बुद्धि के तीन तल || आचार्य प्रशांत, हंस गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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बुद्धि के तीन तल || आचार्य प्रशांत, हंस गीता पर (2020)

श्री भगवान् उवाच सत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न चात्मन:। सत्त्वेननान्यतमौ हन्यात् सत्त्वेन चैव हि।।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं — प्रिय उद्धव! सत्त्व, रज और तम — यह तीनों बुद्धि (प्रकृति) के गुण हैं, आत्मा के नहीं। सत्त्व के द्वारा रज और तम — इन दो गुणों पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिए। तदनन्तर सत्त्वगुण की शान्तवृत्ति के द्वारा उसकी दया आदि मृत्यु को भी शान्त कर देना चाहिए। ~ हंस गीता, श्लोक १

आचार्य प्रशांत: तो पूछ रहे हैं कि, ‘क्या बुद्धि के एक ही तल के गुणों से उसी तल के दूसरे गुण बेहतर होते हैं? क्या एक ही तल के एक गुण की मदद से हम उसी तल के दूसरे गुण को शान्त कर सकते हैं?’

नहीं, पता नहीं आप ‘तल’ किस चीज को बोल रहे हैं। बुद्धि का जो गुण है वही बुद्धि का तल है। एक गुण, एक तल। तो एक तल पर पाँच गुण कहाँ से आ गए? एक गुण ही बुद्धि का एक तल है। बताने का तरीका है ये एक।

तो एक है, ‘सतोगुणी बुद्धि’ वो बुद्धि का उच्चतम तल है, ‘रजोगुणी बुद्धि’ ये मध्यम तल है और फिर ‘तमोगुणी बुद्धि’ ये निचला तल है। तो एक तल पर एक गुण है न।

आपने प्रश्न पूछा है, ‘क्या एक ही तल के गुणों से उसी तल के दूसरे गुण बेहतर होते हैं?’ नहीं, ये प्रश्न ही बहुत अर्थ नहीं रखता। इस प्रश्न पर ही काम हो जाना चाहिए था पहले। चलिए अब सवाल से आगे का जवाब देता हूँ जो आपने पूछा नहीं है।

बुद्धि प्रकृति का ही एक तत्व है। मन, बुद्धि स्मृति, चित्त, अहंकार, शरीर, ये सब जो हैं प्राकृतिक हैं न। जो कुछ भी प्राकृतिक है वो सदा इन्हीं तीन गुणों के संयोग से ही बना होता है। ठीक है न? उसे संयोग भी कह सकते हैं या आप कह सकते हैं कि वो इन तीन गुणों के आपसी वैषम्य से बना होता है। इन तीन गुणों की आपसी प्रतिक्रियाओं से बना होता है।

वैषम्य से क्या मतलब? ये तीन गुण आपस में मेल तो रखते नहीं तो ये जब भी इकट्ठे आते हैं तो इनमें आपस में विषमता हो जाती है। विषमता माने? बेमेल हैं ये। तो जब ये बेमेल हैं तो ये आपस में प्रतिक्रिया करते हैं समझ लीजिये लड़ाई-झगड़ा करते हैं। और फिर आपस में किसी तरह का ये कोई अस्थायी सन्तुलन स्थापित करते हैं। जैसे तीन लोग लड़ रहे हों। अब तीन में से कभी एक भारी पड़ा, कभी दूसरा भारी, कभी तीसरा भारी।

जिसको आप सतोगुणी बुद्धि या चित्त या मन या कुछ भी कहते भी हैं वहाँ मतलब बस यह होता है कि सतोगुण भारी पड़ गया है बाकी दोनों को उसने दबा दिया है, बाकी दोनों भी मौजूद तो हैं ही। जब तक आप प्रकृति के क्षेत्र में हैं गुण तो तीनों मौजूद रहेंगे। एक का आधिक्य हो सकता है, एक का आधिपत्य हो सकता है, एक का राज चल सकता है। लेकिन बाकी दोनों भी न्यूनेतरमात्रा में थोड़ा बहुत मौजूद तो रहेंगे ही।

तो ये बात बुद्धि पर भी लागू होती है। किसी व्यक्ति में सतोगुणी बुद्धि होती है, किसी में रजोगुणी, किसी में तमोगुणी। और जैसे ही मैं कहता जा रहा हूँ, मैं अपने कहे हुए का खतरा भी समझता जा रहा हूँ। आप कहेंगे, ‘अच्छा, अच्छा! मैं क्या करूँ? मेरी तो प्राकृतिक तौर पर बुद्धि ही सतोगुणी है।‘

नहीं, चुनाव होता है, चुनाव होता है, चुनना होता है। भूलिए नहीं कि रजोगुण, तमोगुण दोनों दुख-दाता होते हैं और दोनों में एक केन्द्रीय बात होती है – अज्ञान।

बस रजोगुण सक्रिय होता है और तमोगुण निष्क्रिय होता है। दुख और अज्ञान से भरा हुआ रजोगुणी खूब दौड़ लगाता है। और दुख और अज्ञान से भरा हुआ तमोगुणी जाकर नशा करके सो जाता है लेकिन दोनों में जो मूल बात है वो यही है, क्या? दुख और अज्ञान।

अज्ञान न हो तो कोई फँसा क्यों रहेगा? और अज्ञान के बारे में मैंने बहुत बार स्पष्ट किया है कि अज्ञान का मतलब ज्ञान का अभाव नहीं होता। अज्ञान का मतलब होता है गलत ज्ञान, झूठा ज्ञान।

ठीक है? अज्ञान जैसा कुछ नहीं होता। मन खाली नहीं रह सकता, मन में हमेशा ज्ञान मौजूद रहेगा। वो ज्ञान या तो सही हो सकता है मुक्ति देने वाला, आनन्द देने वाला या वो ज्ञान गड़बड़ हो सकता है झूठा, मिथ्या, भ्रम।

तो ये जो रजोगुणी, तमोगुणी बुद्धि होती है ये झूठे ज्ञान पर आश्रित होती है। सतोगुण क्या करता है? सतोगुण होता ही है ज्ञानमूलक, सतोगुण ज्ञान मूलक होता है जिसमें आप समझने लगते हो चीज़ों को। बात समझ में आ गयी। किसी ने कुछ बता दिया, कहीं कुछ पढ़ लिया, दृष्टि ने कुछ देख लिया। तो वो इसलिए फिर विजय पाता है रजोगुण और तमोगुण पर क्योंकि रजोगुण, तमोगुण किस पर आश्रित हैं? अज्ञान पर या झूठे ज्ञान पर और सतोगुण का केन्द्रीय तत्व क्या है? सच्चा ज्ञान। तो इसलिए सतोगुण इन दोनों को जीत लेता है।

लेकिन सच्चे ज्ञान से अगर इतनी आसानी से जीता जा सकता, रजो और तमो को, तो दुनिया में इतने कम लोग क्यों सतोगुणी दिखाई देते? वो इसलिए क्योंकि वो जो सच्चा ज्ञान है वो होता है खतरनाक और महँगा। उससे हमको खतरा होता है, क्या खतरा होता है? खतरा ये होता है कि प्रमाद छिन जाएगा। प्रमाद समझते हो? नशा। और खतरा ये होता है कर्ताभाव छिन जाएगा।

तमोगुण में प्रमाद होता है। तमोगुणी व्यक्ति का बिलकुल जो सीधा-सादा प्रतीक है वो ये है एक गन्धाता, दस दिन से न नहाया, अपनी दुर्गति करा हुआ भ्रम, कल्पना में, अन्धाधुन्ध भरा हुआ शराबी और वो अपने बिस्तर पर पड़ा हुआ है। बिस्तर के ठीक नीचे उसने उल्टी, कै कर रखी है, दस्त भी कर रखी है, उसका पूरा माहौल दुर्गन्धयुक्त है। लेकिन ये व्यक्ति घोर आत्मविश्वास से भरा हुआ है और इसका इरादा है अभी और पीने का। क्यों? क्योंकि पीकर-के इसे प्रमाद मिलता है और प्रमाद में अपनी तरह का एक सुख है।

प्रमाद तुम्हें जीवन की हकीकत से काट देता है। प्रमाद तुम्हें अनुमति दे देता है कि तुम अपने ही दिवास्वप्न में जियो। तुम अपने लिए एक वैकल्पिक परी-देश बना लेते हो और तुम उसमें जीना शुरू कर देते हो। इसीलिए तो नशेड़ी के लिए आवश्यक हो जाता है बार-बार नशा करना। वो नशा नहीं करेगा तो अपने देश में वापस कैसे पहुँचेगा?

इसी तरीके से रजोगुण का जो आश्रयदाता है वो कर्ता-भाव है। रजोगुणी को यही लग रहा होता है मैं इतना कुछ कर रहा हूँ, मैं करके मानूँगा। मेरी इतनी उपलब्धियाँ हैं। ये-ये हासिल किया है मैंने।

सतोगुण इनको काटता तो है लेकिन काटने के साथ-साथ वो तुम्हारा प्रमाद भी काट देता है और तुम्हारे बड़प्पन, तुम्हारी अकड़, तुम्हारे कर्ता-भाव को भी काट देता है। ये कीमत देनी पड़ती है ज्ञान की। इसलिए कहा मैंने कि ज्ञान खतरनाक भी है और महँगा भी है। इसलिए सतोगुणी लोग कम पाए जाते हैं।

बात समझ में आ रही है?

सतोगुणी आकर-के तुम्हारा जो मिथ्या भवन है, उसे ढहा देगा। तुमने सपनों का जो प्रासाद खड़ा करा है सतोगुण के सामने वो टिकता नहीं है। तो सतोगुण में बड़ी मुक्ति मिलती है। सतोगुण में आज़ादी मिलती है अपने पुराने नर्क से।

लेकिन सतोगुण में जो आज़ादी मिली होती है उसमें अभी भी एक परनिर्भरता होती है। वो परनिर्भरता किस पर होती है? ज्ञान पर। तो इसीलिए जो लोग पूर्ण मुक्ति के आकांक्षी थे उन्होंने कहा, ‘सतोगुण कितनी ऊँची बात है। कितनी ऊँची बात है। अहाहा!‘

उन्होंने सतोगुण की शान में, सतोगुण के सौन्दर्य को लेकर, सतोगुण की प्रशंसा में न जाने कितनी बातें कहीं और उन सब बातों को कहने के बाद थोड़ी सी बात और जोड़ी, कि देखो, सतोगुण बहुत ऊँची बात है लेकिन अगर तुम्हें अभी और चाहिए हो तो तुम सतोगुण का भी उल्लंघन कर जाना, तुम और आगे निकल जाना, तुम गुणातीत हो जाना।

वो फिर पूर्ण समाधि की बात हो गयी। वो पूर्ण मुक्ति हो गयी। तुम प्रकृति से ही परे हो गए। तीनों गुण ही प्रकृति हैं। तुम तीसरे गुण से भी आगे निकल गए अगर, सतोगुण से भी आगे निकल गए तो तुम्हारा प्रकृति कोई लेना-देना नहीं। अब तुम मुक्त पुरुष हो गए। अब तुम शुद्ध चेतना मात्र हो गए।

बात समझ में आ रही है?

लेकिन देखो वो बहुत दूर की कौड़ी है, ये बात कि ‘मैं सतोगुण का भी उल्लंघन कर जाऊँगा मैं ज्ञान का भी अतिक्रमण कर जाऊँगा।‘ ये छोटे मुँह बड़ी बात है, शोभा नहीं देती। आप तो सतोगुणी होने का प्रयत्न करें। आप तो जीवन में सच्चे ज्ञान को लेकर-के आएँ ताकि आपका झूठा ज्ञान खंडित हो।

हम कोई भी अबोध, अज्ञानी लोग नहीं हैं। हम सब में ज्ञान कूट-कूट कर भरा हुआ है। हमारे अहंकार की सीमा नहीं है। हमें चाहिए कोई जो हमें हमारे खोखलेपन से, झूठेपन से परिचित कराए।

हमारा हाल ऐसा है जैसे किसी ने गणित का सवाल उत्तर पुस्तिका के पाँच पन्ने लगाकर हल किया हो। और उसे पूरा भरोसा है कि उसने तो कर ही डाला, फतह हो गयी। सिकन्दर हो गया वो। लेकिन भाई बात गणित की है। गणित में या तो कुछ सही होता है या गलत होता है। तुमने पाँच पन्ने ज़रूर भर डालें हैं लेकिन वो सब गलत है। ये हिन्दी या अंग्रेज़ी साहित्य थोड़े ही है कि बहुत सारा लिखोगे तो कुछ नम्बर तो पा ही जाओगे। यहाँ मामला गणित जैसा है। तुमने ज़रूर पाँच पन्ने का उत्तर दिया। ज़रूर तुमने रात भर अपनी बात बताई।

मेरे साथ हुआ है ऐसा। लोग आते हैं, बैठते हैं, कहते हैं आचार्य जी बत्ती थोड़ी कम कर दीजिये। थोड़ा-सा प्रकाश मन्द कर दीजिये तभी अपनी बात बोल पाऊँगा। मैं कहता हूँ, ‘चलो भैया मैं बैठ जाता हूँ, बोलो।‘

और वो तीन घंटे तक अपनी गाथा सुनाता है और मैं सुन रहा हूँ, सुन रहा हूँ। उसके बाद बोलने के लिए मेरे पास तीन शब्द होते हैं। मैं कहता हूँ, ‘सब झूठ है।‘ तुमने बहुत कुछ बोला पर उसका कुल जमा सार ये है कि जो कुछ बोला सब झूठ था। हाँ, तुमने जो बोला तुम्हें उसमे बड़ा अर्थ, बड़ा महत्व दिखाई देता है। तुम्हें लगता है, ‘मैंने बड़ी बात बोल दी। देखो, मेरी ज़िन्दगी का अहम मसला है, मेरे मन की गुप्त और केन्द्रीय बात है। मैंने आचार्य जी के सामने उजागर कर दी अब वो ज़रूर मेरे कहे को महत्व देंगे। मैंने इतने अपने मार्मिक, हार्दिक अल्फाज़ और एहसास उनको बताए हैं। उनके पास मेरे जज़्बात के लिए कुछ तो सम्मान होगा!’

नहीं, मेरे पास नहीं हैं। मैं तो बोलूँगा सब झूठ है। तो सतोगुण ऐसा ही होता है। तमो के पास नीन्द है। रजो के पास लम्बी-लम्बी कहानियाँ। तमोगुण से बोलो, ‘कहानी सुना।‘ उसने सुना ही नहीं, वो तुम्हें क्या सुनाएगा। वो तुम्हारी ही बात नहीं सुन रहा, वो तुम्हें क्या सुनाएगा। तुम उससे बोल रहे हो, ‘कहानी सुना।‘ वो धुत्त है। अच्छा, टुन्न है। कोई कहानी नहीं है। उसकी कहानी यही है, ‘खर्रsssss‘

और वो उठेगा तो वो कहानी-वहानी छोड़ो, दूर की बात है, वो सोडा माँगेगा। बोतल तो वो तकिये के नीचे रखता है, बोतल नहीं माँगेगा। सोडे की कमी हो गयी, सोडा कहाँ है, सोडा कहाँ है। तो उसे कहानी भी नहीं सुनानी, वो आत्मविश्वास से इतना परिपूर्ण है कि वो बातचीत भी नहीं करेगा, उसे सब पता है।

रजोगुणी के पास उपलब्धी की लम्बी-लम्बी कहानियाँ होती हैं। जैसे किसी बिग टाइम अचीवर का लम्बा सीवी होता है। तुमने देखा है? कोई चालीस-पैन्तालीस साल का हो गया हो, उसका सीवी देखना। पाँच-सात, दस पन्ने का हो जाता है।

कॉलेजी लड़कों को बड़ी दिक्कत आती है एक पन्ना भी कैसे भरें। उनके पास कुछ होता नहीं। कह रहे हैं क्या दिखाएँ? दसवीं में बावन प्रतिशत। बारहवीं में बयालीस। खो-खो खेलने गए थे उसमें भी फिसड्डी निकले थे। लिखें क्या? उनका आधा पन्ना नहीं भरता। फिर वो फॉन्ट साइज़ बढ़ाते हैं और मार्जिन बड़ी-बड़ी करते हैं। कहते हैं, ‘देखो ये एस्थेटिक का बात है। सफ़ाई होनी चाहिए न। सफ़ेद-सफ़ेद कागज़ कितना अच्छा लगता है, सुन्दर, साफ़, धवल, उज्जवल। तो ऐसे कर के।

और जो ये रजोगुणी टॉप अचीवर होता है, चालीस साल के, इनके आते हैं ये सीवी। ये आठ पन्ने का होगा, आठ पन्ने का सीवी होगा। उसके बाद सोलह पन्ने के रिफ्रेंसेस। तो रजोगुणी के पास कहानियाँ बड़ी-बड़ी होती हैं, लम्बी कहानियाँ। ज्ञान का काम है तुमने लम्बी कहानी सुनाईं, उसने ध्वस्त कर दिया। बुरा लगता है लेकिन आज़ादी मिलेगी। बहुत बड़ी आजादी है ये। शुरू में डरोगे लेकिन इसी डर के पार आज़ादी है।

तुम्हारी समस्याएँ तुम्हारा अज्ञान नहीं हैं। ये बात मुझे बहुत पहले समझ में आ गयी थी कि कोई ऐसा नहीं हैं जो नासमझ है, लोग नासमझ नहीं हैं, वो बेईमान हैं।

न नासमझ हैं, न नाफ़रमान हैं, हम सिर्फ़ बेईमान हैं। नाफ़रमानी समझते हो? अवज्ञा। तुम्हारी आज्ञा नहीं मान रहा वो। आज्ञा वो मान ही नहीं सकता। तुम्हारी आज्ञा मानेगा तो वो बिखर जायेगा। तो तुम्हारे सामने नाफ़रमानी करेगा। तुम कोई भी हो। मैं ये नही कह रहा हूँ कि तुम उसके ऊपर तानाशाही चला रहे हो। तुम उसके शुभचिन्तक भी हो। तुम उसे जो बोलोगे तुम्हारे सामने खड़ा हो कर के नहीं मानेगा। मान लिया तो वो बिखर जाएगा।

बात आ रही है समझ में?

समझ की ज़रूरत नहीं है, जज़्बा चाहिए। अपने खिलाफ़ तुममें जब तक विरक्ति नहीं उठ रही, अपने खिलाफ़ तुममें जबतक उदासीनता ही नहीं, घृणा नहीं आ रही, तुम अपनी तमोगुणी या रजोगुणी प्रकृति को छोड़ोगे ही नहीं। तुममें जबतक अपने प्रति एक सक्रिय घृणा का भाव नहीं है तब तक बात नहीं बनती।

देखो आध्यात्म छोटी-मोटी तरक्की का नाम तो है नहीं, कि बाल बढ़ गए थे बाल कटा आए। या कि उच्चारण ठीक नहीं करते थे कुछ शब्दों का तो साफ़ उच्चारण सीख लिया। या कहीं जाकर थोड़ी अपनी तनख्वाह बढ़वा आए। ये तो आध्यात्म है नहीं। न आध्यात्म उस तरीके की युक्तियों का और तरकीबों का नाम है कि गुस्सा ज़्यादा आने पर क्या करें? तो दस से एक तक उल्टी गिनती गिन लो।

थोड़ा सी तो तरक्की हुई न। देखो पहले गुस्सा ज़्यादा दिखाते थे अब कम दिखाते हैं। आध्यात्मिक हो गए, ये सब अध्यात्म नहीं। अध्यात्म तो तुम्हारे केन्द्र के पूरे बदलाव का नाम है, तुम्हें इन्सान दूसरा हो जाना है इसीलिए अध्यात्म को महामृत्यु बोलते हैं। जो पहले बन्दा था वो खत्म ही हो जाएगा। नया बन्दा जन्म लेता है।

और वो तब तक नहीं हो सकता जब तक तुममें जज़्बा न हो। तुममें उस पुराने के प्रति बड़ा ज़बरदस्त वैराग्य होना चाहिए। उस पुराने के लिए तुम्हारे पास लगभग नफ़रत होनी चाहिए तभी तो उस पुराने को तुम त्याग पाओगे। नया तुम बनोगे कैसे अगर तुम्हें अपने पुराने स्वत्व में ही बड़ा गुरूर है।

और तुम्हें अपने पुराने स्वत्व में, अपनी पुरानी हस्ती में कितना गुरूर और कितना विश्वास है उसका मैं तुमको एक पैमाना बताए देता हूँ, जाँच लेना। तुम कितना अपनी सुरक्षा करते हो, तुम बदलाव से कितना भागते हो। जो तुम्हें बदलना चाहता हो उससे तुम कितना मुँह छुपाते हो बस यही बता देगा कि तुम कितने ज़्यादा ज़बरदस्त अहंकार और रजो, तमो से भरे हुए हो।

और अगर ऐसी तुम्हारी हालत है तो तुम्हारी हालत तुम्हें मुबारक। कोई बदलाव नहीं हो पाएगा बस। मुक्ति कोई अनिवार्यता थोड़े ही है कि ज़बरदस्ती तुम पर थोपी जाए। मुक्ति अगर अनिवार्यता ही होती तो अस्तित्व तुम्हें बन्धन क्यों सौंपता? फिर तो मुक्ति अगर अनिवार्य है तो सब स्वतः ही मुक्त हो जाते।

ये तो फिर अस्तित्व का नियम होता कि सबको मोक्ष मिलेगा। मुक्ति अनिवार्य नहीं होती। मुक्ति तो तुम्हारी गहरी लालसा का प्रतिफ़ल होती है, मुक्ति तो भीतर से उठती कराह होती है। मुक्ति उनके लिए है जो सो न पाएँ, जो अपनेआप को देखें और अपने ही मुँह पर थप्पड़ मार लें, जो अपनी ही छाती पर घूँसे बरसाएँ, मुक्ति उनके लिए है।

जो खुद को बड़ा सलोना और दुलारा समझते हों, जो खुद को ही सजाए जाते हों और आत्मविश्वास से भरपूर हों वो करेंगे क्या मुक्ति का? तो अस्तित्व उनको जीने देता है। अस्तित्व उन पर कोई सज़ा वगैरह नहीं लगाता। वो कहता है जैसे तुम जी रहे हो वो खुद ही तुम्हारी सज़ा है। तुम्हें और हम क्या सज़ा दें।

इसीलिए तुम पाते हो कि दुनिया की अधिकांश आबादी अपना जिए जा रही है। कोई उन्हें बताने थोड़े ही आता है, कोई आकाशवाणी थोड़े ही होती है। कोई पेड़ उनसे थोड़े ही बोलता है कि तुम गलत जी रहे हो, तुम दुख में जी रहे हो। न ही कोई देवाज्ञा जारी होती है कि इनको सज़ा मिले। उन्हें क्या सज़ा मिले वो तो हैं ही सज़ा में। उनका दुख देखो। पर उन्होंने दुख के साथ समझौता कर लिया। तुमने कर लिया समझौता तो तुम्हारी मर्ज़ी। तुम्हें कोई ज़बरदस्ती थोड़े ही आनन्द देने आएगा। जैसे जीना चाहो जियो। और ऐसे ही जीते-जीते मर जाओ। पूरी आज़ादी है तुमको।

आ रही बात समझ में?

समझ कर भी क्या होगा? समझ नहीं जज़्बा चाहिए, नफ़रत चाहिए। जो अपनी सुरक्षा करने में लगा हो कि, ‘नहीं मैं तो सही हूँ बस, वो तो हालात ने मुझे धोखा दे रखा है।‘

ऐसे को तो बस शू।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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