प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी जो दुर्गासप्तशती में कहानी बताई, इसमें असुरों का जन्म भी भगवती महामाया से हुआ और उनका संहार भी भगवती महामाया के द्वारा हुआ अर्थात वृत्तियाँ भी प्रकृति ने पैदा की और वृत्तियों का नाश भी वृत्ति ही कर रही है।
आचार्य प्रशांत: नहीं, वृत्ति कुछ नहीं करती है। अहम् की होती है वृत्ति। अहम् निर्धारित करता है कि वृत्ति से उसका संबंध कैसा होगा। निर्धारण करने की शक्ति अहम् के पास है। क्योंकि शक्ति ही तो देवी है न, शिव की शक्ति होती हैं। शिव आत्मा हैं। शिव ही अहम् हैं। भूली हुई आत्मा को अहम् कहते हैं। वह आत्मा जो अपने भूलने की शक्ति का उपयोग करके स्वयं को ही भूल जाए, उसे अहम् कहते हैं। तो जैसे आत्मा माने शिव के पास शक्ति होती है, वैसे ही अहम् के पास भी शक्ति है। शक्ति का ही दूसरा नाम अहम् है। क्या शक्ति है? यह तय करने की कि तुम्हारी ही वृत्ति से तुम्हारा संबंध कैसा होगा।
उसी शक्ति का ही तो भरोसा करके मैं आप लोगों से इतनी बातें करता रहता हूँ। आप लोगों के पास अगर कुछ तय करने की, निर्णय या चुनाव करने की शक्ति न हो तो मैं आपसे बात ही क्यों करूँगा। फिर तो आप कठपुतलियाँ हैं, फिर तो आप जड़ पदार्थ हैं जिसके पास कोई शक्ति ही नहीं विवेक की।
मैं इसी बात पर तो अपना भरोसा टिकाता हूँ न कि आपसे कुछ बोलूँगा तो आप अपनी शक्ति का सदुपयोग करेंगे। अगर आपके पास शक्ति होती ही नहीं तो मैं आपसे कोई बात क्यों करता? मुर्दे को कोई उपदेश देता है?
प्र२: आचार्य जी, बुद्धि प्राकृतिक है हमारी। और बुद्धि जहाँ को ले जाती है, वह भी प्रकृति की ही दिशाओं को ले जाती है। तो लेकिन प्रकृति में व्यक्ति फँसता है बार-बार। यह पता कैसे चलेगा कि बुद्धि जो चुन रही है बार-बार, वह गलत नहीं चुन रही है, क्योंकि चुनूँगा तो मैं अभी उसी से?
आचार्य: बुद्धि तुम्हारा घोड़ा है। तुम सोए हुए हो तो घोड़ा कहीं भी जाएगा। तुम जगे हुए हो तो भी घोड़ा कहीं भी जाने की कोशिश करेगा, कहीं भी माने विविध दिशाओं में, व्यर्थ दिशाओं में, अचेत दिशाओं में। तुम जगे हुए हो लेकिन यदि तो तुम उस घोड़े को अपने हेतु किसी सार्थक दिशा में ले जा सकते हो। यह तुम्हारे हाथ में है। तुम हो क्योंकि आत्मा है। तुममें सामर्थ्य और शक्ति है चुनाव करने की, क्योंकि जहाँ आत्मा है, वहाँ शक्ति है। तुम यदि नहीं हो माने तुम प्रसुप्त हो तो तुम्हारा घोड़ा फिर किसी भी अंधी दिशा में भाग जाएगा, कोई आश्चर्य नहीं।
बुद्धि को निरंकुश नहीं छोड़ना चाहिए। अंकुश माने जानते हो न क्या होता है? हाथी के ऊपर जो महावत बैठा होता है, उसके हाथ में हाथी को नियंत्रित करने के लिए वो जो यंत्र होता है, उसे अंकुश बोलते हैं। तो बुद्धि को निरंकुश नहीं होने देना चाहिए। तुम बुद्धि पर सवार रहो और तुम्हारे हाथ में विवेक का अंकुश रहे। बुद्धिजीवी मत बन जाना, बुद्धिजीवी बनने का मतलब होता है कि मैं घोड़े पर सो रहा हूँ और मेरा जो जीव है, मेरा जो अहम् है, वह पूरे तरीके से बुद्धि से तादात्म्य में पा चुका है, बुद्धि कहीं को भी जा रही है, निरंकुश।
तुम सत्यजीवी रहना। बुद्धिजीवी बुद्धि का दास हो गया, सत्यजीवी सत्य का दास है। तो बुद्धिजीवी नहीं बनना है। जो सत्यजीवी है, बुद्धि उसकी दासी रहेगी। जो बुद्धिजीवी है, वो बुद्धि का दास रहेगा।
प्र३: बुद्धि बार-बार फँसा रही है चीजों में। मैं सोच रहा हूँ, उससे फँस रहा हूँ, सर्कल (घेरा) सा बनता जा रहा है। वो हॉल्ट होगा कैसे, रुकेगा कैसे?
आचार्य: राजा का कैसे रुका? राजा को भी उनकी बुद्धि मोहग्रस्त ही करे हुए थी। और बुद्धि उनको यह भी बता रही थी कि तुम समझदार बहुत हो। तो राजा ने बुद्धि के इस कुचक्र से बाहर आने के लिए क्या किया? या संयोग ने राजा से क्या करवाया? क्या किया? बस ऋषि से प्रश्न पूछे, ऋषि से जिज्ञासा करी। यही तरीका है, यही उपाय है।