बिखरे मन के लिए संसार में टुकड़े ही टुकड़े || आचार्य प्रशांत, दादू दयाल पर (2014)

Acharya Prashant

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बिखरे मन के लिए संसार में टुकड़े ही टुकड़े || आचार्य प्रशांत, दादू दयाल पर (2014)

स्वाति बूंद केतली में आए, पारस पाये कपूर कहाए । दर्पण फूटा कोटि पचासा, दर्शन एक सब में बासा ।। ~ संत दादू दयाल

वक्ता: आप एक स्थान पर खड़े हैं और आपके चारों तरफ असंख्य शीशे हैं—ऊपर, नीचे, दसों दिशाओं में शीशे हैं; हर रंग, हर आकार और हर प्रकार का शीशा है। मुड़े हुए शीशे, छोटे शीशे, बड़े शीशे और जितने प्रकार हो सकते हैं। आपको चारों तरफ क्या दिखाई देगा?

चारों तरफ अलग-अलग वस्तुएँ, व्यक्ति और आकार दिखाई देंगे। भेद दिखाई देगा – इसी भेद का नाम संसार है।

संसार कुछ नहीं है बल्कि आपका ही प्रतिबिम्ब है। जब मन खंडित होता है, जब मन टूटे हुए शीशे की भांति होता है—‘दर्पण फूटा कोटि पचासा’— ये मन का दर्पण है, जब ये खंडित दर्पण है तो इसमें संसार भेद युक्त दिखाई देता है, सब अलग-अलग है। तब अपने बेटे और पड़ोसी के बेटे में अन्तर है, स्त्री और पुरुष में अन्तर है, मनुष्य में और पशु में अन्तर है, पदार्थ में और जीव में अन्तर है।

हर तरफ अन्तर ही अन्तर है। काले-सफ़ेद का अन्तर है, सुख-दुःख का अन्तर है। मात्र अन्तर है—भेद। क्योंकि – दर्पण फूटा कोटि पचासा , दर्पण टूटा हुआ है, खंडित है। इसी को कहा जाता है मन का बंटा होना , कि उसमें सब अलग-अलग दिखाई देता है। और जो अलग-अलग दिखाई दे रहा है वो वास्तव में क्या है? एक है; न सिर्फ एक है, बल्कि आप हैं। याद रखिएगा कि, “आत्मा एक है”— इसमें दो बातें हैं:

  • पहली बात – एक है
  • दूसरी बात – आप हैं; आत्मा; मैं।

‘आत्मा एक है’ में दो बातें हैं और दोनों को नहीं भूल सकते। पहला – जो है, सो एक है और दूसरा – जो है, सो मैं हूँ। दोनों को इकट्ठे जानना आवश्यक है। एक प्रकाश है आत्मा का, वो जैसे मन पे पड़े वैसा रूप धारण कर लेता है। आत्मा के प्रकाश को स्वाति नक्षत्र की बूँद से इंगित किया गया है। वो एक प्रकाश, जब एक प्रकार के शीशे पर पड़े तो एक रूप धारण करता है— ऐसा मन हो तो ऐसा हो जाएगा और वैसा मन हो तो वैसा हो जाएगा।

रूप चाहे जैसा भी हो निकल अरूप से ही रहा है।

ताकत चाहे जैसी भी हो उसका स्रोत वही है। अभी बात उठी थी न कि, कवियों ने कहा है कि वही स्वाति नक्षत्र की बूँद अगर सांप के मुंह में पड़े तो ज़हर बन जाती है। ज़हर को ज़हर भी, उसकी ताकत बनाती है; ताकत तो उसी की है। अहंकार के पीछे भी ताकत उसी की है। माया और किसकी है? माया किसकी है? माया का मूल तत्व तो वही है। सारी बेचैनी, सारे कष्ट, सारे दुःख कहाँ से आ रहे हैं? उनके पीछे भी ताकत आत्मा की है लेकिन उनको दुःख और कष्ट का रूप दिया है आपके खंडित मन ने।

वही ताकत आपको महा आनंद भी दे सकती थी, पर आपने उसको अपने विरुद्ध इस्तेमाल कर लिया तो उसने आपको खूब कष्ट दिया—जैसे बन्दर के हाथ में तलवार। उसी तलवार से आप अपने दुखों को काट सकते थे पर आपने उससे अपने पांव काट लिए।

एक प्रकाश है। अब ये आपके ऊपर है कि आप उस प्रकाश का क्या करते हैं, उसे क्या रूप देते हैं, उपलब्ध है वो आपको। आप साँप बनेंगे तो वो ज़हर बन जाएगा, आप केले के पत्ते हैं तो वो कपूर बन जाएगा, आप सीप बन जाइए तो वो मोती बन जाएगा।

आपका जीवन कैसा है, वो निर्भर करता है इस पर कि आपका मन कैसा है। मन बदलिए, जीवन बदल जाएगा।

वही शक्ति जो आपके विरुद्ध जा रही थी, आपको हज़ार तरीके के क्लेश दे रही थी, वही शक्ति आपका परम सहारा बन जाएगी। अहंकार से ही उठते हैं कुविचार और अहंकार से ही सद्विचार भी उठता है। वही अहंकार जिसने आपका जीवन नरक कर रखा था, जो आपको हज़ार तरीके की वासनाओं में, उपद्रवों में, और विचारों में डाले रहता था, उसी अहंकार में अब यह विचार उठेगा कि—“मैं हूँ कौन?”

कोहम् पूछने वाला भी तो अहंकार ही है, आत्मा तो कुछ पूछने नहीं आती। वही अहंकार जो पहले विचार करता था कि, कैसे इकट्ठा करूँ, कैसे पाऊं, कैसे जीतुं, कैसे हत्या करूँ, कैसे और सुरक्षित हो जाऊं; वही अहंकार अब विचार करेगा कि, कष्ट वस्तु क्या है? आनंद का स्रोत क्या है? और किसको आता है आनंद? ये सब गोरखधंधा क्या है? किसको प्रतीत होता है ये?—ये सद्विचार हैं।

याद रखिये— सुविचार हो या कुविचार हो, विचार की ताकत का स्रोत तो एक ही है। बाकी मन जाने कि उसे उस ताकत का करना क्या है।

संत वो है जिसे अलग-अलग में एक दिखाई दे। जो देख ले कि सांप के मूँह का ज़हर, केले के पत्ते के ऊपर का कपूर, और सीप का मोती—इनका तत्व एक है।

‘दर्शन एक सब में बासा’

जिसको इन सब में एक कि प्रतीति होने लगी, वो संत। बात समझ में आ रही है? संत जब संसार को देखता है तो उसे अच्छा-बुरा नहीं दिखाई देता, सही-गलत नहीं दिखाई देता, उसे तो उसी एक परम का विस्तार दिखाई देता है। यही कह रहे हैं दादू दयाल—दर्शन एक सब में बासा। यदि आप ये समझ ही जाएँ कि आपके आस-पास के सारे आईनों में दिखाई आप ही दे रहे हैं तो क्या आप इन सब प्रतिबिम्बों को गंभीरता से ले पाएंगे? ले पाएंगे क्या?

संसारी कौन है?

जिसे पहली बात तो यह पता ही नहीं कि सारे प्रतिबिम्ब मेरे हैं, इन सब के स्रोत में मैं बैठा हूँ, मैं अर्थात आत्मा। दूसरी बात जिसे ये पता नहीं कि ये अलग-अलग इसलिए दिखाई दे रहे हैं क्योंकि मन खंडित है और तीसरी बात जो बड़ी मूर्खता है, वो ये है कि, वो बिना खंडित मन को बदले प्रतिबिम्बों को बदलने की चेष्टा में लगा रहता है। आप, जो मध्य में खड़े हैं वो आत्मा हैं। ये जो टूटे-फूटे हज़ार किस्म के शीशें हैं ये खंडित मन है और उन खंडित मनों में जो परिलक्षित हो रहा है वो संसार है।

संसारी वो, जो मन का खंडन रोके बिना, जो मन का उपचार किए बिना, संसार बदलना चाहता हो।

मैं वैसा रहूँ जैसा हूँ, मन टूटा है बिखरा है, आईना टूटा हुआ ही रहे पर आईने में जो दिखाई दे रहा है वो बदल जाए। कैसे बदल जाएगा! तो न तो उसे ये समझ में आता है कि आईने में जो दिखाई दे रहा है सो आत्मा का प्रकाश है, न उसे ये दिखाई दे रहा है कि आईने सारे टूटे हुए हैं, मेरा मन ही ये सारे आईने हैं, और इस कारण वो पूरा जीवन लगाता है प्रतिबिम्बों को बदलने में।

अब आश्चर्य क्या इसमें कि उसे कभी सफलता मिलती नहीं।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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