तेजसींव तमो यत्र विलीनं भ्रांतिकारणम्। ईये परे तन्वे निर्विशेषेर्भिदा कुतः।।
जिस प्रकार प्रकाश में अंधकार विलीन हो जाता है, वैसे ही अद्वितीय परम तत्व में भ्रांति का कारण विलय हो जाता है। वह अवयवरहित है, इससे उसमें भेद कहाँ से हो सकता है?
Darkness implicit in It as in light is the cause of delusion. Whence is difference in the supreme non-dual and unqualified reality?
~अध्यात्म उपनिषद्, श्लोक २४
आचार्य प्रशांत: सत्य से ही सारे द्वैत निकलते हैं और द्वैत ही भ्रम है। जहाँ कहीं अंतर दिखाई दे, भेद दिखाई दे, वहीं समझ लो भ्रम है। जो कुछ भी अलग-अलग दिख रहा है वही भ्रम है। प्रकाश में अंधेरा छुपा ही रहता है, एक रंग में दूसरा रंग छुपा रहता है, होने में 'न होना' छुपा रहता है। और यही जो नहीं देख पाता, जो अंतरों में जीता है, जो किसी एक की तरफ़ आकृष्ट रहता है और दूसरे से बचता है, भागता है वही भ्रम में जीता है, वही परेशान रहेगा।
ज्ञानी होता है, वो चाहे जो कुछ देखे उसमें 'एक तत्व' देखता है। अज्ञानी की पहचान ये है कि उसको चीज़ें अलग-अलग दिखाई देती हैं। चूँकि चीज़ें अलग-अलग दिखाई देती हैं इसीलिए उसके मन के भाव उतरते-चढ़ते रहते हैं।
यद्युत्तरोत्तरभावे पूर्वपूर्वं तु निष्फलम्। निवृफ्रि परमा तृप्तिरानन्द।एऽनुपम: स्वत:।।
ऊपर बतलायी हुई वस्तुओं में से उत्तरोत्तर जो न हो, तो उससे पहले की वस्तु निष्फल है (ऐसा जानना)। विषयों से दूर जाना, यही परम तृप्ति है और आत्मा का जो आनंद है, वह स्वयं ही अनुपम है।
Without the consequent states, the precedent ones are fruitless, indeed. Cessation is supreme satisfaction; matchless bliss is spontaneous.
~अध्यात्म उपनिषद्, श्लोक २९
आचार्य: भविष्य न हो तो अतीत का कोई अर्थ रह नहीं जाता। पुराना तुमको इसीलिए महत्वपूर्ण लगता है क्योंकि तुम्हें आगे किसी की तलाश है। अगर तुम्हारा आगे का होना रुक जाए, अगर तुम्हारी आगे की यात्रा रुक जाए तो पीछे तुमने जो कुछ किया है वो सब भी अर्थहीन हो जाएगा। पीछे से आते हुए सारे बोझ, सारे पाप, सारे दायित्व, सारी कमज़ोरियाँ कहीं नहीं रहेंगी। आगे की इच्छा ही पीछे के कर्मों का तुमको फल देती हैं। अगर आगे कुछ न हो, शून्य, तो पीछे भी सिर्फ़ शून्य ही बचेगा।
अभी तुमको अपने अतीत का सारा कचरा लेकर के चलना ही इसीलिए पड़ता है क्योंकि आगे की उम्मीदें और इच्छाएँ बाक़ी हैं। फिर तुम तड़पते हो, परेशान रहते हो कि पीछे का इतना कुछ है, इससे मुक्ति कैसे पाएँ?
यही कहते हो न — पुरानी यादें हैं, पुराने बंधन हैं, पुरानी ज़िम्मेदारियाँ हैं, पुराने कर्म हैं, इनसे मुक्ति कैसे पाएँ?
वो पुराने कभी तुम्हें बाँधने आते ही नहीं। तुम उन पुरानों को पकड़ के रखते हो क्योंकि पुराने से ही भविष्य बनता है। तुम्हें भविष्य की आकांक्षा है इसीलिए अतीत तुम्हें छोड़ता नहीं।
आगे की यात्रा रोक दो, यहीं ठहर जाओ। जान लो कि समय और समयबद्ध परिवर्तन सिर्फ़ भ्रम है तो पुराना भी जो कुछ तुम्हें सताता है वो तत्क्षण रुक जाएगा।
जिसे भविष्य के फूल नहीं चाहिए उसे भूत के काँटे भी नहीं चुभेंगे।
तुम सबको लेकिन फूलों भरा भविष्य चाहिए इसीलिए अतीत के काँटे लिये फिर रहे हो।
क्रियानाशाद्वेच्चिन्तानाशी तस्मद्धासनाक्षय:। वासनाध्पक्षयोमोक्षः स जीवन्मुक्तिरिष्यते।।
क्रिया का नाश होने से चिंता का नाश होता है, और चिंता का नाश होने से वासना का नाश होता है। वासना-नाश ही मोक्ष है और यही जीवन मुक्ति कहलाती है।
The destruction of actions leads to that of thought; thence results the dwindling of innate impulses (to act). The obliteration of innate impulses is liberation; it is held to be freedom in life.'
~अध्यात्म उपनिषद्, श्लोक १२
आचार्य: जिसकी कर्म में रुचि ख़त्म हो गयी, जिसने कर्म की व्यर्थता को देख लिया, उसका मन चलेगा नहीं क्योंकि मन अंततः कर्म को ही प्रेरित करता है। अगर कर्म से ही मन उठ गया है तो विचारों का चलना रुक जाएगा और विचार ताक़त पाते हैं वृत्तियों से। विचारों का चलना रुक गया है तो धीरे-धीरे वृत्तियाँ भी साफ़ हो जाएँगी और वही पूर्ण मुक्ति है। आमतौर पर इसको देखा ऐसे जाता है कि वृत्ति से मुक्ति होगी तो विचार से मुक्ति होगी और विचार से मुक्ति होगी तो कर्म से मुक्ति होगी।
ऋषि के वचन एक विधि दे रहे हैं। वो कह रहे हैं कि वृत्ति को तुम सीधे तो देख नहीं सकते। वृत्ति प्रकट होती है विचार के रूप में और चूँकि तुम्हारा मन स्थूल है इसीलिए वो स्थूल को ही आसानी से देख पाता है; विचार भी अक़्सर उसकी पकड़ से बाहर रहते हैं। विचार भी उसे तब पकड़ में आते हैं जब वो स्थूल रूप में कर्म बन के सामने आएँ। तो अंततः वृत्ति का होना तुम्हें दिखाई ही तब देता है जब वो कर्म के रूप में फलीभूत हो जाती है।
तो ऋषि तुम्हें विधि दे रहे हैं। वो कह रहे हैं, "ठीक है, इतनी तुममें योग्यता नहीं है कि तुम सीधे जाकर वृत्तियों के साक्षी बन पाओ और वृत्तियों की सफ़ाई कर पाओ तो तुम ऐसा करो कि तुम स्थूल से ही शुरू करो। तुम अपने कर्मों को देखो और कर्मों को ऊर्जा देना बंद करो। विचार तो तुम्हें दिखते ही नहीं, वृत्ति तुम्हें और नहीं दिखती। कर्म तो दिखते हैं न? कर्मों के प्रति सजग हो जाओ। कर्म बड़ी मोटी घटना है, दिखता है तुम्हें, कुछ हाथ-पाँव चल रहे हैं, हिल रहे हैं, कोई घटना घट रही है, कुछ गतिविधि हो रही है। तुम इसी के प्रति जाग जाओ कि ये क्या कर रहा हूँ मैं?"
और फिर खेल उल्टा चलेगा — कर्म के प्रति जाग जाओगे तो विचार के प्रति जागना पड़ेगा। क्योंकि जब पूछोगे कि 'ये क्या कर रहा हूँ?' तो इस प्रश्न पर भी आना पड़ेगा कि 'ये कर्म कैसे विचार से निकला? ये कर्म कहाँ से आ गया, क्या सोच के मैंने ये सब किया?' और जब इस प्रश्न में गहराई से प्रवेश करोगे कि 'क्या सोच के ये सब करता हूँ?' तो इस प्रश्न से भी रूबरू होना पड़ेगा कि 'मैं ऐसा सोचता ही क्यों हूँ? क्यों बार-बार मुझे इस तरह के ख़्याल आते हैं?'
तो ख़्यालों की जो जड़ है, जो ज़मीन है, उसका अन्वेषण करना पड़ेगा, वही वृत्ति है। तो कर्म से शुरू होकर वृत्ति तक पहुँच जाओगे और इस प्रकार निवृत्त हो जाओगे, इस प्रकार सफ़ाई हो जाएगी। ये है साक्षित्व के द्वारा समाधि तक पहुँचना। और साक्षी भी उसके जिसका साक्षी होना बेहोश मन को भी आसान पड़े। किसके साक्षी? कर्मों के साक्षी। कर्मों के साक्षी रहे आए, रहे आए और अंततः इसी मार्ग से समाधि तक पहुँच गए। इसी को हम ऑब्जर्वेशन (ध्यान) कहते हैं कि बस देखते भर रहो कि क्या कर रहे हो और ये देखना ही तुम्हें कुछ का कुछ कर देगा। मात्र अपनेआप को देखते रहने भर से तुम्हारा पूर्ण रूपांतरण हो जाएगा। वही विधि ऋषि ने बताई है।
सर्वत्र सर्वत: सर्व ब्रह्ममान्नावलोकनम्। सद्भावभावनादाढद्वासनात्नश्यमनुते।।
सर्वत्र, सब तरफ़, सबको केवल ब्रह्मरूप देखना — ऐसी सद्भावना दृढ़ होने से वासना का नाश होता है। ब्रह्मनिष्ठा में कभी प्रमाद न करना, क्योंकि यही मृत्यु है, ऐसा ब्रह्मवादी कहते हैं।
At all the places and by all means, perceiving everything as Spirit, one achieves the dissolution of innate impulses as it strengthens the attitude of universal good will.
~अध्यात्म उपनिषद्, श्लोक १३
प्रश्नकर्ता: तो परसिव कैसे करें, समझे कैसे हम?
आचार्य: याद रखने की बात है, ये कोई मानसिक परसेप्शन (समझना) नहीं है। ये कोई नाम-रूप में याद रखने वाली बात नहीं है। परसिविंग (समझने) का मतलब इतना ही है कि जो आम परसेप्शन (समझ) होता है वैसा नहीं परसिव कर रहे हैं। परसीविंग एवरीथिंग एस स्पिरिट (सबको केवल ब्रह्मरूप देखना) — इसका इतना ही अर्थ है कि नॉट परसीविंग एवरीथिंग एस नॉट स्पिरिट (सब चीज़ों को अब्रह्मरूप में नहीं जानना)।
अभी तुम कुछ भी देखते हो तो किस रूप में उसको ग्रहण करते हो? किस रूप में करते हो?
प्र: अलग-अलग रूप में।
आचार्य: कुछ कहते हो न, 'ये पेड़ है! ये पत्ता है! ये पत्थर है!' तो परसीविंग एवरीथिंग एस स्पिरिट (सबको केवल ब्रह्मरूप देखना) — इसका बस यही अर्थ है कि नॉट परसीविंग एवरीथिंग एस सेपरेट थिंग्स (सब चीज़ों को अलग-अलग नहीं मानना), इसीलिए वास्तविक परसेप्शन को जो समसामयिक बौद्ध साहित्य है, जो अंग्रेजी में लिखा जा रहा है, उसमें परसेप्शन को कहते हैं 'एपरसेप्शन'। वो राइट परसेप्शन को कहते हैं एपरसेप्शन। 'टू पर्सीव राइटली इस टू नॉट पर्सीव एट ऑल', दैट इज टू परसिव द स्पिरिट। वो परसेप्शन के आगे 'ए' लगा देते हैं, एपरसेप्शन।
यही अंतर है वेदान्त और बुद्ध के तरीक़े में। वेदान्त कहेगा कि "तुम आत्मा हो ये बात सही है" और बुद्ध कहेंगे, "तुम अनात्मा हो ये बात ग़लत है।"
समझ रहे हो बात को?
वेदान्त कहेगा कि एकमात्र सही बात यही है कि तुम आत्मा हो और बुद्ध आत्मा का नाम ही नहीं लेंगे। वो कहेंगे एकमात्र ग़लत बात ये है कि तुम अनात्मा हो। वेदान्त कहेगा, 'परसीव राईटली' , बुद्ध कहेंगे, 'डू नॉट परसीव एट ऑल। '
बातें दोनों एक हैं पर एक विधायक रूप से बोल रहा है, एक निषेध कर-कर के बोल रहा है।
प्र: हमारे लिए कौन-सा रास्ता उपयोगी है?
आचार्य: तुम जो हो उसी अनुसार तुम देख लो तुम्हें क्या उपयोगी पड़ता है। कभी ये, कभी वो। तुम अपने लिए सीमा क्यों बनाते हो? तुम इधर से भी लो, उधर से भी लो।
प्र: क्या बुद्ध का ये तरीक़ा स्थूल से सूक्ष्म की ओर है?
आचार्य: बुद्ध तुमसे बहुत उम्मीद नहीं रखते, बुद्ध कहते हैं कि तुम्हारा पता है हमको, तुमसे ऊँची बात बोलेंगे तुम उसे गिरा के घटिया बना दोगे। तो हम तुमसे आत्मा की बात ही नहीं करेंगे। तुमसे आत्मा बोला, तुम आत्मा को भी कोई पदार्थ, वस्तु, विचार बना दोगे। तो हम तो तुमसे बस इतना ही कहेंगे कि तुम जो कुछ भी सोच रहे हो, वो ग़लत है। तुम अपनेआप को जिस भी रूप में जानते हो, वो ग़लत है।
बुद्ध तो बल्कि कहते हैं कि आत्मा का सारा विचार ही ग़लत है। बुद्ध कहते हैं, "तुम अपनेआप को जिस भी रूप में जानते हो, 'आत्म', वो सारा विचार ही ग़लत है, बात ही ग़लत है।" कहते हैं, "जिसको तुम आत्मा समझते हो वो अनात्मा है।" जिसको तुम आत्मा समझते हो—आत्मा माने स्वयं—तुम अपनेआप को जो भी कुछ समझते हो वो ग़लत है। तुम अपनेआप को जो भी कुछ जानते हो वो ग़लत है, वो है ही नहीं, वो शून्य है।
वो कहते हैं कि तुम्हारी जो आत्मा है, जिसे तुम आत्मा कहते हो, वो वास्तव में अनात्मा है। आत्मा क्या है ये बुद्ध बताते नहीं। उनका सारा ज़ोर सिर्फ़ इंकार करने पर है। तुम अपनेआप को जो कुछ जानते हो वो झूठा है। सच्चा क्या है? ये छोड़ो, क्योंकि सच्चे-वच्चे की बात करने में कुछ रखा नहीं है। तुम्हारे लिए इतना काफ़ी है कि तुम भ्रम में हो। जो आदमी सपने में हो उससे सत्य की बात करने में कुछ रखा नहीं है। उसके लिए तो इतना काफ़ी है कि उसका सपना टूटे। कोई सो रहा हो और तुम उसको उपनिषद् सुनाओ और आत्मा की बातें करो तो उसे क्या हासिल होगा?
जो अपने मन में ही उलझा हुआ हो, उसके सामने ऊँचे-से-ऊँचे सत्य का उद्घोष हो रहा हो तो उसे क्या हासिल होगा? यहाँ बैठे हो और अपनी दुनिया में मगन हो तो मैं जो भी बोल रहा हूँ, उससे तुम्हें क्या मिलना है?
बुद्ध कहते हैं, छोड़ो तुम कि कोई क्या तुमसे कह रहा है, तुम तो अपने मन में जो जाल बुन रखे हो उस जाल से बाहर आओ। ये बात छोड़ो कि शास्त्र तुमसे क्या कह रहे हैं या गुरु तुमसे क्या कह रहे हैं, तुम तो अपनी तन्द्रा तोड़ो। क्योंकि वो कुछ भी कह रहे होंगे तुम्हें सुनाई कहाँ पड़ रहा है?
तुम तो अपने स्वप्न में, नींद में, तन्द्रा में मगन हो। तो ये छोड़ो कि वो आत्मा के बारे में क्या कह रहे हैं। तुम तो अपनी अनात्मा में ही फँसे हुए हो न? तुम इस अनात्मा से बाहर आओ। आत्मा का प्रश्न ही तुम्हारे लिए अभी प्रासंगिक नहीं है। तुम इस स्थिति में ही नहीं हो कि तुमसे सत्य की बात की जा सके। तुम पहले अपनी स्थिति बदलो, फिर तुमसे कोई ढंग की बात की जाए। बुद्ध की ये दृष्टि है।
उपनिषदों की दृष्टि है कि तुम तो फँसे ही रहोगे भ्रम में, माया में, जब तक तुम्हारे सामने सत्य का बार-बार नाम न लिया जाए। तुम्हारी तन्द्रा टूटेगी कैसे अगर तुमसे बार-बार 'ॐ' न कहा जाए। दोनों ही बातें ठीक हैं। उपनिषद् कहते हैं कि तुम तो फँसे ही रहोगे, जीव की प्रकृति ही है मन में उलझे रहना। अब अगर बार-बार, बार-बार उसे आत्मा का स्मरण न कराया जाए तो वो अपने भीतर ही बुने हुए भ्रमजाल को काटेगा कैसे? तोड़ेगा कैसे?
जब आत्मा की पुकार आती है, तभी तो स्वप्न टूटता है। पुकार आएगी नहीं तो स्वप्न टूटेगा कैसे? ये उपनिषदों की दृष्टि है।
उपनिषद् कहते हैं, 'सूक्ष्मतम के दर्शन करा दो, भ्रम अपनेआप टूट जाएगा, और कोई विधि नहीं है भ्रम तोड़ने की।' बुद्ध कहते हैं, 'भ्रम तोड़ दो, सूक्ष्मतम तो उपलब्ध है ही। सूक्ष्मतम कोई विशेष वस्तु तो है नहीं जो लानी पड़ेगी, भ्रम तोड़ दो।' दोनों बातें अलग-अलग नहीं हैं, दोनों बातें एक साथ चलती हैं। तुम्हें दोनों ही उपलब्ध हैं।
बुद्ध जो बात कह रहे हैं वो वास्तव में उपनिषदों में समाई हुई है, वो कोई अलग या विशिष्ट बात नहीं है।
प्र२: एक तो होता है कि आपको पता ही नहीं आप क्या कर रहे हो। बहुत समय से ऐसा ही चल रहा है, क्या उसका कर्मफल होता है। आप अवलोकन कर रहे हैं कि आपको कुछ दिख रहा है, उसके बाद भी आप पुराने कर्म दोहरा रहे हैं।
आचार्य: नहीं, पुराने करोगे नहीं तुम। अभी बात करी थी कि पुराना अपनेआप को तभी दोहराता है जब आगे की हसरतें और सपने होते हैं। नहीं तो पुराना अपनेआप को दोहरा नहीं सकता।
प्र२: जब बिलकुल ही सोये हुए हो, उस वक़्त जो कर्म करते हैं?
आचार्य: जिसको आप सोया हुआ होना कहते हैं वो भविष्य के प्रति जगा हुआ होना है। सोया हुआ इंसान भविष्य के प्रति ख़ूब जगा हुआ रहता है, 'कल ये करूँगा, परसो ये करूँगा, फिर ये तरक्की होगी, फिर ऐसे फैलूँगा, फिर घर-द्वार होगा।' वो ख़ूब जगा हुआ है। उसी जगे हुए होने को तो सत्य के संदर्भ में सोया हुआ होना कहते हैं।
जो भविष्य की ओर जितना ज़्यादा देख रहा है, वो तात्विक दृष्टि से उतना ज़्यादा बेहोश है।
प्र२: ये बात, बहुत सही निकल के आयी है। हमेशा दिमाग़ में रहता था भूत-भविष्य। भूत की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं, सिर्फ़ भविष्य का ख़्याल रख लेने से सब ठीक हो जाएगा।
आचार्य: समय तो एक दिशा में जाता है न?
तुम्हें चिंता भविष्य की ही रहती है, भविष्य की चिंता छोड़ो फिर देखो कि पीछे की स्मृतियाँ परेशान करती हैं कि नहीं। परवाह तो आगे की ही कर रहे होते हैं न?
तुम्हारा कर्म तो हमेशा आगे की ओर ही उद्यत रहता है, पीछे की ओर तो नहीं होता। ये तो नहीं कहते कि पिछले साल मैं वापिस जाकर कुछ करके आऊँगा, हमेशा अगले साल की ही सोच रहे होते हो। तो जब अगले साल की ही सोच रहे होते हो, कर्म के संबंध में, तो कर्म के संबंध में आगे की सोचना छोड़ो। फिर देखो कि पीछे वाला हावी रहता है कि नहीं।
प्र: क्या ये बोल सकते हैं कि इच्छा न हो, तो फिर प्रारब्ध कर्म नहीं होगा?
आचार्य: हाँ, पूरा उपनिषद् ही बार-बार इसी बात को कह रहा है।
तुम न हो तो प्रारब्ध कर्म किसको सताएगा? तुम न हो तो प्रारब्ध किसको सताएगा?
प्र: इच्छा मतलब होना।
आचार्य: इच्छा माने होना।
प्र: तो क्या संचित कर्म में भी यही बात लागू होगी?
आचार्य: अरे, जितने भी हैं, ये सब एक ही हैं।
अब कोई साँप है, वो किसी को डसे, पर जहाँ डसा वहाँ वो था ही नहीं, तो ज़हर कैसे लगेगा? यही है सारा खेल। साँप ने तुम्हें डसा, पर जहाँ डसा वहाँ तुम थे ही नहीं, तो ज़हर लगेगा? बस!
प्र: साँप डसेगा तो दर्द तो होगा, लेकिन कष्ट नहीं होगा, ऐसा कह सकते हैं?
आचार्य: तुम क्यों इस चक्कर में लगे हो कि कुछ होगा? तुम क्यों इस चक्कर में लगे हो कि कुछ तो परेशानी होगी ज़रूर?
पेन (दर्द) तो होगा, सफरिंग (कष्ट) नहीं होगी, कि क्या होगा, क्या नहीं होगा। कुछ नहीं होगा। कुछ नहीं होगा।
तुम जितना मिटते जाओगे, उतना तुम्हारा दर्द भी मिटता जाएगा। ये भेद करने की ज़रूरत नहीं है कि पेन होगा, सफरिंग नहीं होगी। ये सिर्फ़ छुपने के बहाने बन जाते हैं कि कोई तड़प तो रहा है पर कह रहा है, "आई एम् नॉट सफरिंग, आई एम जस्ट इन पेन।"
अच्छा साहब, बड़ा आध्यात्मिक वक्तव्य दिया आपने। ये सिर्फ़ अपनेआप को धोखे में रखने के तरीक़े बन जाते हैं। जैसे एक साहब थे कि डिटेचमेंट (अनासक्ति) तो बिलकुल ठीक है, बट डिटेचमेंट शुड बी लविंग डिटेचमेंट। तो उन्होंने अपनी ओर से एक पुछल्ला जोड़ा कि डिटेचमेंट में भी लव होना चाहिए। अब जो बात न बुद्ध को सूझी, न महावीर को, न उपनिषदों को वो इन्होंने जोड़ दी—लविंग डिटेचमेंट। ये कुछ नहीं किया इन्होंने, सिर्फ़ तुम्हें बहाना दिया है डिटेचमेंट से बचने का। कुछ दिनों में ये और बोल देना — अटैच्ड डिटेचमेंट (आसक्त अनासक्ति)।
तो ये क्या है, सफरिंगलेस पेन? क्यों इसकी बात करनी है?
डिटेचमेंट इज़ डिटेचमेंट एंड डिटेचमेंट इज़ लव। अब इसमें लविंग डिटेचमेंट क्यों बोलना है? इसलिए बोलना है ताकि बहाना मिले, ताकि मोह को लव का नाम दे सको और डिटेचमेंट से बच सको। जब मोह उठे तो तुम क्या कह सको?
प्र: लविंग डिटेचमेंट।
आचार्य: 'ये तो जी लविंग डिटेचमेंट है, लविंग डिटेचमेंट।' बहुत बढ़िया!
और सुनने में ये बात कितनी अच्छी लगती है कि बुद्ध वगैरह डिटेचमेंट बोल गए थे तो ज़रा क्रूर किस्म के थे और आज मालिक (कटाक्ष करते हुए) उनकी क्रूरता से ऊपर उठकर के थोड़ी और संवेदनशील बात बोल रहे हैं जो बुद्ध को सूझी नहीं। मालिक कह रहे हैं, 'लविंग डिटेचमेंट , प्रेमपूर्ण वैराग्य।
प्र३: सर, लविंग डिटैचमेंट तो संभव ही नहीं हो सकता न?
आचार्य: डिटेचमेंट अपनेआप में लव है। मैं कह रहा हूँ कि जब इस तरह की बातें करी जाती हैं, लविंग डिटेचमेंट , तो उन बातों का एक ही औचित्य रहता है कि किसी तरीक़े से डिटेचमेंट को ही गंदा कर दिया जाए अन्यथा वैराग्य अपनेआप में प्रेम है। उसमें अलग से पुछल्ला क्यों जोड़ रहे हो?
ये ऐसी-सी ही बात है कि कोई बोले "आई लव यू प्योर्ली।" तो ये इंप्योर्ली लव क्या होता है?
"तू मेरा असली भाई है।"
(श्रोतागण हँसते हुए)
नक़ली कितने हैं?
प्र: ब्लाइंड फेथ (अंधविश्वास)!
आचार्य: हाँ, ब्लाइंड फैथ। ये क्या चीज़ होती है ब्लाइंड फेथ?
प्र: अनकंडीशनल लव (बेशर्त प्रेम)।
आचार्य: अनकंडीशनल लव! अरे लव माने लव।
प्र३: अंधश्रद्धा तो होता ही है न?
आचार्य: वो श्रद्धा ही नहीं है। फिर उसको अंधश्रद्धा मत बोलो, उसको अश्रद्धा बोलो। ऐसा लगता है जैसे श्रद्धा के दो प्रकार हैं, आँखों वाले और अंधे वाले।
ये अंधी श्रृद्धा कौन-सी होती है?
फिर तुम्हें श्रद्धा से बचने का बहाना मिल जाता है। तुम कहते हो देखो अंधी वाली नहीं करेंगे, आँख वाली करेंगे और ये आँख क्या है? मन। तो अब मानसिक श्रद्धा कर लो तुम, बड़े होशियार निकले।
तो इस तरीक़े के जब भी फ्रेजेज़ (मुहावरे) आएँ, ज़रा सतर्क हो जाया करो कि मन इस तरह की बातें क्यों उछाल रहा है। कोई न कोई तो साज़िश उसने रची है।
प्र३: एक तरफ़ तो कहा जा रहा है कि जो किया है, उससे कुछ नहीं होता। पर अगर अब बदल भी जाओ, तो पुराना कर्म कहीं-न-कहीं टकराएगा ही?
आचार्य: एरो (तीर) जिसको हिट करेगा उसको हिट करेगा, तुमको तो नहीं हिट कर रहा न?
तो करने दो उसको। तुमने तीर छोड़ा, वो जाकर जहाँ लगता होगा लगे। तुमको नहीं लगेगा। तुमको जो कुछ भी लगता था वो नहीं लगेगा क्योंकि तुम तुम ही नहीं हो। ये बात लेकिन पकड़ में ही नहीं आ रही है, कि 'नहीं, कुछ तो लगेगा न।'
ये जो 'कुछ तो लगेगा' है, ये सिर्फ़ मन की छटपटाती हुई कोशिश है ये सिद्ध करने की कि देखो कुछ तो बचा के रखना चाहिए न। मन ये सुनकर बिलकुल छटपटा जाता है कि मेरे पुराने कर्मों का मुझ पर कोई असर ही नहीं होगा। मन कहता है, "नहीं! थोड़ा असर तो होना चाहिए न, थोड़ा असर तो होना चाहिए न।"
अहंकार की तड़प देखा करो जब उस पर सत्य का वार होता है। जैसे छिपकली की कटी हुई पूँछ।
देखी है?
ऐसे तड़पता है अहंकार जब उपनिषदों का वार होता है। कहता है, 'नहीं, थोड़ा बहुत तो…।' कट गई है, लेकिन पकर-पकर-पकर उसका नाच तो अभी भी जारी है। वही हालत हमारी भी होती है, कट जाता है लेकिन मानते नहीं हैं। नाचते तब भी रहते हैं।
देखा है कभी, किसी से बात कर रहे हो और बात पूरी तरह खुल गई है। बात स्वतः सिद्ध है पर भाई अभी भी तर्क दिये ही जा रहे हैं। उनके जितने भी तर्क थे वो मूल से काटे जा चुके हैं, कुछ बचा नहीं। उन्हें शांत हो जाना चाहिए, मौन हो जाना चाहिए। पर वही छिपकली की कटी पूँछ की तरह प्राण नहीं है लेकिन नाच है। जान कुछ नहीं बची लेकिन बक-बक बक-बक अभी भी करनी है। ऐसा ही होता है अहंकार।