प्रश्नकर्त्ता: आचार्य जी, भारत अब कोरोना महामारी से संक्रमित लोगों की संख्या में चौथे स्थान पर आ चुका है। अमेरिका लंबे समय से सबसे ऊपर, पहले स्थान पर है ही। भारत और अमेरिका दोनों ही जनतंत्र की मिसाल माने जाते हैं। अमेरिका सबसे शक्तिशाली जनतंत्र, और भारत सबसे बड़ा जनतंत्र। इन दोनों ही जनतंत्रों को कोरोना ने पस्त कर दिया है। यूरोप की भी जो बाकी जनतांत्रिक व्यवस्थाएँ हैं: फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी आदि, उनका भी बुरा हाल है।
इसके विपरीत मैं देख रहा हूँ कि चीन, जहाँ सत्ता का केंद्रीकरण है, वहाँ पर इस महामारी को रोक लिया गया। चीन का मीडिया, ख़ास तौर पर ग्लोबल टाइम्स और पीपल्स डेली, इस बात को चीन की कम्युनिस्ट व्यवस्था की श्रेष्ठता के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। वो कह रहे हैं कि जनतांत्रिक व्यवस्थाओं का हाल देखकर यह सिद्ध हो जाता है कि चीन की सेंट्रलाइज्ड ओथेरेटेरियन (केंद्रीकृत अधिकारवादी) व्यवस्था जनतंत्र से बेहतर है। क्या समझें?
आचार्य प्रशांत: निश्चित रूप से जनतंत्र बाकी जितनी भी राजनैतिक व्यवस्थाएँ मनुष्य अभी तक सोच पाया है, और प्रयुक्त कर पाया है, उन सबसे बेहतर ही है। लेकिन जनतंत्र की कुछ शर्तें होती हैं। जनतंत्र आम जन के हाथ में ये ताक़त देता है कि वो अपने प्रतिनिधि चुनेंगे, नेता चुनेंगे, अपने सत्ताधारियों का निर्धारण वो स्वयं करेंगे। जब जनता के हाथ में यह ताक़त दी जाए, तो जैसा कि हम सब जानते हैं कि हर ताक़त, हर अधिकार अपने साथ एक कर्तव्य, एक ज़िम्मेदारी लेकर आता है। पुरानी बात है न? हम सब अवगत हैं, क्या? कि अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। ठीक है? तो जनतांत्रिक व्यवस्था में भी, फिर सरकार का भी और आम जनता का भी यह कर्तव्य बन जाता है कि वो अपनी चेतना, अपने मन, अपने ज्ञान, अपने निर्णयों के स्तर को इस लायक रखें, इतना ऊँचा रखें कि पता भी हो कि उन्हें क्या निर्णय करने हैं।
अगर किसी देश में जनतांत्रिक व्यवस्था है लेकिन जनता ही बेहोश है, तो वह जनतंत्र बड़ा अराजक हो जाएगा। चलता तो रहेगा, पर उसमें तमाम तरह के अंतर्विरोध रहेंगे, अंतरकलह रहेगी, गुटबाजियाँ रहेंगी, तमाम तरह की ऐसी गतिविधियाँ उसमें चलती रहेंगी, जिसमें जनता और राष्ट्र की ऊर्जा का अपव्यय होता रहेगा, जैसा कि तुम भारत में देखते ही होंगे।
तो जनतंत्र निश्चित रूप से एक बहुत अच्छी व्यवस्था है, लेकिन जहाँ कहीं भी जनतंत्र लागू किया जाए वहाँ ये आवश्यक होता है कि जनता भी दुनियादारी के मामलों में शिक्षित हो, साक्षर हो और अंदरूनी मामलों में चैतन्य हो, जागृत हो, आत्मचिंतन की और आत्मावलोकन की क्षमता रखती हो। ये बुनियादी शर्तें हैं जनतंत्र की सफलता के लिए। दो शर्तें मैंने कहीं: जनता ऐसी होनी चाहिए जिसको बाहरी दुनिया की खोज-ख़बर, जानकारी हो, और जिसको अपनी अंदरूनी दुनिया का भी हालचाल पता हो। लोग ऐसे होने चाहिए जिन्हें पता हो दुनिया में क्या चल रहा हो, और ये भी पता हो कि आंतरिक वृत्तियाँ कैसी हैं, ताकि वो ईर्ष्या, डर, लालच, सामुदायिकता,साम्प्रदायिकता—इन सब अंदरूनी वृत्तियों के प्रभाव में आकर निर्णय न कर दें। वो अपना मत ठीक तरह से स्थापित करें, अपने नेता भी ठीक चुनें, अपनी माँगें भी ठीक रखें। देश को किस दिशा ले जाना है, इसका निर्णय भी वो जागरूकता के साथ कर पाएँ।
अब जनतंत्र तो स्थापित कर दिया गया है विश्व के एक बहुत बड़े हिस्से में, भारत भी उसमें शामिल है, और ये बहुत अच्छी ही बात है, लेकिन कमी यह रह गयी कि जनता की बाहरी दिशा की जागरूकता और अंदरूनी दिशा की चेतना बढ़ाने पर सही काम नहीं किया गया। नेताओं ने इस बात पर न ज़ोर दिया, न व्यवस्था बनाई, न संसाधनों का व्यय किया कि लोग जनतंत्र के क़ाबिल भी तो बन सकें। देखिए, अगर इंसान में अपना अच्छा-बुरा जानने की ताक़त ही नहीं है तो वो देश का अच्छा-बुरा कैसे निर्धारित कर लेगा?
आप बहुत लोगों को देखिए तो उनकी हालत ऐसी है कि आपको दिखाई पड़ेगा कि ये आदमी अपनी ज़िंदगी में ही अपने लिए ही कभी कुछ सही तय नहीं कर पाया होगा। इसने अधिकांशतः जो करा है वो ग़लत-सलत ही करा है। और उस व्यक्ति को बिना इस योग्य बनाए कि वह जीवन को सही दृष्टि से देख सके, अच्छे-बुरे, ग़लत-सही का निर्णय करने की पात्रता ला सके, हमने उसके हाथ में जनतांत्रिक अधिकार थमा दी। जनतांत्रिक अधिकार बहुत अच्छी बात है, बहुत शुभ बात है, लेकिन फिर याद करिए कि अधिकार हमेशा कर्तव्यों के साथ चलते हैं, शर्त बंधी होती है। उन शर्तों पालन नहीं कर रहे तो फिर अधिकारों का बड़ा दुर्पयोग हो जाएगा न।
तो आदमी में ये ताक़त होनी चाहिए कि वो मौलिक एक दृष्टि रख सके, तभी वो ‘जन’ कहला सकता है, तभी वो ‘व्यक्ति’ कहला सकता है। तभी उसका जो मत है या उसकी जो माँग है या उसका जो विचार है वो उसका व्यक्तिगत, मौलिक, असली, निजी, आत्मिक हुआ। अन्यथा तो प्रत्येक व्यक्ति जो जागरूक नहीं है, जो बेहोश-सा ही है, जिसको कोई भीतरी-बाहरी शिक्षा मिली नहीं, वो सिर्फ़ भीतर प्रभावों की एक भीड़ है। वो व्यक्ति है ही नहीं, वो एक भीड़ है। फिर आपकी डेमोक्रेसी ‘मोबोक्रेसी’ हो जाती है।
'मोबोक्रेसी' का मतलब यही नहीं होता कि चालीस-पचास लोगों का झुंड आया और नारे लगाकर, या ज़ोर लगा करके, या धौंस दिखा करके अपनी माँगें मनवा ले गया। मोबोक्रेसी यही नहीं है। मोबोक्रेसी यह भी है कि एक आदमी जो अकेला चलता दिख रहा है, वो वास्तव में अकेला है नहीं, उसके भीतर चालीस-पचास लोग घुसकर बैठे हुए हैं। उसके मन पर चालीस-पचास बाहरी प्रभाओं, ताक़तों का कब्ज़ा है। यह भी मोबोक्रेसी है। अब मुझे बताइए, उसका मत उसका हुआ कहाँ? उसका मत तो अभी जगा ही नहीं है। उसकी चेतना सो रही है। उसकी चेतना के साथ उसका मत भी सोया पड़ा है।
तो जब वो अपना मतदान करता है या जब वो अपनी बात कहता है—क्योंकि जहाँ जनतंत्र है वहाँ पर अपनी बात खुलेआम रखने का अधिकार भी साथ में होता है न—तो जब ऐसा व्यक्ति जो अपने भीतर चालीस-पचास लोग लेकर चल रहा है, जब अपनी बात रखता है वो, तो उसकी बात में अपनी कोई बात तो होती ही नहीं। वो तो चार बातें इधर से, चार बातें उधर से, कुछ सुनकर बोल रहा है। उसके घर के लोग क्या कहते हैं, उसकी जाति के लोग क्या कहते हैं, उसके धर्म के लोग क्या कहते हैं, उसके इलाके के लोग क्या कहते हैं, उसके पुरखे क्या कहते हैं, उसके दोस्त-यार क्या कहते हैं, वो सब बातें उसकी ‘अपनी’ हो जाती हैं। उसका मत उसका अपना हुआ कहाँ? उसका मत अपना हो पाए, उसके लिए आवश्यक है कि बड़े प्रयास किये जाएँ। जनतंत्र इतनी ऊँची चीज़ है कि उसको सफल बनाने के लिए जो प्रयास करने पड़ें कम हैं, जो क़ीमत देनी पड़े वो कम है।
दुर्भाग्यवश वो क़ीमत हमने कभी चुकाई नहीं। शेष विश्व ने भी शायद चुकाई नहीं। हाल तो जो अमेरिका का देखकर लग रहा है, उन्होंने भी नहीं चुकाई। ये बड़ी सस्ती बात है कि संवैधानिक तौर पर, कागज़ी तौर पर, किसी देश को जनतंत्र घोषित कर दो। उसमें तो कुछ नहीं लगता, कर दिया। लिख दिया कागज़ पर कि साहब यह जगह एक जनतंत्र है। लेकिन कागज़ पर लिख देने भर से, और लोगों को, सब वयस्कों को मताधिकार दे देने भर से कोई जगह जनतांत्रिक नहीं बन जाती। जगह जनतांत्रिक तब बनेगी जब जन-जन जागरुक हो। अगर जन-जन में जागृति नहीं तो कौन-सा जनतंत्र?
इसीलिए चीन की मीडिया और उनके अखबार, ग्लोबल टाइम्स वगैरह, दुनियाभर के जनतांत्रिक देशों पर वो आरोप लगा पा रहे हैं जो वो आज लगा रहे हैं। वो आरोप ही भर नहीं लगा रहे, वो खिल्ली ही उड़ा रहे हैं। वो कह रहे हैं “डेमोक्रेसी! डेमोक्रेसी! ले लो अपनी डेमोक्रेसी! क्या पाया? देखो, हज़ारों-लाखों में तुम्हारे देशों में मौतें हो रही हैं। और हमको देखो, हमारे यहाँ एक तरह का अधिनायकवादी है, अधिकारशाही है, ऑथोरिटेरियन सत्ता है। हमको देखो, हमने एक प्रान्त से भी वायरस को बाहर नहीं जाने दिया।” ये सब चीनी मीडिया में आई हुई चीज़ें हैं। वो कहते हैं कि, “हमने वुहान से बीजिंग तक भी नहीं पहुँचने दिया वायरस को, और यहाँ तुम रोक नहीं पाए कि वायरस वुहान से न्यूयॉर्क पहुँच गया, और पूरे देश में पहुँच गया। हमको देखो, हमारे तरीक़ों को देखो, हमारी व्यवस्था की श्रेष्ठता को देखो, कि हमने वायरस को वुहान से बीजिंग तक भी नहीं जाने दिया।” उनकी बात में कुछ दम तो होगा।
हमारे लिए बड़ा एक ये आसान रास्ता है कि हम तुरंत चीनियों की, उनकी मीडिया की बात को ख़ारिज कर दें कि नहीं आप ग़लत बोल रहे हैं। उनकी बात में कुछ दम तो होगा। तो फिर कैसे समझें? ऐसे समझिए कि श्रेष्ठतम व्यवस्था तो जनतंत्र ही है, इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए। चीन हो या दुनिया का कोई भी और मुल्क हो, जिसमें तानाशाही चलती हो, अधिनायकवाद चलता हो, बहुत सारे ऐसे देश हैं। जनतांत्रिक विश्व बहुत बड़ा नहीं है, उसके बाहर भी बहुत सारे देश हैं जिनमें अन्य किस्म की व्यवस्थाएँ हैं। कोई सी भी व्यवस्था हो जनतंत्र से बेहतर नहीं हो सकती। लेकिन तब, जब जनतंत्र को सफल बनाने वाली सारी शर्तों का पालन करा गया हो, जिसकी चर्चा हम थोड़ी देर पहले कर रहे थे।
क्या हैं वो शर्तें? कि जन-जन में दुनिया के प्रति जागरूकता और अपने अंदरूनी जगत के प्रति चेतना हो। अगर ये शर्त पूरी की गई है तो जनतंत्र से बेहतर कोई व्यवस्था नहीं हो सकती, भले ही वो जो वैकल्पिक व्यवस्था दिखाई जा रही है वो धार्मिक आधार की हो, चाहे कम्युनिस्ट आधार की हो, एक पार्टी का शासन हो, कैसी भी वो व्यवस्था हो; वो जनतंत्र से बेहतर नहीं हो सकती, अगर जनतंत्र में जन-जन जागरूक है। लेकिन साथ में हमें ये मानना पड़ेगा, हम तथ्यों की उपेक्षा नहीं कर सकते, कि अगर जनतंत्र में जनता बेहोश है, अपने ही भ्रमों में, शंकाओं में, अंधेरे में, अहंकार में, अज्ञान में डूबी हुई है, तो जनतंत्र में कुछ ख़ास दम या ख़ूबी नहीं रह जाती। फिर कम-से-कम ऐसे मौकों पर, ऐसी आपदाओं के मौकों पर जैसी आज विश्व के सामने है, ये कोविड महामारी, यहीं पता चलेगा कि जो व्यवस्थाएँ जनतांत्रिक हैं, उन व्यवस्थाओं को ही ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ रहा है, क्योंकि आप लोगों के हाथ में चीज़ें सौंप देंगे, और लोगों में किसी तरह की जागृति या चेतना आपने अभी तक फैलाई नहीं। लोग सोए हुए हैं, बेहोश हैं, और उनके हाथ में ताक़त है और उनको अधिकार दे दिया है कि जो चाहो करो, जो चाहो बोलो, तो गड़बड़ हो जाएगी न? इसी गड़बड़ की ओर चीन की मीडिया इशारा कर रही है। इसी गड़बड़ को लेकर वह पूरी दुनिया की खिल्ली उड़ा रहे हैं। समझ रहे हैं न आप बात को?
खास तौर पर आकस्मिकता के अवसरों पर, इमरजेंसी सिचुएशन्स में, आपत मौकों पर, लोगों में ही इतनी बुद्धिमानी होनी चाहिए कि वो सही प्रतिनिधियों के हाथ में कुछ समय के लिए सत्ता का केंद्रीकरण कर दें। अगर घर में आग लगी हुई है तो उस वक्त घर में चौपाल में न चर्चा की जा सकती है, न सबको बुलाकर मतदान कराया जा सकता है। जब घर में आग लगी हो तो वह समय खुली बहस या खुली चर्चा का नहीं होता कि आइए-आइए सब लोग अपनी-अपनी बात कहिए, सबकी सुनी जाएगी। न वो समय मतदान के द्वारा निर्णय लेने का होता है। सिर्फ उस समय के लिए, वो जो आधे-एक-दो घंटे का समय हो, बस उतने से समय के लिए आपातकाल घोषित करना पड़ता है। बस उतने से समय के लिए जनता में स्वयं ही इतनी बुद्धिमानी होनी चाहिए कि वह अपने नेता या प्रतिनिधि को सारी ताक़त सौंप दे और कहे कि “अब जो निर्णय होगा, हम स्वेच्छा से और ईमानदारी से डटकर उसका पालन करेंगे,” ऐसा जनतंत्रों में हुआ नहीं।
अमेरिका, ब्रिटेन इन सभी जगहों पर ये हुआ कि लोगों ने खूब मनमानी करी। अपने मौलिक अधिकारों के नाम पर लोगों के जो मन में आया करते गए, और उसी का नतीजा फिर इन राष्ट्रों ने भुगता। लोग बीच पर पार्टियां कर रहे थे। लॉकडाउन मानने से इनकार कर रहे थे। कोई कह रहा था कि “साहब, इस बीमारी से तो वैसे तो सिर्फ बुजुर्गों को ही नुकसान होना है तो जवान लोगों को क्यों रोका जा रहा है? हम जवान लोग हैं, हम तो बाहर निकलेंगे। हमें मौज करने दो।” मार्च तक खूब ठंड रहती है। अप्रैल के बाद, अप्रैल में, मई में मौसम थोड़ा बेहतर होना शुरू होता है। लोग झुंडों में निकल आ रहे हैं और कह रहे हैं कि “हम धूप सेकेंगे बाहर खुले में। कौन-सा लोकडाउन? हमें तो धूप लेनी है। अभी तो मौसम बेहतर हुआ है। अभी तो जाड़े खत्म हुए हैं। हमें सामूहिक स्नान करना है।” लोग जा कर बीच पर पार्टी कर रहे हैं, नहा रहे हैं। कह रहे हैं, “क्या मौसम है”। और जितने मुंह उतनी बातें, हर आदमी अपने अनुसार चल रहा है। और अगर सरकारें किसी नियम का बलपूर्वक पालन कराना चाह रही हैं तो उनके विरुद्ध धरना प्रदर्शन वगैरह हो रहे हैं, कोई सुनने को, मानने को राजी नहीं। धरने प्रदर्शन नहीं भी कर रहे हैं लोग तो चोरी-छुपे जो आज्ञा निकाली गई है, जो लॉकडाउन किया गया है, उसका उल्लंघन कर रहे हैं, जैसा कि भारत में हुआ।
चेतना का स्तर इतना गिरा हुआ है कि समझ ही नहीं रहे हैं कि यह बात क्या है। महामारी को मजाक बना लिया है। इसके विपरीत देखिए कि वुहान में क्या हुआ। वहाँ लॉकडाउन माने लॉकडाउन था। नतीजा, एक-डेढ़-महीने, हद-से-हद दो महीने लोग घरों में रहे, और उसके बाद पूरे क्षेत्र को वायरस फ्री, बीमारी मुक्त, संक्रमण मुक्त घोषित कर दिया गया। उस पूरे देश में ही, कम-से-कम इस समय कोई संक्रमण नहीं है। दो कारण थे, एक तो सरकार का बल और दूसरा लोगों को इसकी जागरूकता कह लीजिए या आज्ञाकारिता कह लीजिए। हो सकता है कि लोग इतने जागरूक हों, समझते हों कि अगर हमारी सरकार ने कोई आदेश दिया है तो उसका पालन करना जरूरी है, या यह हो सकता है कि सरकार इतनी केंद्रीकृत शक्ति रखती है, सारे अधिकार रखती है, कि लोगों ने डर के ही सही लेकिन जो व्यवस्था निकाली गई, आज्ञा निकाली गई दो महीने के लिए, उसका पालन किया, और चीन को उसका फायदा भी मिला। यही बात चीन की मीडिया बार-बार कह रही है।
यहाँ क्या रहा है? अमेरिका और ब्रिटेन की बात हमने कर ली, भारत में देखिए न, ज़्यादा दिनों की बात नहीं थी, अगर धीरज रखा होता तो एक-से-डेढ़ महीने का सख्त लॉकडाउन काफी होना चाहिए था संक्रमण के आंकड़ों को एकदम सीमित कर देने के लिए। भई, अगर लोग बाहर ही नहीं निकल रहे, एक-दूसरे से मिल-जुल नहीं रहे तो संक्रमण फैलेगा कैसे? अगर लॉकडाउन का सख़्ती से पालन कराया गया होता, और सख्ती से लोगों द्वारा पालन किया गया होता, तो एक-डेढ़-महीने के भीतर सब ठीक हो जाना था। और कोई भी सरकार कितनी सख़्ती कर सकती है? अन्ततः तो बात लोगों पर ही आ जाती है न? जनतंत्र है तो जनता पर ही बात आनी है कि जनता स्वयं कितनी इच्छुक है, कितनी बुद्धिमान है, कितनी विवेकवान है।
पर लॉकडाउन का मजाक बना दिया। लोगों ने कहा, “कोरोना कुछ होता ही नहीं है, यह तो व्यर्थ की चीज है। और सरकार बड़ी ज्यादती कर रही है, हम लोगों को घर में घुसेड़ दिया है।” और लोगों के पास वाजिब तर्क भी थे क्योंकि कोरोना की वजह से लोगों के रोजगार गए हैं, अर्थव्यवस्था पर चोट लगी है। और जब रोजगार जाता है, पेट पर चोट पड़ती है, तो बुरा तो लगता ही है। लोगों के पास वाजिब तर्क थे लेकिन लोगों ने यह नहीं समझा कि यह एक महाअनहोनी घटना है। और आपदा बहुत बड़ी नहीं थी अगर उसका होशियारी से, विवेक से सामना किया जाता। कुल दो महीने की बात होती। लेकिन लोगों के पास दो महीने का भी सब्र नहीं निकला, लोगों ने तमाम तरह की अफवाहें उड़ानी शुरू कर दीं, तमाम तरह के प्रचार करने शुरू कर दिए। कोई कह रहा है कि, “देखो कोरोना से कितने लोगों की मृत्यु हो रही है, उससे ज़्यादा तो सड़क में दुर्घटनाओं में मर जाते हैं”। कोई कह रहा है कि “इससे ज़्यादा लोग तो टीवी से और हृदयरोग से मर जाते हैं,” कोई कह रहा है कि “इससे ज़्यादा तो लोग आत्महत्या कर लेते हैं,” कोई कह रहा है कि “कोरोना से हम क्या मरेंगे, हम तो लॉकडाउन से और बेरोजगारी से मर जाएंगे”। सचमुच? दो महीने के अंदर लॉकडाउन और बेरोजगारी से मर जाते क्या? लेकिन नहीं, एक ऐसा जनतंत्र जिसमें जनता बिल्कुल मतिहीन और विवेकहीन हो गयी है, तो उसी का वह नुकसान उठाना पड़ रहा है जिसकी तुमने यहाँ चर्चा करी है: “भारत आज कोरोना महामारी से संक्रमित लोगों की संख्या में चौथे पायदान पर पहुंच चुका है। और बड़ी आशंका और बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है, हम सब जानते हैं कि अगले एक-दो महीने और ज़्यादा विकराल होने वाले हैं। बहुत सारे दूसरे देश हैं जिनमें अब संक्रमण की संख्या बहुत कम होने लग गई है, मरने वालों की भी दैनिक संख्या वहाँ अब कम होने लग गई है। जो बुरा-से-बुरा वह देख सकते थे उन्होंने देख लिया, अब वहाँ हालात सुधर रहे हैं। भारत में अभी ऐसा नहीं है। आसार अच्छे नहीं दिख रहे। प्रतिदिन संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है, प्रतिदिन मृतकों की संख्या बढ़ती जा रही है। और जनतंत्र हमारा ऐसा कि जिन लोगों को हमने चुना है, उन्होंने लॉकडाउन के जो महीने-डेढ़-महीने का समय मिला था, उसको पूरा बर्बाद कर दिया, हमारे मुख्यमंत्रियों ने, नेताओं ने।”
लॉकडाउन दो वजहों के लिए था, पहला, लोग अंदर हैं तो संक्रमण नहीं फैलेगा; दूसरा, लॉकडाउन खुलने के बाद संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ेगी, उसके लिए लॉकडाउन के दौरान तैयारी कर ली जाए। लॉकडाउन का कुल औचित्य ही यही था न कि जब तक लोगों को घरों में बंद कर रखा है, उतनी देर में सरकारें पूरी तैयारी कर लें? देखिए क्या हुआ था वुहान में। सिर्फ कोविड, कोरोना के लिए अस्पताल खड़े कर दिए थे दस दिन के अंदर-अंदर। पांच-पांच सौ बिस्तरों के, हजार-हजार बिस्तरों के अस्पताल खड़े कर दिए, जल्दी-जल्दी। सरकार ने पूरी तैयारी करके रखी कि जितना हो सके लोगों को बचाना है। और चीन के पास इस महामारी से निपटने का कोई पूर्व अनुभव नहीं था, भारत के पास था। भारत ने चीन का भी हाल देखा था, भारत ने स्पेन का, फ्रांस का, ब्रिटेन का, ईरान का, और इटली का भी हाल देखा था। इन सब देशों में महामारी भारत में आने से बहुत पहले जबरदस्त तरीके से फैल चुकी थी। भारत को सबसे ज़्यादा समय मिला है, दुनिया में और देशों को इतना समय नहीं मिला। भारत ने चीन का भी अनुभव देखा—हमें उनके अनुभव से सीखना चाहिए था। और भारत ने ईरान, इटली, ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन, इनके यहाँ जो कुछ भी हो रहा था वह भी देखा—हमें उनके अनुभव से भी सीखना चाहिए था। हमारा लॉकडाउन तो 21 मार्च को शुरू हुआ है न? लेकिन जनतंत्र हमारा ऐसा कि हमने जो जनप्रतिनिधि चुने हैं, उन्होंने कोई तैयारी ही करके नहीं रखी है। देखो मुंबई का हाल, देखो दिल्ली का हाल। मुंबई में तो फिर भी एक समर्पित अस्पताल इसी तरीके से तैयार किया गया है, कोरोना रोगियों के लिए। दिल्ली में तो अस्पताल खचाखच भरे हुए हैं, रोगियों को लेने से इंकार कर रहे हैं। रोज खबरें आ रही हैं कि प्राइवेट अस्पताल अनाप-शनाप पैसे मांग रहे हैं। इतना ही नहीं, आशंका यह भी है कि सरकार आंकड़े ऊपर नीचे कर रही है। यह सब क्या हो रहा है?
यह सब हमारे जनतंत्र की कमियों के संकेत हैं। लोग भी जागरूक नहीं और लोगों के नेता भी जागरूक नहीं। और जब लोग जागरुक नहीं होते तो वह जागरूक नेता को कैसे चुन लेंगे? जैसे लोग होते हैं वैसे ही उनके नेता होते हैं।
पुरानी उक्ति है: "यथा राजा तथा प्रजा"। जनतंत्र में वो उल्टी हो जाती है: "यथा प्रजा तथा राजा"।
प्रजा जैसी होती है वह अपना राजा भी वैसा ही चुन लेती है। तो जब लोग बेहोश हैं तो उन्होंने बेहोश राजा चुन लिए। अब उन बेहोश राजाओं की करतूतें लोगों के ही सर पर आकर पड़ रही हैं।
भारत भाग्यशाली रहा कि 1947 से हमारे यहाँ जनतांत्रिक व्यवस्था रही। जहाँ नहीं रहती वहाँ लोग बड़ी दिक्कतें झेलते हैं। पड़ोस में पाकिस्तान है, उनको देख लीजिए। उस देश में जनतंत्र कभी जड़ें जमा ही नहीं पाया। भारत का सौभाग्य रहा यहाँ तक कि यहाँ जनतंत्र रहा, लेकिन भारत का बड़ा दुर्भाग्य रहा कि यहाँ ऐसे नेता नहीं हुए जिन्होंने जनता की शिक्षा पर ध्यान दिया होता।
फिर दोहरा रहा हूँ मैं, दो तरह की शिक्षा चाहिए अगर जनतंत्र को सफल बनाना है: लोगों में दुनिया के प्रति जागरूकता होनी चाहिए और अपने मन के प्रति चेतना होनी चाहिए। व्यक्ति किन मूल्यों को लेकर चल रहा है जीवन में, इस बात को उसका निजी मामला मानकर छोड़ा नहीं जा सकता क्योंकि जनतंत्र में एक व्यक्ति के मूल्य पूरी जनतंत्र की व्यवस्था के निर्धारक बन जाते हैं। वह अपने मूल्यों के अनुसार ही निर्णय करता है, मतदान करता है। जन-जन में उचित, शुभ मूल्यों की स्थापना हो, इसकी कोई कोशिश ही नहीं की गई।
अध्यात्म से तो आजादी से लेकर आज तक भारत की सरकारों को अरुचि रही ही, बल्कि एलर्जी रही है। नैतिकता के मूल्य भी लोगों में स्थापित नहीं किए गए। इन चीजों को ऐसा मान लिया गया कि ये तो व्यक्तिगत मसले हैं—जिसको जैसे जीना है वैसे जिएगा। नहीं, ऐसे नहीं चल पाएगा फिर जनतंत्र। फिर ऐसा जनतंत्र अव्यवस्था का, अराजकता का और तमाम तरह के द्वंदों का, कलह का, क्लेश का, अन्तरसंघर्ष का एक दुखद नमूना भर बनकर रह जाएगा।
जनतंत्र का मतलब होता है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता। ठीक? व्यक्तिगत स्वतंत्रता। हम यह क्यों नहीं समझते कि स्वतंत्रता सस्ती चीज नहीं होती भई? बहुत साल पहले मैंने कहीं पर बोला था कि "फ्रीडम इज़ फॉर द फ्री"। आपको किसी बात की स्वतंत्रता, हक या अधिकार मिल सके, इसके लिए पहले आपको आंतरिक तौर पर स्वतंत्र होना चाहिए। सब को व्यक्तिगत स्वतंत्रता दे रहे हो बिना यह देखे कि वह स्वतंत्रता के अभी पात्र हुए भी हैं या नहीं, तो यह कोई अच्छा कार्य नहीं कर दिया, यह अनर्थ हो जाएगा। स्वतंत्रता की कीमत देनी पड़ती है, स्वतंत्रता अर्जित करनी पड़ती है न? गुलामी कई बार मुफ्त मिल जाती है पर स्वतंत्रता तो बड़ी मूल्यवान और ऊंची चीज है। इसीलिए उसके लिए साधना करनी पड़ती है, उसका मूल्य चुकाना होता है, मेहनत करनी होती है; वह मेहनत हमने नहीं करी। नतीजा यह है कि यहाँ हर आदमी स्वतंत्र है कुछ भी करने-कहने के लिए और कर्तव्य कुछ नहीं है उसके ऊपर। अधिकार सबके पास हैं, दायित्व किसी के कुछ नहीं हैं। कोई कुछ भी बोलकर निकल सकता है। और भले ही उसकी बात तुरंत गलत साबित हो जाए, वह अपना दायित्व नहीं समझता कि आकर के स्पष्टीकरण दे; माफी मांगना तो बहुत दूर की बात है। यहाँ मुंह चलाने के लिए, भ्रामक प्रचार करने के लिए सब आगे हैं।
भारत में जो बहुत कारण रहे हैं, जिनकी वजह से आज वह स्तिथि पैदा हो गई है, जिसकी अपने प्रश्न में तुम चर्चा कर रहे हो, उसमें से एक कारण यह भी है कि सोशल मीडिया पर और व्हाट्सएप फॉरवर्ड्स के ज़रिए खूब दुष्प्रचार किया गया, खूब अफवाहें फैलाई गईं। क्यों भई? क्योंकि सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है—“फ्रीडम ऑफ स्पीच” सबके पास है, कोई कुछ भी कर सकता है। खास तौर पर जिन लोगों की रोजी-रोटी जा रही थी, उन लोगों ने तो बढ़-चढ़कर शोर मचाया कि “देखिए साहब यह तो मामूली जुखाम है, क्यों इसको इतना तूल दिया जा रहा है? चलिए बाहर निकलिए घर से। लॉकडाउन वगैरह व्यर्थ की बात है। ये सोशल डिसटेनसिंग क्या मूर्खता है, कोई जरूरत नहीं इसकी, चलिए-चलिए। मामूली जुखाम है, आप ऐसे ही कुछ विटामिन वगैरह खा लीजिएगा, ठीक हो जाएंगे, या हो सकता है कुछ भी करने की जरूरत न पड़े, घर में दो-चार दिन आराम कर लीजिएगा, आप ठीक हो जाएंगे।”
अब ताज्जुब क्यों हो रहा है? अब क्यों छक्के छूट रहे हैं जब सामने तस्वीरें आ रही हैं कि अस्पतालों के गलियारों में लाशें पड़ी हुई हैं और एक शमशान में जब जलाने की जगह नहीं मिल रही है तब किसी तरह से लाशों को दूसरे शमशानों की ओर भेजा जा रहा है? अब लोग हक्के-बक्के हैं और बहुत लोग अब पूछ रहे हैं, प्रश्न आया था अभी, प्रश्नकर्ता का मैं नाम भूल गया हूँ, उन्होंने ट्विटर पर सवाल करा था। वो कह रहे थे कि, “हमने क्या अपराध किया है जो हमें यह सजा मिल रही है?” बोले कि “हमारे पास पूरा समय था इस आपदा के विरुद्ध तैयारी करने का लेकिन आज हालत ये है कि अकेला महाराष्ट्र ही, बल्कि बम्बई ही, वुहान से ज़्यादा मामले लेकर बैठा हुआ है। हमने ऐसा क्या अपराध करा? हमने गलती कहाँ पर कर दी?” उन्होंने पूछा है, ईमानदार सवाल है उनका। वो बोल रहे हैं, “हमने इतना बड़ा लॉकडाउन लगाया है, दुनिया का सबसे बड़ा लॉकडाउन था जो भारत में लगा, उस लॉकडाउन की वजह से इतने लोग बेरोजगार हुए, हमने इतने कष्ट भी झेले, इतने सारे मजदूरों ने पदयात्राऐं कीं, उनमें से बहुतों की मृत्यु भी हुई, बड़ी कठिनाइयां और तकलीफें उन्होंने झेलीं, ये सब कुछ हमने करा, लेकिन उसके बाद भी हम अंजाम ये पा रहे हैं कि भारत दुनिया में चौथे स्थान पर पहुंच गया है आज संक्रमण के मामलों में। और हमारा एक-एक शहर वुहान से ज़्यादा बड़ा होता जा रहा है, संक्रमित मामलों की संख्या लें तो।” कह रहे हैं, “क्या गलती कर दी हमने?”
गलती हमने यही कर दी: अनुशासन की कमी। जब आपातकाल है तो उस समय ऐसे लोग जो छिटक-छिटक कर भागते हैं दाएं-बाएं, अपनी मनमर्जी चलाते हैं, ये लोग अपने लिए ही नहीं, पूरे समुदाय के लिए, पूरे देश के लिए प्राणघातक सिद्द होते हैं। ऐसे लोगों पर अनुशासन कसा जाना चाहिए। ऐसे लोगों को दंड भी मिलना चाहिए था। हमने एसे लोगों को जनतंत्र के नाम पर पूरी छूट दे दी। हमने कहा, “भाई, जो मर्जी आए कर सकता है, जो मर्जी आए कह सकता है।” अनुशासन की कमी रह गयी। और ये जो लोग हैं जिन्होंने संक्रमण फैलाने में और दुष्प्रचार फैलाने में बड़ी केंद्रीय भूमिका निभाई है, जिनके कारण आज हालात इतने खराब हो गए हैं, ये लोग बहुत ज़्यादा नहीं हैं। ये भारत की आबादी का अधिक-से-अधिक पांच प्रतिशत होंगे। पर इन पांच प्रतिशत लोगों की करतूत का खामियाजा आज पूरा देश भुगत रहा है। यही काम विदेशों में भी हुआ है, ब्रिटेन में भी हुआ है, अमेरिका में भी हुआ है, कि मुट्ठीभर लोगों की मूर्खताओं का परिणाम, भयानक परिणाम, पूरे देश को भुगतना पड़ता है। उन्हें कोई नियम कायदा नहीं मानना, वो घूम रहे हैं, फिर रहे हैं, वो अपने हिसाब से चल रहे हैं, वो धार्मिक जगहों पर इकट्ठा हो रहे हैं, खाने-पीने जाना है तो भी वो निकले पड़े हैं, उन्हें घर के भीतर घुटन महसूस होती है, वो झुंड बनाकर चहलकदमी कर रहे हैं, और वो दूसरों को चिड़ा रहे हैं, कह रहे हैं कि “तुम बहुत डरपोक हो! डरने की कोई बात नहीं, चलो-चलो निकलो।” एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि किसी नियम की, किसी अनुशासन की कोई जरूरत नहीं, सावधानी की कोई जरूरत नहीं, चलो सब लोग काम पर चलो।
अरे दो महीने की बात थी, दो महीने सब्र कर लेते। दो महीने के बाद धीरे-धीरे ये होना था कि मामले आते जाते और पीछे से चिकित्सा व्यवस्था मजबूत कर ली गयी होती तो उन मामलों को निपटाया जाता। धीरे-धीरे करके छह महीने में, सालभर में हर्ड इम्युनिटी के स्तर तक मामले पहुंच जाते। कोई सदा के लिए लॉकडाउन थोड़े ही रहना था। जो पूरा सिद्धांत है, कॉन्सेप्ट है लॉकडाउन का, वो यही तो था न कि अन्ततः तो हर्ड इम्युनिटी से ही रक्षा होगी क्योंकि वैक्सीन तो अभी लग नहीं रहा कि जल्दी आएगी। वो हर्ड इम्युनिटी आए इसके लिए साठ-सत्तर प्रतिशत लोगों का संक्रमित होना आवश्यक है। पर वो साठ-सत्तर प्रतिशत लोग एकमुश्त न संक्रमित हो जाएं, इकट्ठे न संक्रमित हो जाएं, एक ही महीने में न संक्रमित हो जाएं क्योंकि जल्दी से एकमुश्त इकट्ठे हो गए संक्रमित तो जो चिकित्सा व्यवस्था है उनको संभाल नहीं पाएगी। चिकित्सा व्यवस्था भी चरमरा जाएगी और कानून व्यवस्था भी चरमरा जाएगी। तो इसीलिए सारा खेल बस अनुशासन का था। ये तो हम सब जानते हैं कि ज़िंदगी भर तो कोई लॉकडाउन चल नहीं सकता। ज़िंदगी भर तो घर के अंदर घुसकर बैठना नहीं है। यह भी बात अब स्वीकार ही हो गयी है कि ले देकर के हममें से ज़्यादातर लोगों को कभी-न-कभी यह संक्रमण लगना ही है, सारा खेल बस इस बात का था कि वह संक्रमण सब लोगों को एक साथ लग जाएगा एक ही महीने में या वह संक्रमण हम किसी तरीके से फैला सकते हैं, स्टैगर्ड कर सकते हैं। उस स्टैगरिंग के लिए अनुशासन चाहिए था, दुर्भाग्य से दुनिया के ज़्यादातर जनतंत्र वह अनुशासन नहीं दिखा पाए, जबकि जहाँ जनतांत्रिक व्यवस्था नहीं है, उस चीन ने वो अनुशासन दिखा लिया। तो आज चीन की मीडिया पूरी दुनिया का मखौल उड़ा रही है। बात समझ रहे हो न?
बस इतना सा खेल था कि सावधानी बरतते रहना है। मत आप निकलिए मनोरंजन के लिए, कोई बहुत जरूरी नहीं हो गया कि बाहर खाना खाना है। कोई जरूरी नहीं हो गया कि शॉपिंग करनी है। अगर जीते रहेंगे तो छह महीने बाद शॉपिंग हो जाएगी। अर्थव्यवस्था को निश्चित तौर पर चोट पहुंचेगी पर यह चोट कुछ महीनों तक झेलनी थी, कोई ऐसा नहीं था कि पाँच साल तक अर्थव्यवस्था डूबी रहेगी। दो महीने, चार महीने, छह महीने का धीरज रखना था, हम वो धीरज दिखा नहीं पाए।
अभी भी वक्त है, अभी भी सावधानी बरती जाए, मूर्खतापूर्ण उत्तेजनाओं से बचा जाए, फ़िजूल दुष्प्रचार का शिकार न हुआ जाए, तो अभी भी हम उस राह जाने से बच सकते हैं जिस राह अमेरिका निकल गया है। अमेरिका के खौफनाक आंकड़े आप रोज देखते हैं न? भारत अभी भी बच सकता है, लेकिन उसके लिए जागरूक लोग चाहिए। हम एक जनतंत्र हैं। घूम फिर कर मैं बार-बार उसी शब्द पर आता हूँ—अगर जन-जन जगा हुआ नहीं तो जनतंत्र सफल नहीं।