छल कपट वाले व्यवसाय में काम करने की मजबूरी || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

11 min
58 reads
छल कपट वाले व्यवसाय में काम करने की मजबूरी || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं जिस व्यवसाय में हूँ, मैं जानता हूँ कि इस व्यवसाय में छलकपट, झूठ बड़ी आम बात है। परंतु ये जानने के बावज़ूद भी जो बेहतर से बेहतर मैं कर पा रहा हूँ वो ये है कि मैं इस काम को पूरी ईमानदारी से कर रहा हूँ।

चालीस वर्षीय उम्र के इस दौर में क्या मैं कोई काम कर नहीं सकता या फिर ये मेरा अतीत है जो मुझे इसी काम को तोड़-मरोड़ कर ठीक से करने पर मजबूर कर रहा है। क्या मुझे इस स्थिति में इसी कार्य को बेहतर से बेहतर तरीके से करते रहना चाहिए? या फिर मूलभूत रूप से रास्ता ही बदल देना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: ये ऐसा-सा है जैसे कि आप मुझसे पूछें कि आचार्य जी, क्या क ख से बड़ा है? इज़ एक्स ग्रेटर दैन वाई? आचार्य जी, बताइए। इज़ एक्स ग्रेटर दैन वाई? मैं कहूँगा मुझे क्या पता? एक्स भी तुम्हारा और वाई भी तुम्हारा—किनका है, भाई एक्स वाई ये? मैं कैसे बता दूँ? अब एक तरफ़ आपका संकल्प है कि नया जीवन चाहिए, ऐसा काम नहीं करना जिसमें छल-कपट करना है। और दूसरी तरफ़ सुविधाएँ हैं, धारणाएँ है, एक आलस है, एक प्रमाद है और संशय है, और भय है।‌

तो एक तरफ़ क है, एक तरफ ख है। इन दोनों में से जो वजनी होगा वो जीत जाएगा। आचार्य जी क्या बताएँगे? हाँ, वो इतना बता सकते हैं कि किसको जीतना चाहिए धर्म की दृष्टि में। मैं ये बिलकुल नहीं बता पाऊँगा कि क बड़ा है या ख? लेकिन मैं ये ज़रूर बता सकता हूँ कि दोनों में से कौन बड़ा होगा तो आप आनंदित रहेंगे? ‘कौन बड़ा है’ वो तो आप जानिए। क्योंकि दोनों किसके हैं? आपके हैं।

एक्स भी आपका है और वाई भी आपका है। मुक्ति का संकल्प भी आपका है और बंधन भी सब जो हैं वो आपके हैं। अब आपकी मुक्ति के संकल्प में कितनी जान है, वो आपको तय करना है। और आपने जो बंधन पकड़ रखे हैं उनसे आपकी कितनी आसक्ति है, वो भी आपको तय करना है।

आपकी मुमुक्षा अगर आपकी आसक्ति से बड़ी होगी तो एक्स जीत गया और अगर आसक्ति मुमुक्षा पर भारी पड़ेगी तो वाई जीत गया। मैं तो इतना ही प्रार्थना कर सकता हूँ कि मुक्ति जीते। जीतेगी या नहीं जीतेगी वो आप जानें। क्योंकि इन मामलों में हमें पूरी छूट होती है। इन मामलों में कोई किसी पर ज़बर्दस्ती नहीं कर सकता।

आप अपनी ज़िंदगी को जिस दिशा और जैसा ले जाना चाहें, हर पल, हर कदम आप जो भी निर्णय करना चाहें वो आपकी स्वेच्छा पर है। कोई आकर के उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता। जिसको आप ईश्वर कहते हैं, वो भी नहीं। लोग बड़े-से-बड़ा पाप कर जाते हैं, कोई उन्हें रोक पाता है?

बिलकुल ऐसा हो सकता है कि आप किसी की हत्या कर दें और फिर उसके बगल में बैठकर के बिरयानी खाएँ। ऐसा थोड़े ही होगा कि आपकी बिरयानी अपनेआप ज़हरीली हो जाएगी! कि हत्यारा बिरयानी खा रहा है! बिरयानी वैसी ही रहेगी जैसी बिरयानी है। कोई रोकने नहीं वाला।

ऐसा नहीं होगा कि आप हत्या करके पकवान खा रहे हैं तो अचानक आपके नीचे की ज़मीन फट जाएगी और आप धरती में समा जाएँगे। नहीं होने वाला। न ऐसा होने वाला है कि अचानक कहीं से कोई दैवीय साँप आएगा और आपको डँस लेगा। कोई साँप नहीं आने वाला डँसने के लिए। न ऐसा ही होगा कि आकाश में बिजली कड़केगी और आपके सिर पर गिरेगी और आपको राख कर देगी। कोई बिजली नहीं गिरने वाली आपके सिर में।

आप बिलकुल ऐसा कर सकते हैं कि लाशें गिरा दें और लाशों के ऊपर नाचें। बिलकुल कर सकते हैं। पर अगर ऐसा करेंगे तो अंजाम भी आप ही भुगतेंगे और भुगतेंगे माने भविष्य में नहीं, जब करेंगे तभी। तब भी नहीं, करने से पहले ही भुगत लेंगे।

तो बहुत सीधा-साधा नियम है जीवन का, अस्तित्व का; जो करना है करो और भुगतो। कोई रोकने वाला नहीं, पूरी छूट है। बोलो क्या करना है? जैसे जीवन कोई सुपर-मार्केट हो, जो उठाना चाहो, उठा लो। जिस चीज़ का भोग-उपभोग करना है, कर लो। जो खाना है, खा लो; कोई तुम्हें रोकने वाला नहीं कि क्या कर रहे हैं। बस बिल बढ़ता रहेगा और बिल दिये बिना आज़ादी नहीं मिलेगी। बिलकुल आज़ादी नहीं मिलेगी।

बिल ठीक उसी वक़्त चढ़ जाता है तुम्हारे ऊपर, जब तुम कोई कर्म करते हो। हाँ, पता आपको बाद में लगे वो अलग बात है। लेकिन आप ये न कहिएगा कि बिल भविष्य की चीज़ है। भविष्य में आपको पता लगता है। चढ़ तो आपके ऊपर तभी जाता है जब आपने कुछ ऐसा करा जो आपने करा। जो भी करा।

तो आपको अगर यही तय करना है कि भाई, जैसी ज़िंदगी चलती रही है और जैसा काम करते रहे हैं। आप कह रहे हैं कि जिस क्षेत्र में आप काम करते हैं उसमें छल-कपट, लूट बिना गुजारा नहीं होता। आपको अगर वैसे ही चलाना है तो चलाइए।

देखिए न, आप अगर उस क्षेत्र से बाहर हो भी जाएँगे तो वो जो भी क्षेत्र है, इंडस्ट्री है, सेक्टर है वो बंद तो नहीं हो जाएगा। वो तो चलेगा ही। इसका क्या अर्थ है? और लोग हैं जो चलाएँगे और जो लोग चला रहे हैं ऐसा तो नहीं होता कि वो घर जाते हैं, तो रात में इंसाफ़ का फरिश्ता आता है और उनकी नाक काट ले जाता है। ऐसा होता है क्या? ऐसा तो कुछ होता नहीं।

ऐसा होता है क्या कि किसी ने ग्राहक को बेवकूफ़ बनाया है, किसी ने रिश्वत खाई तो सुबह सोकर उठा तो उसका अंगूठा गायब था? ऐसा होता है क्या? बल्कि आपको तो यही देखने में आता होगा कि जो लोग घूस खाते हैं उनके बच्चे ज्यादा नरम-नरम, मुलायम-मुलायम, गोरे-चिट्टे हैं। उनके यहाँ विदेशी सप्लीमेंट्स आते हैं, विदेशी सब्ज़ियाँ आती हैं, ‘लो बेटा’।

तो लगता भी होगा कि ये तो सही है; दुनिया को बेवकूफ़ बनाओ, घूस खाओ और घर बिलकुल नरम-नरम, मुलायम पत्नी-बच्चे सब ऐसे जैसे खरगोश। इसी मारे तो ऐसे सेक्टर्स चल रहे हैं न? क्योंकि उसमें सबको लाभ दिखाई देता है और क्या लाभ होते हैं? यही तो लाभ होते हैं।

अगर विधाता का विधान कुछ ऐसा होता कि जो कोई ग़लत काम करेगा उसे तत्काल और बड़ी प्रकट सज़ा मिल जाएगी तो ये दुनिया बुरी तो नहीं होती लेकिन फिर ये दुनिया मुक्त भी नहीं होती क्योंकि विवशता तो विवशता है। भले आपको अच्छा रहने के लिए विवश किया गया हो।

और वो जो बाप है हमारा, वो अच्छाई से ज़्यादा क़ीमत देता है आज़ादी को। वो कहता है बुराई भले हो जाए लेकिन आज़ादी क़ायम रहनी चाहिए। वो कहता है कि तुम्हें आज़ादी है अच्छा रहने की भी और तुम्हें आज़ादी है बुरा रहने की भी। और मैं जब तुम्हें ये आज़ादी दे रहा हूँ कि तुम अच्छे भी हो सकते हो और बुरे भी हो सकते हो, पाप भी कर सकते हो, पुण्य भी कर सकते हो तो बेटा मुझे भली-भाँति पता है कि पाप और पुण्य में तुम निन्यानबे प्रतिशत चुनोगे पाप को ही।

मैं ये जानता हूँ कि तुम्हें जो मैं ये मुक्ति, ये जो आज़ादी, ये छूट दे रहा हूँ तुम करोगे इसका दुरुपयोग ही। लेकिन फिर भी मुक्ति सबसे बड़ी चीज़ है। भले ही तुम उसका दुरुपयोग करो लेकिन मैं तुम्हें मुक्ति से वंचित नहीं करूँगा। क्यों नहीं करूँगा? क्योंकि मेरा नाम ही है परम मुक्त।

परमात्मा का नाम 'शुभता' नहीं है। ये नाम कहीं नहीं सुनोगे पर मुक्ति है उसका नाम। जब वो स्वयं मुक्त है तो वो फिर आपको भी मुक्ति देकर रखता है, छूट देकर रखता है। किस बात की? अच्छा करना चाहो, अच्छा करो और बुरा करना चाहो, बुरा करो।

और पता है उसको कि तुम करोगे बुरा ही। पर कर लो बुरा। मुक्ति की उसने छूट दी है लेकिन साथ ही साथ कर्मफल का डंडा भी तैयार रखा है। छूट पूरी है, जो करना है करो, लेकिन तत्काल डंडा भी पड़ेगा। अब तुम्हें डंडा खाने में रस आता है तो खाओ।

आप कहेंगे, ‘डंडा! अभी थोड़ी देर पहले कह रहे थे कि उनकी तो बीबी, बच्चे सब खरगोश जैसे हैं, अब कह रहे हैं डंडा पड़ता है। डंडा कहाँ पड़ता है?’ जी, ये जो डंडा पड़ता, नहीं दिखाई देता; इसी का नाम अद्वैत में माया है। कि डंडा पड़ रहा है पर दिख नहीं रहा। है, पर जो दिख नहीं रहा। पड़ तो रहा है ये डंडा, बस पता नहीं चल रहा क्योंकि बुद्धि मोटी है, बुद्धि स्थूल है।

तो बस खाल को देख पा रही है कि हम जो घूस खाते हैं, देखो, उससे हमारे घरवालों की खाल कितनी गोरी और मुलायम चल रही है। बुद्धी मोटी है तो मोटी ही—स्थूल चीज़ें ही देख पा रही है। भीतर ही भीतर जो घुन लग गया, भीतर ही भीतर जो नाश हो गया, वो स्थूल दृष्टि देख ही नहीं पा रही। यही माया है।

कर्मफल तो मिला है, खाल को फ़ायदा हुआ होगा। मन मलिन हो गया है, बाल चमक गये होंगे, चरित्र तबाह हो गया है। लेकिन ये जो मोटी आँख है, ये सिर्फ़ क्या देख पाती है? खाल और बाल। इसको समझ में ही नहीं आता कि भीतर बहुत बड़ी तबाही हो गयी, हमने जिस क्षेत्र में पैसे कमाये, जिस तरीक़े से पैसे कमाए उसके कारण।

आपको क्या लगता है? आप अनाप-शनाप पैसे लाकर घर में रखोगे तो उससे घर में शुभता आएगी? कतई नहीं। हाँ, उससे घर में चीज़ें आ जाएँगी, गाड़ियाँ खड़ी हो जाएँगी, नोट आप भर लेना गद्दे के भीतर जहाँ कहीं भी। आपके वॉशरूम में जाया जाएगा तो वहाँ सत्तर तरह के सौंदर्य प्रसाधन रखे होंगे। देशी-विदेशी शैम्पू और कंडीशनर और पचास तरह की चीज़ें रखी होंगी। ये सब आ जाएगा घर में। प्रेम और शांति थोड़े ही आ जाएँगे।

अब ये आपके ऊपर है कि आप विदेशी शैम्पू को ज़्यादा क़ीमत देते हो या प्रेम और शांति को। माया वो है जो आपको आश्वस्त कर देती है कि विदेशी शैम्पू और गद्दे में भरे नोटों की क़ीमत शांति से ज़्यादा है। नहीं तो कोई क्यों करेगा? मुझे बताओ न! घटिया काम कोई क्यों करेगा? इन्हीं सब चीज़ों की ख़ातिर तो करते हो और किसलिए करते हो? कुछ तो हमें मिल रहा है, तभी वहाँ पर टिके हुए हो।

जो मिल रहा है उसकी क़ीमत तो देखो। पूछो अपनेआप से— कितना पा रहा हूँ? क्या गँवा रहा हूँ? पर ये जो नफ़े-नुकसान का हमें सही आँकलन नहीं करने देती, उसी का नाम माया है। वो सीधे-सीधे गणित भी नहीं लगाने देती— 'क्या पाया? क्या खोया?' वो बस यही बताती है कि पाया, पाया, पाया। जो खोया उसको वो छुपा जाती है।

और जब तुम उल्टा चलते हो— तुम कहते हो, 'सही राह चलूँगा, सही काम करूँगा' तो उसमें वो तुम्हें बस ये बताती है, 'क्या खोया? क्या खोया?' वहाँ क्या पा रहे हो, इसको वो पूरा छुपा जाती है। उसी का नाम माया है। माया झूठ का नाम नहीं है, माया आधे सच का नाम है।

सच की राह चलो तो नुक़सान तो होते ही हैं। माया का मतलब है वो तुम्हें सिर्फ़ नुकसान देखने देगी, लाभ नहीं देखने देगी। और झूठ की राह चलो तो फ़ायदे भी होते हैं। माया वो है जो तुम्हें उन फ़ायदों को तो बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शित करेगी और जो नुकसान हो रहे हैं उनको पूरा दबा जाएगी।

तो एक तो बाप जी की दी हुई छूट; आसमानों से उतरी है छूट और धरती पर डोल रही हैं माया देवी! ये दोनों मिलकर के क़रीब-क़रीब पक्का ही कर देती हैं कि आप किसको चुनोगे? पहले तो ग़लत जीव को छूट दे दी परमपिता ने और फिर उस ग़लत जीव को जो ग़लत छूट मिली है, उस ग़लत छूट का और ग़लत इस्तेमाल करने के लिए बहकाने वाली आंटी घूम रही हैं।

अब बच सकते हो तो बचकर दिखाओ (हँसी)। आचार्य जी कुछ नहीं जानते। एक्स भी तुम्हारा, वाई भी तुम्हारा।

YouTube Link: https://youtu.be/nzpRMaHtY8U

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles