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चाँद चाहिए या कुछ भी नहीं || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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चाँद चाहिए या कुछ भी नहीं || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। अभी आप ज्ञान और कर्म के एकत्व के बारे में बता रहे थे कि दोनों में एकत्व देखना ही अध्यात्म का सूचक है। अब मैं जितना देख और समझ पा रहा हूँ कि ज्ञान से ही सही कर्म निकलता है और सही कर्म ज्ञान के बिना हो ही नहीं सकता और अगर ज्ञान सही कर्म में परिवर्तित नहीं हो रहा तो ज्ञान जीवन में उतरा ही नहीं।

अब अगर जीवन सही दिशा में बढ़ रहा है तो जो नेति-नेति है, वो स्वयं ही घटती है और जो सकाम कर्म है उनमें मूर्खता दिखनी शुरू हो जाती है। अब एक तो ये साइड है, दूसरा मुझे अपने अंदर ये दिखता है कि हमारी संरचना निष्काम कर्म करने के लिए तो हुई ही नहीं है…

आचार्य प्रशांत: ठीक।

प्र: तो ये निष्काम कर्म तो घट रहे हैं बस और अगर जीवन सही दिशा में बढ़ रहा है, ज्ञान और कर्म एक दूसरे के प्रपोरशन (अनुपात) में हैं, जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ेगा वैसे-वैसे हमारे कर्म निष्काम होंगे तो फिर भक्ति को तो घटना होगा, वो अनुग्रह है।

आचार्य: नहीं, जैसे आप कह रहे हैं कि हमारी संरचना निष्काम कर्म के लिए नहीं हुई है वैसे ही हमारी संरचना ज्ञान के लिए भी नहीं हुई है न! तो ज्ञान कैसे बढ़ेगा?

चाहे निष्काम कर्म हो, चाहे ज्ञान हो, वो दोनों ही प्राकृतिक तौर पर हमारे साथ नहीं घटने हैं; उन दोनों के लिए ही चैतन्य प्रयास करना पड़ता है जिसको मैं चुनाव बोलता हूँ बार-बार। न ज्ञान ख़ुद आएगा, न प्रेम ख़ुद आएगा, न निष्कामता ख़ुद आएगी, बोध नहीं आएगा, सरलता-सहजता नहीं आएँगे।

जो कुछ भी जीवन में ऊँचा है वो अपनेआप कभी नहीं आएगा, प्राकृतिक तौर पर नहीं आएगा। उसको तो बड़े श्रम से, साधना से, संकल्प से खींचकर जीवन में लाना होता है। हाँ, उनमें से किसी एक को आप ले आएँ जीवन में तो बाकी सब स्वतः घटित होने लगते हैं।

अब प्रेम हमेशा मूल्य माँगता है, आप जान लगा करके वो मूल्य चुकाएँ तो फिर आप पाएँगे कि उसी प्रेम ने आपको निरहंकार भी कर रखा है, उसी ने आपमें अनासक्ति ला दी है, मोह कम कर दिया है, निर्भय बना दिया है – फिर वो और बहुत सारी चीज़ें हैं जो प्रेम के साथ-साथ अपनेआप जीवन में आ जाएँगी, लेकिन मूल्य तो किसी एक मोर्चे पर पूरा चुकाना ही पड़ेगा। कोई एक मोर्चा हो कम-से-कम जहाँ आप पूरा मूल्य चुका रहे हों, फिर बाकियों पर फ़तह अपनेआप होने लगती है।

प्र: अब मैं ये देख पा रहा हूँ कि ये सबकुछ घट तो मेरे साथ ही रहा है लेकिन इसमें मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ और एक पहलू ये है कि बड़े लोगों से आए हो, उनमें उठना-बैठना है तो जो कर्म है जिसमें हम निचले तल पर उतर जाते हैं, वो नहीं करना। तो ये दो साइड मैं अपनी देख पाता हूँ।

आचार्य: देखिए, ये बड़ी अच्छी बात है यदि लगने लगे कि इसमें मैंने कुछ करा नहीं, ये विनम्रता का सूचक है। लेकिन ऐसा होता नहीं है, कम-से-कम आरंभिक चरणों में कि अपने संकल्प के बिना चीज़ें बोध की दिशा में या सही दिशा में अपनेआप घटने लग जाएँ।

तो मूल्य तो आप चुका ही रहे होंगे और ये अच्छी बात है कि आप उसके साथ इतने सहज हो गए हैं कि अब आपको याद भी नहीं है कि आप मूल्य चुका रहे हैं या आपको ये बहुत अनुभव नहीं होता या कष्ट नहीं होता कि मूल्य चुका रहे हैं लेकिन मूल्य तो चुकाया जा ही रहा है।

देखिए क्या होता है न, मान लीजिए आप तीर्थ जा रहे हैं, केदारनाथ जा रहे हैं, ठीक है? अब मूल्य तो चुकाना ही पड़ता है। मूल्य क्या चुका रहे हैं आप? कि उतनी ऊँची चढ़ाई है, वहाँ ऊपर बैठे हुए हैं महादेव, आपको पूरा चढ़कर जाना है लेकिन कोई ऐसा भी हो सकता है जिसको उस पूरी यात्रा से, उस पर्वतारोहण से ही प्रेम हो जाए, आनंद आने लग जाए, अब वो मूल्य कहाँ चुका रहा है?

उससे आप पूछेंगे, ‘मूल्य चुका रहे हो न, देखा, तीर्थ जाने के लिए बड़ा श्रम करना पड़ता है?‘

अब श्रम तो वो कर रहा है लेकिन वो श्रम करने में आने लग गया है उसको आनंद। वो चल रहा है और उसको भी दर्द हो रहा होगा और ये सब है – ऊँची चढ़ाई है, ठंड लग रही हो शायद, तो मूल्य तो चुका ही रहा है लेकिन वो जो पूरा रास्ता ही है वहाँ तक का, वो नयनाभिराम भी बहुत है और मौज बड़ी आ रही है वहाँ पर।

और जब मौज आने लग जाती है तो फिर आदमी भूल जाता है कि इसमें हमारा घट क्या रहा है, इसमें हम दे क्या रहे हैं। फिर आदमी ये गिनने लग जाता है कि आनंद मिल कितना रहा है। ये दृष्टि का ही परिवर्तन है, ये अब अनुग्रह की दृष्टि बन गई है। अब ये मिले हुए को गिन रही है, ये देख रही है कि ‘क्या मिल रहा है?‘

और मिले हुए को जब आप गिनने लग जाते हैं तो और मिलने लग जाता है। जिधर को आपकी नज़र होती है न, वही आपका बढ़ता है। आप गिनने लग जाइए कि आपका छिन क्या-क्या रहा है, बहुत लोगों की पूरी ज़िंदगी यही करने में बीत जाती है – मेरे साथ ये नुकसान हो गया, मेरा इसने छीन लिया, जीवन ने मेरे साथ धोखा कर दिया।

आप ये सब गिनेंगे तो यही और बढ़ेगा और आप सही दिशा चलने लग जाएँ और सही दिशा चलते हुए आपको जो हल्कापन मिलने लगे, थोड़ा आनंद मिलने लगे, थोड़ी मौज मिलने लगे, थोड़ी सरलता मिलने लगे और आप उसके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने लगें, आप साफ़-साफ़ मानना शुरू कर दें कि ‘साहब! मिल रहा है!’ तो फिर ये होता है कि जो मिल रहा होता है वो बढ़ जाता है। मानने से बढ़ जाता है, आपने माना तो बढ़ जाएगा। जिसको आप मानेंगे, वही बढ़ने लग जाता है क्योंकि खेल ही सारा मान्यता का है न?

“मन के माने हार है और मन के जीते जीत।“

ये मान्यता ही तो है कि मन ने मान लिया कि हार गए, मन के हारे हार है तो हार गए; इनका कोई वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं होता। आप जिस भी हालत में हैं उसमें अगर आपको सच दिखाई देने लग जाए तो सच बढ़ने लग जाएगा; प्रेम प्रतीत होने लग जाए तो प्रेम बढ़ने लग जाएगा। चारों तरफ़ सब माया-ही-माया है और मुझे इससे अपना बचाव करना है या मुझे इसी माया दुश्मन से अपने लिए कुछ चीज़ें छीन कर के लानी हैं तो माया और बढ़ जाएगी।

जिसके प्रति आप कृतज्ञ ही नहीं हैं वो आपको और ज़्यादा क्यों मिले?

ऐसा कोई भी नहीं होता जिसके जीवन में कृष्ण एकदम ही मौजूद न हों। आप कृष्ण से कितने भी दूर चले जाइए, जब सत्य वही हैं तो थोड़े-बहुत तो आपके पास वो होते हैं; प्रश्न ये है कि जितना कृष्णत्व आपको उपलब्ध है, आपका उसके प्रति भी क्या रुख है? आप उसको बढ़ाना चाहते हैं या धिक्कारना चाहते हैं?

आप बढ़ाना चाहेंगे, बढ़ जाएगा। बढ़ेगा तब जब कृतज्ञता होगी। मानो कि बहुत ऊँचा है, मानो कि उसका उपकार कि जितना मिला उतना भी मिला; यदि कम मिला तो भी उसने उपकार करा, क्योंकि हम किस लायक थे? हम तो प्रकृति के खिलौने हैं, हम तो जंगल के जानवर हैं, हम किस लायक थे?

वो मिल गया, उसका एहसान है। नहीं तो हम तो जंगल में भौंक रहे होते। और जंगल माने ये सब शहर-वहर, ये सब जंगल ही हैं; इसमें इतने जानवर इधर-उधर, हम भी ऐसे ही घूम रहे होते जानवर। ‘वो जितना भी मिल गया, उसने बड़ी कृपा करी', जब ये मानने लग जाते हो तो बात बढ़ने लग जाती है।

ये देखो, ये दोनों बातें आपस में फिर जुड़ी हैं – आत्मज्ञान यदि नहीं है तो अनुग्रह भी नहीं हो सकता। आत्मज्ञान का क्या मतलब होता है? आत्मज्ञान का मतलब होता है जानना कि ‘मैं जानवर हूँ’, अपनी पशुता को जानना आत्मज्ञान है।

जहाँ आत्मज्ञान है फिर वहाँ अनुग्रह आएगा। मैं जानवर हूँ तो फिर मेरे जीवन में ये सच्चाई की जो दो-चार किरणें हैं, ये कहाँ से आ गईं? जहाँ से भी आ गईं उसका एहसान है, मैंने एहसान माना। अपने बूते तो मैं किसी अंधेरी गुफा में ही ज़िन्दगी बिता देता – ये दो-चार किरणें भी नसीब नहीं होनी थीं। दो-चार किरणें भी आ गईं हैं, मैं करबद्ध होकर के कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। अब तुम पाओगे कि वो तुम्हारी गुफा के आगे जो पत्थर रखा है भारी, वो थोड़ा और खिसकेगा, रोशनी का एक और टुकड़ा तुम्हारी गुफा में, तुम्हारे जीवन में प्रवेश करेगा।

हम अपनेआप को बहुत बड़ा आदमी माने रहते हैं न, अक्सर हम कहते हैं, ‘मेरा तो अधिकार ही है मुक्ति’। हमारा अधिकार मुक्ति-वुक्ति कुछ नहीं है, हमारा वही अधिकार है जो जंगल के किसी भी जानवर का अधिकार है।

क्या अधिकार है? यही अधिकार है – जियो, खाओ-पियो, घोंसला बनाओ, मर जाओ। समझ रहे हो?

जो कुछ भी तुम्हें ऊँचा नसीब हो रहा है उसको किसी का प्रेम मानना। तुम्हारे मन में उसके लिए जितना प्रेम होगा उतना उसका दिया हुआ तुम्हें उपलब्ध हो पाएगा; और तुम्हें वो दे रहा है उसके बाद भी तुम उसे धिक्कारो – जो मिल रहा है वो भी, हाथ धो बैठोगे उससे।

प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। जैसे आपने पिछले सत्र में अध्याय ग्यारह में बताया था कि अपने अंदर राक्षस और देवत्व दोनों हैं, तो आप अपने अंदर के राक्षस को किनारे रखकर के देवत्व को बढ़ाते चलिए। उसमें आपने एक वाक्य ये भी बोला था कि सबकुछ ट्राई (प्रयास) नहीं करना होता है। होता क्या है कि आपने सबकुछ ट्राई करने के चक्कर में, जैसे कुछ आपको दिख रहा है कि वो राक्षसी है लेकिन ट्राई करने के चक्कर में बहुत कुछ ट्राई कर डाला।

अब उस राक्षस के चंगुल में एक तरह से आप फँस ही चुके हैं – जैसे पहले मैं उतना आलसी नहीं था जितना अब मैं हो चुका हूँ, पहले कुछ आदतें वैसी नहीं थीं जो अब आ चुकी हैं मेरे अंदर। वो आदतों से मैं संबद्ध कर पा रहा हूँ अपनेआप से कि एक तरह का दलदल है जो पनप गया है अंदर, राक्षस जैसा। और उससे निकलने की कोशिश करता हूँ लेकिन हर बात प्रेम पर आकर अटक जाती है; मुझे लगता है कि प्रेम की कमी है।

एक बहुत गुनगुना-सा रहता है, कुछ बहुत रोष नहीं उठता अंदर से, अपनी बुराइयाँ भी दिख जाती हैं पर वो रोष नहीं उठता अपने अंदर कि मैं उसको नकार जाऊँ या एक संकल्प जो आपने कहा था वो उतना नहीं उठता है, मतलब सब गुनगुना-सा रहता है। मुझे दलदल भी दिख रहा होता है लेकिन अंदर से निकलने की इच्छाशक्ति नहीं उठती है।

आचार्य: खाना-पीना बंद कर दो!

जब खाना-पीना अच्छा चल रहा होता है न, तो स्थूल सुख के आगे सूक्ष्म दुख दब जाते हैं। जिस इंसान में प्रेम होता है और एक आत्म गौरव होता है, वो कहता है, ‘जब असली चीज़ नहीं मिल रही तो नकली चीज़ को क्यों भोगता चलूँ? या तो चाँद चाहिए या कुछ भी नहीं!’

छोटे बच्चे होते हैं न – क्या चाहिए? चाँद चाहिए।

तुम उसको क्या लाकर दोगे? खिलौना, मिठाई। बोलेगा, ‘नहीं।‘ क्या चाहिए? ‘चाँद चाहिए, नहीं तो कुछ भी नहीं, खाऊँगा ही नहीं।‘

तुम इतना खाते-पीते क्यों हो? जो दुख में होता है, उसका क्या लक्षण होता है? वो मस्त खाएगा-पिएगा या वो खाना-पीना छोड़ करके सूखने बैठ जाता है, बोलो?

कि अब एक तरफ़ कोई बोले, ‘जीवन में प्रेम नहीं है’ और खाना-पीना बराबर का चल रहा है; मौज चल रही है, भोग चल रहा है हर तरीके का, सबकुछ।

तो इसमें कहीं पता चल रहा है कि प्रेम नहीं है? अगर प्रेम नहीं होता और प्रेम तुम्हारे लिए बहुत ऊँची बात होती और तुम प्रेम की कमी को बड़ी तीव्रता से, बड़ी पीड़ा से, बड़ी शिद्दत से अनुभव कर रहे होते तो तुम्हारा खाना-पीना ऐसे ही चल रहा होता क्या?

जल्दी बोलो!

जब कोई आदमी को गहरा नुकसान हो जाता है तो उसकी जो पूरी सुख-सुविधा के क्रियाकलाप होते हैं, वो वैसे ही चलते रहते हैं या वो रुक जाते हैं? जल्दी बताओ! तुम्हारा कोई बहुत बड़ा नुकसान हो गया, उसके बाद तुमको जाना है किसी दावत में; वहाँ नाचना, गाना-बजाना, गीत-संगीत, खाना-पीना, सबकुछ है, तुम वहाँ जाओगे क्या?

तो अगर तुम्हारा गहरा नुकसान हो गया है कि जीवन में प्रेम नहीं है तो तुम्हारी पार्टी फिर चल कैसे रही है यथावत? तुम्हें तो शोक मनाना चाहिए, शोक क्यों नहीं मना रहे? और अगर शोक नहीं मना रहे तो इसका मतलब तुम्हें प्रेम चाहिए ही नहीं, चाहिए होता तो तुम शोक मना रहे होते न?

पर तुम तो पार्टी कर रहे हो।

प्रेम अगर नहीं है तो जीवन को साफ़ बता दो मुँह पर – ‘बाकी तू कुछ भी देगा, हम नहीं लेंगे; या तो चाँद चाहिए या कुछ भी नहीं। या तो असली चीज़ दे-दे, नहीं तो तू जो बाकी नकली चीज़ें दे रहा है, हम उनको भी लेने से इनकार करते हैं।‘

तुम नकली चीज़ें क्यों ग्रहण किए जा रहे हो?

तुम तो जीवन को यही बता रहे हो कि असली चीज़ तू नहीं भी देगा तो कोई बात नहीं, ये नकली माल-मसाला भरपूर देता रह बस। मना कर दो लेने से, ‘नहीं लेंगे, कुछ नहीं लेंगे।‘ अनशन पर बैठ जाओ। वो कैसा होगा इंसान, सोचो तो, जो एक तरफ़ तो कहे कि ‘अभी-अभी मेरे दोस्त की मौत हो गई है और मैं बड़े दुख में हूँ।‘ और फिर कहे, ‘अरे! वो पार्टी में भी तो जाना है, मस्त खाना चबाना है और शराब पीकर नाच-गाना है।‘

इस आदमी को अपने दोस्त की ज़रा भी कद्र थी क्या?

हाँ, जब कद्र होती है न तो आदमी बाकी काम... जी ही नहीं लगता। कहता है, ‘जब असली चीज़ नहीं मिली है तो जी काहे के लिए रहे हैं?’

प्र३: प्रणाम, आचार्य जी। अभी श्लोक का अर्थ करते हुए आपने बताया कि वेदान्त जो है स्थूल से ऊपर की ओर उठाता है और हमेशा-हमेशा के लिए उठाता है। तो हमें इससे मतलब नहीं, तो उस दौरान ये जो आपने बताया, इस चीज़ को लेकर के बहुत सारे लोग इसका ग़लत प्रयोग करते हैं इस तरीके से कि हमें बाकी किसी चीज़ से मतलब नहीं; जैसे कि दुनिया की समस्याओं से हमें मतलब नहीं, हम अपने में मस्त हैं या ज्ञान हो गया तो हमें क्या मतलब, हम तो बस अपना मस्त हैं। तो उनको कैसे इसका जवाब दिया जाए?

आचार्य: बोध के साथ करुणा आती-ही-आती है। अगर बोध के साथ करुणा नहीं आ रही है तो बोध भी नहीं आया है। कोई ‘अपने’ में मस्त हो ही नहीं सकता।

अभी क्या समझाया था कि दुख पर विजय कैसे पायी जाती है?

दुख पर विजय अपने दुख को जीतकर नहीं पायी जाती, दूसरे दुखियों की सहायता करके पायी जाती है।

तो जो कह रहा है कि मैंने अपने दुखों को जीत लिया है और मुझे दूसरे की सहायता नहीं करनी, वो पहली बात, दुखी है और दूसरी बात, भ्रमित है क्योंकि अपने दुख को तो उसने जीता है ही नहीं तो माने दुखी है और भ्रमित इसलिए है कि वो जानता ही नहीं कि दुख जीता कैसे जाता है। जो अपने दुख से लड़ेगा वो हारेगा तो हारेगा, जीतेगा तो भी हारेगा क्योंकि अपने दुख से लड़ रहा है न और अपनापन ही तो दुख है। तो जो ऐसे लोग मिलें जो कहें कि ‘हमें तो बस अपने से मतलब है, दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं’, ये दुखी भी हैं और भ्रमित भी हैं। इन्हें कोई मौज नहीं है।

प्र३: जैसे इस्कॉन मंदिर के बहुत सारे युवा हैं वो मिलते हैं और किसी को भी लेकर जाते रहते हैं हरि कीर्तन के लिए और बोलते हैं, ‘मात्र यही करना है’, बाक़ी चीज़ों के लिए वो मना करते हैं। कहते हैं, ‘कृष्ण यहीं से मिलेंगे और यहीं से मोक्ष मिलेगा।‘ लेकिन आपको सुनना चालू किया है तबसे ऐसी बातें पचती नहीं हैं।

आचार्य: अर्जुन को तो कीर्तन नहीं करा रहे थे न कृष्ण! (श्रोतागण हँसते हुए)

बस यही उत्तर है। कृष्ण को अगर यही समझाना होता कि ‘बेटा, कीर्तन करने से मैं मिल जाऊँगा!’ तो अर्जुन को भी यही बोलते कि ‘छोड़ गांडीव, उठा तू ढोल-मंजीरा, कीर्तन कर यहाँ पर, क्या पता शकुनि भी नाचने लगे आकर!’ पर ऐसा तो कृष्ण ने बोला नहीं कि कीर्तन करो, उन्होंने तो कहा, ‘युद्ध करो!’

तो कोई कुछ भी कह सकता है, आपको प्रयोजन होना चाहिए कि कृष्ण ने क्या कहा। कोई संस्था हो, कोई बाहर की संस्था हो, मेरी संस्था हो, किसी संस्था वगैरह से हमें क्या मतलब? हमें मतलब तो कृष्ण से होना चाहिए न, बस!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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