बुद्धि के स्तर पर मनुष्य पशुओं के ही समान है || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

Acharya Prashant

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बुद्धि के स्तर पर मनुष्य पशुओं के ही समान है || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

प्रश्नकर्ता: क्या बुद्धि और प्रकृति एक ही तल पर हैं?

आचार्य प्रशांत: प्रकृति का छोटा सा अवयव है बुद्धि।

प्र: और अभी मनुष्यों में भी प्रकृति जो है बुद्धि के माध्यम से ही अभिव्यक्ति पा रही है।

आचार्य: प्राकृतिक ही है बुद्धि। देखो न, इतने जीवो को देखो, सबकी बुद्धि उनकी देह माया के अनुरूप होती है। कुत्ते की एक तरह की बुद्धि है, तोते की दूसरे तरह की बुद्धि है। क्यों? क्योंकि तोता शरीर से तोता होता है और कुत्ता शरीर से कुत्ता है। तो प्रकृति के अनुसार ही बुद्धि चलती है। बुद्धि कोई प्रकृति से बाहर की बात नहीं, छोटी सी चीज़ है प्रकृति की सीमाओं के अंदर।

प्र: बुद्धि को या इंटेलेक्ट को इस तरीके से देखा जाता है जो जानवरों के पास नहीं है।

आचार्य: यह मनुष्य की दुर्बुद्धि है कि वह सोचता है कि सिर्फ़ उसी के पास बुद्धि है। ऋषि ने और क्या बोला यहाँ राजा को? कि हाँ, समझदार तो तुम हो लेकिन तुम्हारे जितनी समझदारी तो यह सब मेरे जो गाय, भैंस और हिरण और खरगोश हैं, इनमें भी है। तो ये जो मोह ग्रस्त लोग होते हैं, उस राजा जैसे, उस वणिक जैसे, यह उनका कहना होता है कि सिर्फ़ इंसानों के पास बुद्धि है, जानवरों के पास नहीं है। ऐसा कुछ नहीं, सब के पास अपनी-अपनी तरह की प्राकृतिक बुद्धि है और सब अपनी बुद्धि के अनुरूप आचरण कर रहे हैं। उसमें कोई विशेष बात है ही नहीं।

प्र: जब इवोल्यूशन (विकास) के नज़रिए से देखा जाता है तो ऐसा देखा जाता है कि जानवर जैसे पहले था वह आज भी वैसा ही है, लेकिन इंसानों ने बहुत तरक्की कर ली है।

आचार्य: यह बात मनुष्य की प्रकृति के अंदर की है। पशुओं की प्रकृति है कि वे जैसे हैं, वैसे ही रहेंगे। मनुष्य की प्रकृति ही है कि वे जैसे हैं, उसमें वे प्रगति करेंगे। पर वह सारी जो प्रगति है, वह प्रकृति के अंदर ही है, प्रकृति के बाहर नहीं ले जा रहे उन्हें। तुमको फिर ऐसा कहना चाहिए कि पशु पुरातन जंगल में रहता है और मनुष्य सीमेंट-कांक्रीट के जंगल में रहता है। पर तुम्हारे शहर भी उतने ही प्राकृतिक है जितने कि पशुओं के जंगल। भाई, निर्माण कोई मनुष्य मात्र ही थोड़ी करता है। बया पक्षी का घोंसला देखा है? वहाँ बोधस्थल के बाहर खंभे पर गिलहरी ने अपना एक घोंसला बना लिया, वह भी तो निर्माण करती है। सब निर्माण करते हैं, कर रहे हैं।

तो उनका निर्माण भी वैसे ही प्रगति है जैसे तुम्हारे ये सब निर्माण हैं। जो कुछ भी हो रहा है, वह है सब प्रकृति के आधीन ही। दिक्कत तब हो जाती है, जब हम सोचते हैं कि हम शहर बना करके प्रकृति से बाहर आ गए। चूँकि तुम सोचते हो कि शहर बना करके तुम प्रकृति से बाहर आ गए तो जब कभी तुम जंगल की सैर को जाते हो तो कहते हो अब मैं प्रकृति के पास जा रहा हूँ। ऐसे ही कहते हैं न लोग? अब मैं सप्ताहांत बिताने के लिए प्रकृति के पास जा रहा हूँ।

इसमें तुम्हारी मान्यता, तुम्हारा असम्पशन यह है कि जब तुम शहर में थे तो प्रकृति से बाहर थे। तुम शहर में भी जो हो, वह शहर भी प्राकृतिक ही है। क्योंकि वह सारा शहर तुमने अपनी बुद्धि से बसाया है और तुम्हारी बुद्धि प्राकृतिक है। जानवर की बुद्धि यह है कि शहर मत बसाओ। तुम्हारी बुद्धि यह है कि शहर बसाओ। पर दोनों की बुद्धि पर राज प्रकृति ही कर रही है। जो कुछ हो रहा है, सब प्रकृति के अंदर-ही-अंदर ही हो रहा है। अगर तुम पशुओं की निर्दोषता की बात कर रही हो तो वह भी प्राकृतिक है। अगर तुम मनुष्य की कुटिलता की बात कर रही हो तो वह भी प्राकृतिक है। सब प्रकृति के अंदर-ही-अंदर है।

प्रकृति के परे जाने का अर्थ वास्तव में होता है: प्रकृति के मर्म में जाना। उसे ही मुक्ति कहते हैं।

एक जो तुमको बहुत निर्दोष सा बछड़ा दिखे छोटा सा कोई या शिशु दिखे, वह भी वास्तव में उतना ही प्राकृतिक है जितना कि अभी कथा में जो मधु-कैटभ आए थे वो प्राकृतिक थे। यह बात सुनने में विचित्र लगेगी लेकिन प्रकृति की दृष्टि से कोई बड़ा अपराधी या हत्यारा हो, वह भी वैसा ही है जैसा कि कोई अबोध शिशु — ये दोनों एक ही तल पर हैं। इन दोनों से अलग तल पर कौन हैं? ज्ञानी, बुद्ध पुरुष या मुक्त पुरुष। बस वह है जो इन लोगों से अलग हैं। ये दोनों आपस में नहीं अलग हैं। जिसको तुम अबोध शिशु बोलते हो या कलंकी हत्यारा बोलते हो, ये दोनों एक जैसे हैं।

इन दोनों से अलग कौन हैं? जो ज्ञानी है या जिसको तुम भक्त बोल दो, जिस भी भाषा में बात करनी है। वह इन दोनों से ही अलग है। हम उलटा सोचते हैं, हम सोचते हैं कि नहीं, जो जेल में अपराधी है, वह एक अबोध शिशु से बहुत अलग है। नहीं-नहीं-नहीं-नहीं-नहीं, जेल वाले अपराधी ने बस वही करा है जो करने की वृत्ति उस अबोध शिशु के भीतर है। अबोध माने जिसके पास बोध नहीं है। तो वास्तव में जो जेल में बंद है, वह भी अबोध है क्योंकि बोध कहाँ है उसके पास। तो इन दोनों से अलग कौन हुआ? वो जो बोध युक्त है, जो बुद्ध है। बस वह इन दोनों से अलग हैं। बाकी तो दोनों ही अबोध हैं। वह छोटा बच्चा भी अबोध है और वह जो अपराध कर रहा है दुर्दांत अपराधी, वह भी अबोध है।

तो यह सब प्रकृति के भीतर-ही-भीतर है, खेल चल रहा है। तीनों गुण प्रकृति के भीतर हैं। अच्छा-बुरा सब प्रकृति के भीतर है, ऊँच-नीच, दिन-रात, द्वैत के जितने सिरे हैं, वे सब प्रकृति के भीतर हैं।

प्र२: आचार्य जी, इस कथा में जब यह बताते हैं कि श्री हरि विष्णु के आँखों में जब निद्रा रूप में माया आती हैं तो कानों की मैल के रूप में ही जो दैत्य हैं, वे प्रकट होते हैं। तो आँखों का सोना तो समझ आता है मगर कानों की मैल उसका?

आचार्य जी: उसका कोई विशेष अर्थ नहीं है। कहने का तरीका है कि कानों की मैल से प्रकट हुए माने जो शरीर से भी जो त्यक्त वस्तुएँ हैं। शरीर का भी जो अवशिष्ट पदार्थ है, वही आसुरी है, और कुछ नहीं उसका, कान के मैल की जगह नाक का मैल भी कहा जा सकता था या मुँह का मैल भी कहा जा सकता था, उससे कोई अंतर नहीं पड़ जाता। या त्वचा का मैल भी कहा जा सकता था, उससे भी कोई अंतर नहीं पड़ जाता। बालों का मैल भी कह सकते थे, वह एक ही बात रहती। आशय शरीर से है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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