प्रश्नकर्ता: अभी जैसा हमने श्री गुरु वन्दना की, तो उसमें हम बोलते हैं कि गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरु महेश्वर हैं। और उसके बाद बोलते हैं कि गुरु साक्षात् परब्रह्म हैं, मतलब परब्रह्म इज़ डिफरेन्ट फ्रॉम ऑल दीज़ थ्री एन्टिटीज़ (परब्रह्म इन तीनों इकाइयों से भिन्न हैं)। ये मैंने जो अभी सुना और मुझे ये लगा। तो ये तीन एन्टिटीज़ परब्रह्म के पार्ट हैं इज़ इट करेक्ट (क्या ये सही है), ऐसा है? हाउ इट इज़ (ये कैसा है)?
आचार्य प्रशांत: पार्ट वगैरह नहीं, निराकार और साकार का भेद है। अदृश्य और दृश्य का भेद है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ये सब मन के साथ हैं और मन के साथ ही विलुप्त भी हो जाते हैं। मन के साथ इसलिए क्योंकि मन इन्हें पारब्रह्म तक पहुँचने का मार्ग, साधन समझता है। पर जहाँ पारब्रह्म या परब्रह्म या परमब्रह्म वास्तव में है, वहाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश सब एक हो जाते हैं।
प्रश्नकर्ता: सगुण मीन्स गुण सहित।
आचार्य प्रशांत: हाँ, और जहाँ गुण हैं वहाँ सीमाएँ हैं। तो गुणों में सत्यता भले न हो लेकिन उपयोगिता ज़रूर है। जो ब्रह्मांड में फँसे हुए हैं, उन्हें ब्रह्मा को नमन करना चाहिए और फिर ब्रह्मा पर भी अटक भी नहीं जाना चाहिए, वहाँ से आगे ब्रह्म है। जो संसार में ही फँसा है उसकी मुक्ति का साधन है ईश्वर और ईश्वर पर भी रुक नहीं जाना है। पूर्ण मुक्ति के लिए ईश्वर को भी विलुप्त होना होता है, तब बस ब्रह्म ही रह जाता है।
देखो, जहाँ तक भगवान है, वहाँ तक तुम्हारी व्यक्तिगत सत्ता भी बची रहेगी। तुम भक्त तो रहे ही आये न, भगवान तो नहीं हो गये, विभाजन अभी है। पर ये उस विभाजन से श्रेष्ठ है जो संसारी और संसार में होता है, जो विषयी और विषय में होता है।
आप दुनिया को देखते हो और जब दुनिया को देखते हो तो दुनिया की कामना भी करते हो, ये एक विभाजन है। संसारी है, संसार है, ये विभाजन है न? और संसारी संसार को देखता है तो संसार के प्रति उसमें भावना, कामना, मोह, आसक्ति इत्यादि जगते हैं। तो एक तो ये विभाजन है। इस विभाजन से उच्चतर है भक्त और भगवान का विभाजन। वहाँ भी विभाजन अभी है लेकिन वो एक ज़रा ऊँचे दर्जे का विभाजन है। वहाँ पर भक्त ने बाकी संसार को मूल्यहीन जान लिया है। वो कह रहा है कि दुनिया नहीं, मुझे दुनिया के दाता की, दुनिया के कर्ता की, दुनिया के सृष्टा की प्यास है। तो वो बस एक की ओर फिर खिंचा चला जाता है, किसकी ओर? अपने भगवान की ओर।
संसारी के लिए संसार की सौ चीज़ें आकर्षक हैं। उस विभाजन में बहुत कुछ है जो आकर्षक है। संसारी की किसी के प्रति एकनिष्ठा नहीं है, वफ़ादारी नहीं है। आज आपको एक दुकान का माल अच्छा लग रहा है, कल दूसरी दुकान का माल?
प्रश्नकर्ता: अच्छा लगेगा।
आचार्य प्रशांत: आज एक व्यक्ति भा रहा है, कल दूसरे की बातें भा जाएँगी, ये सब। तो संसारी भी अपने से पृथक देखता है संसार को और जो कुछ भी देखता है संसार में, उसकी ओर आकर्षित होता है।
भक्त भी आकर्षित होता है, पर अब वो पचास चीज़ों को छोड़कर एक लक्ष्य की ओर आकर्षित हो रहा है, किसकी ओर? भगवान की ओर। तो उसने अनेक का त्याग करके एक को धारण किया। अनेक का त्याग करके वो एक की ओर निष्ठ हो गया। है न? तो ये विभाजन हम कह रहे हैं — ज़रा उच्चतर श्रेणी का विभाजन है। फिर आती है इन दोनों अवस्थाओं के बाद अंतिम अवस्था जिसमें?
प्रश्नकर्ता: कोई नहीं बचता।
आचार्य प्रशांत: भक्त-भगवान एक हो गये। अब ब्रह्म है और ब्रह्मविद् है और जो ब्रह्मविद् है, वो साक्षात ब्रह्म स्वयं हो जाता है। भक्त है, भगवान है, और ब्रह्मविद् है, ब्रह्म है, इन दोनों में अंतर है। भक्त को भगवान की प्यास है और ब्रह्मविद् को भगवान की प्यास नहीं है, उसे ब्रह्म की भी प्यास नहीं है, वो स्वयं ब्रह्म हो गया।
जिसने ब्रह्म को जाना, अब वो ये नहीं कहेगा कि मुझे ब्रह्म की आरती उतारनी है। भक्त भगवान की आरती उतारेगा, भजन-कीर्तन करेगा, प्रार्थना करेगा, झुकेगा। ब्रह्मविद् कहीं नहीं झुकता, वो कहता है, ‘अब किसके चरण स्पर्श करूँ, दूसरा कोई है ही नहीं!’
समझ में आ रही है बात?
तो हमने तीन तल बताये विभाजन के और ये जो तीन तल विभाजन के हैं, यही तीन कोटि के मन भी हैं और यही फिर तीन कोटि के पुरुष, इंसान भी हैं। समझ लो कि हमने समस्त जनों को तीन श्रेणियों में रख दिया।
निम्नतम श्रेणी किनकी है? जो संसार को देखते हैं और संसार के पीछे भागते हैं, उन्होंने क्या विभाजन रखा है? कि मैं हूँ और दुनिया है। और जहाँ तुम हो और दुनिया है, वहाँ दुनिया की पचास चीज़ें कैसी लगेगी? कभी अच्छी, कभी बुरी। जो अच्छा लगेगा उसकी ओर भागोगे, जो बुरा लगेगा उससे विपरीत की ओर भागोगे। दोनों ही स्थितियों में भागोगे ज़रूर, दोनों ही स्थितियों में कामना प्रेरित रहोगे। ठीक है न? तो ये निम्नतम श्रेणी का विभाजन है। मैं हूँ और संसार है, इसमें तुम पचास से घिरे हुए हो और पचास के प्रति तुम्हारी वफ़ादारी है, यानि कि किसी के प्रति तुम्हारी वफ़ादारी नहीं है। उससे ऊँची श्रेणी किनकी है?
प्रश्नकर्ता: भक्त की।
आचार्य प्रशांत: जिन्होंने कहा, ‘दुनिया की तमाम चीज़ें नहीं चाहिए, हमें बस एक चीज़ चाहिए और उस एक चीज़ का नाम है 'मेरा ईश्वर, मेरा भगवान’। वो अनन्योपासक हो गये। किसी और को अब नहीं उपासते, पर एक को अभी वो उपासते हैं। पचास को अब नहीं उपास रहे लेकिन एक की उपासना वो अभी भी करते हैं, अपने भगवान की। और चूँकि वो उनका भगवान है इसीलिए वो भगवान को अपने अनुसार पचास तरह के रूपों में रंग देते हैं। कोई देवी बनाता है। कोई कहता है, ‘सगुण मेरा ईश्वर’, कोई कहता है, ‘पेड़ में मेरा ईश्वर।’ कोई कुछ कहता है, कोई कुछ कहता है। देखा है न उपासना के कितने तरीके, कितने लक्ष्य, कितनी पद्धतियाँ इत्यादि हैं? पर वहाँ एक बात पक्की है कि तुम जिसके प्रति झुक गये, सो झुक गये।
इतना ही नहीं है, वहाँ तुम जिसके प्रति झुक गये, अक्सर तुम उसके अलावा किसी और को भगवान मानने से भी इनकार कर देते हो — शैव और वैष्णव की ठनी रहती है, हिन्दू-मुसलमान की भी ठनी रहती है। ये वही बात है कि मैंने एक भगवान पकड़ लिया है और दूसरा फिर मेरे लिए नहीं है। दूसरे को अगर तुम भगवान बोलोगे भी तो मुझे बुरा लगेगा। लेकिन इसमें इतना तो है ही कि तुमने एक को चुना और उस एक के बिलकुल दीवाने हो गये।
ये जो दूसरा तल है, ये फिर द्वार बनता है एक तीसरे तल तक जाने का। क्या है वो तीसरा तल?
प्रश्नकर्ता: जब भगवान विलुप्त हो जाते हैं।
आचार्य प्रशांत: जब भगवान भी विलुप्त हो जाते हैं, तब सिर्फ़ ब्रह्म शेष रह जाता है।
समझ में आ रही है बात?
उस ब्रह्म को कहने वालों ने भगवत्ता का नाम भी दिया है, क्योंकि भगवान से ऐसा लगता है कि जैसे भगवान को तुम सीमित किये दे रहे हो, जैसे भगवान को तुम निरूपित किये दे रहे हो। जैसे भगवान को तुम किसी सीमित दृश्य में या मानसिक कल्पना में, परिकल्पना में कैद किये दे रहे हो, तो भगवत्ता या ब्रह्म या आत्मा या परमात्मा, जो भी नाम दे दो, सब एक हैं। वहाँ पर आत्मविद्, आत्मस्थ, ब्रह्मस्थ, ब्रह्मलीन, ब्रह्मविद् — ये स्थितियाँ कहलाती हैं मन की। कोई उसे आत्मस्थ कह देता है, कोई कहता है, ‘मन ब्रह्मलीन है।’ अनेक नामों से उस स्थिति को पुकारते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं ‘ब्राह्मी स्थिति’। वहाँ पर तुममें और तुम्हारे पूज्य में कोई अंतर नहीं रह जाता, इसीलिए पूजा समाप्त हो जाती है।
कबीर साहब इसको कहते हैं, “साहब सेवक एक संग खेलें सदा बसन्त”
उलटि समाना आप में, प्रगटी जोत अनन्त। साहिब सेवक एक संग, खेलें सदा बसन्त।।
~ कबीर साहब
अब एक हो गये, अब सेवक किसको कहे कि वो मेरा आराध्य है, वो मेरा ध्येय है। ध्याता ध्येय हो गया।
प्रश्नकर्ता: सर, जब वो एक हो जाता है तो उसको सबमें वही दिखता है?
आचार्य प्रशांत: नहीं, उसे वही दिखता है जो आपको दिखता है।
प्रश्नकर्ता: नहीं, मैं कहता हूँ कि शायद उसमें अटैचमेंट बिलकुल नहीं है किसी भी चीज़ को लेकर बिकॉज़…
आचार्य प्रशांत: जिसको अटैचमेंट होना होता है, होता है, उसे अटैचमेंट नहीं होता। अब मन का तो काम है सम्पृक्त हो जाना तो मन हो जाएगा, वो सम्पृक्त नहीं होता।
ये आपकी खाल है, इस पर आप गोंद लगाए तो खाल और गोंद आपस में अटैच हो जाएँगे कि नहीं हो जाएँगे? वो खाल चाहें बुद्ध की हो, चाहें जीसस की हो, चाहें श्रीकृष्ण की हो, उस पर गोंद लगेगी तो जुड़ाव होगा कि नहीं?
प्रश्नकर्ता: होगा।
आचार्य प्रशांत: तो अटैचमेंट हो गया कि नहीं हो गया? उँगली जुड़ गयी, श्रीकृष्ण नहीं जुड़ गये, अष्टावक्र नहीं जुड़ गये। आपमें और उनमें अंतर ये है कि आपकी उँगली जुड़ जाती है तो आप ही जुड़ जाते हो, और आपकी उँगली अगर मुड़ जाती है, तुड़ जाती है तो आप भी मुड़ जाते हो और तुड़ जाते हो। श्रीकृष्ण की जब उँगली गोंद से चिपकेगी तो उँगली चिपकेगी, श्रीकृष्ण नहीं चिपक गये।
दिखेगा उन्हें भी वही सबकुछ जो आपको दिखता है। पर आपको जो दिखता है, आप उसमें अपने लिए अर्थ ढूँढ लेते हो। श्रीकृष्ण को भी यही सबकुछ दिख रहा है, पर वो जो दिख रहा है श्रीकृष्ण के लिए, उसमें कोई अर्थ नहीं है। अर्थ का मतलब समझ रहे हो? फायदा, लाभ। श्रीकृष्ण पूर्ण हैं, उन्हें यहाँ से कहीं कुछ प्राप्त नहीं हो जाना है, उन्हें कुछ मिल नहीं जाना है, उनमें कुछ जुड़ नहीं जाना है, न उनसे कुछ घट जाना है।
आप जब देखते हो कि कुछ है तो तुरन्त वो आपके लिए सार्थ हो जाता है। ज़मीन देखते हो, सोचते हो कितने की मिलती होगी और मैं खरीद लूँ तो दस साल में मुनाफ़ा कितना हो जाएगा; उदाहरण दे रहा हूँ। पेड़ देखते ही तो कहते हो, ‘नारियल टँगा हुआ है, पी लूँ तो कैसा रहेगा!‘ श्रीकृष्ण भी ये सबकुछ देखते हैं, पर उनके लिए दृश्य मात्र?
प्रश्नकर्ता: दृश्य है।
आचार्य प्रशांत: दृश्य है। आँखें हैं और मन है तो दृश्य है, उनका मुझसे क्या लेना-देना। आँखें देख रही हैं और उनकी आँखें भी देख वही सबकुछ रही हैं जो आपकी आँखें देख रही हैं। पेड़ को वो भी पेड़ ही देख रहे हैं, पर आपके लिए पेड़ आत्मिक लाभ की वस्तु हो जाती है। आप कहते हो, ‘ये मिल जाए तो ज़िन्दगी बन जाएगी।‘ उदाहरण दे रहा हूँ — पेड़ को मान लीजिए कुछ और, सोने का पेड़ है या मान लीजिए कोई स्त्री है, कोई बंगला है, कोई पदवी है। आप उसको देखते हो, आपको क्या लगता है, ‘ये मिल जाए तो ज़िन्दगी बन जाएगी, मैं कुछ हो जाऊँगा।’
श्रीकृष्ण का ‘मैं’ किसी भी पेड़ से असम्पृक्त है, अच्युत है। श्रीकृष्ण दो नहीं हैं, श्रीकृष्ण अच्युत हैं। क्या मतलब है इसका? कि बाहर वाले से, किसी भी विभक्त वस्तु से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। अपने आप में पूर्ण हैं इसलिए अच्युत कहे जाते हैं। हमें बाहर से बहुत लेना-देना है। देखने में समस्या नहीं होती, समस्या होती है जगत के साथ व्यापार का सम्बन्ध बना लेने में। देखिए, क्रीड़ा करिए, भोग भी लीजिए, पर अपने आप को भोग करने वाला मत बना लीजिए, भोक्ता नहीं हैं आप। अपने आप को नीचे मत गिरा दीजिए।
खाना खा रहे हैं, तो खाने का भोग हो रहा है क्योंकि शरीर को खाना चाहिए। और शरीर को बेशक आप भोजन दीजिए, पर ये धारणा मत बना लीजिए कि आप वो हैं जिसे भोजन की आवश्यकता है, नहीं तो आप सोचेंगे कि अच्छा भोजन आपका संवर्धन कर देगा, फिर आप जीवनभर बस अच्छा भोजन ही तलाशते रहेंगे। आप सोचेंगे कि ज़्यादा अच्छा खाना खाऊँगा तो मैं अच्छा हो जाऊँगा। खाना अच्छा तो मैं अच्छा, और खाना बुरा तो मैं बुरा, नहीं!
खाना अच्छा तो निश्चित रूप से देह अच्छी, खाना अच्छा तो निश्चित रूप से मन अच्छा, पर आप वो नहीं हैं जो भोजन का भोग करता हो। बात ज़रा बारीक है, समझिएगा। इसका अर्थ ये नहीं है कि आप घटिया भोजन ग्रहण करने लग जाएँ। इसका अर्थ ये है कि बढ़िया भोजन शरीर के लिए बढ़िया है, और सत्संग मन के लिए अच्छा है और मीठा पानी देह के लिए मीठा है। इन सबकी अपनी उपयोगिता और आवश्यकता है, पर आप कुछ ऐसे हैं जिस पर ये सारे विचार बैठते नहीं।
अपने विषय में भोजन, पानी, देह, मन इत्यादि सम्बन्धित विचार न करें। आपको पता है न कि (मोबाइल दिखाते हुए) इसको बैटरी की आवश्यकता है। जैसे इसको बैटरी की आवश्यकता है, ठीक उसी तरीके से कहिए कि मुझे भोजन की आवश्यकता है।
यही संसार में जीने का तरीका है, यही साक्षित्व है, यही दुख से मुक्ति का उपाय है। इसे बैटरी चाहिए तो दोगे कि नहीं दोगे? तो तुम्हें भोजन चाहिए तो लोगे कि नहीं लोगे? मोबाइल बैटरी माँग रहा है, पेट भोजन माँग रहा है, दे दो। पर जब मोबाइल को बैटरी देते हो तो ये तो नहीं कहते कि मुझे कुछ मिल गया, ठीक इसी तरीके से जब पेट को भोजन दो तो ये मत कहो कि मुझे कुछ मिल गया।
ये (मोबाइल) गर्म हो जाता है, तुम इसे थोड़ा आराम दे देते हो न। देह भी गर्म हो जाती है, थक जाती है, उसे आराम दे दो। पर ये मत कहना कि सो लिये तो मुझे विश्राम मिल गया। तुम्हें इन सबसे न कुछ मिलता है, न तुम्हारा कुछ जाता है।