बिना धार्मिक हुए भी आध्यात्मिक हो सकते हैं? प्रार्थना क्या है? || आचार्य प्रशांत, डीयू सत्र (2021)

Acharya Prashant

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बिना धार्मिक हुए भी आध्यात्मिक हो सकते हैं? प्रार्थना क्या है? || आचार्य प्रशांत, डीयू सत्र (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमस्कार! मेरा नाम माणिक पांडे है, मैं हंसराज कॉलेज का विद्यार्थी हूँ और इतिहास में बीए ऑनर्स कर रहा हूँ। मेरा आपसे ये प्रश्न था कि क्या आध्यात्मिकता के लिए हमें किसी धर्म या आस्था से जुड़ना ज़रूरी है?

आचार्य प्रशांत: किताबी तौर पर, सैद्धान्तिक तौर पर—नहीं। कोई ज़रूरत नहीं है कि तुम किसी धर्म विशेष का पालन करो। लेकिन अध्यात्म की भी जो किताबें हैं वो आती तो धर्म से ही हैं। ठीक है? मैं अगर तुमको बोल दूँ कि नहीं, तुम्हें किसी धर्म का पालन करने की ज़रूरत नहीं है, आध्यात्मिक होने के लिए। तो तुम क्या करने वाले हो? बताओ। आध्यात्मिक का तुम्हें अर्थ भी कौन बताएगा?

अब उपनिषद्हैं, उनका सम्बन्ध तो सनातन धारा से ही है न? तो उचित ये रहता है, व्यावहारिक ये रहता है कि धर्म की जो पूरी परम्परा है, उसमें जो कुछ भी आज के समय पर उपयोगी है उसको ले लो।

बाकी बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि वास्तव में अध्यात्म का धर्म के बिना कोई अस्तित्व है नहीं। धर्म के केन्द्र पर होता है अध्यात्म। और ऐसे भी कह सकते हो कि धर्म में से जब बेकार की चीज़ों की, कचरे की सफ़ाई कर दी जाती है तो जो बचता है, उसको कहते हैं अध्यात्म।

तो धर्महीन अध्यात्म थोड़ी बेमेल-सी चीज़ हो जाती है। साथ-ही-साथ , धार्मिक होने को आध्यात्मिक होना नहीं कहते। ये, ये दोनों बातें एक साथ याद रखनी हैं। दुनिया में अगर हज़ार लोग धार्मिक है तो उसमें से नौ-सौ-निन्यानवे आध्यात्मिक नहीं हैं। क्योंकि उनके लिए धर्म का मतलब क्या है? मान्यताएँ, बिलीफ़्स। कि फ़लानी चीज़ चली आ रही है, मान लो। फ़लानी पुरानी कहानियाँ हैं, उनको मान लो।

तो धार्मिकता आध्यात्मिकता नहीं है, एक ओर ये बात बिलकुल सही है; दूसरी ओर ये भी समझ लेना कि धार्मिकता के बिना भी आध्यात्मिकता लानी बड़ी मुश्किल है। उदाहरण के लिए तुम बोल दो कि मैं हिंदू धर्म का पूर्णरूपेण अस्वीकार करता हूँ।

तो तुमने धर्म की सब कुरीतियों और पुरानी प्रथाओं, परम्पराओं के साथ-साथ उपनिषदों का भी तो अस्वीकार कर दिया। अब तुम्हारा अध्यात्म कहाँ से आएगा ? बात समझ रहे हो? तो धर्म में जो कुछ कूड़ा-कचरा है उसको लगातार खारिज करते चलो। लेकिन जो बातें वहाँ हीरे-मोती जैसी हैं उनको स्वीकार करते चलो। यही अध्यात्म है।

प्र: आचार्य जी, इसके साथ ही मेरा एक और प्रश्न था कि जब भी हम प्रार्थना करते हैं तो प्रार्थना के बदले हमारी आवश्यकता, कारण या कुछ भी होता है जो हम माँग करते हैं। तो क्या हम अपनी किसी आवश्यकता या कारण के बिना ईश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं?

आचार्य: ये प्रेयर (प्रार्थना) का मुद्दा थोड़ा गम्भीर भी है, गहरा भी है और गड़बड़ भी है। कुछ सोचना और उसको किसी ऊपरी ताकत को अभिव्यक्त कर देना—ये हमारे लिए प्रेयर का अर्थ होता है। प्रेयर ये चीज़ नहीं होती है। सही दिशा में आप जो अधिकतम कर सकते हो, आप वो करो, इसको प्रार्थना बोलते हैं। अच्छे से समझ लो। सही दिशा में आप जो अधिकतम कर सकते हो, आप वो करो, ये प्रार्थना कहलाती है।

प्रार्थना किसी एक विशेष क्षण का नाम नहीं है। प्रार्थना किसी विशेष जगह पर किये गए विशेष कृत्य का नाम नहीं है। आपकी ज़िन्दगी ही प्रार्थना है। जैसे, बता देता हूँ अभी। आप सब लोग मेरे सामने बैठे हो, और आप सब मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो क्योंकि आप सब युवा लोग हो और आप लोग अपनी ईमानदार जिज्ञासाएँ लेकर आये हो जिनसे आपका जीवन निर्धारित होने वाला है।

तो मेरे लिए आपसे बात करना बहुत ज़रूरी बात है। लेकिन मैं जानता नहीं कि मैं जो कुछ भी बोल रहा हूँ उससे आपका भ्रम मिटेगा कि नहीं मिटेगा। तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं अपनी ओर से बस अधिकतम कोशिश कर सकता हूँ। ये अभी जो मैं कर रहा हूँ, ये प्रार्थना है। ये पिछले दो घंटे से जो मैं कर रहा हूँ, वो प्रार्थना है।

मैं अपनी ओर से भरपूर कोशिश कर रहा हूँ तुम्हें समझाने की, लेकिन तुम समझोगे या नहीं समझोगे ये मेरे हाथ में नहीं है। तो ये प्रार्थना बन गयी कि मैं आवेदन कर रहा हूँ। कैसे? अपने श्रम से। मैं दरख्वास्त कर रहा हूँ। कैसे? अपने कर्म से। लेकिन उसका परिणाम आएगा कि नहीं आएगा , ये मैं नहीं जानता।

तो ये प्रार्थना है, कि मैंने अपनी ओर से हाथ जोड़कर के अपना काम कर दिया, उधर से उत्तर आएगा कि नहीं आएगा , मैं नहीं जानता। मेरे हाथ में क्या है? अधिकतम कर देना, पूरी ईमानदारी से कर देना। ज़िन्दगी में जब तुम सही काम अपने पूरे समर्पण के साथ करते हो उसको प्रार्थना बोलते हैं।

प्र: एक और प्रश्न था आचार्य जी, कि हमारे वेद संस्कृत भाषा में हैं और अधिकांश युवा संस्कृत को नहीं समझते हैं। वो या तो अपनी क्षेत्रीय भाषा समझते हैं या अंग्रेज़ी भाषा। लेकिन आचार्य जी जो महाभारत और रामायण आज जनमानस में चलती हैं क्या वो वेदों का सटीक ज्ञान दे रही हैं? क्या आप उससे सन्तुष्ट हैं?

क्योंकि वेदों में तो अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि आदि गहराई की बातें भी हैं लेकिन इन कथाओं सुनकर तो लगता है कि ये कथाएँ किसी विशेष भगवान की ही बातें दर्शाती हैं। तो आपके अनुसार वेदों की लोगों तक उनकी क्षेत्रीय भाषा में आसान उपलब्धता के लिए क्या करना चाहिए?

आचार्य: देखिए, दुनिया में बहुत सारी भाषाएँ हैं और सब भाषाओं में कुछ ना कुछ मूल्यवान बातें ज़रूर कही गयी हैं। किसी भी इंसान के लिए ये सम्भव नहीं है कि दुनिया की सारी भाषाएँ या सारी प्रमुख भाषाएँ भी वो जान सके। तो काम तो अनुवाद से ही चलना है। ठीक है?

आप अगर ये शर्त रखोगे कि सबको संस्कृत आती हो तभी वो वेद पढ़ेंगे, तो फिर , ये होने से रहा! तो, वेदों के और बाकी ग्रन्थों के अच्छे अनुवाद पहले से ही उपलब्ध हैं। और उनको पढ़ा जाना चाहिए। वहाँ कोई समस्या, ऐसी चीज़ है ही नहीं।

दूसरी बात कि आपने कहा कि वेदों में अर्थव्यवस्था है और ये सब है’ इस तरह की मान्यता आप मत रखिए। ठीक है? वेदों में जो बात कालातीत है, कालजयी है, वो वेदान्त है। वेद का अर्थ तो ज्ञान होता है। और ज्ञान में वो ज्ञान भी सम्मिलित हैं जो सिर्फ़ उस समय के लिए वैधता रखता था।

वेद ‘इनसाइक्लोपीडिया’ जैसे हैं। आप जो कुछ भी जानते हो आपने सब उसमें डाल दिया। तोवेदो में जो सारी बातें हैं, सब की सब कोई आध्यात्मिक नहीं हैं। वेदों का संकलन, जितना भी ज्ञान उस समय समाज के पास और गुरुओं के पास उपलब्ध था, उसको एकीकृत करने के लिए किया गया था। कि भाई जो भी कुछ जानता है; जो कुछ भी जिसको भी पता हो और जो कुछ भी पता हो, सब ले आ दो। सब एक इनसाइक्लोपीडिया बनाये देते हैं! उसका नाम वेद था।

वेदों के जिस हिस्से का आज भी महत्व है और हमेशा महत्व रहेगा, उसको वेदान्त बोलते हैं। और वेदान्त की जो उच्चतम अभिव्यक्ति है, उसको ‘अद्वैत वेदान्त ’ बोलते हैं। आप आज जिस संस्था का, जिस समिति का उद्घाटन कर रहे हैं, उसका नाम अद्वैत है।

वो समझ लीजिए वेदों का अमृत है, वो वेदों का मर्म है। ठीक है? तो, बहुत संक्षिप्त है उपनिषद्, बहुत सारगर्भित है। वो सब युवाओं तक पहुँच सकते हैं और पहुँचाए जाने चाहिए। उन्हीं में वेदों की आत्मा बैठी हुई है। ठीक है? तो वेद आज आपके लिए उपयोगी हैं वेदान्त के रूप में। वेदान्त को पढ़िए, जीवन में उतारिए। जीवन ताकतवर और नया हो जाएगा ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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