बुद्धि को चाहिए तो कृष्ण ही || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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बुद्धि को चाहिए तो कृष्ण ही || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना | न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम् || २, ६६ ||

न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस आयुक्त मनुष्य के अंतःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शांति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है? —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ६६

प्रश्नकर्ता: इस श्लोक में निश्चयात्मिका बुद्धि का उल्लेख है। इसे हम अपने में कैसे लाएँ? ये किन कारणों से नहीं होती?

आचार्य जी, किसी काम को करने के लिए मन झुंड का साथ ढूँढता है। कैसे अपने नित्य अकेलेपन को प्राप्त करें और जीएँ? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: निश्चयात्मिका बुद्धि वो बुद्धि है जिसने पचास जगह लगना छोड़ दिया। जैसे जब भावना की बात हो रही थी तो हमने कहा था न, कैसी भी भावना हो—अच्छी भावना, बुरी भावना, मिटाने की भावना, राग, चाहे द्वेष, अपनेपन की भावना, परायेपन की भावना—पचासों के प्रति भावना तुममें है तो फ़िर कृष्णभावना तुममें नहीं हो सकती।

इसी से समझो कि निश्चयात्मिका बुद्धि क्या होती है। जो निश्चय करके एक पर स्थिर हो गई है, ऐसी बुद्धि। उसको अब कोई संशय नहीं बचा है। वो एक पर आ करके अटक गई है, अब हिलेगी नहीं। वो कहलाती है निश्चयात्मिका बुद्धि।

श्रीकृष्ण ने इस पर बहुत ज़ोर दिया है, कह रहे हैं कि तुम्हारी बुद्धि ही तुम्हारी दुश्मन है। बहुत चलती है तुम्हारी अक्ल, उसका चलना बंद करो। इसका मतलब यह नहीं है कि निर्बुद्धि हो जाओ, इसका मतलब यह है कि बुद्धि अब बाण की तरह सिर्फ अपने लक्ष्य की ओर चले।

हमारी बुद्धि कैसे चलती है? कभी ऐसे, कभी वैसे, कभी दाएँ, कभी बाएँ, ऊपर, नीचे। जितनी दिशाएँ हो सकती हैं, हर दिशा में बुद्धि हमारी चलती है। माहौल बदला नहीं कि बुद्धि बदल गई। खाना खा लिया, बुद्धि बदल गई। बैठे हैं, बैठे हैं, किसी ने कोहनी मार दी, विचार बदल गए।

निश्चयात्मिका बुद्धि वो जो अर्जुन के गांडीव से छूटे हुए तीर की तरह है—एक लक्ष्य, एक निष्ठा।

और पूछ रहे हैं, “किन कारणों से नहीं होती?”

यह स्पष्ट नहीं होता जब तक कि ‘कृष्ण कहाँ हैं’, तब तक निश्चित होकर बुद्धि ठहर कैसे जाए। निश्चय नहीं आ पा रहा न? पचासों जगह कृष्ण दिखाई दे रहे हैं तो बुद्धि पचासों जगह भाग रही है। चाहिए बुद्धि को कृष्ण ही, पर कृष्ण जहाँ हैं, वहाँ नहीं दिखाई दे रहे। इसमें भी दिख रहे हैं, उसमें भी दिख रहे हैं, यहाँ भी दिख रहे हैं, वहाँ भी दिख रहे हैं - ऐसे में आज़मा लेना चाहिए। अगर बहुत जगह लग रहा हो कि कृष्ण-ही-कृष्ण हैं, ये भी प्यारे, ये प्यारे, ये भी प्यारे, ये भी प्यारे, तो आज़मा लेना चाहिए।

वो सुना है न कि एक जादूगर ने राजा की दस प्रतिमाएँ बना दीं। उसमें से एक थी लोहे की, बाकी थीं मोम की। और राजा से कहा कि असली प्रतिमा है लोहे की। “अगर तुमने एक ही प्रयास में वो पहचान ली तो तुम जो कहोगे, वो तुमको मैं दूँगा। नहीं तो ऐसा जादू मारूँगा कि यहीं मृत्यु हो जाएगी तुम्हारी। और एक ही अवसर मिलेगा, एक बार में पहचानना है असली कौन सी है।” दिखने में हू-ब-हू एक सी वो सब।

तो राजा ने क्या कहा? राजा ने यह नहीं कहा कि चलो पहचानते हैं, राजा ने कहा कि चलो आज़माते हैं; यह नहीं कहा कि प्रयास करके पहचानते हैं। छूना मना था, ये नहीं था कि जा करके बता दो कि मोम की कौन सी है। और प्रयास तो एक ही बार कर सकते थे, तो एक ही बार छू पाते। उसमें अधिक-से-अधिक यही पता चलता कि नकली कौन सी है। असली वाली कहाँ छुपी है, यह कैसे पता चलता?

तो राजा ने क्या कहा? "आज़माते हैं!" क्या करा राजा ने? आग लगा दी। तो आग लगा दो, जो असली होगा, वही बचेगा, बाकी सब जलकर ख़ाक हो जाना है।

असली-नकली की पहचान ही आग लगाने पर होती है। डरते क्यों हो आग लगाने में? दुनिया में सब कुछ तो नकली नहीं है न? जो नकली होगा, वही राख होगा। और यही प्रयोग हम कभी करते नहीं, यही श्रद्धाहीनता है। हमें लगता है कि कहीं सब कुछ ही जल गया, फ़िर हमारा क्या होगा। सब कुछ नहीं जलेगा, भाई। और अगर सब कुछ ही नकली है तो सब कुछ ही जल जाएगा। अपने-आप को धोखे में रखने का क्या लाभ, कि नकली को असली माने प्रसन्न हुए घूम रहे हैं।

आज़मा लो। मोम के सौदागर बहुत होते हैं, वो आँच नहीं बर्दाश्त कर पाएँगे। फ़िर बुद्धि को निश्चय हो जाएगा कि कौन असली है, फ़िर बुद्धि तेज़ चलेगी।

जो कुछ दूर से बड़ा आकर्षक लगता हो, निकट जाकर उसको स्पर्श ही कर लो न। देख लो कि दम कितना है। अब मोम का योद्धा खड़ा हुआ है तलवार ले करके, बड़ा सूरमा दिखता है, क्या धार है तलवार में! और चमक रहा है जैसे लोहे का हो, चेहरे पर भाव है शौर्य और पराक्रम का। आज़मा लो, एक चाँटा मारो जाकर। उसकी तलवार को ही ज़रा रगड़ दो। असली होगी तलवार तो खून तुम्हारा बहेगा और नकली होगा सूरमा तो तलवार हाथ में आ जाएगी। कोई और विकल्प नहीं है।

फ़िर कह रहे हैं, “कुछ भी करने के लिए मन झुंड ढूँढता है। कैसे अपने नित्य अकेलेपन को प्राप्त करें और जीएँ?"

मैं फ़िर कहूँगा, “झुंड के साथ हो लो।” झुंड को छोड़ने का इससे अच्छा कोई तरीका ही नहीं है। झुंड से यारी कर लो, घुस जाओ बिलकुल झुंड में। अगर इंसान होओगे और थोड़ी भी सच्चाई होगी तुम्हारे दिल में तो झुंड को छोड़कर भागोगे। जितनी गहराई से घुसोगे, उतनी ही तेज़ी से भागोगे।

झुंड भी, भीड़ भी आकर्षक दूर-दूर से ही लगते हैं। उनमें प्रविष्ट ही हो जाओ न। असलियत सामने आ जाएगी। फ़िर कहोगे, “रहने दो, भाई। हम अकेले ही अच्छे।” जो बहुत बुला रहा हो, उसके पास चले ही जाना चाहिए। काबिल होगा, तो साथी मिला। नाकाबिल होगा, तो राज़ खुला। ये बीच-बीच का मामला ख़तरनाक होता है, न इधर के, न उधर के।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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