आचार्य प्रशांत: आपके और इस आश्रम के बारे में, आपके और संसार के बारे में, आपके और मेरे बारे में, कुछ बातें समझ लेना ज़रूरी है। आप किसी बाहरी जगह पर नहीं आये हैं, लगता ऐसा ही है। पर इंसान की आँखों का कुछ खास भरोसा किया जा नहीं सकता। जो लगता हो वही बहुत गहराई से सच हो, ऐसा अक्सर होता नहीं।
आश्रम को ऐसी जगह मानिए जहाँ विश्राम मिले, जहाँ विश्राम मिले उसे घर कहते हैं। तो घर कोई बाहरी जगह तो हो नहीं सकती, घर की परिभाषा ही है — वो जगह जो आपकी अपनी हो। जहाँ आपको कोई दुराव-छिपाव न करना पड़ता हो। जहाँ आपको चेहरे न पहनने पड़ते हो। जहाँ आपको तनाव, चिन्ता न रखनी पड़ती हो। जहाँ आप सहज हो सकते हो, नग्न हो सकते हो, वो जगह — घर।
तो यूँ तो लगेगा जैसे उठे हैं, चले हैं, और किसी बाहरी, भौतिक, भौगोलिक जगह पर पहुँचे हैं, पर ऐसा मानिएगा नहीं। इसकी स्थापना ही ऐसे की गयी है कि ये जगह वास्तविक अर्थों में घर रहे। ये वो जगह रहे जहाँ आप शान्त हो सकें, जहाँ आप आप हो सकें।
इसी तरीके से, आपकी और मेरी बात — आप प्रेम दे रहे हैं, सम्मान दे रहे हैं, किसी बाहर वाले को नहीं दे रहे हैं। मुझे एक आसन देते हैं, जो ऊँचा है। मेरे सामने आप बड़े प्रेम से बैठे हुए हैं। प्रतीत होता है आपका आसन जो ज़रा नीचा है। मैं बोल रहा हूँ, आप मौन से और स्नेह से सुन रहे हैं। आप किसी बाहर वाले को नहीं सुन रहे हैं। बाहर वाले को सम्मान यदि दिया तो वो डर जैसा है और प्रेम तो बाहर वाले को दिया ही नहीं जा सकता।
मेरे माध्यम से अपने ही आप को सुन रहे हैं; मैं नहीं बोल रहा, आप स्वयं से ही बोल रहे हैं। अगर बाहरी हूँ मैं, दूर का हूँ मैं, तो मेरा बोलना बहुत काम नहीं आएगा। क्षण-दो-क्षण की बात रहेगी, मन का माहौल ज़रा बदलेगा, जैसा मनोरंजन में भी होता है, जैसा आमतौर पर भी स्थितियों के बदलने से होता है। लेकिन बात मोटे तौर पर जस-की-तस रह जाएगी, कोई मौलिक घटना घटेगी नहीं, यदि मैं बाहरी हुआ तो।
मैं वही कह रहा हूँ जो आप जानते हैं, मैं वही कह रहा हूँ जो आप जानते हैं और अक्सर अपनेआप से खुद कहते नहीं। मैं वही कह रहा हूँ जो आप बड़ी बेताबी से सुनना चाहते हैं। तो आप यदि मुझे सम्मान देते हैं, तो वास्तव में अपनेआप को ही सम्मान दे रहे हैं। आप जानते हैं कि आप सम्मान योग्य हैं।
किसी और का शरीर नहीं बैठा है आपके सामने, इस भावना से मत देखिएगा। किसी के भी शरीर में कुछ खास होता नहीं। हाड़-माँस की जहाँ तक बात है, सबका एक बराबर। सब पैदा हुए थे, सबको जल जाना है। तो किसी दूसरे का, किसी पराये का शरीर नहीं बैठा है आपके सामने, उस दृष्टि से देखिएगा ही मत। और उस दृष्टि से देखना हमें बड़ा सरल लगता है।
किसी और की जगह खुद को देखिए, शरीर की जगह आत्मा को देखिए और सामने की जगह मध्य में देखिए। एक तरीका होगा देखने का कि किसी और का शरीर है मेरे सामने। और एक तरीका है देखने का कि मेरी ही आत्मा है मेरे मध्य में, मेरे केन्द्र में, मेरे हृदय में। अब कोई दूरी नहीं, कोई परायापन नहीं, कोई छुपाने इत्यादि कि ज़रूरत नहीं। अब जो बात असली है, वो उद्घाटित हो सकती है। और जो असली है जब वो उद्घाटित होगा तो बड़ा चैन आता है, सिर्फ़ तभी आता है चैन।
दूसरा जब तक है, तब तक तो सिर्फ़ बचने-बचाने का खेल चलता रहता है, बचो-बचाओ, मरो-मारो। उस खेल में हिंसा है, चोट है, कष्ट है, खून है, आँसू हैं, मज़ा तो नहीं है। तो अपनेआप से मिल रहे हैं आप, स्वागत है। अपने घर में अपनेआप से, अपने घर में अपनेआप से, ठीक? ये किसी अनजानी, अपरिचित संस्था का कोई दूरस्थ केन्द्र नहीं है।
और मैं वो सब नहीं हूँ जो आप मेरे बारे में पढ़ते हैं या जानते हैं। वो भावनाएँ , विचार, सारा ज्ञान अपने मन से निकाल दें, फिर बात बनेगी। जीपीएस (ग्लोबल पॉज़िशनिंग सिस्टम) ने आपसे जो कुछ कहा वो झूठ था। यहाँ भीतर घुसे हैं न, जीपीएस को बाहर छोड़ दीजिए। वो सिर्फ मोटी-मोटी बातें बता सकता है, महीन बातें उसकी समझ में नहीं आती। और मेरे बारे में, मेरे इतिहास ने, मेरे परिचितों ने, मेरे बारे में छपी हुई जानकारी ने जो कुछ कहा, वो सब भी झूठ है। वो सारा ज्ञान भी बाहर उतार दीजिए।
आप हैं, और बस आप ही हैं, तो आत्मसम्वाद है। जो आप वहाँ बैठे हैं, वो आप इधर बैठे से बात करना चाहते हैं। कहिए क्या बात करनी है? याद रखिएगा , जो उधर बैठा है उसके पास बातें ही बातें होतीं हैं। मौन इधर वाले के पास होता है। लेकिन अजूबा कुछ ऐसा है कि अक्सर उधर वाला मौन धारण करता है जबकि मौन वो है नहीं। उधर वाले को मन कहते हैं, इधर वाले को आत्मा कहते हैं। मन के पास बातें ही बातें होतीं हैं, उसे बातें करने दीजिए।
छोटे बच्चे होते हैं न, कक्षा में बातें खूब कर रहे होते हैं। तभी टीचर अन्दर आ जाती है, चुप हो जाते हैं। चुप इसलिए नहीं हो जाते कि मौन कराया है, चुप इसलिए हो जाते हैं कि जब टीचर टरेगी तब फिर बात करेंगे। अभी इसके सामने बात कर ली तो आगे बात करना मुश्किल हो जाएगा। आपकी बातें सुन्दर हैं, प्यारी हैं, आप कर सकते हैं, सज़ा का या उलाहना का कोई सवाल नहीं है। रखा कुछ नहीं है उन बातों में, लेकिन फिर भी करिए।