अध्यात्म महत्वाकांक्षा के विरुद्ध नहीं है।

Acharya Prashant

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अध्यात्म महत्वाकांक्षा के विरुद्ध नहीं है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा प्रश्न ये है कि महत्वाकांक्षा में औरों से आगे बढ़ने की ईर्ष्या होती है, वो ही कहीं-न-कहीं तरक्की की नींव है। तो क्या औरों से आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा ही हमें जीवन में मेहनत और कर्म करने के लिए हमें प्रेरणा नहीं देती?

आचार्य प्रशांत: नहीं! महत्वाकांक्षा बहुत अच्छी चीज़ है पर किस चीज़ की आकांक्षा कर रहे हैं? महत्वाकांक्षा में कोई बुराई नहीं है लेकिन आकांक्षा की दिशा तो ऐसी होनी चाहिए न, जो आपको कुछ लाभ भी दे। अध्यात्म महत्वाकांक्षा के विरुद्ध नहीं है। अध्यात्म आपको बताता है कि वास्तव में महत् कौन है? ‘महत्’ माने– बड़ा। वास्तव में महत्व किसका है? वास्तव में महान कौन है? जब उसको आप जान गये तो फिर उस महत् की आप आकांक्षा कर सकते हैं; ये हुई ‘महत्वाकांक्षा’। तो अध्यात्म तो वास्तविक महत्वाकांक्षा का विज्ञान है।

आमतौर पर आप जिसको महत्वाकांक्षा बोलते हैं वो महत्वाकांक्षा होती ही नहीं है। किसी बहुत छोटी-सी, मूल्यहीन-सी चीज़ के पीछे भागना महत्वाकांक्षा कैसे हो गया? बस भ्रम के कारण और मन पर पड़े प्रभावों और दूषित संस्कारों के कारण हमें ये लगने लग जाता है कि दुनिया की छोटी-छोटी चीज़ें भी बहुत बड़ी हो गयी हैं। जैसे कोई बच्चा हो उसके लिए चाट-पकोड़ा ही बहुत बड़ी चीज़ हो गयी हो तो उसकी नज़र से देखें तो उसकी ऊँची-से-ऊँची महत्वाकांक्षा ये है कि गोलगप्पे मिल जाएँ। अब वही बच्चा बड़ा हो जाता है तो थोड़े ज़्यादा बड़े गोलगप्पों के पीछे भागना शुरु कर देता है, और उसको वो कहता है कि मैं तो बड़ा महत्वाकांक्षी हूँ, एम्बिशियस हूँ। इसमें एम्बिशन है ही नहीं।

महात्वाकांक्षा तो तब है न, जैसा दोहरा रहा हूँ– ‘जब तुम महत् के पीछे भागो।’ अगर तुम्हें पता ही नहीं है कि बड़ा कौन है, छोटा कौन है तो तुम महत्वाकांक्षी हो ही नहीं पाओगे। हम छोटे के पीछे भागकर के सोचेंगे कि हम तो बड़े की तरफ़ जा रहे हैं, कुछ बड़ा हमको हासिल हो जाएगा; कुछ नहीं मिलने वाला। तो ये बहुत व्यर्थ की धारणा है कि अध्यात्म आपको महत्वाकांक्षा या तरक्की या प्रगति के रास्ते से रोकता है।

अध्यात्म आपको सही लक्ष्य की सुस्पष्ट आकांक्षा करना सिखाता है। और जब लक्ष्य सही होता है तो आप उसकी ओर दिल-ओ-जान से, प्रण-प्राण से आगे बढ़ते हो, फिर आपको कोई रोक नहीं सकता। तो अध्यात्म को, जैसा थोड़ी देर पहले कहा, ‘परम महत्वाकांक्षा का शास्त्र है।’

तरक्की की हमारी परिभाषा ही गड़बड़ हो गयी है। देखिए, तरक्की किसको चाहिए? आपको चाहिए न, एकदम बिलकुल ज़मीनी बात करते हैं। तरक्की आपको चाहिए, तो तरक्की आपकी उसी में तो है जिसमें आपकी कुछ भलाई हो।

हम बोलते हैं– ‘प्रगति।‘ गति तो हो सकता है किसी भी दिशा में हो जाए। प्रगति का क्या मतलब होता है? ‘सही दिशा में गति’, ‘एक उच्चतर तल पर गति’ उसे प्रगति बोलते हैं, उसी को तरक्की बोलते हैं न। किधर को भी यूँही लुढ़कते-पुढ़कते रहने को प्रगति थोड़े ही बोलते हैं कि इधर को चल पड़े, उधर को चल पड़े और बहुत दूर तक दौड़ गये तो प्रगति हो गयी।

भाईसाहब ने चढ़ा ली (शराब पीने का इशारा करते हुए) और दौड़ लगा दी और निकल गये तीन-चार मील; तो ये प्रगति कहलाएगी क्या? दूर तो बहुत पहुँच गये पर नशे में थे, उन्हें कुछ पता भी नहीं था जाना कहाँ है? जिधर को पहुँच गये उधर खाई थी, वहीं जाकर गिर भी गये। पर नशा इतना चढ़ा हुआ है कि चोट में भी कह रहे हैं, ‘वाह-वाह, मज़ा आ गया!’

अपने जैसे पाँच-सात और को प्रेरित कर रहे हैं कि हमने ज़िन्दगी में बहुत हासिल कर लिया है खाई में गिरकर। आओ, तुम भी दौड़ लगाोओ, हमारी ओर आओ। सबको मोटिवेशन दे रहे हैं और बता रहे हैं, ‘इधर आओ, इधर बहुत तरक्की है, इधर वाह-वाही मिलेगी।’ और वाह-वाही मिल भी जाती है क्योंकि उस खाई में सैंकड़ों लोग पड़े हुए हैं। अधिकांश मानवता उसी खाई में ही पड़ी हुई है नशे में। तो वो सब आपको वाह-वाही भी दे देते हैं उनके कारण आप उधर को दौड़ जाते हैं।

किसी भी दिशा में दौड़ने से पहले पूछ तो लीजिए वहाँ मेरे लिए रखा क्या है? और बहुत साफ़ विचार के बाद ही अपने समय को, संसाधनों को, ऊर्जा को, किसी चीज़ में लगाइए।

ज़िन्दगी इसलिए नहीं है कि आप अपने साल, दशक, अपनी कीमती अवस्था अन्धे लक्ष्यों के पीछे भागते हुए व्यर्थ कर दें। आप जिस अभी वय में हैं, आपको बहलाने, फुसलाने, ललचाने वाली ताकतें बहुत होगीं। जो आपको लगातार यही बता रही होगी कि अगर तुमने ये हासिल कर लिया, यहाँ पहुँच गये, ऐसा कहला गये तो तुम सफल कहलाओगे। बहुत जल्दी से उनके कहे में मत आ जाइएगा, वो झाँसे में आने जैसी बात है।

मैं नहीं कह रहा कि उनको आप उनको साफ़ खारिज कर दें। लेकिन इंसान को बुद्धि, प्रज्ञा क्यों मिली हुई है? इसलिए न, कि जो भी बात है थोड़ा उस पर विचार तो करिए। तो एक चीज़ होती है– साहब आप तीर्थयात्रा कर रहे हैं और आपने एक ऊँचाई हासिल करी, तरक्की। आप यात्रा हासिल करते हुए केदारनाथ पहुँच गये; इसमें भी आपने एक ऊँचाई हासिल करी है। और दूसरा था वो शोले का धर्मेन्दर वो टंकी पर चढ़ गया था शराब पीकर के और बोल रहा है कि मौसी बसन्ती नहीं मिलेगी तो कूद जाऊँगा। उसने भी एक ऊँचाई हासिल करी है।

अब केदारनाथ पर चढ़ जाना एक बात है और वहाँ टंकी पर चढ़कर कहना कि मौसी गोइंग जेल, एंड चक्की पीसिंग एण्ड पीसिंग। वो बिलकुल दूसरी बात हो गयी न? तो सिर्फ़ ऊँचाई हासिल कर लेने को तरक्की नहीं बोलते। अगर ऊँचाई हासिल कर लेने को तरक्की बोलते तो बहुत तरक्की हासिल कर ली थी उसने वहाँ पानी की टंकी पर चढ़कर। ठीक है?

तो फुसलाने में मत आ जाइए लोगों के कि उसको देखो वो कितना बड़ा आदमी है उसको देखो वो कितनी ऊँचाई पर पहुँच गया। अरे! ऊँचाई तो ठीक है पर खम्भे पर चढ़कर बैठ गये हो तो? उसमें क्या मिल गया? यही पूछिएगा हमेशा– ये जो इसने ऊँचाई हासिल करी है ये केदारनाथ की ऊँचाई है या पानी की टंकी की ऊँचाई है? ऊँचाई और ऊँचाई में फ़र्क होता है।

प्र: मगर आचार्य जी, अद्वैत में आदि शंकराचार्य जी ने कहा कि जो जगत है वो मिथ्या है और ब्रह्म ही केवल सत्य है। और जब महाभारत का युद्ध हो रहा था तो श्रीकृष्ण जी अर्जुन को सिंहासन के लिए लड़ने के लिए कहते हैं। तो जब सबकुछ मिथ्या है तो फिर सिंहासन पर दुर्योधन बैठे या युधिष्ठिर बैठे, उसका क्या मतलब रह जाता है? और हम तरक्की की बात कर रहे थे तो अगर पैसा या फिर नाम हमारा लक्ष्य नहीं है तो इस आयु में हम जो छात्र हैं, हमारा लक्ष्य होना क्या चाहिए आखिरकार?

आचार्य प्रशांत: सबकुछ मिथ्या है; इसका मतलब क्या है? बिलकुल शुरुआत से शुरुआत करो। ये जो सबकुछ है जिसकी बात हो रही है; इसको कौन देख रहा है? कौन कह रहा है कि सबकुछ है भी? ये जो सबकुछ है, ये प्रतीत किसको हो रहा है? कौन कह रहा है कि मुझे इसका अनुभव हो रहा है? ये सबकुछ अस्तित्वमान है ऐसा लग भी किसको रहा है? ऐसा आपको लग रहा है न कि ये सबकुछ है और जो कुछ आपको लग रहा है कि है आप उसका एक अर्थ करते हैं।

आप सिर्फ़ यही नहीं कहते हैं कि ऐसा है, ऐसा है, ऐसा है। ए है, बी है, सी है। हमारे लिए हमारे सारे अनुभवों का चाहे जो हमें दिखाई दे रहा हो, चाहे जो हमें सुनाई दे रहा हो, चाहे जो हमारे मन में स्मृतियाँ हों अतीत की, उनका अर्थ होता है। क्या होता है? अर्थ होता है। तो मिथ्या से आशय ये है कि तुम दुनिया को जैसा अर्थ दे रहे हो, तुम दुनिया को जैसा सोच-समझ रहे हो; दुनिया वैसी नहीं है।

मिथ्या माने ये नहीं होता कि जो तुम्हें दिख रहा है वो कुछ है ही नहीं। है ही नहीं; ये कहना भी मिथ्या है न, अगर सब कुछ मिथ्या है तो ये वक्तव्य भी मिथ्या है। तो मिथ्या का ये मतलब नहीं होता कि है ही नहीं। मिथ्या का ये मतलब होता है वैसा नहीं है जैसा तुम्हें लग रहा है। न दुनिया वैसी है जैसा तुम उसको सोच रहे हो, न तुम वो हो जो तुम अपनेआप को सोच रहे हो, मान रहे हो, ये अर्थ है कहने का कि जगत मिथ्या है।

समझ में आयी बात?

तो ब्रह्म सत्य है। जगत भी ब्रह्म मात्र है, मतलब क्या है इस बात का? मतलब जगत को तुम जैसा देख रहे हो उसकी ज़रा जाँच पड़ताल करो, आगे बढ़ो। जगत के झूठों को काटते चलो, जगत के झाँसों के पर्दों को, छिलकों को एक-एक कर के उतारते चलो। जब सब छिलके उतर जाते हैं बाहर के और भीतर के, तो भीतर से जो तुम हो जाते हो उसको ‘आत्मा’ कहते हैं और बाहर जो है उसको ‘ब्रह्म’ कहते हैं और भीतर-बाहर एक बराबर हो जाता है। ये अद्वैत वेदान्त की मूल बात है। तो ये नहीं है कि बाहर जो है वो बिलकुल है ही नहीं।

अब आते हैं कुरूक्षेत्र के मैदान पर। आपने कहा कि अगर सबकुछ मिथ्या है तो कृष्ण अर्जुन को लड़ने के लिए कह ही क्यों रहे हैं? ये देखो कि अर्जुन क्या कह रहा है? अर्जुन कह रहा है, ‘मैं नहीं लड़ूँगा।‘ कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं, ‘अर्जुन तू नहीं लड़ रहा है मोह की वज़ह से, तेरा मोह मिथ्या है। जब तू अपने भीतर से वो सब हटा देगा जो मिथ्या है तो सही कर्म अपनेआप होगा। उस सही कर्म को ही कृष्णत्व कहते हैं।‘

तो मिथ्या क्या है? अर्जुन का ये सोचना मिथ्या है कि ये सामने तो मेरे पितामह खड़े हैं और वो सौ जो कौरव हैं वो सब भाई लोग हैं मेरे। और मैं किस राज्य के लिए युद्ध कर रहा हूँ जब इतने शव गिर जाएँगे। और कह रहा है कृष्ण से, उसकी मानसिक स्थिति देखो, ‘मेरे पाँव काँप रहे हैं, मेरे रोएँ खड़े हो रहे हैं, गांडीव मेरे हाथ से छूटा जा रहा है।‘ ये जो अर्जुन की स्थिति है ये मिथ्या भ्रम है।

समझ में आ रही है बात?

तो इस मिथ्या स्थिति को काटने के लिए फिर गीता उपनिषद् का उपदेश दिया गया है। तो मिथ्या बात ये नहीं है कि दुर्योधन को मारो, मिथ्या बात ये है कि तुम अपने मोह में पड़े हो, वो मोह तुम्हें सच देखने नहीं दे रहा।

कृष्ण कहते हैं कि जैसे धुआँ आग को ढक लेता है, वैसे ही सच्चाई जो है वो मद-मोह, काम-क्रोध के नीचे बेचारी ढककर, अच्छादित होकर रह जाती है। उपनिषद् कहते हैं कि सच का जो मुँह है वो सोने के एक कोष से ढका हुआ है। तो मिथ्या क्या है? वो जो तुम्हें दिखाई दे रहा है। तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है? आग नहीं दिखाई दे रही, तुम्हें धुआँ दिखाई दे रहा है। और तुम सोच रहे हो कि धुआँ ही सच्चाई है। धुआँ सच्चाई नहीं है, धुआँ तो सच्चाई को छुपाने वाली चीज़ है। तुम्हें सोना दिखाई दे रहा है, हर आदमी सोने के पीछे भाग रहा है तो हम कहते है, ‘हमें सोना ही भर दिख रहा है, तो सोना ही सच्चाई है।’ नहीं! सोना सच्चाई नहीं है सोना वो चीज़ है जिसने सच्चाई को छुपा रखा है।

तुम्हें जो-जो अनुभव हो रहे हैं, तुम उन्हें ही सच मान लेते हो। तुम्हें किसी की ओर आकर्षण हो गया तुम्हें लगता है बस यही असली चीज़ है, मैं इसी पर जान दे दूँ बिलकुल। वो सच्चाई नहीं है; वो, वो चीज़ है जिसने सच्चाई को ढक रखा है। अर्जुन की जो मनोस्थिति है अर्जुन उसी मनोस्थिति को सच मानकर उसी के अनुसार अब लड़ाई न करने का संकल्प ले लेना चाहते है। अर्जुन की मनोस्थिति और अर्जुन का विचार और अर्जुन का संकल्प; ये सच नहीं हैं, ये मिथ्या हैं। ये जब हटेंगे तो जो सच है वो सामने आ जाएगा।

वही जो सच है वो कृष्णत्व है। वही जो सच है वो फिर अर्जुन से अपनेआप युद्ध कराएगा। अर्जुन का कर्ताभाव उसे युद्ध नहीं करने दे रहा। देखो, हम जो देखते हैं वो कितना उल्टा होता है। हमें लगता है कि कर्ताभाव इसमें है कि कोई प्रत्यंचा पर तीर चढ़ाए और लड़ाई करे, है न? हम ऐसा सोचते हैं।

कर्ताभाव उल्टी चीज़ में है। कर्ताभाव है अर्जुन का लडा़ई न करने में। फिर कृष्ण उसको समझाते हैं कि तू क्यों नाहक अपने ऊपर बोझ ले रहा है। कोई समय था जब तू नहीं था या मैं नहीं था, या ये सब जो राजा और सैनिक लोग हैं ये नहीं थे। जो चीज़ मर नहीं सकती उसे कोई मार नहीं सकता अर्जुन और जिनको तू सोच रहा है कि तू मार देगा वो पहले से ही मरे हुए हैं, ये भेद करना सीख।

तू अनात्मा को अनात्मा और आत्मा को अनात्मा मानना छोड़। सच्चाई मर नहीं सकती और झूठ कभी ज़िन्दा नहीं था। लेकिन तू झूठ को ही सच मानकर के मोहग्रस्त हुआ जा रहा है। तो ये जो हमारे मन में, खोपड़े में चलता रहता है न, ये सब मिथ्या है। आपसे ये नहीं कह दिया गया है कि आप जिस अभी वेबकैम में देख रहे होंगे वो मिथ्या है, आपसे ये नहीं कह दिया गया है कि आप अपने ऐसे हाथ रखें बाँह पर तो ये हाथ भी मिथ्या है, बाँह भी मिथ्या है।

नहीं! तुम इनके विषय में जो धारणा बना रहे हो वो गलत है, इसीलिए ये सब मिथ्या है। तुम जो सोच रहे हो कि ये चीज़ ऐसी है, चीज़ वैसी है नहीं। तो चीज़ कैसी है? ये सवाल पूछना व्यर्थ है। पहले ये देखो कि चीज़ वैसी नहीं है। और मन हमारा ऐसा है कि जैसे ही हम कहेंगे कि चीज़ ऐसी नहीं है तो तुरन्त वो एक सुविधापूर्वक विकल्प खड़ा कर देता है। ऐसी नहीं है तो ऐसी है, ‘अ’ नहीं है तो ‘ब’ है। तुम्हारा क्या काम है कहना? कि साहब ‘अ’ भी नहीं है, ‘ब’ भी नहीं है। मैं तो सारे छिल्के उतार दूँगा। मन जो कुछ कहता है सब मिथ्या है।

एक बात मिथ्या है, उस बात के विकल्प में जो दूसरी बात उठे वो भी मिथ्या है। उसके बाद तीसरी उठे वो भी मिथ्या है। तो मिथ्या क्या नहीं है? जब तुम मौन हो जाओ तब सत्य है, तब बात मिथ्या नहीं है। मन से तो जो भी संकल्प-विकल्प उठ रहे हैं उनको तुम यही मानना कि ये प्रदूषित संस्कारों से इधर-उधर के प्रभावों से और सीमित सोच से आ रहे हैं। जब मन चुप हो जाए और आत्मा का सहज ऋत्य (नृत्य) होने लगे जिसमें तुम्हारी कोई सहभागिता नहीं है, तुम पीछे हो गये हो, तब जो होता है उसे सत्य कहते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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