प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ऐसा लगता है कि किसी घोड़े पर बैठा हुआ था, और घोड़े को अपना शरीर जान रहा था। तो अब घोड़े से उतर गया हूँ। लेकिन घोड़ा अपनी रफ़्तार से चल रहा है, और मैं रुका हुआ हूँ। सारा बैलेंस (संतुलन) बिगड़ा हुआ लगता है। कभी लगता है दोबारा कोशिश करूँ, पर कोशिश की भी नहीं जा रही है। कोशिश करना भी नहीं चाह रहा हूँ।
आचार्य जी, संतुष्ट नहीं हूँ, क्योंकि बेचैनी ही दौड़ा रही थी। जब संतुष्ट हूँ तो बिज़नेस (व्यवसाय) डूबता-सा लग रहा है, संबंध टूटते से लग रहे हैं। लेकिन, मैं संतुष्ट हूँ। पर साथ में डर-सा लग रहा है।
आचार्य प्रशांत: ठीक।
जो पूरा वर्णन किया अपनी दशा का, वो ठीक है। लेकिन ये बताइए कि बिगड़ने की परिभाषा क्या है? आप कहते हैं कि – “एक घोड़े पर सवार था, वो घोड़ा देह था, मन था, उस घोड़े पर से उतर गया।” ठीक है। “उतर गया लेकिन अब उसके कारण अव्यवस्था है, उसके कारण संबंध बिगड़ रहे हैं, व्यवसाय बिगड़ रहा है, जीवन बिगड़ा हुआ-सा प्रतीत होता है।”
बिगड़ने की परिभाषा क्या?
और यदि आप वास्तव में घोड़े से उतर गए होते, तो आप इस परिभाषा से भी उतर गए होते न? परिभाषा वही पुरानी है। पूरी तरह उतर नहीं पाए। और बड़ी विचित्र स्थिति होती है, जब सवार पूरा उतर जाता है घोड़े से, और एक पाँव फँसा रह जाता है। और घोड़ा दौड़ रहा है।
पूरा उतर जाइए। फिर इसको आप कहेंगे ही नहीं कि कुछ बिगड़ा है। मीरा का सुना है न?
“जो तुम तोड़ो...”
वो तोड़ता है तो तोड़ने दीजिए। उसको फिर तोड़ना नहीं कहते, फिर आप कहते हो, “तूने तोड़ा है मज़ा आ गया।”
“भला हुआ मोरी मटकी फूटी, मैं पनिया भरन से छूटी।”
फिर ये थोड़े ही कहोगे, “हाय! मटकी टूट गई! बिगड़ गई!”
कैसे पता कि कुछ बिगड़ रहा है? बिगड़ने की परिभाषा पुरानी है, इसलिए लग रहा है कि कुछ बिगड़ रहा है। व्यवसाय सिकुड़ रहा है तो कहते हो, “कुछ बिगड़ रहा है।” कैसे पता व्यवसाय का सिकुड़ना शुभ नहीं है? कैसे पता तुम्हें?
पुराने संबंध, पुराने रिश्ते-नाते टूट रहे हैं, या छूट रहे हैं, तो कहते हो, “कुछ बिगड़ रहा है।” कैसे पता उन लोगों का तुम्हारे जीवन से विदा होना शुभ नहीं है? जो व्यक्ति, जो संबंध, तुम्हारे जीवन में प्रस्तुत ही एक व्याधि की तरह था, उसका जाना, ‘बिगड़ना’ कैसे कहते हो? ‘बिगड़ना’ सिर्फ़ इसलिए कह पाते हो क्योंकि अभी भी मन में पुरानी परिभाषाएँ कहीं-न-कहीं बची हुई हैं।
ये कोई आरोप नहीं है। जो पुराना है वो इतना पुराना है, इतना पुराना है, कि बड़ा गहरा चला जाता है। यही हमें रोक देता है। बहुत लोग होते हैं जो कहते हैं कि – “मुक्ति प्यारी है।” दिक़्क़त ये है कि मुक्ति तो प्यारी है, पर बंधनों के साथ भी ‘प्यार’ शब्द जोड़ दिया है।
जब आनंद आता है, तो उसका रुप कष्ट का होता है। नतीजा ये होता है कि हम उसे ठुकरा देते हैं। जब मुक्ति आती है, तो अपने साथ बंधनों को तोड़ती है – बंधनों को हमने नाम दे रखा है ‘जीवन’ का। मुक्ति आती है, तो जीवन टूटता-सा प्रतीत होता है।
अब टूट-वूट कुछ नहीं रहा है, कुछ बिगड़ नहीं रहा है, कुछ बुरा नहीं हो रहा है।
जो हो रहा है बहुत सुंदर हो रहा है।
कभी पलट कर प्रश्न तो कीजिए – “मुझे कैसे पता कि अब जो हो रहा है वो ग़लत ही है?” निश्चितरूप से अपने जीवन को दूसरों की दृष्टि से देख रहे हो।
कहते हैं कबीर, “‘जो घर जारे आपना वो चले हमारे साथ।” अब घर जल रहा है कबीर साहब का। ‘घर’ प्रतीक है, वैसे ही समझिएगा। घर जल रहा है कबीर साहब का, कबीर साहब हँस सकते हैं। पड़ोसी क्या कहेंगे? “बेचारा अभागा!” अब अगर पड़ोसियों से पूरी तरह मुक्त नहीं हुए हो, तो तुम्हें भी यही लगने लग सकता है कि तुम अभागे हो, क्योंकि जब घर जलेगा तो पड़ोसी तो यही कहेंगे, “बेचारा अभागा!” और तुम्हें भी लगेगा कि कुछ बिगड़ गया।
जो कबीर है, उसे फिर पूर्णतया कबीर हो जाना चाहिए। अधूरा कबीर होना वैसा ही है, जैसा घोड़े से अधूरा उतरना। वहाँ नाहक कष्ट है। या तो पूरे रहो, या फिर तुम घोड़े पर ही बैठे रहो। घोड़ा ख़ुद ही थोड़ी देर में गिरा देगा।
जो उतर रहे हों, उनसे यही निवेदन है कि पूरा उतरें। मृत्युतुल्य कष्ट है अधूरेपन में।
इसीलिए जो आते हैं बहुत लोग मेरे पास, जब उनकी दशा देखता हूँ, उनसे ज़्यादा कुछ कहे बिना उनको रवाना कर देता हूँ। ये समझ जाता हूँ कि पूरा उतरने को तो ये अभी राज़ी होगा नहीं। और जो पूरा ना उतरे, वो उतरने का प्रयास भी ना करे। फिर बड़ी अजीब हालत हो जाएगी। एक क्षण अपने घर को जलाओगे, और जब घर जलने लगेगा, तो पानी लेकर भागोगे।
सच बोलोगे, प्रियतमा रूठेगी। जब प्रियतमा रूठेगी, तो मनाने भागो। और अब तुम्हारी बड़ी अजीब-सी, त्रिशंकु-सी हालत होगी, लटके हुए।
अरे! कोई ज़रूरी थोड़े ही है सत्य इत्यादि बोलना!
(सभी श्रोता हँसते हैं)
घोड़ा है दौड़ाओ!
पर ये सब कई बार बड़ा फैशनेबल (बनठाना) हो जाता है। जाकर सीना ठोककर बोलते हैं, “आज सच बताना चाहता हूँ!”
“क्या?”
“हमारे रिश्ते में झूठ बहुत है।”
अब बोल तो दिया, जब भुगतने का समय आएगा, तो कहोगे, “सब बिगड़ा!”
मत बोलो न। किसने कहा है?
ठीक है?
जो सुनना चाहती है सुनाओ। जितनी चादर हो, उतने पाँव फैलाओ।
प्र: सत्य की जितनी ज़रूरत हो उतना ही बोलो।
आचार्य: ज़रूरत!
सूरमाओं का खेल है ये। सिर पहले कटाया जाता है, मैदान में बाद में उतरा जाता है। यहाँ धार बहती है। जो बूँदें गिनते हों, वो इस खेल में ना उतरें।