बुढ़ापे में अध्यात्म का फ़ायदा? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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बुढ़ापे में अध्यात्म का फ़ायदा? || आचार्य प्रशांत (2020)

आचार्य प्रशांत: (प्रश्नकर्ता का परिचय देते हुए) ये थोड़े उम्रदराज़ लग रहे हैं। सवाल बताता है कि या तो वृद्ध हैं या कम-से-कम अधेड़ उम्र के हैं। कह रहे हैं, ‘अगर किसी का पूरा जीवन ही झूठ में और मोह में और भ्रम में बीता हो तो जीवन के अंतिम दिनों में भी मुक्ति का प्रयास करके अब फ़ायदा क्या। आप कहते हैं कि पुनर्जन्म तो होता ही नहीं।’ तो ये कह रहे हैं कि मतलब ये कि अध्यात्म अगर जीवन की शुरुआत में नहीं किया तो अंत में करने से कोई लाभ नहीं है। ‘क्या मैं सही हूँ?’ पूछा है।

अच्छा। माने आप सुबह से भूखे हैं, सुबह से आप भूखे हैं और सुबह से आपको खाना मिला नहीं। और अब आपके सोने का वक़्त आ रहा है, साँझ ढली और निद्राकाल आ रहा है। अब आप आँखें बंद करके लंबी नींद सो जाएँगे। ठीक है? सुबह से आपने खाया नहीं है, अभी रात के नौ-दस बज रहे हैं और अब आपके सामने कोई खाना लेकर के आता है, पानी लेकर के आता है। आपको भोजन-पानी कुछ मिला नहीं है सुबह से तो आप उससे कहेंगे, ‘अब फ़ायदा क्या? अब तो रात हो गयी’, ये जबाब देंगे? कहिए। अतीत में आपको खाना नहीं मिला, आपके लिए ये बड़ी बात है या ये बड़ी बात है कि ठीक इस वक़्त भी आपके भीतर भूख बाक़ी है? और बाक़ी ही नहीं है बल्कि बढ़ी हुई है। बढ़ी क्यों हुई है? क्योंकि अतीत में नहीं मिला। ये क्या तर्क है?

‘मुझे आठ घंटे से पानी नहीं मिला है तो अब भी क्यों पियूँ?’ तुम ठीक इसीलिए पियो क्योंकि आठ घंटे से नहीं मिला है। बात समझ में आ रही है? अतीत में आपको कोई चीज़ नहीं मिल पायी, कोई बात नहीं, “जब जागो तभी सवेरा।” इस वक़्त भी तो आप परेशान हैं न, तभी तो ये सवाल लिख कर भेज रहे हैं। अगर इस वक़्त सबकुछ सुलझ ही गया होता, हर चीज़ स्पष्ट ही हो गयी होती तो आपको ये प्रश्न भेजने की क्या ज़रुरत थी? इसलिए आपको अध्यात्म चाहिए, अभी भी चाहिए।

हाँ, एक बात आपने बिलकुल ठीक कही है कि अगर जीवन के शुरुआती दिनों में ही अध्यात्म से परिचय हो जाए तो फिर जीवन बहुत आज़ाद और बड़ा मस्त बीतेगा। ये बात बिलकुल ठीक है। ये बात उनके लिए ठीक है जो अभी जीवन के शुरुआती दिनों में हैं, जो अभी किशोर हैं या जवान हैं। उनको तो मैं कहता ही हूँ कि टालो मत, यही तुम्हारा समय है कि तुम आध्यात्मिक शिक्षा ले लो। जीवन गँवाने के बाद आध्यात्मिक शिक्षा लोगे, उससे कहीं बेहतर है कि अभी लो न। लेकिन जो जीवन गँवा ही चुके हैं, उनसे मैं कहता हूँ – जीने के लिए अभी तुम्हारे पास कम-से-कम तीन महीने हैं, या आज ही मरने वाले हो? अगर तीन महीने भी हैं तो ये तीन महीने भी क्या तुम भ्रम में और अँधेरे में बिताना चाहते हो?

जो बिलकुल मरणासन्न रोगी होते हैं किसी घोर बीमारी के, जिनका मरना तय होता है बल्कि ये तक तय होता है कि ये कितने दिनों में सिधार जाएँगे। मान लीजिए, पता है कि अगले दो महीने में कैंसर से इनकी मृत्यु हो जाएगी। पीड़ा तो उनको भी बर्दाश्त नहीं करने दी जाती। उनको भी चिकित्सक तरह-तरह की दर्द निवारक गोलियाँ देते रहते हैं। आपको बहुत गंभीर क़िस्म का कैंसर है, मान लीजिए, और डॉक्टर्स (चिकित्सकों) ने बता दिया है कि आप दो महीने से ज़्यादा नहीं चलेंगे, तो भी इन दो महीनों में आपके दर्द को तो वो क़ाबू में रखते हैं न, ऐसा थोड़े ही करते हैं कि आपकी सब गोली-दवाई रोक दी?

तो अगर आपके पास जीने के लिए दो महीने भी होते हैं तो उस दो महीने में भी आप अपनी पीड़ा का कुछ उपचार करना चाहते हो न? आपके पास भी तो अभी जीने के लिए कम-से-कम दो महीने होंगे। दो महीने क्या, ईश्वर करे आपके पास अभी चालीस साल हों। वो चालीस साल व्यर्थ करने हैं क्या? दो महीने भी हैं तो व्यर्थ करने हैं क्या? अरे, तुम उस चालीस साल और दो महीने की भी बात छोड़ो; इस वक़्त तुम परेशान हो, झंझट में हो, तुम अपनी इस वक़्त की परेशानी दूर नहीं करना चाहते क्या?

अध्यात्म परेशानी दूर करने का साधन है। वो जिसको जब मिल जाए, उसके लिए तभी उपयोगी है। हाँ, जो जवान हों उनको जवानी में मिले, जो बूढ़े हो गये हों उन्हें बुढ़ापे में मिले, क्योंकि भाई अब उन्हें हम जवानी में जाकर तो नहीं दे सकते न, अतीत तो पलटा नहीं जा सकता। जवान को जवानी में मिले, बूढ़े को बुढ़ापे में मिले, जिसको जितनी जल्दी-से-जल्दी मिल सकता है, उसे तब मिले। लेकिन जो लोग अधेड़ या बुज़ुर्ग हो रहे हों, वो ये तर्क कदापि न दें कि अरे! आचार्य जी तो बोलते हैं कि जवानी में अध्यात्म पढ़ना चाहिए, हमारी तो जवानी बिना अध्यात्म के बीत गयी तो अब पढ़कर फ़ायदा क्या। ये सब मत कर दीजिएगा। ये अध्यात्म के विरुद्ध कुतर्क ही नहीं है, आन्तरिक साज़िश हैं। फँस मत जाइएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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