चाँद पर चंद्रयान, और मन में अज्ञान? || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2023)

Acharya Prashant

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चाँद पर चंद्रयान, और मन में अज्ञान? || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2023)

प्रश्नकर्ता: सर,आज शाम को चन्द्रयान सफ़लतापूर्वक चाँद पर लैंड (उतरना) कर गया है। हमें भी बहुत खुशी है और पूरा देश भी बहुत खुश है। इस पर आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहेंगे?

आचार्य प्रशांत: खुशी की बात तो है ही, और बहुत ज़रूरी था कि सुर्खियों में कोई वैज्ञानिक घटना आये, कोई अच्छी ठोस वैज्ञानिक सफ़लता आये। तो मैं समझता हूँ कि पूरे देश को इस बात पर बधाई दी जानी चाहिए, ‘इसरो’ को भी। और यहाँ से एक नयी शुरुआत होनी चाहिए।

प्र: जी, इसरो का ही यूट्यूब चैनल है। जहाँ पर चन्द्रयान की लाइव लैंडिंग जो है दिखाई गयी थी। और वहाँ पर करीबन एक समय ऐसा भी रहा था जब सत्तर लाख लोग लाइव उसको देख रहे थे।

आचार्य: काफ़ी बड़ा आँकड़ा है शायद।

प्र: जी, आज तक का सबसे बड़ा आँकड़ा है, जब भी लाइव स्ट्रीम (ऑनलाइन प्रसारण) की अगर बात की जाए।

आचार्य: बहुत-बहुत अच्छी बात है कि ऐसे समय में जब विज्ञान भारत में बहुत अटैक्ड (हमला) है, विज्ञान की जैसे घेराबन्दी कर दी गयी है और उसको पीछे धकेला जा रहा है। ऐसे समय में आम जनता इतनी बड़ी तादात में अगर एक साइंटिफिक इवेन्ट (वैज्ञानिक घटना) को देख रही है तो ये बहुत-बहुत खुशी की बात है।

और मैं बस ये चाहता हूँ कि ये न हो कि इसरो के यूट्यूब चैनल पर आपने एक मेज़र साइंटिफिक इवेन्ट (बड़ी वैज्ञानिक घटना) को देखा और उसके बाद फिर आप जाकर के अपनी ज़िन्दगी में, पुराने अपने ढर्रों में वापस व्यस्त हो गये। और उसी यूट्यूब पर जाकर के आपने बहुत सारे अतार्किक कार्यक्रम देखने शुरू कर दिये, इललॉजिकल (विसंगत) आपने बातें सुननी शुरू कर दीं और अन्धविश्वास और मिथ्या, भ्रामक प्रचार वाली चीज़ों में आपने फिर मन लगा लिया ये नहीं होना चाहिए।

एक बार आपने ये कह दिया, ये मान लिया कि विज्ञान में बड़ी ताकत है। और भारत भी विज्ञान के क्षेत्र में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, विश्व का चौथा देश बना है, जिसने चाँद पर सॉफ्ट लैंडिंग करी है। और चाँद पर जिस जगह पर ये लैंडिंग हुई है, वहाँ पर तो लैंडिंग करने वाला भारत पहला ही देश है।

तो एक बार आपने अपनेआप को भारतीय विज्ञान से जोड़ दिया तो मैं चाहता हूँ कि अब आप जुड़े ही रहें। मैं चाहता हूँ, ये न हो कि अब आप पलटकर के दोबारा अन्धविश्वास और व्यर्थ की रूढ़ियों और प्रथाओं में वापस चले जाएँ। क्योंकि विज्ञान और अन्धविश्वास साथ-साथ नहीं चलते। एक बार आपने विज्ञान की जय-जयकार कर दी तो अब विज्ञान की ही जय-जयकार करें।

और विज्ञान का मतलब ये नहीं है कि आपके पास बारहवीं में साइंस होनी चाहिए या आपने बारहवीं में विज्ञान या टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग कुछ लिया है तो ही आपके पास एक वैज्ञानिक मन होना चाहिए। साइंटिफिक स्पिरिट (वैज्ञानिक दृष्टिकोण) की बात है, साइंटिफिक स्पिरिट का मतलब है ― जिज्ञासा।

कुछ भी ऐसा न मानूँगा, न करूँगा, जिसको समझा नहीं है। अपनी ओर से सवाल उठाऊँगा, धारणा मान्यता पर नहीं चलूँगा, बोध पर चलूँगा, समझने पर चलूँगा। ये बात विज्ञान पर और साफ़ अध्यात्म पर एक साथ लागू होती है।

विज्ञान में और विशुद्ध अध्यात्म में दोनों में ये साझी बात है कि हम मानते नहीं हैं, हम ऐसे नहीं हैं कि कोई प्रथा परम्परा चली आ रही है तो बस उसको मान लिया। हम प्रयोग करते हैं, हम जानना चाहते हैं। भई चाँद पर भी आपने जो भेजा है, वो क्या है? अभी तो आप लैंडिंग का जश्न मना रहे हो लेकिन लैंडिंग पहला ही कदम है, असली काम अब शुरू होना है।

तो जो प्रज्ञान अब उसमें रोवर है, वो बाहर निकलेगा; ये लैंडिंग हो गयी। विक्रम लैंडर था, अब उसमें से रोवर बाहर निकलेगा वो क्या करेगा? तो वो चौदह दिनों तक माने पृथ्वी के चौदह दिनों तक वो वहाँ पर खोज-ख़बर करेगा, अन्वेषण करेगा, एक्सप्लोरेशन (अन्वेषण) करेगा। और वो एक लूनर डे (चँद्र दिवस) है, पृथ्वी के चौदह दिन में वो।

तो अगर आप चाँद की भाषा में कहेंगे तो वो एक ही दिन वहाँ काम करेगा। लेकिन वो एक दिन काफ़ी बड़ा है, यहाँ के दो हफ़्ते के बराबर है। तो वहाँ पर जाकर के जिज्ञासा करेगा, वो जानना चाहता है। और अगर जानना नहीं था तो फिर चन्द्रयान भेजने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी न? फिर तो मान्यता से ही काम चल जाता और कुछ भी मान्यता कर लेते।

भारत में हम कहानियों पर बहुत चल लेते हैं न, क्योंकि कहानियाँ सस्ती होती हैं। कहानियों में तो बैठे-बिठाये बस कल्पना करी और कहानी बन गयी। कुछ श्रम तो करना नहीं पड़ता न। तो आप चाँद को लेकर भी कहानी कर सकते थे कि चाँद पर ऐसा होता है या चाँद पर एक सफ़ेद परी बैठी हुई है या चाँद पर बहुत सारी बर्फ़ है इसलिए सफ़ेद-सफ़ेद दिखाई देता है। आप कुछ भी चाँद को लेकर भी तो कल्पना कर सकते थे न। लेकिन हमने क्या कहा? देखो, हमने कहा कि हम कल्पना पर तो नहीं चलेंगे, हम जाएँगे और देखकर के आएँगे, भले ही उसके लिए हमको कितनी भी मेहनत करनी पड़े।

तो ये तीसरा चन्द्रयान है। और दूसरा था, हम सबने देखा था कि वो कैसे बस अपनी मंज़िल के निकट पहुँचते-पहुँचते रह गया था। लेकिन हमने हार नहीं मानी, हम लगे रहें। हमने कहा, ‘हमें जानना है।’ चन्द्रयान-२ में थोड़ा हमको सेटबैक (नाक़ामयाबी) हो गया था। लेकिन कोई बात नहीं। हमने कहा, फिर प्रयास करेंगे। उसके कुछ साल बाद हमने फिर प्रयास करा है और इस बार सफ़लता मिली है।

तो ये वैज्ञानिक तरीक़ा होता है जीने का ― पूछते रहो, पूछते रहो भले उत्तर न मिले, जानने का प्रयास तो करते रहो। जानने का प्रयास कर रहे हो और उसमें हार मिल गयी, वो कहीं बेहतर है किसी उधार के या काल्पनिक सस्ते जवाब से। ठीक है?

तो चन्द्रयान-२ में हार मिल गयी थी लेकिन कोई बात नहीं आपने प्रयास करा, करा और फिर जीत मिली। वैसे ही ज़िन्दगी में भी किसी बात को बस मान मत लीजिए कि कोई बात चली आ रही है तो मैंने मान ली, कोई बात किसी ने कह दी तो मैंने मान ली, कोई बात सारा समाज मानता है तो मैंने मान ली, पूरी भीड़ किधर को चल रही है तो मैं भी चल दिया। तो वैसे नहीं करना है। जैसे श्रम करके आप वहाँ पहुँचे हो और वहाँ पर खोज-ख़बर लोगे। काम मैंने कहा अब शुरू हो रहा है, आप वहाँ पर आप देखोगे कि वहाँ की मिट्टी में क्या है, आप देखोगे वहाँ बर्फ़ है कि नहीं है, पानी है कि नहीं है, वहाँ पर मिनरल्स खनिज कौन से मिल रहे हैं और पचास चीज़ें हैं।

जो वहाँ पर जो पेलोड गया है उसमें कई तरीक़े के साइंटिफिक इक्विपमेंट्स (वैज्ञानिक उपकरण) रखे हुए हैं। तो वो वहाँ पर जाकर के क्या करेंगे? परीक्षण करेंगे, प्रयोग करेंगे। ये शब्द बहुत ज़रूरी हैं।

तो जितने भी लोग हम सबके साथ आज चन्द्रयान का जश्न मना रहे हैं, हम सभी मना रहे हैं, पूरा देश मना रहा है। तो जितने भी लोग हमारे साथ शामिल हैं इस उत्सव में, मैं उन सबसे कहूँगा कि अब इन शब्दों को भूलिएगा मत।

जो चन्द्रयान का उद्देश्य है, उसको भूलिएगा मत। मात्र लैंडिंग पर बधाई देने से काम नहीं चलेगा भई और आगे तक जाना पड़ेगा। और आगे तक जाकर क्या करना पड़ेगा? प्रयोग, परीक्षण, जिज्ञासा, प्रश्न। इन पर जीवन चलना चाहिए, इन पर समाज चलना चाहिए, इन पर शिक्षा चलनी चाहिए, इन पर देश चलना चाहिए, इन पर राजनीति चलनी चाहिए। हम बात करना चाहते हैं, हम समझना चाहते हैं, इन्हीं पर धर्म चलना चाहिए, इन्हीं पर सबका जीवन चलना चाहिए, पूरे परिवार भी इन्हीं पर चलना चाहिए, सबकुछ इसी पर चलना चाहिए।

तो चन्द्रयान की सफ़लता के प्रति हमारा जो सही रुख है वो ये होना चाहिए। कि विज्ञान को हम अपने जीवन में और गहराई से उतारें, सम्मान दें। तब जाकर के हम अधिकारी होंगे एक-दूसरे को ये कहने की कि भाई बड़ा मज़ा आया, बड़ा आनन्द आया, बड़ी जीत मिली। अभी तो समझिए जीत का बस आरम्भ हुआ है, असली जीत अभी आगे मिलनी बाकी है। वो तब होगा जब चन्द्रयान की जो साइंटिफिक स्पिरिट है, उसको सारी जनता अपने जीवन में उतारेगी, तब असली जीत मिलेगी।

प्र: जी, बहुत ही इम्पॉर्टेंट (महत्त्वपूर्ण) बात है कि वो जो चन्द्रयान है, वो प्रतीक है उस साइंटिफिक स्पिरिट का।

आचार्य: और क्या और क्या। नहीं तो क्यों भेजतें? मैं वही तो पूछ रहा हूँ, वहाँ भेजा क्यों? “चँदा मामा दूर के, पुए पकाए पूर के। आप खाए थाली में, मुन्ने को दे प्याली में।” ले लो कहानियाँ, बना लो कि वो हैं, वहाँ बैठे हुए हैं। और दुनिया की कोई सभ्यता नहीं रही है, पूरे विश्व में कोई ऐसे लोग नहीं रहे हैं जिन्होंने चाँद को लेकर के किस्से-कहानीयाँ नहीं बनायें।

लेकिन किस्से-कहानियों पर नहीं चलना है, किस्से कहानियों पर नहीं चलना है। पुराने समय तो मज़बूरी थी कि किस्से कहानी न करें तो क्या करें, विज्ञान इतना आगे बढ़ा ही नहीं था कि वहाँ तक पहुँचे। तो हम ऐसे ही कुछ सोचते थे, उस पर आगे बढ़ते थे। फिर धीरे-धीरे हमने देखना शुरू किया कि चाँद है, फिर हमने उसको ऑब्जर्व (निरीक्षण) करना शुरू किया कि बात क्या है।

और जब पहले के समय में जाओगे तो हमको तो यही नहीं पता था कि चाँद और सूरज की कक्षाएँ अपनी प्रकृति में बहुत भिन्न हैं। तब जियो सेंट्रिक मॉडल (भूकेन्द्रित मॉडल) चलता था जिसमें हम मानते थें कि चाँद और सूरज दोनों पृथ्वी का चक्कर लगा रहे हैं। हमें ये दिखता ही नहीं था एक हमारा सेटेलाइट (उपग्रह) है और दूसरे के इर्द-गिर्द हम घूमते हैं, सौर मंडल को हम ठीक से समझते ही नहीं थे।

तो चाँद को लेकर हमने न जाने कितनी ऐसी बातें कह रखी थीं और भी हैं। सब संस्कृतियों में चाँद बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रखता है। वो ठीक है, कविता के लिए ठीक है। लेकिन जीवन को तो तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर ही चलना पड़ेगा न? तो वो तार्किकता हम अपने जीवन में लेकर के आएँ, खोज करें, खबर करें। यूँही नहीं कि कुछ भी अन्धविश्वास में माने पड़े हैं।

प्र: जी। इसी में आचार्य जी एक जो आपने साइंटिफिक स्पिरिट के बारे में बात कही, जो एक आम भारतीय का जीवन होता है उसमें काफ़ी ज़्यादा प्रभाव रहता है एस्ट्रोलॉजी (ज्योतिषी) का। तो एस्ट्रोलॉजी बनाम एस्ट्रोनॉमी (खगोल विज्ञान) ?

आचार्य: हाँ, यही अगर हो जाये। मान लो कि जितना महत्त्व एक आम भारतीय एस्ट्रोलॉजी को देता है, उसका दस प्रतिशत महत्त्व भी वो एस्ट्रोनॉमी को देने लगे। आज जो हुआ है, वो एक बड़ा एस्ट्रोनॉमिकल इवेन्ट है। लेकिन भारतीय एस्ट्रोनॉमी को न सम्मान देते हैं, न महत्व देते हैं। हाँ, कभी चार-पाँच साल में ऐसा कुछ हो जाये, चन्द्रयान-मंगलयान तो फिर ठीक है उसका नाम आ जाता है। नहीं तो हमारे जो दैनिक जीवन हैं, उसमें तो यही चलता है, एस्ट्रोलॉजी ही चलती है। तो अगर चन्द्रयान ये भी कर पाये कि हमारी ज़िन्दगी में एस्ट्रोनॉमी को ला पाएँ, जो कि एक विशुद्ध विज्ञान है, जिसके न जाने कितने लाभ हैं। और ऐसी चीज़ों को हटा पाये, जो सूडो साइंटिफिक (छद्म वैज्ञानिक) हैं।

तो ये बहुत बड़ी बात होगी और ये बहुत आवश्यक बात है। आज बहुत ज़रूरी है क्योंकि भारत न जाने क्यों अभी एक बड़े विचित्र काल से गुज़र रहा है। हमने सोचा था कि अन्धविश्वास वगैरह कम होते ही जा रहे हैं, होते जा रहे हैं और मिट ही जाएँगे धीरे-धीरे। हमने सोचा था कि विज्ञान और इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी (सूचना प्रौद्योगिकी) इनकी जो प्रगति है वो अन्धविश्वास को और दकियानूसी सोच को पीछे ढकेल ही देगी। जब हम कॉलेज में थे तो हम ऐसा सोचा करते थे। कहते थे कि भाई सुपरस्टीशन (अन्धविश्वास) का मुद्दा ही अब पुराना हो गया।

प्र: यहाँ तक कि ये भी रहता था कि सुपरस्टीशन फ्लरिश (फलना-फूलना) इसलिए करता है कि इन्फॉर्मेशन (जानकारी) नहीं अवेलेबल (उपलब्ध) है।

आचार्य: इन्फॉर्मेशन नहीं अवेलेबल है तो हम सोचते थें कि शिक्षा आगे बढ़ रही है, विज्ञान आगे बढ़ रहा है और अब इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का युग आ गया तो ये अपनेआप जो व्यर्थ की बातें हैं ― ये, वो, जादू, टोना, टोटका, भूत, प्रेत और पचासों तरह की विचित्र प्रकार की मान्यताएँ, अफ़वाहें, सब अन्धविश्वास हम सोचते थे ये पीछे हट ही जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। उल्टे पिछले दस-बीस साल में जैसे-जैसे इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी बढ़ी है और विशेषकर सोशल मीडिया बढ़ा है, वैसे-वैसे अन्धविश्वास ज़बरदस्त तरीके से बढ़ा है।

ये कुछ उल्टा खेल हो गया है कि अन्धविश्वास भारतीय समाज में कम होता जा रहा था, होता जा रहा था, होता जा रहा था और पिछले एक-दो दशक में तेज़ी से दोबारा बढ़ गया और अब बढ़ता ही जा रहा है और उसके बढ़ने की गति भी बढ़ती जा रही है।

तो इस सन्दर्भ में मुझे लगता है कि चन्द्रयान जैसी घटनाएँ, चन्द्रयान जैसी सफ़लताएँ हमको और चाहिए और जल्दी-जल्दी चाहिए। जल्दी-जल्दी चाहिए ताकि हमें याद आ सके कि सच्ची प्रगति और सच्ची सफ़लता कहते किसको हैं? नहीं तो हमारा जो भारतीय समाज है वो बहुत तेज़ी से अज्ञान के अँधेरे में डूबता जा रहा है और ये बड़ी अज़ीब बात है। क्योंकि अब जब ज्ञान पहले से कहीं ज़्यादा आसानी से उपलब्ध है तो अज्ञान और अन्धविश्वास इतना क्यों फलने-फूलने लग गये। ये बड़ा विचारणीय प्रश्न है, इस पर सबको सोचना चाहिए। लेकिन फिर भी मैं समझता हूँ कि जितनी भी वैज्ञानिक सफलताएँ होती हैं, वो आम जनमानस को विज्ञान की तरफ़ बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। और इस दृष्टि से चन्द्रयान एक बहुत-बहुत महत्वपूर्ण सफ़लता है।

प्र: अक्सर आचार्य जी, ये भी होता है कि जो अन्धविश्वास है, वो धर्म के कँधों पर चढ़कर के आगे-आगे बढ़ता है; जो प्रचलित धर्म होता है। तो जैसे-जैसे पिछले दस-बीस साल में अन्धविश्वास बढ़ा है, उसी तरीक़े से वो धर्म भी आगे बढ़ा है।

आचार्य: धर्म का वो स्वरूप आगे बढ़ा है, आप कहना चाह रहे हो?

प्र: जी, स्वरूप आगे बढ़ा है।

आचार्य: बिलकुल ये होगा ही। देखो, धर्म ऊँची-से-ऊँची चीज़ हो सकता है, और धर्म से ज़्यादा खराब चीज़ भी कोई नहीं हो सकती निर्भर करता है कि आप धर्म के कौन से स्वरूप को, कौन से छोर को पकड़ रहे हो।

अपने उच्चतम और शुद्धतम रूप में धर्म विशुद्ध अध्यात्म है, अध्यात्म मात्र। क्या? स्वयं की खोज, मैं कौन हूँ, अपनेआप को जानना, अपना अवलोकन करना, अपने मन को, वृत्तियों को, विचारों को, भावनाओं को, अपने स्रोत को और अपने अन्त को समझने का प्रयास करना। ये विशुद्ध धर्म है अपने उच्चतम, अपने शुद्धतम रूप में। लेकिन अपने निम्नतम रूप में, अपने सबसे गिरे हुए रूप में धर्म का मतलब होता है ― पाखण्ड, अन्धविश्वास, नफ़रत तमाम, तरीके की मानसिक क्षुद्रताएँ, शोषण। और धर्म अगर ऐसा स्वरूप ले लेता है तो फिर धर्म से ज़्यादा गड़बड़ चीज़ कोई नहीं होती।

और खेद की बात ये है कि शायद आज भारत में धर्म अपने निचले तल की तरफ़ ही बढ़ता दिखाई दे रहा है। और उसका नतीज़ा ये हो रहा है कि जो थोड़े भी सोचने-समझने वाले समझदार लोग हैं, वो धर्म को छोड़ते ही जा रहे हैं, और ये बड़ी हानि की बात है।

धर्म एक तरह से अड्डा बन गया है ऐसे लोगों का जिनको धर्म की कोई समझ ही नहीं है, जो धर्म की ओर आए ही हैं सिर्फ़ अपने किसी क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के लिए। जिनको धर्म का ‘ध’ नहीं पता अध्यात्म का ‘अ’ नहीं पता, वो आज सबसे ज़्यादा धार्मिक बनकर घूम रहे हैं। और उन्होंने धर्म पर कब्ज़ा कर लिया है, वो धर्म के ठेकेदार हो गए हैं।

तो ऐसे लोग जिनके पास प्रतिभा है, विचार है, बोध है वो धर्म से दूर होते जा रहे हैं। और इससे धर्म को बड़ी घातक क्षति हो रही है। आपको ऐसा लगेगा कि समाज में धार्मिकता बढ़ रही है। आप देखोगे कि धार्मिक जगहों पर बड़ी-बड़ी भीड़ें इकट्ठा हो रही हैं, हज़ारों की कई बार लाखों की। आप कहोगे, ‘ऐसा लग रहा है जैसे भारत में धार्मिकता बढ़ रही है। धार्मिकता नहीं बढ़ रही है, वो भीड़ बढ़ रही है बस अँधी भीड़, मदान्ध, धर्मान्ध भीड़। जिसको धर्म की कोई समझ नहीं है लेकिन वो बस धार्मिक नारे लगाना जानती है। और जो वास्तविक धर्म है ― अध्यात्म, आत्मज्ञान वो खोता जा रहा है। वास्तविक धर्म का पालन करने वाले लोग कम और कम होते जा रहे हैं।

तो उस अन्धविश्वास को जो चुनौती दी जा सकती है, वो इन्हीं दो तरीकों से दी जा सकती है, या तो विज्ञान के द्वारा या साफ़ अध्यात्म के द्वारा। और इसीलिए इस बातचीत की शुरुआत में मैंने कहा था कि ये विज्ञान और साफ़ अध्यात्म एक साझा आधार पर खड़े होते हैं। और उस साझा आधार का नाम है ― इन्क्वायरी (जाँच करना), जिज्ञासा, इन्वेस्टिगेशन ( जाँच पड़ताल), एक्सप्लोरेशन ( अन्वेषण)।

प्र: जैसे चन्द्रयान वहाँ पर पहुँचा है, और वो एक साइंटिफिक आपका अचीवमेंट (प्राप्ति) है। साथ में जब हम विशुद्ध अध्यात्म की बात करते हैं तो वहाँ पर इन्क्वायरी ही केन्द्रीय चीज़ होती है। जो एक तरीके से वो साइंटिफिक स्पिरिट (वैज्ञानिक भावना) में भी रिफ्लेक्ट (प्रदर्शित) हो रही है। पर जब उसको प्रचलित धर्म की लेंस (चश्मे) से देखा जाता है तो ये देखा जाता है कि शायद सफ़लता में इस चीज़ का भी हाथ रहा कि चन्द्रयान इस पर्टिकुलर डेट (नियत तिथि) पर गया।

आचार्य: ये बेकार की बातें हैं ये सब। इनकी चर्चा भी नहीं की जानी चाहिए, इनकी चर्चा भी नहीं की जानी चाहिए। ये सब जो अज्ञान है और बिलकुल पाखण्डी बातें हैं, इनका दुस्साहस तो देखिए कि ये जाकर के कटिंग एज़ साइंस (अत्याधुनिक विज्ञान) पर भी कब्ज़ा कर लेना चाहते हैं, ये वहाँ भी अपना दावा ठोंक देना चाहते हैं।

तो ये क्या देना चाहते हैं कि सुपर कम्प्यूटर इसलिए बन पाया क्योंकि उसकी शुरुआत किसी विशेष दिन हुई थी या उसको किसी विशेष दैवीय शक्ति का आशीर्वाद प्राप्त था या कि चन्द्रयान मिशन इसलिए सफ़ल हो पाया क्योंकि कहीं पर जाकर के लड्डू चढ़ायें गए थे या कोई और काम किया गया था। ये बहुत ही मूर्खता की बात है और कोई भी व्यक्ति जो ज़िन्दगी को, धर्म को, विज्ञान को जानता-समझता होगा ऐसी बात पर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दे पाएगा। वो ऐसी बात पर बस हँस सकता है और आगे बढ़ सकता है।

प्र: जी। एक और चीज़ रहती है कि जो एक आम भारतीय का जीवन रहता है, एक तरफ़ तो आपने कहा कि चाहे हम विशुद्ध अध्यात्म की बात करें या फिर एक साइंटिफिक स्पिरिट की बात करें दोनों में ही इन्क्वायरी आती है। पर हमारी जो पूरी दिनचर्या होती है, जो हमारा जीवन होता है सुबह से शाम तक, या हमारे जो निर्णय होते हैं, हमारे लिए जो चीज़ महत्वपूर्ण होती हैं वो सभी कहीं-न-कहीं हमारे बिलीफ़ सिस्टम (मान्यता) या ट्रेडिशन (परम्परा) या कल्चर (संस्कृति) से आ रही होती है, उसमें इन्क्वायरी नहीं होती है।

आचार्य: इसमें इन्क्वायरी नहीं होती है? और हमें ये मानने में बड़ा सुख मिलता है कि हमें इन्क्वायरी कोई ज़रूरत ही नहीं है। क्यों? क्योंकि इन्क्वायरी की ज़रूरत तब होती है न, जब आपको कुछ पता न हो। भारत में एक बड़ा विचित्र रुख देखने को मिल रहा है। वो ये है कि हमें कोई वैज्ञानिक ज्ञान चाहिए ही नहीं क्योंकि सारा विज्ञान तो हमारी परंपरा में पहले से मौजूद है, तो हमें कुछ भी जानना क्यों है।

इसलिए मुझे थोड़ा सा डर भी है। हम इतने सारे लोग एक-दूसरे को बधाई दे रहे हैं और एक-दूसरे को चीयर (प्रोत्साहित) कर रहे हैं। कह रहे हैं, ये हुआ है। पर कहीं ऐसा तो नहीं कि ये सब लोग जो चन्द्रयान की सफ़लता पर एक-दूसरे को बधाई दे रहे हैं, इनके मनसूबे इनको ही बहुत स्पष्ट न हो। क्योंकि आमतौर पर भारत में विज्ञान को बहुत सम्मान दिया नहीं जाता है।

तो मुझे बहुत खुशी हो रही है देखकर कि अचानक पूरा देश एक वैज्ञानिक घटना पर इतना प्रसन्न, इतना आह्लादित हो गया है कितनी खुशी की बात है। लेकिन साथ-ही-साथ मुझे थोड़ा डर भी लग रहा है। मैं समझना चाहता हूँ कि ये सब लोग वास्तव में विज्ञान की सफ़लता का जश्न मना रहे हैं या इनका जो उत्सव है, इनकी जो खुशी है वो किसी और कारण से है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कल ये चन्द्रयान का ही उदाहरण लेकर के अपने किसी और तरीके के मनसूबे पूरे करने लग जाएँगे। ऐसा होना नहीं चाहिए। लेकिन अगर ऐसा हो तो हमें सतर्क रहना होगा।

भारत में तो ये खूब रहा है न कि अज़ी क्या करेंगे कुछ जानकर के, हमें तो सब पहले से पता है। और ये भी कह देते ही कि पश्चिम के पास जो विज्ञान है वो भी उन्होंने हमसे ही तो चुराया है। नहीं तो हमारे पास तो सबकुछ, सदा से मौजूद था। तो उस चीज़ पर थोड़ा सतर्क रहने की ज़रूरत है। दृष्टि जिज्ञासा की होनी चाहिए। अज्ञान की और पाखण्ड की नहीं, मूर्खता पूर्ण बातों की नहीं।

प्र: जी। अभी जो आपने बात कही, उसी में ऐसा भी लगता है या वो डर भी रहता है उस चीज़ को लेकर के कि जो सेलिब्रेशन का माहौल है, जो जश्न का माहौल है ― कई बार क्या होता है कि आप इतना ज़्यादा उसमे लॉस्ट (गुम) हो जाते हो कि आप एन्क्वायर करना ही भूल जाते हो कि जश्न है किस चीज़ के बारे में।

आचार्य: वो कई बार क्या होता है न, जश्न इस बारे में हो जाता है कि हम बड़े महान हैं, हम बड़े महान हैं। इसरो महान है, निश्चित रूप से इसरो ने वहाँ पर पहुँचा दिया। लेकिन हम सबको, हम आम भारतीयों को अपनेआप से पूछना पड़ेगा कि हमारी अपनी ज़िन्दगी में कितनी महानता है। इसरो ने विज्ञान को इतना आगे पहुँचा दिया, हमें अपनेआप से पूछना पड़ेगा, ‘हमारी ज़िन्दगी में कितना विज्ञान है।’

भारत का अतीत महान है, निश्चित रूप से। हमें अपनेआप से पूछना पड़ेगा कि मैं आज का भारतीय हूँ, मेरा वर्तमान कितना महान है?, मैं कितना महान हूँ?, मैंने महानता को कितना सम्मान दिया है?, मैंने अपनी महानता की तरफ़ कितना श्रम किया है? नहीं तो बात बहुत अज़ीब सी हो जाएगी न। मान लीजिए हमारे दादाजी हों और दादाजी बहुत बड़े क्रान्तिकारी थे, बहुत बड़े क्रान्तिकारी थे। क्या मैं बैठे-बिठाये दादाजी के नाम की खा सकता हूँ। मुझे ये भी तो देखना पड़ेगा न कि उन्होंने तो बहुत ऊचे काम किये, मैं क्या कर रहा हूँ।

तो ये नहीं होना चाहिए कि अतीत की महानता और इसरो की सफ़लता से हममें बस झूठा अहंकार भर जाए। इसरो के पास विज्ञान है, हमें अपनेआप से पूछना पड़ेगा ― हमारी ज़िन्दगी में विज्ञान कितना है और अज्ञान कितना है। इसरो का विज्ञान तो बहुत बढ़िया है, विश्व में उसका आदर हो रहा है। लेकिन हमें अपनेआप से भी तो पूछना पड़ेगा कि हमारी अपनी ज़िन्दगी में, निजी ज़िन्दगी में विज्ञान कितना है और अज्ञान कितना है। और अगर हम ये बात नहीं पूछ रहे हैं तो फिर हमारे जश्न का बहुत मतलब नहीं रह जाता है।

प्र: जिस तरीक़े से आज एक जश्न का माहौल है और बिलकुल वाज़िब कारण है उसके लिये। इसी तरीक़े से हमारे जो त्यौहार भी होते हैं वहाँ पर बस एक माहौल पूरा बन जाता है कि अब जश्न मनाना है पर क्यों मनाना है? वो क्यों है?

आचार्य: हाँ, वही बात है न, जैसे हम विज्ञान को नहीं समझते हैं वैसे ही हम अध्यात्म को नहीं समझते हैं। तो जहाँ बात आती है भौतिक पदार्थों की जिनसे विज्ञान का सम्बन्ध होता है। वहाँ भी हमारे पास बस हमारी मान्यताएँ होती हैं। हमें कुछ पता नहीं, हम माने रहते हैं, कुछ भी मान लेते हैं।

हम कह देते हैं, ये फ़लानी चीज़ हैं, ये खाने से ही हो जाता है। अरे! तुमने कभी किसी से पूछा, कुछ जाँचा, तुमने कुछ उस पर पढ़ा। लेकिन हमारे पास मान्यता रहती है। कुछ भी कह देंगे, कहते हैं, फ़लानी चीज़ है, फ़लाना कर दो। धुआँ आएगा, उस धुएँ से हवा शुद्ध हो जाएगी। तुमने जाँचा, तुमने किसी ऐसे पूछा? फ़लानी चीज़ है, वो आँख में डाल लो उससे आँख की रोशनी तेज़ हो जाती है।’

प्र: इसमें आचार्य जी, हम पूछते तो हैं पर ताऊजी, चाचा से।

आचार्य: हाँ, तो किससे पूछा जाए, वो व्यक्ति भी तो प्रामाणिक होना चाहिए न। वो व्यक्ति ही प्रमाणिक होना चाहिए। अध्यात्म में इस चीज़ को बहुत महत्व देते हैं ― ज्ञान-मीमांसा, इपिस्टेमोलॉजी कि आप किस बात को प्रमाणिक मान रहे हो। जैसे विज्ञान इस बात पर बहुत ज़ोर देता है कि कौनसी बात माननी है, कौनसी बात नहीं माननी है, ये बात तो बस प्रयोग से सिद्ध होगी। हमारे आपके ओपिनियन से, मत से नहीं सिद्ध होगी। यही काम अध्यात्म करता है।

अध्यात्म भी पहले ये जानने की कोशिश करता है कि कौनसी बात मानने लायक है, कौनसी बात मानने लायक नहीं है। कौनसा स्रोत हम प्रमाणिक रखें, कौनसा स्रोत हम प्रमाणिक नहीं रखेंगे। तो दर्शन कुछ भी कहने से पहले एक इस बात में जाता है कि प्रमाण किस को मानूँ। हर बात प्रमाण नहीं होती। उदाहरण के लिए कोई चीज़ मेरे अनुभव में आ गयी, मेरे अनुभव में आने भर से वो प्रमाण नहीं हो जाती है। हो सकता है मेरा अनुभव झूठा हो, हम धोखा खाते हैं। है न?

तो वो जो तार्किकता है, जिज्ञासा है, वैज्ञानिकता है वो ज़िन्दगी में उतरनी बहुत ज़रूरी है। नहीं तो बड़ी ये विसंगत और बड़ी बेमेल बात हो जाएगी कि हम साल में एक दिन, जैसे आज का दिन है। हम उत्सव विज्ञान का मना रहे हैं, और तीन सौ चौसठ दिन हम डूबे अज्ञान में हुए हैं। वो बात बड़ी गड़बड़ हो जाएगी।

भौतिक दुनिया विज्ञान से चलती है। तो जब बात आए पदार्थ की, मटेरियल की, यूनिवर्स की, कॉसमॉस (ब्रह्मांड) की तो वहाँ हमें विज्ञान से बात करनी है। और आन्तरिक दुनिया अध्यात्म से चलती है। तो जब बात आए मन की, वृत्ति की विचार की, भावना की तो वहाँ हमें विशुद्ध अध्यात्म पर चलना है। लेकिन चाहे भौतिक दुनिया हो, चाहे आन्तरिक दुनिया हो, भाई अँधी मान्यता पर, धारणा पर, अन्धविश्वास पर तो बिलकुल ही नहीं चलना है। चाहे बाहरी दुनिया की बात हो, चाहे भीतरी दुनिया की बात हो।

प्र: इसमें आचार्य जी, एक चीज़ और रहती है कि हमारे लिए जो अन्धविश्वास होता है, वो बड़ी सेक्रेड (पवित्र) चीज़ होती है। वो ये ही नहीं रहता कि आप जानते हो कि अन्धविश्वास है और उसको फॉलो करो, वो आपके लिए अन्धविश्वास नहीं है। तो इसकी वजह से क्या होता है कि यदि कोई व्यक्ति अन्धविश्वास बिलकुल घिरा हुआ है अन्धविश्वास से और अगर आप उसको बताओगे या टोकोगे या समझाने की भी कोशिश करोगे तो वो बहुत वायलेंट (हिंसक) हो जाता है कई बार।

आचार्य: वो इसलिए हो जाता हैं क्योंकि उन्होंने गलत चीज़ को सेक्रेड मान लिया है। पवित्र बस वो है जो बदल न सके। ये वेदान्त का सार है। जो नित्य है बस वही पवित्र है, जो बदल ही नहीं सकता बस वही पवित्र है। ऐसी चीज़ पवित्र नहीं हो जाती है जो मेरे देखने पर एक चीज़ है और आपके देखने पर दूसरी चीज़ है। या कि आज मैं देख रहा हूँ तो मुझे एक चीज़ लग रही है, कल मैंने देखा वही चीज़ मेरी ही दृष्टि में बदल गयी उसको नित्य या पवित्र नहीं बोलते हैं।

तो सिर्फ़ अगर कोई चीज़ मेरा अपना व्यक्तिगत मत है, ओपिनियन है तो मैं उसको सेक्रेड नहीं मान सकता। सिर्फ़ इसलिए कि कोई चीज़ परम्परा से चली आ रही है वो पवित्र या सेक्रेड नहीं हो जाती। अध्यात्म का बहुत सीधा-सीधा आग्रह है ― जो कुछ भी मानसिक है, मन से उत्पन्न है या मन में विचार के तौर पर आ भी सकता है उसको पवित्र मत मान लेना।

जो पवित्र है, जो सेक्रेड है, जो असली है, जो सत्य है वो मन के आगे का है। तो वो मन की कल्पना में या मन के विचार में ही समा सकता। तो जो भी चीज़ें आप सोचकर बैठे हो, उनको सेक्रेड नहीं मानना है। सेक्रेड नहीं मानना है माने हमेशा तैयार रहना है उन पर सवाल खड़े करने के लिए।

सेक्रेड अकेला है जिस पर कोई सवाल कर नहीं सकते। क्योंकि वो किसी वक्तव्य में आ नहीं सकता न। वो किसी शब्द में नहीं आ सकता, उसका कोई उदाहरण, कोई उपमा, कोई उपाधि नहीं हो सकती। तो उस पर आप सवाल कैसे खड़ा करोगे? सवाल खड़े करने के लिए कोई वक्तव्य होना चाहिए न, कोई चीज़ होनी चाहिए, कोई वस्तु होनी चाहिए। जो सेक्रेड है वो मन के और वस्तुओं के और भौतिकता के अतीत है। ठीक है? तो उस पर सवाल नहीं खड़ा करा जा सकता। लेकिन दुनिया की हर चीज़ पर सवाल खड़ा करा जाना चाहिए। आपकी अपनी जो सब मान्यताएँ हैं, उन पर सब पर सवाल खड़े होने चाहिए। अपने सब विश्वासों को अन्धविश्वास ही माना जाना चाहिए और सबको जिज्ञासा की कसौटी पर कसा जाना चाहिए।

आपके विश्वास, आपकी मान्यताएँ सेक्रेड नहीं हो जाते। सिर्फ़ इसलिए कि आप किसी चीज़ को आज तक मानते आए हो, आपके मानने भर से वो चीज़ पवित्र नहीं हो जाती या सत्य नहीं हो जाती। हमें इस बात के लिए तैयार रहना होगा, अगर हम सचमुच सत्य का आदर करते हैं तो। क्योंकि वास्तविक धर्म का मतलब ही यही होता है, सत्य को सर्वोच्च स्थान और सत्य को सबसे ऊँचा आदर देना। मेरी मान्यता का थोड़ी सर्वोच्च स्थान है। सत्य का सर्वोच्च स्थान है न? तो अपनी मान्यता को तो मैं बार-बार परखूँगा, उससे बार-बार प्रश्न करूँगा, उसे ठोक-बजाकर देखूँगा, भई इसमें कुछ दम है! ये थोड़ी कि मेरी मान्यता पर किसी ने सवाल उठाया तो मैं उग्र हो गया, हिंसक हो गया। ये करना समझदारी नहीं है।

प्र: जी, धन्यवाद आचार्य जी। इसी पर मैं एक दूसरी दिशा में आपसे सवाल पूछना चाहूँगी कि अभी जैसे आर्टेमिस-2 है, अमेरिका उसको लॉन्च (शुरू) कर रहा है जहाँ पर ह्यूमंस ऑर्बिट (ग्रहपथ) में जाया करेंगे; २०२४ में वो लॉन्च होने वाला है। इसी तरीक़े से चन्द्रयान के बाद इसरो जो है ‘गगनयान’ के लिए भी प्लान कर रहा है।

तो स्पेस एक्सप्लोरेशन कंटीन्यूअसली (अंतरिक्ष अन्वेषण निरन्तर) और मतलब डिकेड (दशक) से ये चल रहा है और आगे भी अभी हम कोशिश कर रहे हैं कि हम मार्स (मंगल गृह) को आगे वहाँ पर भी जाकर के स्टेब्लिशमेंट (स्थापना) कर सकें। तो मैं इस पर आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहती थी कि आप इसको किस तरीक़े से देखते हैं?

आचार्य: देखो, जैसे अभी हमने बात करी न, वो बात थी, साइंस वर्सेस सुपरस्टिशन (विज्ञान बनाम अन्धविश्वास) ठीक है? कि जब आप साइंस की उपलब्धि का उत्सव मना ही रहे हो तो फिर सुपरस्टिशन को फिर किनारे रख दो हमेशा के लिए। ये नहीं होना चाहिए कि साइंस का उत्सव मना लिया और अपनी ज़िन्दगी में सुपरस्टीशन को पनाह दिये ही रहे, वो नहीं होना चाहिए।

उसी तरीक़े से आपने अब जो मुद्दा उठाया है उसका नाम है ― एक्सप्लोरेशन वर्सेस एक्सप्लॉइटेशन , (अन्वेषण बनाम शोषण)। एक्सप्लोरेशन क्या है? कि जैसे ये हमारा वहाँ पर मिशन पहुँचा है चाँद पर। तो उसमें एक एक्सप्लोरर (अन्वेषक) है। वो क्या कर रहा है? वो चाँद की सतह का एक्सप्लोरेशन कर रहा है, जाँच-पड़ताल, खोजबीन, अन्वेषण, परीक्षण ये सब कर रहा है।

तो एक्सप्लोरेशन अपनेआप में बहुत अच्छी बात है। लेकिन अगर हमारा मन शुद्ध नहीं होता है, अगर नीयत साफ़ नहीं होती है तो जो एक्सप्लोरेशन है वो जल्दी ही एक्सप्लॉइटेशन में बदल जाता है।

आप मानवता को देखिए, आज हम बात कर रहे हैं उदाहरण के लिए चाँद को कॉलोनाइज (उपनिवेश) करने की, मार्स को कॉलोनाइज करने की। अमेरिका में लोग हैं, कम्पनीज़ है जो कह रहे हैं कि अब हम इंसान को मार्स पर ले जाएँगे, इंसान को मार्स पर बसाएँगे। कॉलोनाइज़ करने के लिए इंसान जहाँ भी गया है, उसने उस जगह को बर्बाद ही किया है। ठीक है?

भारत अंग्रेज़ो की कॉलोनी बना, भारत की क्या दुर्दशा हुई आपने देखा ही। अंग्रेज़ अफ़्रीका में घुसे वहाँ क्या किए वो आपने देखा ही। ऑस्ट्रेलिया में, दक्षिणी अमेरिका में जितने भी वहाँ नेटिव्स (देशी) थें वो सब मारे गए, उत्तरी अमेरिका में भी यही हाल हुआ।

हम जहाँ कहीं भी एक्सप्लोरेशन के लिए जाते हैं, वहाँ हम कॉलोनाइजेशन और एक्सप्लॉइटेशन (शोषण) शुरू कर देते हैं। हम जहाँ कहीं भी ये कहकर जाते हैं कि साहब हम तो एक्सप्लोरेशन के लिए आ रहे हैं, वहाँ हम करने लग जाते हैं कॉलोनाइजेशन और एक्सप्लॉइटेशन। ठीक है?

तो जो यूरोपीय लोग थे, जो यूरोपीय देश थे, वो जब नयी-नयी जगहों पर पहुँचते थे, चाहे वो अफ़्रीका हो, चाहे वो दक्षिणी अमेरिका हो, चाहे वो एशिया हो तो वो कहते यही थे कि हम तो अच्छी नीयत से आए हैं। हम तो जानने समझने आए हैं, हम तो यात्री हैं। और हम यहाँ पर देखेंगे, समझेंगे और अगर आपके पास कुछ अच्छी वस्तुएँ होंगी तो हम उनका व्यापार करना चाहेंगे। तो कहकर तो ऐसे आते हैं हम। लेकिन हम करना क्या शुरू कर देते हैं फिर, हम बर्बादी करना शुरू कर देते हैं। तो हमें इस बात को लेकर सतर्क रहना होगा।

चाँद को कॉलोनाइज करना बहुत अच्छी बात है या मार्स को कॉलोनाइज करना ठीक है। लेकिन ये तो बताइए आपने अपनी पृथ्वी का क्या कर रखा है? और पृथ्वी के आठ सौ करोड़ की आबादी, उनमें से कितने लोगों को आप ले जाकर के मार्स पर बैठा दोगे? आजकल मार्स की बहुत बातें होती हैं। कितने लोगों को वहाँ बैठा दोगे? वही जो अमीर होंगे वही जा सकते हैं और बाकियों को यहाँ मरने के लिए छोड़ोगे? इतनी बर्बादी कर दो पृथ्वी की, इतनी बर्बादी कर दो पृथ्वी की कि पृथ्वी रहने लायक़ न बचे और फिर जो चन्द, गिने-चुने अमीर लोग हैं, उनको कहो कि आओ ह्यूमन रेस (मानव जाति) को बचाने के लिए हम आपको दूसरे ग्रहों-उपग्रहों पर ले चलते हैं, ये कैसी दुष्टता है। है न?

तो ज्ञान का सही उपयोग तभी हो सकता है, जब जो ज्ञान अर्जित करने वाला है वो सही नीयत से काम कर रहा हो। नहीं तो ज्ञान बड़ी खतरनाक चीज़ हो जाती है, बहुत खतरनाक चीज़ हो जाती है।

अभी कुछ दिन पहले वो ओपेनहाइमर पर किसी ने सवाल पूछा था, फ़िल्म आयी थी। तो आपने क्या करा आपने जो एटम है, जो अणु है, उसके नाभिक में जाकर के उसके रहस्य सब निकाल लिये। और उससे क्या करा आपने? उससे आपने जाकर के लाखों लोगों को मार डाला। ज्ञान बहुत घातक हो जाता है। अगर ग़लत हाथों में पड़ जाये तो।

अगर आप अपने महाकाव्यों की ओर जाएँगे तो रावण महाज्ञानी था। लेकिन उसका वो ज्ञान जो है पूरे विश्व के लिए घातक सिद्ध हो रहा था। तो ज्ञान तो अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है कि मानवता ज्ञान अर्जित कर रही है। और आज ह्यूमैनिटी (मानवता) के पास जितना ज्ञान है, नॉलेज है उसका तो एक प्रतिशत भी अतीत में कभी नहीं रहा। लेकिन हमने उसका इस्तेमाल अपनेआप को बर्बाद करने के लिए खूब करा है। अच्छे कामों के लिए भी करा है, उदाहरण के लिए हमने दवाइयाँ बना दी हैं, सूचना प्रौद्योगिकी का विस्तार देख लीजिए आप और ट्रांसपोर्टेशन (परिवहन) ज़्यादा आसान हो गया है।

प्र: टेक्नोलॉजिकल (तकनीकी)।

आचार्य: हाँ, गरीबी घटी है, अन्न का उत्पादन बढ़ा है। ये सब बातें हुई हैं। लेकिन इन सब बातों के साथ-साथ हमने अपनेआप को आज विनाश की कगार पर भी तो खड़ा कर लिया है। दुनिया में इस वक्त इतने नाभिकीय अस्त्र हैं, न्यूक्लियर वेपन्स हैं कि उनसे पृथ्वी को एक नहीं, सैकड़ों बार खत्म किया जा सकता है शायद हज़ारों बार। आप लोग गूगल कर लीजिएगा जो सही नम्बर हो।

पृथ्वी को एक बार खत्म करना ही पर्याप्त होगा न, खत्म हो गयी तो हो गयी। हमने इतने बम इकट्ठा कर लिये हैं कि उससे पृथ्वी को सैकड़ों, हज़ारों बार समाप्त किया जा सकता है। ये हमारे ज्ञान का नतीज़ा।

हम जितना पर कैपिटा कंजम्पशन (प्रति व्यक्ति उपभोग) कर रहे हैं, उसको पूरा करने के लिए हमें कम-से-कम दस पृथ्वियाँ चाहिए। और ये मैं वर्तमान दर की बात कर रहा हूँ, वर्तमान दर जो विश्व का औसत है। लेकिन हम उस औसत पर रहना भी नहीं चाहते। आज विश्व का प्रत्येक नागरिक चाहता है कि अमेरिका पहुँच जाए और जितना एक आम अमेरिकन कंज्यूम करता है उतना ही वो भी करे। जितना एक आम अमेरिकन कंज्यूम करता है, इतना विश्व का अगर प्रत्येक व्यक्ति करने लग गया तो दर्जनों पृथ्वियाँ चाहिए हमको और तब भी पूरी नहीं पड़ेंगी।

हम उतना कंजम्पशन चाहते हैं जितना, जितनी इलेक्ट्रिसिटी (बिजली) एक आम अमेरिकन करता है, जितना उसको लैंड (ज़मीन) चाहिए एक आम अमेरिकन को, जितना उसको फूड (भोजन) चाहिए, जितना उसको माँस चाहिए, जितना आयरन ओर (लौह अयस्क) चाहिए, जितना कोल चाहिए, जितने तमाम तरीके के और खनिज चाहिए, जितना स्टील चाहिए। हम कहते हैं, हमारा भी कंजम्पशन उतना होना चाहिए।

जितनी उसकी कार्स (कारें) हैं, वहाँ एक आदमी के पास औसतन एक से ज़्यादा कार है। प्रत्येक व्यक्ति के पास एक दशमलव समथिंग (कुछ) कार हैं। हम कह रहे हैं, हमारे पास भी ये सब होना चाहिए, तुम कहाँ से लाओगे? तो ये ज्ञान का नतीज़ा है। आपने अपने ज्ञान से इन सब चीज़ों को बनाया है। और उससे निश्चित रूप से सुख आये हैं, सुविधाएँ आयी हैं। लेकिन साथ-ही-साथ ज़बरदस्त तरीक़े की बर्बादी भी तो आ रही है न?

तो ज्ञान के साथ-साथ अध्यात्म बहुत ज़रूरी है। ज्ञान जिस इंसान के हाथ में पड़ना है, उसका मन साफ़ करना बहुत ज़रूरी है। नहीं तो वो बन्दर के हाथ में तलवार वाली बात हो जाएगी। बन्दर पता नहीं क्या-क्या काट डालेगा ज्ञान की तलवार से। अब भीतर से तो हम बन्दर ही रह गए, अध्यात्म वो है जो बन्दर को इंसान बनाता है।

विज्ञान इंसान के हाथ में ताकत देता है। पागल के हाथ में ताकत बहुत खतरनाक हो जाती है न? तो जैसे-जैसे हमारे हाथ में ताकत बढ़ रही है, वैसे-वैसे हमारे लिए और ज़रूरी होता जा रहा है कि हमारी आध्यात्मिक प्रगति हो।

अब मैं आपको एक ख़तरनाक बात बताता हूँ। हमारी भौतिक प्रगति तो हो रही है तेज़ी से, होना तो ये चाहिए कि जितनी तेज़ी से भौतिक प्रगति हो, जिस दर से, जिस रेट से, उसी रेट से आपकी आध्यात्मिक प्रगति भी हो। तब तो जाकर कुछ सन्तुलन बनेगा कि जैसे-जैसे आपके पास ज्ञान आता जा रहा है, वैसे-ही-वैसे आपके पास एक आन्तरिक संयम भी आता जा रहा है कि ज्ञान का इस्तेमाल कैसे करना है। नहीं तो आप पूरी पृथ्वी बर्बाद कर दोगे, इतने हमने वन काट डाले सब, सब खत्म कर दिया।

आप जानते हो? दुनिया में वनों के विनाश में भारत नम्बर दो पर है अब। भारत में १९९० से सन् २०२०के बीच में जितने हमने जंगल काट डाले, २०१५ से २०२० के बीच में ही हमने उससे तीन गुना ज़्यादा जंगल काट डालें। माने उधर दस साल में जितना काटा था, इधर पाँच साल में उससे कई गुना ज़्यादा काट डाला।

और भारत दुनिया में वनों के विनाश में इस वक्त पर अभी नम्बर दो पर चल रहा है, बस ब्राज़ील से पीछे हैं हम और हमारे पीछे है इंडोनेशिया। और ब्राज़ील में तो क्या है कि जंगल जो खत्म हो रहे हैं, वो खत्म हो रहे हैं क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) के कारण। इंडोनेशिया में जंगल खत्म हो रहे हैं, पॉम ऑयल के कारण। लेकिन भारत में इसलिए खत्म हो रहे हैं क्योंकि हमको विकास करना है। तो हम जंगल काटे जा रहे हैं, काटे जा रहे हैं, काटे जा रहे हैं।

अब आप जब पुराने आदमी थे तो आप इतने जंगल काट ही नहीं पाते। क्योंकि जंगल काटने के लिए भी ज्ञान और विज्ञान चाहिए। अब आपके पास ताकत आयी है कि आप कटाई कर सकते हो अँधाधुँध तो देखो आपने उस ताकत का क्या इस्तेमाल करा है। तो इसलिए विज्ञान बहुत घातक भी हो सकता है अगर आध्यात्मिक तौर पर मामला ठीक नहीं चल रहा है। गलत आदमी के हाथ में विज्ञान पड़ जाये ― अब हिटलर के हाथ में विज्ञान पड़ गया था तो देखो न उसने क्या करा। हिटलर के हाथ में सामरिक ताकत आ गयी थी, आर्थिक ताकत आ गयी थी, वैज्ञानिक ताकत आ गयी थी देखो उसने क्या कर डाला था।

हमें बहुत सतर्क रहना होगा। जैसे-जैसे अब हमारे हाथ में ताकत आ रही है, हमें देखना होगा कि हम भीतर से साफ़ हैं कि नहीं। नहीं तो उस ताकत से हम अपना ही गला काट डालेंगे।

प्र: जी। इसमें आचार्य जी जो विज्ञान की प्रगति है, उसको मापने के तो मिल जाते हैं पैरामीटर्स (मापदण्ड) या आपको रिपोर्ट्स (विवरण) भी मिल जाती हैं। पर जो आध्यात्मिक प्रगति है उसका कोई पैमाना नहीं मिलता?

आचार्य: उसके लिए यही देखना होगा कि जो आम आदमी है उसका प्रकृति के प्रति क्या नज़रिया है, पशुओं के प्रति क्या नज़रिया है। उदाहरण के लिए पर कैपिटा फ्लेश कंजम्पशन (प्रति व्यक्ति माँसहार) समाज में बढ़ रहा है कि घट रहा है, इससे पता चलेगा कि समाज का आध्यात्मिक स्तर ऊँचा हो रहा है कि गिर रहा है।

आप ये पाओ कि आम आदमी और ज़्यादा, और ज़्यादा माँस खाता जा रहा है तो इसका मतलब है कि समाज आध्यात्मिक तल पर नीचे-ही-नीचे गिरता जा रहा है।

समझ में आ रही है बात?

आप पाओ कि वनों का विनाश हो रहा है, आप पाओ कि एक-दूसरे के प्रति असहिष्णुता और सन्देह और द्वेष का ही माहौल बढ़ता जा रहा है, आप पाओ कि हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को शोषण की नज़र से देख रहा है, आप पाओ कि समाज में स्त्री और पुरुष एक-दूसरे को देह की तरह ही देख रहे हैं। तो ये सब इस बात के सूचक हैं कि समाज में अध्यात्म का स्तर गिरता जा रहा है।

इसी तरह से आप पाओ कि समाज में धर्म के नाम पर पाखण्ड और अन्धविश्वास ही ज़बरदस्त फैल रहा है, भीड़ पर भीड़ जमा हो रही है। तो इसका मतलब है अध्यात्म का स्तर खूब गिर चुका है। तो ये सब इंडिकेटर्स , सूचक होते हैं।

प्र: धर्म में पाखण्ड जो है वो अध्यात्म के अल्टरनेटिव (विकल्प) की तरह आता है।

आचार्य: हाँ, सच्चा अध्यात्म अहंकार को तोड़ता है न, अहंकार टूटना नहीं चाहता। लेकिन अहंकार ये भी चाहता है कि धार्मिक कहलाये।

प्र: जी।

आचार्य: अहंकार चाहता है कि उसको एक सर्टिफिकेट (प्रमाणपत्र) मिल जाए कि साहब ये धार्मिक आदमी है। लेकिन अगर धर्म असली है तो वो अहंकार को तोड़ेगा, तो अहंकार क्या करता है कि धर्म के नाम पर रीति-रिवाज़, परम्परा, पाखण्ड ये सब ला देता है; अन्धविश्वास ला देता है।

तो वो कहता है कि दोनों ओर से सुविधा हो गयी। साँप भी मर गया लाठी भी नहीं टूटी, हम धार्मिक भी कहला गए और अपने अहम् को भी हमें तोड़ना नहीं पड़ा। और धर्म के नाम पर क्या पकड़ लिया? कह दिया, हम फ़लानी चीज़ पर चलते हैं साहब, यही धर्म है हमारा। हमारी परम्परा ही हमारा धर्म है। सत्य की जगह संस्कृति पर चलने लग गए। सत्य को कोई आदर नहीं और संस्कृति की खूब बातें, ये संस्कृति, वो संस्कृति। ये सब अहंकार को बचाने की चीज़ें हैं।

प्र: धन्यवाद आचार्य जी मैं आपको और सभी लोगों को चन्द्रयान की सफ़लता पर एक बार फिर बधाई देती हूँ।

आचार्य: हाँ, और मैं सबके लिए कामना करता हूँ, शुभेच्छा करता हूँ कि चन्द्रयान की सफ़लता विज्ञान के दायरे से आगे बढ़कर, फैलकर हमारे समाज तक पहुँचे, हमारे घरों तक पहुँचे, हर इंसान तक पहुँचे। और चन्द्रयान जैसी ऊँचाई हम सबका जीवन पा सके। सबको शुभकामनाएँ।

प्र: आचार्य जी, अभी चन्द्रयान पर बात हुई थी, इंडियन स्पेस रिसर्च (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान) के ऊपर रिसेंटली (हाल ही में) एक टीवी सीरीज (श्रृंखला) आयी थी ‘रॉकेट बॉयज़’ और वो आपको बहुत पसन्द आयी थी। इतनी पसन्द आयी थी कि आपने ये तक कहा था कि आप उसे दो बार, तीन बार भी देख सकते हैं। तो वो इतनी क्यों पसन्द आयी थी आपको?

आचार्य जी: होमी भाभा के चरित्र के बारे में ‘होमी जहांगीर भाभा’। होमी भाभा पर्सनिफिकेशन (मानवीकरण) हैं साइंस (विज्ञान) की स्पिरिट (आत्मा) का। कि जैसे साइंस होती है न, फ़्रीडम (स्वतंत्रता) पर आधारित। फ़्री थॉट (खुली सोच) के बिना साइंस नहीं हो सकती। अगर दिमाग में पुरानी वर्जनायें घुसी हुईं हैं पुरानी लिमिट्स (सीमाएँ) घुसी हुईं हैं, पुराने ही तौर-तरीक़े घुसे हुए हैं तो साइंस नहीं चल सकती। इसलिए जब साइंस का डेवलपमेंट (विकास) होने लगा तो जो शुरू के जो साइंटिस्ट्स (वैज्ञानिक) थे उनको समाज ने और धर्म ने प्रताड़ित भी बहुत किया। साइंस माने फ़्रीडम, साइंस माने फ़्रीडम। और भाभा के कैरेक्टर (चरित्र) में वो फ़्रीडम एकदम दिखाई देती है।

तो माने जो ‘फ़्रीडम’ साइंस का प्रतीक है, आप भाभा का चरित्र देखिए उसमें बिलकुल वही फ़्रीडम एक इंसान के रूप में दिखाई देती है। तो इसलिए हमें ‘रॉकेट बॉयज़’ बहुत पसन्द थी। और कुछ व्यक्तिगत कारण भी हैं ― भाभा ने १९४५ में ‘टीआइएफआर’ (टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च) की स्थापना करी थी, और मेरे पिताजी का जो पूरा झुकाव था वो फ़िज़िक्स में ही था और एक समय पर वो ‘टीआइएफआर’ ही ज्वाइन (जुड़ना) करने वाले थे।

१९६६ में जब भाभा साहब की मौत हो गयी आकस्मिक तो उनके लिए एक कविता लिखी थी मेरे पिताजी ने, वो अभी भी मेरे पास है। फिर फ़िज़िक्स (भौतिकी) में मेरी भी खूब रुचि रही, ‘यूपीएससी’ (संघ लोक सेवा आयोग) में फ़िज़िक्स ही मेरा सब्जेक्ट (विषय) था।

तो जिनको फ़िज़िक्स पसन्द हो वो टीआइएफआर को भारत में कैसे भूल सकते हैं? पार्टिकल फ़िज़िक्स (कण भौतिकी), मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (अणुजैविकी जीव विज्ञान) और स्पेस रिसर्च (अन्तरिक्ष शोध) से भी टीआइएफआर का सम्बन्ध रहा है जितनी बेसिक (मूलभूत) साइंसेज रही हैं वो सब।

और भाभा का कैरेक्टर मुझे बहुत पसन्द है। और वो जो सिरीज़ थी जो दिखाई थी आपने, उसमें जिस तरीक़े से, जिस फ़्लरिश (अलंकार) के साथ भाभा को कैरक्टराइज़ (वर्णन करना) किया गया है वो बहुत ही जॉयफुल (आनन्दपूर्ण) है, देखने लायक़ है, क़ाबिले-ए-तारीफ़ है, बिलकुल मज़ा आ गया।

एक साइंटिस्ट आप ऐसे ही नहीं बन जाते हो। उसके लिए विचारों की स्वतंत्रता बहुत ज़रूरी है, चरित्र का खुलापन बहुत ज़रूरी है और आप भाभा को देखें तो वेल रेड कैरेक्टर हैं। वो एक आर्टिस्ट (कलाकार) भी हैं, वो म्यूजिक (संगीत) में भी अपनी प्रे᠎जेन्‍स (मौजूदगी) रखते हैं, और गज़ब के स्पोंटेनियस (स्वाभाविक) वो चुटकुले मार देते हैं।

तो भाभा टू मी इज़ साइंस परसोनिफाइड (मेरे लिए भाभा विज्ञान से परिपूर्ण हैं)और साइंस से मुझे बड़ा प्रेम रहा है। जिज्ञासा, द अर्ज टू नो, द अर्ज टू डिस्कवर एंड डीप रेजिस्टेंस अगेन्स्ट बॉन्डेजेज एंड सूपरस्टिशन (जानने की ललक, खोजने की ललक और बन्धनों और अन्धविश्वास के खिलाफ़ गहरा प्रतिरोध) कि भाई कोई बात मान्यता में चली आ रही है तो हम मान लेंगे, मान लेंगे। ऐसे नहीं विज्ञान चलता ऐसे नहीं चन्द्रयान चलता तो इसीलिए जो है मुझे साइंस पसन्द है।

साइंस पसन्द है, मैं ‘टीआइएफआर’ को कैसे भूलूँ? और फिर भाभा का जिस तरीके से जॉयफुल कैरेक्टराइजेशन (मज़ेदार चित्रण) था मूवी (फ़िल्म) में। आप ये नहीं कर सकते हो कि आप कहो कि आप साइंटिस्ट हो लेकिन सौ तरीके के आप अन्धविश्वास भी रखना चाहते हो। ऐसे साइंस नहीं होती है। आपको अगर सचमुच साइंटिस्ट होना है तो आपका दिमाग ऐसा होना चाहिए जो कहे कि सिर्फ़ इसलिए मैं कोई बात मान ही नहीं लूँगा कि सबने मान रखी है। वो भीड़ वाली चीज़ नहीं है, वो साइंटिफिक टेम्प्रामेंट (वैज्ञानिक स्वभाव) वाली बात है।

साइंस ऑब्जेक्टिव (वस्तुनिष्ठ) ही नहीं होती, जो सब्जेक्ट है जो साइंस कर रहा है जो वैज्ञानिक है, उसके भीतर भी साइंस होनी चाहिए। इसीलिए तो जब ये इतना चन्द्रयान पर अभी लोगों ने उत्सव मनाया है, खुशी व्यक्त की है तो मुझे अच्छी लग रही है लेकिन मेरे पास एक सवाल भी है। जो इतने सारे लोग हैं जो अभी कह रहे हैं ― ‘चन्द्रयान’, ‘चन्द्रयान’। इन्हें कुछ पता भी है ‘चन्द्रयान’ के बारे में?

इनसे पूछा जाए कि थोड़ा सा तो बात दो एकदम जो एलिमेंट्री (मूलभूत) बातें हैं कि एक स्पेस व्हीकल्स (अन्तरिक्ष यान) क्या होता है? रॉकेट लॉन्च (प्रक्षेपण) कैसे होती है या कि चन्द्रयान वहाँ पर गया है अगर तो उसका ऑब्जेक्टिव क्या है? ये थोड़ी है कि भारत चाँद को जीत लेना चाहता है। टीवी पर लिखा हुआ आ रहा था, ‘इण्डिया कॉन्कर्स मून’ (भारत ने चाँद को जीत लिया) ये क्या मज़ाक है या बेवकूफ़ी है?

ये तो बता दो कि चन्द्रयान अगर वहाँ गया है तो हमारा उद्देश्य क्या है? ये सब हमें नहीं पता। ये इस बात का प्रमाण है कि हमें साइंटिफ़िक स्पिरिट (वैज्ञानिक भावना) नहीं है बस जब साइंस कुछ करके दिखा देता है तो उसका श्रेय लेने के लिए हम गाजा-बाजा लेकर आगे आ जाते हैं।

और ये बात बड़ी विचित्र है, मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ जो साइंस के ही दम पर ज़िन्दा हैं, वो गोलियाँ खाते हैं, वो मशीनों पर जीते हैं, वो जाकर चेकअप कराते हैं, उनके ऑर्गन ट्रांसप्लांट (अंग प्रत्यारोपण) हुए हैं और पचास तरीक़े से जो कटिंग एज मेडिकल रीसर्च (अत्याधुनिक चिकित्सा अनुसंधान) है उसी के आधार पर वो ज़िन्दा हैं। लेकिन उनसे पूछो कि भाई साहब आप ज़िन्दा कैसे हैं? तो बोलेंगे,‘अरे! ये तो भगवान का चमत्कार है, हम ऐसे ज़िन्दा हैं।’

ये बात न मुझे बड़े इन्ग्रैटिटूड (कृतघ्नता) की लगती है कि आप साइंस की ही खा रहे हो और साइंस के ही मत्थे ज़िन्दा भी हो। लेकिन आप साइंस को कभी उसका श्रेय नहीं देते, ऐसे ही सब लोग हैं। मोबाइल फ़ोन हाथ में होगा जो कि टेक्नॉलॉजी की पैदाइश है, और मोबाइल फ़ोन पर वो घोर अन्धविश्वास की और मूर्खता की बातें कर रहे होंगे, वो उसी मोबाइल फ़ोन पर साइंस और टेक्नॉलॉजी को गाली दे रहे होंगे। ये कितनी अज़ीब बात है!

अब ये हम सब प्रसन्न हो रहे हैं चन्द्रयान को लेकर के, प्रसन्न होना भी चाहिए। लेकिन भाई अपने घर में भी, अपने जीवन में भी, अपने समाज में भी, अपने धर्म में भी, अपने देश में, अपनी राजनीति में और पूरे संसार में वो वैज्ञानिकता तो लेकर आओ न, वो खुलापन तो लेकर आओ न, वो विचारों की उदारता तो लेकर आओ न जिसके आधार पर विज्ञान खड़ा होता है। वो सब आपके पास है नहीं। बस विज्ञान जब कोई उपलब्धि हासिल कर लेता है तो उस उपलब्धि का श्रेय लेने के लिए और उस उपलब्धि का सुख भोगने के लिए आप पहुँच जाते हो। ये मेरे ख़याल से बड़ी कृतघ्नता की, बड़े एहसान-फ़रामोशी की बात है, इन्ग्रैटिटूड (कृतघ्नता)।

साइंस को भोग लेना है, सांइस का श्रेय ले लेना है। लेकिन साइंस जिस आधार पर खड़ा है, साइंस जिस दर्शन पर खड़ा है उसको कभी स्वीकार नहीं करना है। साइंस की जो मूलभूत बात है वो ये है, ‘मानूँगा नहीं, प्रयोग करूँगा, परीक्षण करूँगा, प्रश्न करूँगा’। न हम प्रयोग करते, न हम प्रश्न करते, न हम परीक्षण करते, हमारे पास प्रथा है, परम्परा है और पाखण्ड है। तो ये बात बड़ी मज़ेदार है और ये बात अगर होमी भाभा के सामने लायी जाए तो इस बात पर वो एक मस्त चुटकुला जड़ देंगे, मज़ा ही आ जाएगा। तो ‘रॉकेट बॉयज़’ मुझे इसलिए पसन्द है। और कुछ?

प्र: जी नहीं।

आचार्य: चलिए।

प्र: धन्यवाद।

आचार्य: (बिल्ली की ओर ईशारा करते हुए) ये देखिए इनको ये तब से हमारे साथ विचरण कर रही हैं।

(हँसते हुए।) हाँ भई, तुम्हें भी पसन्द है विज्ञान? रॉकेट बॉयज़ देखी है तुमने? नहीं, इन्हें तो रॉकेट कैट (बिल्ली) से मतलब है। चलिए, चलिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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