हूँ। आप को सुनकर यह तो समझ में आया है कि ज़िन चीज़ों को ऊँचा समझता था, वो तो ऊँची नहीं हैं। कृपा करके सही मायने में ऊँचा चढ़ने और वहाँ से न गिरने में मेरी सहायता करें।

आचार्य: देखो भई, ऊँचा चढ़ने में सहायता कर सकता हूँ। गिरोगे या नहीं गिरोगे, ये आपका निर्णय है, आपका चुनाव है, आपका कर्म है। और मनुष्य की ख़ूबी यह है, मनुष्य की शक्ति यह है और उसका दुर्भाग्य यह है कि भई ये जो कर्म का अधिकार है, उसे छीना नहीं जा सकता। कोई सहायक हो, कोई पथप्रदर्शक, कोई गुरु, कोई ज्ञानी, कर्म तो आपका आपको ही करना पड़ेगा।

बात समझ में आ रही है?

तो आपको ऊँचा उठाया जा सकता है। उस ऊँचाई पर आपको स्थापित रहना है या वहाँ से कहीं और पहुँच जाना है, ये आपकी मर्ज़ी है। चलिए श्लोक के संदर्भ में बात कर लेते हैं। श्लोक कह रहा है कि ऊँचाई पर पहुँच कर वो कबूतर की तरह फिर अपने घोंसले में गिर जाता है।

अब दो तरीक़े हैं, एक तो ये कि ऊँचाई पर पहुँचो और वहाँ से पट्ट से आकर गिरो अपने घोंसले में, वापस नीचे, क्योंकि भई घोंसला प्यारा है। दूसरा तरीक़ा यह है कि घोंसले को ही उठा लो ऊपर। क्यों? क्योंकि घोंसला प्यारा है। ये दोनों ही प्यार के दो तरीक़े हैं। तुम बताओ तुम्हारा प्यार कैसा है? एक प्यार ये होता है कि मुझे ऊपर उठा लिया गया तो मैं वापस जाकर अपने घोंसले में टपक जाऊँगा क्योंकि मुझे अपना घोंसला बहुत प्यारा है। कबूतर है, कबूतरी है, उसके अण्डे बैठे हैं वहाँ पर, तो मुझे वहाँ वापस जाना है।

दूसरा यह है कि ठीक है प्यारा है, अच्छी बात है। प्यारा है तो पूरा घोंसला ही ऊपर काहे नहीं ले आते? खींचो घोंसले को ऊपर। कह रहे हैं कि ये आपने असंभव बात कर दी। ऐसे थोड़े ही होता है?

अच्छा! तुम्हीं बड़े गुणी हो? तुम बड़े होशियार हो? तुम कह रहे हो कि तुम अपनी कबूतरी को ऊपर नहीं ला सकते। और ये सामने जो आचार्य जी बैठे हैं, तुमको ऊपर कैसे ले आए? माने तुम विशेष हो, तुम ख़ास हो। तुम कह रहे हो, तुम्हें ऊपर लाया जा सकता है लेकिन तुम तो अपनी कबूतरी को ही ऊपर नहीं ला सकते। ये बात ईमानदारी की नहीं लग रही न? प्रेम की कमी है, है कि नहीं है?

आपको भी ऊपर खींचने में कितनी मेहनत लगती है, ये आप जानते हैं कि नहीं जानते हैं? जब आप ऊपर खिंच जाते हैं तो आप कहते हैं, ‘हम तो बड़े महान हैं। हमें देखो! हमने चार ग्रंथ पढ़ लिए हैं। हमारी आध्यात्मिक शब्दावली बड़ी समृद्ध हो गई है। यहाँ से आज फिर दो-चार बातें और सीख ली हैं – कर्म, विकर्म, कुकर्म, निष्काम कर्म, निषिद्ध कर्म। घर जाएँगे, बिलकुल फ़ायर करेंगे, धड़-धड़, धड़-धड़, कर्म, कुकर्म, विकर्म। गोलियाँ चल रही हैं। हम तो बड़े देखो, पंडित होकर के आए हैं।‘

ये नहीं समझते कि आपको इतना समझाने में एक पूरी संस्था का ज़ोर लगा हुआ है। आप तो घर में बैठकर वीडियो देख लेते हो। अभी वीडियो अगले ही महीने इसका प्रकाशित हो जाएगा। उसका कुछ होगा इस तरह से शीर्षक 'कर्म, विकर्म, अकर्म।' वैसे एक वीडियो वैसा पहले ही प्रकाशित है।

और फिर उसे आप घर में बैठ कर देखोगे और थोड़ी देर बाद बिलकुल आप जेम्स बॉन्ड बन जाओगे। कहोगे, "ये देखो मैने राज़ पर से पर्दा उठा दिया। मुझे पता चल गया कृष्ण अर्जुन को क्या समझा रहे हैं।" कबूतरी बेचारी कपड़े धो रही है। आप ही के लिए चाय बना रही है। वो नहीं वीडियो देख रही है तो वो अज्ञानी रह जाती है। तो फिर कहते हो, "ये अज्ञानी कबूतरी, मूढ़! ये मुझे घोंसले में पकड़ कर बैठाए हुए है। इसी के मारे तो मेरा और उत्कर्ष नहीं हो रहा है।"

आप भूल जाते हो कि आपके उत्कर्ष के लिए किसी ने कितनी मेहनत करी। वो वीडियो यूँ ही नहीं प्रकाशित हो जाता। बीस जने लगते हैं। बीस जने लगते हैं, तब जाकर के वो वीडियो आप तक पहुँचता है। वो जो लगते हैं लोग, उनमें से दो तो यहीं बैठे हुए हैं। इन्होंने करा हुआ है, ये जानते हैं। मैं चला जाऊँ उसके बाद उनको पकड़ के पूछिएगा कि वीडियो के प्रकाशन में कितने पसीने छूटते हैं।

मेहनत लगी तो आप ऊपर उठे। आप भी मेहनत करें तो आपकी कबूतरी ऊपर उठेगी कि नहीं उठेगी? हमारी मेहनत से आप ऊपर उठे। आपकी मेहनत से आपकी कबूतरी ऊपर क्यों नहीं उठेगी? और आप तो साहब सांसारिक दृष्टि से हमारे कोई नहीं लगते। आप हो कौन? क्षमा करिएगा पर अभी भी यहाँ जो लोग बैठे हैं, उनमें से कइयों के मैं नाम भी नहीं जानता। नाम भी नहीं जानता फिर भी ये रिश्ता है जहाँ हम ईमानदारी से बातें कर सकते हैं। और जहाँ मैं जान का ज़ोर लगाकर कोशिश कर रहा हूँ कि आपको बातें समझ में आएँ, और आप भी अपनापन दर्शाते हुए बैठे हैं, बात को सुन रहे हैं। है न? ये रिश्ता है न?

तो हमारा आपका सांसारिक कोई सम्बन्ध न होते हुए भी देखिए हम एक सत्कार्य साथ में मिल-जुल कर, कर रहे हैं कि नहीं कर रहे हैं? और आपका तो आपकी कबूतरी से बड़ा सघन सांसारिक रिश्ता है। घोंसला ही बनाया है साथ में, बच्चे दिए हैं साथ में। आप उसके लिए मेहनत नहीं कर सकते हैं? नहीं कर सकते? आप कहते हैं कि ‘नहीं, देखिए, आचार्य जी, ऐसा मत बोलिए। कबूतरी बड़ी प्यारी है हमको।‘

हम जानते हैं कबूतरी प्यारी है आपको। और आप प्यार दर्शाते कैसे हैं? आरूढ़च्युत होकर, कि कबूतरी प्यारी है तो ऊपर चढ़कर ऊपर से हम नीचे गिर जाएँगे; बिलकुल जाकर कबूतरी के आँचल में गिरेंगे। और कहेंगे, ‘छोड़ आए हम वो गलियाँ। अब बेकार वहाँ वो आचार्य कभी कृष्ण की, कभी अष्टावक्र की बात करता था। आ गए हम जानेमन!’ और फिर जब घर पर फिर से खटास मचेगी, कप-प्याले टूटेंगे तो दो महीने बाद फिर शिविर में पहुँच जाएँगे, कहेंगे, ‘आचार्य जी, दुनिया बड़ा बवाल है, झंझट है।‘

ये किसको हम बेवकूफ़ बनाते हैं? ख़ुद को ही बनाते हैं न? और कबूतरी माने यही नहीं कि पत्नी है, वो कबूतरी आपका बॉस भी हो सकता है। कोई भी जो आपको नीचे खींच लेता हो, उसका नाम कबूतरी है। वो कबूतरी पैसा भी हो सकता है। जो भी चीज़ आपको नीचे खींच लेती हो आपकी ऊँचाईयों से, उसी का नाम कबूतरी है। ठीक?

जिससे प्रेम हो, ऊपर से नीचे गिरकर उसके पास नहीं पहुँच जाते। उसको नीचे से ऊपर को उठाते हैं, भाई। और ऊपर से अगर यदा-कदा नीचे जाते भी हैं तो इस इरादे के साथ कि नीचे जा रहा हूँ, इसको खींच के ऊपर लेकर आऊँगा, नीचे बस नहीं जाऊँगा।

और ये भावना तो मन में लाइएगा ही नहीं कि आप बड़े क़ाबिल हैं और कबूतरी बिलकुल मूरख। ऐसा कुछ नहीं है। ये तो संयोग की बात है कि आप न जाने क्या खोजते हुए वीडियो पर लड़खड़ा कर गिर गए। खोज तो कुछ और ही रहे होंगे। वो वीडियो सामने आ गया, कहे अच्छा देख लेते हैं। और उस दिन से आपकी दिशा बदल गयी।

कई होते हैं। वो कहते हैं, "आचार्य जी, वो आपके न जो कई विडियो हैं, वो उस तरह के विषयों पर हैं।" मैं कहता हूँ, “मैं क्या करूँ? मैं अपनेआप से तो कुछ बोलता नहीं, जो तुम पूछते हो उसी का जवाब दे देता हूँ। अब तुम बातें ही ऐसी पूछते हो तो कुछ वीडियो हैं उस तरह के भी।“

बोलते हैं, "नहीं-नहीं, ये बहुत अच्छी बात है कि उस तरह के हैं।"

“मतलब क्यों?”

"वो मैं कुछ और खोज रहा था, रात में एक-दो बजे। खोज कुछ और रहा था यूट्यूब पर, आप सामने आ गये। दो बार, चार बार, आठ बार इग्नोर (उपेक्षा) किया। ये दाढ़ी वाला मूड ख़राब करने आ जाता है ग़लत टाइम पर। पर फिर एक दिन सोचा इसको ब्लॉक (अवरुद्ध) ही कर दें। तो ब्लॉक करने के लिए वीडियो पर क्लिक किया, फिर भूल गए ब्लॉक करना। बड़ी दुर्घटना हो गई। अब फँस गये हैं।"

तो आप भी कौनसा इरादतन मेरे पास आए हैं। आपको भी तो परिस्थितियाँ और संयोग ही मेरे पास लाए हैं न? कबूतरी के लिए भी कुछ ऐसी परस्थितियाँ पैदा कर दीजिए। मैं नहीं कह रहा हूँ कि कबूतरी यहीं आ जाए। लेकिन उसे भी चेतना की कुछ ऊँचाईयों का स्पर्श कराइए। ये कर्तव्य है आपका।

प्रेम माने बड़ी ज़िम्मेदारी। बड़ा कर्तव्य निभाना पड़ता है। किसी के जीवन में आपने प्रवेश ले लिया है तो अब तो ज़िम्मेदारी उठानी पड़ेगी न?

समझ में आ रही है बात?

ये लुका-छिपी, भागा-भागी नहीं चलती। ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा। ये माना हमें जाँ से जाना पड़ेगा।‘ अब जान भी जाए लेकिन कबूतरी को तो ऊपर लाना पड़ेगा। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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