प्रश्नकर्ता: नमस्कार सर। सर, दुनिया में दो तरह के सिद्धांत चलते हैं — एक ये कि जवान लोग कहते हैं कि खाओ-पियो बिंदास जियो, और दूसरी ये कि बुज़ुर्ग या दार्शनिक लोग कहते हैं कि जीवन क्या है इसको समझो, अपना पुरुषार्थ दिखाओ, अपनेआप को जानो, इस तरह की बातें। तो सर, फिर समझ में नहीं आता कि क्या करें, कौनसी राह पकड़ें?
आचार्य प्रशांत: देखो, बुज़ुर्ग भी नहीं जान रहे हैं कि जीवन क्या है, और जो तुम्हारा जवान आदमी है, जो कह रहा है कि बिंदास जियो, ये भी नहीं जान पा रहा कि जीना किसको कहते हैं।
प्रश्नकर्ता: सर, मैं किस सिद्धांत पर चलूँ?
आचार्य प्रशांत: कोई सिद्धांत नहीं है। मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ; क्या नाम है?
प्रश्नकर्ता: सौरभ।
आचार्य प्रशांत: सौरभ, अगर दुनिया में कोई सिद्धांत न हो और कोई बूढ़ा-बुज़ुर्ग, कोई फ़िलॉस्फ़र उपलब्ध न हो, तो क्या तुम जीवन नहीं जियोगे? अगर तुम्हें कोई भी बताने वाला न हो, तो क्या तुम आत्महत्या कर लोगे? जीना तो तुम्हें है ही, क्योंकि तुम्हारी अपनी ज़िन्दगी है। क्या तुम्हें किसी के दिए हुए सिद्धांतों पर निर्भर रहना है?
और मैं कहता हूँ कि मान लो कि सिद्धांत हैं ही नहीं, तो? और मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ कि उन सिद्धांतों को भी तो किसी-न-किसी ने आविष्कृत किया है। कोई तो होगा जिसने खुद उनको जाना या गढ़ा, वो तुम क्यों नहीं हो सकते? अगर जीवन तुम्हारा है, तो इसके जीने का तरीका तुम खुद क्यों नहीं जान सकते?
देखो, बाइक चलाना तुम्हें कोई और सिखा दे ये बात समझ में आती है। ये पंखा कैसे काम कर रहा है, ये एसी कैसे काम कर रहा है, ये कोई तुम्हें और समझा दे ये भी बात समझ में आती है। भाषा तुम्हें कोई और सिखा दे ये बात भी समझ में आती है, पर जीवन तुम्हें कोई और सिखा दे ये हो नहीं सकता। वो तुम्हें खुद ही जानना पड़ेगा, क्योंकि तुम्हारा अपना है। तुम्हारे अलावा ये किसी और का नहीं है। जीवन खुद ही जानना पड़ेगा।
अगर कोई तुमसे ये कह रहा है कि थम जाओ, रुक जाओ, सार निकालो, निचोड़ निकालो, तो उसको बोलो कि जो है वो निरंतर गतिशील है। मैं रुककर निचोड़ निकालूँगा जब तक, तब तक वो वहाँ पहुँच जाएगा। जो है वो लगातार हो रहा है, लगातार हो रहा है, उसको लगातार ही जानना होता है। उसमें रुककर के जानने का कोई अर्थ नहीं होता, जीवन ही रुका हुआ नहीं है। एक उदाहरण दे रहा हूँ, अभी मैं यहाँ बैठा हुआ हूँ। मैं तुमसे एक के बाद एक वाक्य बोले जा रहा हूँ; बोले जा रहा हूँ न?
श्रोतागण: येस सर।
आचार्य प्रशांत: अगर तुममें से कुछ लोग ऐसे हैं जो मेरे पहले ही वाक्य पर रुककर उसी का निचोड़ निकाल रहे हैं, तो क्या ये सब जो घटा, इसको वो समझ पाएँगे? वो पहले ही वाक्य पर अटक जाएँगे और वहीं उसका निचोड़ निकालते रहेंगे। और पहले वाक्य पर रुकना उसे ही पड़ेगा जो पहले वाक्य पर ध्यान नहीं दे रहा था। जो ध्यान में है, वो मेरे साथ बह रहे हैं। उन्हें रुकना नहीं पड़ रहा सोचने के लिए। अपने ऊपर ध्यान दो, ऐसा ही हो रहा है कि नहीं हो रहा है?
श्रोता: येस सर।
आचार्य प्रशांत: जो ध्यान दे रहे हैं, उनको रुककर के कोई सार नहीं निकालना पड़ रहा, कोई निचोड़ नहीं निकालना पड़ रहा, सिर्फ़ ध्यान में वो लगातार जानते जा रहे हैं। उन्हें कुछ करना नहीं पड़ रहा है विशेष। और जो रुक गये हैं और विचार कर रहे हैं, और सार निकाल रहे हैं, वो कुछ नहीं पा रहे। वो सार-ही-सार निकाल रहे हैं बस। तो ये तो हो गयी तुम्हारे तथाकथित बूढ़े-बुजुर्गों की बातें।
दूसरी बात, कि जवान लोग कहते हैं कि बिंदास होकर जियो। जो अर्थ ही नहीं जानता जीने का, वो जी कैसे लेगा बिंदास होकर?
प्रश्नकर्ता: सर, जो मन में आ रहा है वही करेगा।
आचार्य प्रशांत: मन को समझा नहीं, तो मन में आ रहा है ये कर कौन रहा है फिर? तो जो कोई तुमसे ये बोले कि जो मन में आ रहा है वही करो, उससे पूछो, ‘किसके मन में आ रहा है और कौन करेगा?’ मज़ा लेने के लिए भी कोई होना तो चाहिए! जो ये जवान आदमी है, उसका एक उद्देश्य है कि जीवन का मज़ा लूटना है। यही है न? उससे पूछो कि बेटा, जीवन का मज़ा लूटने के लिए कोई होना तो चाहिए न मज़ा लूटने वाला?
और होने का अर्थ होता है मौजूद होना; मौजूद कैसे होना? शरीर से? शरीर से मौजूद होना? तुम शरीर से मौजूद हो, पर सो रहे हो, क्या तुम मज़े लूट सकते हो? तुम्हारे आसपास बड़े पकवान रखे हैं, बड़ा खूबसूरत माहौल है, बड़ी अच्छी हवा चल रही है, तुम सो रहे हो। शरीर है, शारीरिक रूप से तो मौजूद हो, क्या मज़े लूट सकते हो?
श्रोताः नो सर।
आचार्य प्रशांत: मज़े लूटने का अर्थ होता है जाग्रत होना, सोये हुए न होना। तो ये जवान जो बोल रहा है, ‘जो मन में आये, करो’, ये फूहड़ है। इसको पता ही नहीं कि मज़े लूटने का अर्थ क्या होता है। असली मज़ा है अटेंशन (ध्यान) में, असली मज़ा है जानने में। जानकर ही तो मज़े लूटे जा सकते हैं न?
किसी ने शराबियों को लक्ष्य करके एक बहुत अच्छी बात कही है। उसने कहा है कि मैं शराब इसलिए नहीं पीता क्योंकि मैं जानना चाहता हूँ जब मैं मौज कर रहा हूँ। ये मौज कैसी है कि जिसमें तुम्हें पता ही नहीं कि तुम मौज कर रहे हो? ये तो दूसरों की मौज है कि तुम्हें देखकर हँस रहे हैं! ये कैसी मौज है कि जिसमें तुम ऐसे बेहोश हो कि तुम्हें ही नहीं पता कि तुम मौज कर रहे हो?
तुम बेहोश पड़े हो और तुम्हारे नाक में नली लगाकर के बढ़िया स्वादिष्ट शरबत पिलाया जा रहा है तुमको; तुम मौज कर रहे हो?
श्रोताः नो सर।
आचार्य प्रशांत: उस शरबत का स्वाद उठाने के लिए तुम्हें होश में तो होना चाहिए न?
श्रोताः येस सर।
आचार्य प्रशांत: मौज करने की अनिवार्यता है होश, जाग्रति। बड़े मज़े आ रहे हैं कि बेहोश पड़े हो और यहाँ नाक में पाइप लगा दी गई है और शरबत डाला जा रहा है बढ़िया, खूबसूरत, सुगंधित, मौज! हो रही है मौज, कर रहे हैं, ऐसे ही हम मौज करते हैं!
अब शराब पीकर गये हो, ‘पैं-पैं’, गिर रहे हो, पड़ रहे हो, पर क्या मौज कर रहे हैं! अरे, तुम्हें पता भी है तुम मौज कर रहे हो? थोड़ी देर में एकदम ही बेहोश हो जाना, तब मौज कर रहे हो। तुम मौज कर रहे हो या हम कर रहे हैं कि तुम्हें गटर से निकालेंगे! तो ये सारी बात कि जो मन में आए करो — अरे! मन है क्या, पहले उस मन को जानो तो। उस मन से मौज मिल रही है तुमसे कह किसने दिया?
तुमने मौज के अर्थ भी समझे हैं? तुमने बस फ़िल्मों में देख लिया है कि बाइक पर घूम लिये, दो-तीन लड़के इधर-उधर लफंडरबाजी कर रहे हैं तो मौज है, तो तुम्हें लगता है इसी का नाम मौज होगा। तुम्हें बता दिया गया कि गर्लफ्रेंड हो, ये हो, वो हो, तो उसको मौज बोलते हैं। तो तुम्हें लगता है शायद इसी का नाम मौज होगा। तुमने अर्थ जाना है मौज का, मस्ती का, समझा है? फिर तुम कैसे जानते हो कि इसको ही मौज कहते हैं? पता कैसे है?
तुम पता करो न इसको। अभी तक भी तुम्हें जो पता था वो फ़िल्मों से और वो तुम्हारे बुढ्ढों से और तुम्हारे जवानों से पता था। और अब तुम मुझसे पूछ लेना चाहते हो, मैं तुम्हें क्यों बताऊँ?
प्रश्नकर्ता: नहीं सर, हमें जो अच्छा लगता है वही करते हैं!
आचार्य प्रशांत: किसे अच्छा लगता है?
प्रश्नकर्ता: मुझे।
आचार्य प्रशांत: मुझे माने किसे?
प्रश्नकर्ता: मन को।
आचार्य प्रशांत: तुम मन हो?
प्रश्नकर्ता: नहीं सर, अभिषेक।
आचार्य प्रशांत: अभिषेक माने कौन? अभिषेक का मुँह जो बोल रहा है अभिषेक? अभिषेक का हाथ जो अपनी ओर इशारा कर रहा है?
प्रश्नकर्ता: आत्मा।
आचार्य प्रशांत: आत्मा! अंतरात्मा!
प्रश्नकर्ता: सर पता नहीं!
आचार्य प्रशांत: तुम ये ही नहीं जानते कि मज़े कौन कर रहा है और तुम कह रहे हो, ‘मैं मज़े कर रहा हूँ!’
प्रश्नकर्ता: नॉट सर, फिर कौन कर रहा है?
आचार्य प्रशांत: यही तो खुफिया बात है! जब मुझे पता ही नहीं कि मज़े कौन कर रहा है, तो मैं ये सब कर किसके लिए रहा हूँ, किसके मज़े के लिए कर रहा हूँ भाई ये सब?
प्रश्नकर्ता: मुझे तो पता है न, मैं मज़ा कर रहा हूँ!
आचार्य प्रशांत: तुम्हें कहाँ पता है? बताओ न, कौन मज़ा कर रहा है?
प्रश्नकर्ता: मैं ही कर रहा हूँ सर।
आचार्य प्रशांत: मैं माने कौन?
प्रश्नकर्ता: मैं तो मैं ही हूँ।
आचार्य प्रशांत: मैं तो मैं ही हूँ! अगर तुम हो, तो तुम बता दो न तुम कौन हो?
प्रश्नकर्ता: अभिषेक हूँ मैं।
आचार्य प्रशांत: अभिषेक तो एक नाम है, जो तुम्हें दे दिया गया। वो कुछ और भी हो सकता है?
प्रश्नकर्ता: रूह हो सकता है।
आचार्य प्रशांत: रूह माने कौन?
प्रश्नकर्ता: सर, आप समझाइए!
आचार्य प्रशांत: मेरे समझने और न समझने से कुछ नहीं होगा, मेरी समझ है तो मेरा जीवन है।
प्रश्नकर्ता: आप क्या हो?
आचार्य प्रशांत: मैं क्या हूँ, सुन लो, अच्छा ठीक है! मैं क्या हूँ ये मैं किसको बताऊँ?
प्रश्नकर्ता: मुझे।
आचार्य प्रशांत: तुम कौन हो? तो तुम अगर मुझसे पूछो कि मैं कौन हूँ, तो पहले मुझे ये तो बताओ प्रश्न कौन कर रहा है?
प्रश्नकर्ता: inaudible
आचार्य प्रशांत: वो अगर खुद जानता हो अपनी, तो ये प्रश्न कर सकता है। जब ये मूलभूत बातों में तुम्हारा कभी ध्यान नहीं जाता कि मौज माने क्या, मैं मौज करूँगा इसका अर्थ क्या, तो तुम्हारी हालत फिर वही शराबी जैसी होगी जो सोचता है कि मैं मौज कर रहा हूँ, पर उसको पता भी नहीं होता कि वो क्या कर रहा है।
तो पहले ये देखो कि तुमने जिसको आज तक मौज समझा वो क्या है? पहले हम इस शब्द पर तो एकमत हो लें न कि मौज का अर्थ क्या है। पहले इस शब्द को समझें कि न समझें? जब हमारी अभी इस पर ही कोई सहमति नहीं कि मौज माने क्या, तो फिर मौज कैसे होगी ये तो बहुत दूर की कौड़ी है।
प्रश्नकर्ता: नॉट ऑडिबल।
आचार्य प्रशांत: क्यों नहीं हो सकती, समझना है। तुम्हारे मौज के जो भी कॉन्सेप्ट्स (अवधारणाएँ) हैं, तुम्हारे मौज के बारे में, मस्ती के बारे में, आनंद के बारे में, खुशी के बारे में जो भी तुम्हारी मान्यताएँ हैं, वो देखी और सुनी हुई हैं। तुमने खुद कभी जानी नहीं हैं। तुमने देखा, तुम्हें बता दिया गया कि ऐसा-ऐसा करो तो बहुत अच्छा होता है। और तुम देखते हो कि हर कोई ऐसा कर रहा है तो नाच रहा है, तो तुम्हें लगता है कि बहुत खास बात होगी। क्या तुमने खुद कभी कोई खुशी जानी है?
तुम अभी यहाँ बैठे हो, तुम्हारे सीनियर्स हैं फोर्थ ईयर में। उनमें से जिन लोगों की नौकरियाँ लग जाएँगी, वो नाचना शुरू कर देंगे। तुमने खुद कभी नौकरी करी नहीं है, तुमने खुद नौकरी पायी भी नहीं है, पर उनको नाचता देखकर तुम्हें ऐसा आभास होगा कि शायद इसी को आनंद कहते हैं, इसी को मौज कहते हैं। क्या तुमने खुद जाना है?
बचपन से तुम्हारे मन में कुछ मान्यताएँ भर दी गयी हैं कि इस चीज़ को खुशी कहते हैं। दिस इज़ व्हॉट इज़ कॉल्ड अ गुड लाइफ़, दिस इज़ व्हॉट इज़ कॉल्ड जॉय (इसे अच्छा जीवन कहते हैं, इसे खुशी कहते हैं)। और तुमने उसी को जॉय (खुशी) मान लिया है। यही वजह है कि जो तुम्हारे आनंद के भी क्षण होते हैं, वो बड़े अधूरे-अधूरे होते हैं। तुम पार्टी में भी जाते हो, तुम ऐश करने भी जाते हो, तो मन का कोई कोना होता है जो कह रहा होता है कि यार मज़ा नहीं आ रहा। होता है कि नहीं होता है?
वो इसीलिए होता है क्योंकि वो मौज, वो ऐश, वो आदमी तुम्हारा है ही नहीं। वो तो किसी और ने कुछ आयोजन कर दिया है, तुम पहुँच गये हो ये सोचकर कि शायद इसी को मौज कहते हैं।
प्रश्नकर्ता: सर, ऐसे तो मौज ज़िन्दगी के हर क्षण में ढूँढ सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: ढूँढों न; ढूँढी है क्या? कल्पना मत करो, ढूँढी है क्या? यथार्थ की बात करो। जीवन के हर क्षण में ढूँढने के लिए हर क्षण में जाग्रत रहना पड़ेगा, ध्यानस्थ रहना पड़ेगा। क्या सोया हुआ आदमी किसी भी क्षण में कुछ भी ढूँढ सकता है?
प्रश्नकर्ता: नो सर।
आचार्य प्रशांत: नहीं ढूँढ सकता न। तो आनंद क्या है, या ये क्या है, या वो क्या है, मौज क्या है ये जानने के लिए पहली चीज़ तो ये है कि तुम होशियारी से, इंटेलिजेंटली चीज़ों को देखने की, समझने की आदत डालो। वो तुम्हारी है नहीं। तुम्हारी आदत तो बस यही है कि सीनियर्स कुछ बता दें, माँ-बाप कुछ बता दें, समाज कुछ बता दे, शिक्षक कुछ बता दें उस पर ही चलते रहो। इसका (दिमाग) अपना भी कुछ है ये तो तुमने सीखा नहीं है, फिर नतीज़ा क्या होता है?
कि अब अठारह-अठारह साल, बीस-बीस साल तुम्हारी उम्र हो रही होगी, पर जब कोई तुमसे सवाल कर देता है कि तुम हो कौन, तो तुम घबरा जाते हो। कोई इतना पूछ लेता है कि मौज माने क्या, तो भी तुम घबरा जाते हो, क्योंकि तुमने मौज के सिर्फ़ लक्षण जाने हैं। तुम्हें लगता है कोई हँस रहा है इसका मतलब मौज में है, तुम्हें लगता है कि अगर ऐसा हो गया है होठों का आकार (मुस्कुराने का इशारा करते हुए) तो इसको मौज कहते हैं। तुम्हें सिखा दिया गया है कि अगर नाक के यहाँ से लेकर यहाँ तक इक्वुलेटरल ट्रायेंगल (समद्विबाहु त्रिभुज) जैसा कुछ बन रहा हो, तो शायद इसका नाम खुशी है!
प्रश्नकर्ता: सर, अगर इतना सोचेंगे तो फिर तो हो गया!
आचार्य प्रशांत: इतना तुमने सोचा हुआ है, तभी तो तुम लक्षणों में बैठे हुए हो।
प्रश्नकर्ता: नॉट ऑडिबल (14:18-14:22)
आचार्य प्रशांत: ये तो और खतरनाक बात है न कि तुम दवाई तो सीधे पी गये हो। तुमने विचार भी नहीं किया है कि मैं इसको मौज कह कैसे रहा हूँ।
प्रश्नकर्ता: नॉट ऑडिबल [14:26-14:32]
आचार्य प्रशांत: देखो, दो-तीन बातें होंगी। एक तो ये कि मैं इतने अटेंशन में हूँ कि मन में कोई विचार नहीं आ रहा, और दूसरा ये कि मैं ऐसा जानवर हूँ कि मुझे ताकत ही नहीं है सोचने की।
प्रश्नकर्ता: सर, जो आप चीज़ कर रहे हो उसमें आपको मज़ा नहीं आ रहा कोई?
आचार्य प्रशांत: मज़ा माने क्या बेटा? एक जानवर होता है, ठीक है न? वो कुछ नहीं सोचता कभी, उसके पास कैपेसिटी ही नहीं है, उसके पास इंटेलिजेंस ही नहीं है विचार करने की, तो क्या अर्थ है इसका? कि वो जानता है? श्रोताः नॉट ऑडिबल (15:08-15:12)
आचार्य प्रशांत: क्यों करें? इसलिए क्योंकि तीन अवस्थाएँ होती हैं। सबसे नीचे अवस्था होती है, एकदम जो जड़ है, इनर्ट है, वो जानवरों की हालत होती है। उसको बोलते हैं ‘अविचार’। विचार एटलीस्ट (कम-से-कम) उससे ऊपर होता है, और विचार से भी ऊपर होता है ध्यान, निर्विचार। रुक जाओ, पहले ये बात समझ में आ रही है? क्या ये आयी समझ में, या मन सीधा अभी आगे को भाग रहा है? ये आ गयी?
तो पहली बात तो ये है कि हममें से जो लोग बिलकुल ही पशु सरीके हों, जिन्हें विचार करना भी नहीं आता, वो विचार करना शुरू करें। थॉट (विचार) दें — व्हॉट इज़ इट, व्हॉट इज़ हैपनिंग? व्हाय आइ एम एट ऑल इन दिस इंजीनियरिंग कॉलेज? (ये है क्या, हो क्या रहा है, मैं आख़िर क्यों हूँ इस इंजीनियरिंग कॉलेज में)। मैं हूँ क्यों यहाँ पर, मैं कर क्या रहा हूँ, वो उस पर पहुँचें। और फिर वो पाएँ कि आगे जाने का रास्ता क्या है कि अगर मुझे ये विचार उठा है कि मैं जानूँ कि मैं इंजीनियरिंग कॉलेज में क्यों हूँ, तो इसका उत्तर अब विचार नहीं दे पाएगा।
विचार ने प्रश्न तो उठा दिया, पर उत्तर ऑब्ज़र्वेशन (अवलोकन) से मिलेगा। ऑब्ज़र्वेशन के लिए देखना पड़ेगा, देखने के लिए सोचना रोकना पड़ेगा। सो फर्स्ट थिंग इज़ स्टार्ट थिंकिंग। थिंकिंग गिव्स यू क्वेश्चनस, एंड देन स्टार्ट ऑब्ज़र्विंग। ऑब्ज़र्वेशन विल गिव यू सॉल्यूशंस (तो पहले तो विचार करना शुरू करें, विचार आपको प्रश्न देगा। और फिर अवलोकन करें, अवलोकन से आपको समाधान मिलेंगे)। तो हममें से जो लोग कभी थॉट लेवल (विचार के तल) पर ही नहीं पहुँचे हैं कि उनके मन में सवाल ही न उठता हो कि मैं ये इंजीनियरिंग कर क्यों रहा हूँ एक्चुअली (वास्तव में), तो वो तो अभी पशु लेवल पर है, अविचार। कि मुझे ये सवाल ही नहीं आता कि क्यों कर रहा हूँ। पापा ने एडमिशन करा दिया इसलिए कर रहा हूँ।
सो फर्स्ट थिंग इज़ टू रीच एट द लेवल व्हेयर एटलीस्ट इम्पॉर्टेंट क्वेश्चन स्टार्ट अराइज़िंग (इसलिए पहली बात ये है कि उस स्तर पर पहुँचना है जहाँ कम-से-कम महत्वपूर्ण प्रश्न उठने शुरू हो जाएँ)। मैं यहाँ पर आया, मैंने पहली चीज़ क्या करी? तुमसे बोला कि लिखो कि तुम्हारे जीवन में क्या सवाल है। ये विचार से, उसके बाद क्या कह रहा हूँ? ध्यान।
अब जिसके पास ये सवाल ही न हो, वो ध्यान क्या करेगा! कहेगा, ‘स्टोन, पे अटेंशन!’ (पत्थर, ध्यान दो)। जिसके सामने समस्या ही न खड़ी हो रही हो, उसको समाधान क्या मिलेगा। वो तो अभी बहुत खुशी में है, वो वास्तविक आनंद में है। एक पत्थर के सामने कोई समस्या ही नहीं है। उसको कोई उलझाव नहीं है कि जीवन क्या है, कैसे जिया जाए। या एक कुत्ता है; कुत्ते के सामने कभी कुत्ते को देखा है बैठकर के (कुत्ता सोच रहा हो) कि जीवन का लक्ष्य क्या है और अगले साल क्या करना है? कभी उसको सोचा है, ये विचार करते देखा है? वो बहुत राज़ी, खुशी, हैप्पी (प्रसन्न) है।
जब कुत्ते से ऊपर उठकर के तुम आदमी बनते हो, तब तुम्हारे मन में इंटेलिजेंट क्वेश्चंस आने ही चाहिए। बट देन इफ़ यू स्टॉप ऑनली एट इंटेलिजेंट थॉट्स, यू विल बी स्पेंडिंग योर लाइफ़ इन मिज़ेरी एंड कंफ्यूज़न (लेकिन फिर भी यदि आप केवल बुद्धिमत्ता वाले विचार पर ही रुक जाते हैं, तो आप अपना जीवन दुख भरी उलझन में बिता रहे होंगे)। क्योंकि थॉट्स तुम्हें कोई शांति नहीं दे सकते, वो सिर्फ़ भन्न-भन्न-भन्न (सिर पर मच्छर की तरह) मंडराते रहेंगे।
देन यू विल हैव टू गो बियोंड थॉट (फिर आपको विचारों के पार जाना पड़ेगा)। एंड बियोंड थाट इज़ नथिंग, बट अटेंशन (और विचार से परे ध्यान के अलावा और कुछ नहीं है)। उसका अर्थ यही है कि ऑब्ज़र्व करो। चल रहे हो तो ऑब्ज़र्व करो, यहाँ बैठे हो तो देखो ध्यान से कि क्या हो रहा है। मेरे मन में बार-बार ये सवाल उठ रहे हैं तो क्यों उठ रहे हैं? मेरी बॉडीलैंग्वेज (हाव-भाव) ऐसी क्यों हो रही है?
अपना ही शरीर है न, समझो कि इस बात का क्या अर्थ होता है। कहीं दूर नहीं जाना है, ऑब्ज़र्वेशन के लिए किसी पहाड़ पर जाने की ज़रूरत नहीं होती है। ये जो ज़िन्दगी है आसपास की, अगल-बगल की, इसी को ध्यान से देखना भर होता है कि ये जो है तो ये क्या है। दिस इज़ व्हाट इट इज़ (यही तो है)। ये है वास्तविक बात।
प्रश्नकर्ता: तो मेनली (मुख्य रूप से) यदि पूरा प्वाइंट आउट करूँ, तो इस एक प्वाइंट पर आ जाता है कि मैं या तो ये डिसाइड कर लूँ कि ज़िन्दगी में मुझे मौज चाहिए या क्वेश्नंस चाहिए?
आचार्य प्रशांत: मौज या क्वेश्चंस (पूछी गयी बात को पक्का करते हुए)।
प्रश्नकर्ता: येस, यदि मुझे क्वेश्चंस चाहिए, तो फिर मैं क्वेश्चन ढूँढूँ, उलझनें लाऊँ अपने साथ, मौज को फिर साइड में रखूँ। तो सर, फिर क्वेश्चंस आएँगे। यदि मुझे क्वेश्चन नहीं चाहिए, यदि मुझे क्वेश्चन नहीं चाहिए और मौज चाहिए, तो मैं तो बिलकुल उस कुत्ते के भी जो .........(नॉट ऑडिबल)
आचार्य प्रशांत: तुम्हारा कोई भी डिसीजन (निर्णय) क्या ऐसा है जिस पर कायम रह सके हो? ये डिसाइड करने-करने में तुमने कितने सारे थॉट्स पैदा कर दिए। और ये सारे थॉट्स क्या कभी स्टेबल रह सके हैं? दिस काइंड ऑफ़ एन इंटेलेक्चुअल डिसीजन (इस तरह का एक बौद्धिक निर्णय) कि मुझे मौज चाहिए, कि मुझे ये चाहिए, कि मुझे वो चाहिए, कर लो अभी, वहाँ से बाहर निकलोगे कुछ और हो जाएगा। विदाउट अंडरस्टैंडिंग, आल योर डिसिजंस विल बिकम एग्जैक्टली व्हाट योर फ्रेंड वाज़ टॉकिंग ऑफ़ (बिना समझ के तुम्हारे सभी निर्णय वैसे ही रहेंगे जैसा कि तुम्हारे मित्र बात कर रहे थे) कि प्लान अभी कुछ करते हैं और हो कुछ और जाता है।
तुम अभी कर लो डिसाइड कि नहीं, मुझे न — ये वही बात है कि तुम्हारे सामने दो ऐसी नयी सब्जियाँ लाई जाएँ जिनके तुमने कभी नाम नहीं सुने हैं, अकड़ बत्तू और पकड़ बत्तू। अब न तुम अकड़ बत्तू जानते हो और न तुम पकड़ बत्तू जानते हो, और तुम यहाँ बैठकर के फ़ैसला कर रहे हो कि ज़िन्दगी भर मुझे क्या करना है? मुझे अकड़ बत्तू खानी या पकड़ बत्तू खानी है? और तुमने फ़ैसला कर भी लिया बिना दोनों को जाने। अब ये फ़ैसला किसी काम का है?
न तुमने आनंद जाना, न तुमने जीवन जाना, और तुम यहाँ सोफ़े पर बैठकर फ़ैसला कर रहे हो कि आनंद चाहिए, कि जीवन चाहिए, या प्रश्न चाहिए। बिलकुल वैसा ही है जैसे कि तुमसे कहा जाए कि इज़ एक्स ग्रेटर दैन वाय? एक्स बड़ा है या वाय बड़ा है, दोनों में किसको चुनें? इसका निर्धारण करने के लिए कि वेदर एक्स इज़ ग्रेटर देन वाय। *व्हाट इज़ द बेसिक रिक्वायरमेंट? यू शुड नो एक्स, यू शुड नो वाय (तुम्हें एक्स का पता होना चाहिए, तुम्हें वाय का पता होना चाहिए)।
नाइदर डू यू नो एक्स, नॉर डू यू नो वाय, बट यू आर हैलबेन्ड टू ऑन्सर दिस क्वेश्चन (न तुम एक्स को जानते हो, न तुम वाय को जानते हो, लेकिन तुम इस प्रश्न का जबाव देना चाहते हो)। एंड सेटल इट टुडे, एंड सिटिंग ऑन द सोफ़ा, व्हेदर एक्स इज़ ग्रेटर देन वाय। एंड आई सेटल इट होल लाइफ़। एक्स एंड वाय आर बोथ चैन्जेबल, नो दैम, व्हाट दे ऑर (एक्स और वाय दोनों बदल सकते हैं, उनको जानो कि वो क्या हैं?) एंड ऑनली वे टू नो दैम इज़ टू ऑब्ज़र्व (और उनको जानने का एकमात्र तरीका है अवलोकन करना)।
क्या एक्स वाय से बड़ा है, मूल आवश्यकता क्या है? आपको एक्स जानना चाहिए, आपको वाय जानना चाहिए? न तुम्हें एक्स का पता न तुम वाई को जानते, लेकिन इसका उत्तर देने में तुम्हें बड़ी जल्दी है। और आज ही इसका निपटारा कर लेना चाहते हो, वो भी सोफ़े पर बैठकर कि क्या एक्स वाय से बड़ा है? और मैं इसे जीवन भर सुलझाता हूँ। एक्स और वाय दोनों परिवर्तनशील हैं। उनको जानो, वे क्या हैं? और उन्हें जानने का एकमात्र तरीका है निरीक्षण करना। कहीं और जाकर आंसर (उत्तर) नहीं मिलता है, यहीं से मिलना है आंसर। अपने ही जीवन से मिलना है। जो आसपास लगातार चल रहा है, उससे ही मिलना है।
नहीं तो अकड़ बत्तू और पकड़ बत्तू करते रहो, घूमते रहो और बड़े होशियार बन जाओ, और अपने-अपने दल बना लो — वो अकड़ बत्तू दल है और मैं पकड़ बत्तू दल हूँ — और लड़ाई और कर लो आपस में। ये मौज वाला दल है, वो विचार वाला दल है, प्रश्न वाला दल है।
प्रश्नकर्ता: सर, तो इस हिसाब से ये ज़िन्दगी ज़्यादा अच्छी है। सर, दोनों को लेकर चलो।
आचार्य प्रशांत: बिलकुल दोनों दल लेकर चलो। वही बात है न कि पत्थर की और कुत्ते की ज़िन्दगी ज़्यादा अच्छी है कि उनको सोचना ही नहीं है, समझना ही नहीं है। पर तुम याद रखो, तुम न तो पत्थर हो न पशु हो, तुम्हें देखना-समझना पड़ेगा ही। नहीं देखोगे-समझोगे, तो ऐसे ही रहोगे जैसे अभी रहते हो — ज़िन्दगी से भागे-भागे, बोर्ड-बोर्ड (ऊबे हुए), उदास, ऊबे हुए। तुम्हारे सामने कोई ऑप्शन नहीं है, तुम्हें समझना पड़ेगा ही, तुम इससे भाग नहीं सकते।
प्रश्नकर्ता: सर, थ्योरीज़ (सिद्धांतों) का तो यदि इस तरीके से देखें, तो आपका कुछ अलग विचार है, मेरा कुछ विचार है।
आचार्य प्रशांत: ये कोई विचार नहीं है मेरा, इसमें कोई विचार नहीं है। ये मनुष्य की इंटेलिजेंस — आदमी होने का अर्थ है इंटेलीजेंट होना।
प्रश्नकर्ता: यदि मैं खुद ही अपना अलग विचार बना सकता हूँ।
आचार्य प्रशांत: ये विचार नहीं है, मैं फिर बोल रहा हूँ, मनुष्य होने की अनिवार्यता है। इंटेलीजेंट होना मनुष्य होने की अनिवार्यता है। इसमें कोई विचार नहीं है, कोई सिद्धांत नहीं है। ये सब सिद्धांतों के नीचे की बात है, सब सिद्धांतों के आधार की बात है। हर सिद्धांत तेजस से निकलेगा। मैं तुमसे सिर्फ़ इतना कह रहा हूँ, ‘बी इंटेलिजेंट’ (बुद्धिमान बनो), ये कोई सिद्धांत है? और आदमी हो तो इंटेलिजेंट तो होना ही है न? पर तुम तुले हुए हो कि नहीं, वो नहीं होना है। हाँ, पीछे से कोई...(अगला प्रश्नकर्ता)
प्रश्नकर्ता: सर, आपने कहा कि प्रेज़ेन्ट (वर्तमान) में रहिए। तो अगर विचार करते-करते अगर हम आप फ्यूचर (भविष्य) के बारे में सोचने लग जाएँगे, तो कैसे डिफरेन्सिएट (अंतर करना) करेंगे कि अभी यहाँ पर रुकना है या फिर अभी आपको प्रेजेंट में रहना है?
आचार्य प्रशांत: बहुत अच्छे! विचार किसके मन में उठता है? तुम्हारे। तुम्हारे ही उठता है न? तो ये विचार भविष्य का है और अगर तुमने अभी एक विचार को पकड़ा, थॉट कुछ उठा — हम सबके थॉट उठते रहते हैं — और अक्सर ऐसा हुआ है कि नहीं, कि तुमने थॉट को पकड़ भी लिया। तुम बोलते हो कि नहीं यार, अभी तो मैं ये सोच रहा हूँ कि आज शाम को क्या करना है। कभी ऐसा डायलॉग बोलते हो न कि मैं सोच रहा हूँ कि आज शाम को क्या करना है? इसका मतलब ये है कि तुम उस थॉट को जान रहे हो। थॉट फ्यूचर का है, थॉट शाम का है, पर तुम उसे जान कब रहे हो? अभी, बस। इवन द थॉट केन बी ऑब्ज़र्वड (बल्कि विचार का भी अवलोकन किया जा सकता है), तभी तो तुम कहते हो कि मैं सोच रहा हूँ कि शाम को क्या करना है। इसका मतलब ये है कि तुम थॉट को भी ऑब्ज़र्व कर सकते हो। वो ताकत है तुममें, इसी को इंटेलिजेंस कहते हैं। ये आदमी होने की शर्त है, जाग्रत होने की क्षमता। हाँ, अब इधर से कोई (अगला प्रश्नकर्ता) येस।
प्रश्नकर्ता: सर, आपने एक बात बोली थी कि जैसे अगर हमारे सीनियर हैं, उनका जॉब लगता है। और उनकी खुशी में हम खुशी मनाते हैं, तो ये आपका मौज नहीं है, ये मस्ती नहीं है, आपका वो नहीं है, तो मैं ये पूछना चाहती हूँ कि एक नॉर्मल ह्यूमन बीइंग, एक स्टूडेंट, अभी हम उस कंडीशन में नहीं कि हम जॉब कर सकेंगे या पार्टी-वार्टी में जाकर कुछ कर सकेंगे, ठीक है? तो एक नॉर्मल ह्यूमन बीइंग और स्टूडेंट कैसे फिर मौज करे? जीवन भी जिये और मौज भी करे?
आचार्य प्रशांत: जीवन ही मौज है। और वो तब होगा जब पहले तुम वो सब मानना छोड़ो जो तुमने मान रखा है। अब उदाहरण के लिए, अगर कोई यहाँ पर ध्यान से बैठा हो, ध्यान से — चालीस या पचास लोग हैं, एक, दो या पाँच या दस ऐसे हों शायद जो लगातार ध्यान से बैठे हो, भले ही उन्होंने कोई सवाल न पूछा हो, पर लगातार ध्यान में थे — वो तुम्हें बता पाएँगे कि मौज किसे कहते हैं। यही अटेंशन, यही रेवेलेशन (विद्रोह) है। तुम्हें क्या लगता है कि जब तुम कूदना-वूदना शुरू कर दो और ‘आ-आ-हू’ करो और हाथ-पाँव फेंकने लग जाओ, दैट इज़ जॉय (वो आनंद है)?
प्रश्नकर्ता: मे बी। (शायद)
आचार्य प्रशांत: हाउ डू यू नो (आपको कैसे पता है)? मे बी नहीं होता। व्हेन यू ड्रिंक समथिंग, एंड यू फाइंड इट टेस्टी, डू यू से, ‘मे बी’? (जब आप कुछ पीते हो और वो आपको अच्छा लगता है, तब आप कहते हो, ‘शायद’)? यू नो, फॉर श्योर दैट इट इज़। (तुम भलीभाँति जानते हो कि ये है)। इट इज़, देअर इज़ नो मे बी देन। दिस प्रेजेंस ऑफ़ मे बी इज़ सो डीप (जब आप कुछ पीते हैं और उसे स्वादिष्ट पाते हैं, तो क्या आप कहते हैं कि शायद ये स्वादिष्ट हो? आप निश्चित रूप से जानते हैं कि यह स्वादिष्ट है। तब कोई ‘शायद’ नहीं होता। ‘शायद’ की यह उपस्थिति इतनी गहरी है) कि हमें ये भी नहीं होता कि जीवन में जो हमारे सबसे इंटिमेट (अंतरंग) काम हैं, वो भी हैं कि नहीं हैं।
तुम अगर बहुत ध्यान से देखोगे, तुम्हें पता चलेगा कि जो जिन लोगों को भी तुमने जीवन में प्रेम किया है, वहाँ भी तुम पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो कि प्रेम किया है कि नहीं। ऑर यू फ्री? मे बी। डू यू लव? मे बी। आर यू हैप्पी? मे बी। तो ऐसा ही कुनकुना-कुनकुना सा हमारा जीवन है। अब प्रेम शायद आनंद हो सकता है, पर तुम जानो कैसे जब तुम प्रेम में ही मे बी लगाकर बैठे हो। शायद, क्या पूरी तरह जानता हूँ? नहीं जानता। पूरी तरह तुम इसलिए नहीं जानते, क्योंकि पूरी तरह जानने का तरीका है खुद जानना। ठीक है? जब तक सुने-सुनाये पर चलोगे, तो बस मे बी, मे बी ही करोगे।
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