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चलना काफ़ी है || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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चलना काफ़ी है || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

मारग चलते जो गिरे, ताको नाही दोस। कहै कबीर बैठा रहे, ता सिर करड़ै कोस॥

~ कबीर साहब

आचार्य प्रशांत: जो चलते हुए गिरता है उसका दोष नहीं है, जो बैठा रहता है उसके सिर पर कोटिक पाप हैं। क्या कह रहे हैं कबीर?

प्रश्नकर्ता १: कोशिश की बात कर रहे हैं कि जो कोशिश कर रहा है उसको दोष मत दो अगर वो कुछ गलत कर भी देता है। पर जो जानबूझकर कोशिश नहीं कर रहा है और बैठा हुआ है, वो दोषी है।

प्र२: आपने एक बात बोली थी कि दिखता तो सबको है कि अगर मैं एक ही दिन सत्र में आता हूँ तो समझ में कुछ नहीं आ रहा होता है, पर वो अपनी गुलामियों से इतना आसक्त होते हैं कि देखने के बाद भी अनदेखा कर देते हैं। तो जो देखेगा वो तो सत्र के लिए चले गए पर जो अनदेखा करेगा, वो बैठा रहेगा, खुश रहेगा। तो यही यहाँ पर कह रहे हैं कि जो चलता है वो शायद फिसलेगा, उसको दोष मत दो क्योंकि वो चलने की कोशिश तो कर रहा है। उसमें इतनी ईमानदारी तो है कि देखने के बाद चल पाया। लेकिन जो बैठा हुआ है, वो सबसे बेईमान आदमी है। उसके अंदर बेईमानी छुपी हुई है, लालच छुपा हुआ है और इसीलिए वो बैठा हुआ है।

प्र३: एक चीज़ और कह सकते हैं, ‘बैठा है' से अभिप्राय यहाँ पर गलत तरीकों से है, और जब तक आप उसकी अभिव्यक्ति करेंगे नहीं तब तक उस दु:ख का, उन गलतियों का निवारण भी नहीं कर पाएँगे। अगर वो बैठा हुआ है मन के अंदर चोर बनकर तो उसका कुछ कल्याण भी नहीं होना है। और अगर वो अभिव्यक्त हो जाए कि ये समस्या है, या ये गलत हो रहा है, या उसे खुद नही पता है कि ये गलत है पर अगर उसको अभिव्यक्त ना करे तो उसका निवारण भी नहीं होगा। तो चलने से शायद यही तात्पर्य है।

आचार्य: आप क्लास लेने जाते हो, वहाँ कोई तीन छात्र बैठे हैं, तीनों का पहला सेशन है। अगले दिन तीनों ही सेशन में अनुपस्थित हो जाते हैं। आप पता करते हो कि बात क्या है, आए क्यों नहीं।

पहला बोलता है, 'मैं इसलिए नहीं आया क्योंकि आप जो कुछ बताने जा रहे हो, वो मुझे पहले से पता है।' दूसरा कहता है, 'मैं इसलिए नहीं आया क्योंकि आपने जो कुछ कहा, वो मुझे कुछ समझ में ही नहीं आया। जब मुझे समझ में ही नहीं आया तो आने से फायदा क्या?' तीसरा कहता है, 'मैं इसलिए नहीं आया क्योंकि जो आप कहते हो मुझे समझ में तो सब आता है पर मैं वो कर नहीं पाऊँगा।' इन तीनों में क्या भेद है?

प्र१: ये जो तीसरा है, हम उसको दोष नहीं दे सकते।

आचार्य: ये तीनों एक ही भूल कर रहे हैं, जो अध्यात्म के जगत में मूल भूल है, उसके अलावा यहाँ कोई भूल होती नहीं। वो भूल ये है कि मैं सब कुछ करूँगा, सब देखूँगा, बुद्धि का पूरा प्रयोग करूँगा, अपने को बचाते हुए। मैं जो हूँ, उस पर आँच नहीं आने दूँगा। आत्म-चिंतन कभी नहीं करूँगा, अपनी दृष्टि को अपनी ओर कभी नहीं मुड़ने दूँगा। मैं जो हूँ, उसको तो कायम रहना ही होगा। मुझे स्वयं को बदलना नहीं है, किसी भी हालत में बदलना नहीं है, क्योंकि मैं डरा हुआ हूँ। मुझे लगता है कि मेरी जो पहचान है, मैं जो हूँ, वही मैं हूँ, और अगर वो मैं नहीं रहा तो मैं मिट जाऊँगा। मैं बहुत डरा हुआ हूँ।

ऐसा व्यक्ति कभी शांत होकर आत्म-चिंतन नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्ति के पास आप सब कुछ पाएँगे पर मौन नहीं पाएँगे। उसका मन कभी समाधि की ओर नहीं जाना चाहेगा, कभी शांत, बिल्कुल शांत नहीं होना चाहेगा। अवाक् कभी ये हो ही नहीं पाएगा।

इसकी हालत उस आदमी जैसी होगी जो दुनिया की सुन्दरतम पर्वत-श्रृंखला के सामने खड़ा हो, और पास में एक खूबसूरत नदी बह रही हो, और अचानक से सूर्योदय हुआ हो, सूर्य की पहली किरण दिख रही हो, और ये अपने बगल वाले से कहे, 'अरे, चिप्स का पैकेट कहाँ है? ज़रा चिप्स देना।' और चिप्स का पैकेट लेकर कहे, 'किस कंपनी का है? कहाँ से आ रहा है?' वो ये सब कुछ करेगा जो मौन को तोड़ दे, जो समाधि को तोड़ दे क्योंकि इसे ख़ुद को कायम रखना है। मौन आपको तोड़ देता है। आप मौन पसंद नहीं करेंगे, आप उसे भंग करना चाहेंगे।

एक बात आपने तय ही कर रखी है — हम बदलें न। और आपको बहुत दोष दिया भी नहीं जा सकता क्योंकि आपको शायद ख़ुद भी ये नहीं पता है कि आपने ये कब तय किया। आपको शायद ख़ुद भी नहीं पता है कि आपकी मूल-वृति, अहम्-वृत्ति है, जो ‘अहम्’ को कायम रखना चाहती है, ‘मैं’ को कायम रखना चाहती है। ‘मैं जो हूँ, वो बचा रहे’, उसी का अर्थ होता है, ‘बैठ जाना’।

"कहै कबीर बैठा रहे, ता सिर करड़ै कोस।"

बैठा हुआ होना — 'मैं जहाँ स्थापित हूँ, मैं वहीं रहूँगा, वहीं बैठा रहूँगा, वहाँ से हिलूँगा नहीं। हाँ, वहाँ बैठे-बैठे मुझसे जो कराना है, करा लो। मैं जहाँ बैठा हूँ, मैं वहीं बैठूँगा। वहाँ से बैठे-बैठे मुझसे पूछो कि क्या दिख रहा है, मैं बताऊँगा। मैं जहाँ बैठा हूँ, मैं बैठूँगा तो वहीं। वहाँ बैठे-बैठे मुझे और ज्ञान देना है तो दे दो, मैं अपनी जगह नहीं बदलूँगा। मैं रहूँगा तो वही, जो मैं हूँ।'

ये अकेली भूल है जो साधक करता है। ये अकेली भूल है, जो कोई भी करता है। इसके अलावा कोई दूसरी भूल होती नहीं। तभी कबीर कह रहे हैं, ‘ता सिर करड़ै कोस’। इस भूल की कोई माफ़ी भी नहीं है। जो भी कोई ये भूल कर रहे हैं, उनका जन्म व्यर्थ ही जाना है।

यहाँ बात प्रयत्न की नहीं है। आपने कहा कि एक व्यक्ति है जो उठ कर प्रयत्न कर रहा है, बात प्रयत्न की नहीं है, बात नीयत की है। ये जो व्यक्ति अपनी जगह पर बैठा हुआ है, ये भी घोर प्रयत्न करता है, प्रयत्न में ये पीछे नहीं है। पर एक बात इसने तय कर रखी है कि, ‘सारे प्रयत्न अपने को कायम रखते हुए करूँगा’, ये खूब प्रयत्न करता है।

आप एक आम संसारी को देखिए, उसका पूरा जन्म कोशिश करते-करते ही तो बीतता है, प्रयत्न में ही तो बीतता है। पूरी उम्र वो प्रयत्न के अलावा और करता ही क्या है? लेकिन उसके सारे प्रयत्नों के नीचे, उसकी ‘अहंता’ को कायम रहना ही रहना है। खूब प्रयत्न करूँगा, लेकिन मूल बीमारी को छोड़ने की बात मत करना, बाकी आपको जो बात करनी है, कर लो।

एक बार मैंने एक मरीज़ की बात की थी जिसको कैंसर था। उसके बारे में फिर से बताता हूँ। वो डॉक्टर के पास जाता है, और डॉक्टर से कहता है, 'करवा लो, मुझे गंजा कर दो, मुझे पाँच-दस मील दौड़ा लो। जो करना है करवा लो, बस एक काम मत करना, ये मत कहना कि कैंसर छोड़ दो!'

डॉक्टर ने पूछा, 'क्यों?', तो कहने लगा, 'क्योंकि मैं कैंसर ही हूँ, कैंसर चला गया, तो मैं खत्म हो जाऊँगा।'

उसने बीमारी से रिश्ता बना लिया था। उसने बीमारी को अपनी पहचान बना लिया था। उसे गहरा डर था कि ये बीमारी गई, तो मैं चला जाऊँगा। तुम्हारी हालत वैसी ही है।

"कहै कबीर बैठा रहे, ता सिर करड़ै कोस।" जो बैठा हुआ है, जो ये देखने को प्रस्तुत नहीं है कि अहंकार ने किसके साथ अपना संबंध जोड़ लिया है, वो बैठ गया है। उसने तय कर लिया है कि हम तो ऐसे ही हैं, और ऐसे ही रहेंगे। और मैं ऐसे व्यक्ति का लक्षण आपसे कह रहा हूँ, ये व्यक्ति आत्म-चिंतन, आत्म-दर्शन के क्षणों से बहुत घबराएगा। इसे सब स्वीकार हो जाएगा पर मौन इसे नागवार रहेगा।

आपने ऐसे लोग देखे होंगे जो बोलते हैं, खूब बोलते हैं, और मौन आते ही असहज हो जाते हैं, बड़े बेचैन से हो जाते हैं। अगर वो आपके साथ बैठे हैं, और बीच में एक मिनट का भी मौन आ जाए तो इनके लिए मौन झेल पाना बड़ा मुश्किल होता है। क्योंकि शब्दों में हमारा झूठ छिपा रहता है। मौन में तो मन का सारा तथ्य उद्घाटित होने लगता है। मौन नहीं झेल पाएँगे।

जाँचना हो यदि आपको कि आपके रिश्तों में कितनी गहराई है, तो ये प्रयोग करके देखिए कि कौन आपके साथ ऐसा है जिसके साथ आप घंटे-दो घंटे मौन में बैठ सकते हो, सहज हो कर। कौन ऐसा है जिसके साथ आप जब बैठें, तो आपको ये विचार ही ना करना पड़े कि आप किसी के साथ बैठे हुए हैं।

ये सूत्र दे रहा हूँ — जिसके साथ बैठ कर आपके मन में बार-बार ये विचार उठे कि मैं किसी के साथ बैठा हूँ, तो वो व्यक्ति आपके लिए खतरनाक है। जिस व्यक्ति के साथ बैठ कर आप नितांत अकेले हो सकें, केवल वही व्यक्ति आपके लिए उचित है, क्योंकि एकमात्र सच्चा रिश्ता मौन का होता है। अगर पति-पत्नी मौन होकर सहज नहीं रह पाते हैं, तो दोनों एक-दूसरे के लिए खतरनाक हैं। वो बोल ही इसलिए रहे हैं ताकि स्थापित रह सकें, कायम रह सकें।

"कहै कबीर बैठा रहे", क्योंकि बोलने वाला कौन है? वही जो बैठा हुआ है। बोल-बोल कर आप उस बैठे हुए की सुरक्षा करते रहते हैं। जब आप बोलना बंद करेंगे, तो उस बैठे हुए को ख़तरा हो जाता है, नकली है वो। ध्यान में उसको ख़तरा हो जाता है।

आपने देखा होगा फिल्म की कहानी जितनी फ़िज़ूल होगी, उसका फ्रेम उतनी तेजी से बदलता है। फिल्मकार ये बिल्कुल चाहता ही नहीं है कि आप किसी भी फ्रेम को ध्यान से मिनट-दो मिनट देख पाएँ, वो तुरंत फ्रेम बदल देगा। जितनी सतही, जितनी उथली, फिल्म की कहानी होगी, जितना उथला उसका संदेश होगा, उतनी ही तेजी से फ्रेम बदलेगा। क्यों? क्योंकि वो चाहता ही नहीं है कि आप ध्यान से देख पाएँ। वो चाहता है कि गति बनी रहे। गति बनी रहे, नहीं तो सच सामने आ जाएगा। ठीक इसी तरीके से हम चाहते हैं कि होठों में गति बनी रहे। मौन हो गए, ठहर गए, तो सच सामने आ जाएगा।

"मारग चलते सो गिरे, ताको नाही दोस।"

कैसे दोष हो सकता है? जो गिर रहा है, वो अतीत की पैदाइश है। जो गिर रहा है, वो गलतियों का ही तो पिंड है। कैसे दोष दोगे उसे? गिरने वाला और है कौन? चेतना तो नहीं गिरती, बोध तो नहीं गिरता; या ये गिरते हैं? सत्य तो नहीं गिरता। कौन है गिरने वाला? जिसके ऊपर अतीत का पूरा बोझ है, जिसके ऊपर संस्कारों और शिक्षा की छाप है। वही तो गिर रहा है न? उसे दोष कैसे दोगे?

चलना काफ़ी है क्योंकि मंज़िल कोई होती नहीं। चलना शुरुआत नहीं है, चलना काफ़ी है। चलने से अभिप्राय ये न लीजिएगा कि चलना शुरू किया है तो कहीं पहुँचेंगे। चलना काफ़ी है क्योंकि मंज़िल कोई होती नहीं, तो चलना बहुत है। चलने का अर्थ क्या है? चलने का अर्थ है कि जहाँ बैठे थे, वहाँ से उठ गए। बस हो गया, काफ़ी है, इतना ही काफ़ी है। अब कहाँ को जा रहे हो, इससे फ़र्क नहीं पड़ता, गिर रहे हो या उठ रहे हो, फ़र्क नहीं पड़ता।

तुम जहाँ चिपक कर बैठ गए थे, जिस अड्डे को तुमने जकड़ लिया था, तुमने वो छोड़ दिया न? उतना काफ़ी है। अब कहाँ जाते हो, इससे फ़र्क नहीं पड़ता, बिल्कुल फ़र्क नहीं पड़ता। चलना काफ़ी है। सो रहे थे, उठ गए, अब कहाँ जाते हो उठकर, इससे फ़र्क नहीं पड़ता। उठा हुआ व्यक्ति जहाँ भी जाएगा, ठीक ही जाएगा। पूरा अस्तित्व खुला हुआ है, कहीं भी जाए।

चलना उठने के सदृश है, कि उठ गए। चलने का अर्थ है — उस जगह से विस्थापित हो लिए जहाँ पर अपना स्थान बना कर बैठे थे। वहाँ से विस्थापित हो लिए। उठना भी वैसा ही है— सोए पड़े थे, बिस्तर को ही अड्डा बना लिया था, वहाँ से उठ दिए, चल दिए। जाओ, अब जहाँ जाना है। क्यों फ़िक्र करते हो कि कहाँ जाना है; जाओ, जहाँ भी जाना है। सवाल महत्वपूर्ण नहीं है। उठ गए हो, जाओ, गिरो, पड़ो, फिसलो, जो करना है करो। जो भी कर रहे हो, जगी आँखों से कर रहे हो न? बस यही काफ़ी है।

न अब कोई पाप है, न पुण्य है; न अच्छा है, न बुरा है। सिर्फ़ तुम्हारी खुली हुई आँखें हैं, जो है सब बढ़िया है। तुम बिस्तर में सोए पड़े रहो, उससे कहीं-कहीं ज़्यादा अच्छा है कि तुम उठो, और बाहर आओ, और उगता हुआ सूरज देखो, और उसी क्षण तुम्हारे प्राण निकल जाएँ। प्राण निकल भी गए, तो किसके? जो जगा था उसके।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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