
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा नाम शिखा है और मैं बिहार से हूँ। अभी बिहार में अगले ही महीने इलेक्शन होने वाला है। सरकार तो बदलती है, पर हालात क्यों नहीं बदलते? असल समस्या जो है, वो नेताओं में है या मतदाताओं की चेतना में? तो मेरा सवाल ये है कि एक जागरूक मतदाता को किस आधार पर वोट करना चाहिए? धन्यवाद।
आचार्य प्रशांत: ये मुद्दा इन दिनों बहुत सुर्खियों में है, संस्था के भीतर भी इस पर बात चल रही है। एक लेख भी इस पर लिख रहा हूँ, बिहार के आने वाले चुनाव पर, अभी प्रकाशित होगा अगले ही हफ़्ते शायद। देखिए, सही काम तो हमेशा समझ से ही निकलता है। किसी भी जगह आप खड़े हो, वहाँ सही काम क्या है, ये तो आप जब जानोगे कि वहाँ के हालात क्या हैं तभी तय कर पाओगे न।
जो वर्तमान चुनाव है, उसमें जो मुद्दे आगे छाए हुए हैं, उनको देखकर ऐसा लगता है जैसे बिहार की सबसे बड़ी जो समस्या है, वो ये है कि लोगों को मुफ़्त राशन या बिजली-पानी नहीं मिल रहा है, या ग़रीबों को कुछ मुफ़्त पैसे उनके अकाउंट में नहीं दिए जा रहे हैं, और यही समस्या है और इसी कारण बिहार रुका हुआ है, पिछड़ा हुआ है। या कि समस्या ये है कि कुछ जातियों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है, टिकटों के बँटवारे में, या कि विधानसभा में, या ताक़त की अन्य जगहों पर। क्योंकि यही मुद्दे आप देख रहे हो, सुर्खियों में छाए हुए हैं। या एक और जो मुद्दा छाया हुआ है, वो धर्म का है, कि शायद बिहार की एक बड़ी समस्या ये है कि वहाँ पर धर्म ख़तरे में है। चुनाव तो लगभग इन्हीं चीज़ों पर लड़ा जा रहा है, और इसमें सब प्रकार की बातें हो रही हैं। ज़्यादातर बातें स्तरहीन हैं, गाली-गलौज पर भी उतर आ रहे हैं लोग बीच-बीच में।
लेकिन बिहार है क्या? बिहार माने, बिहार के लोग, है न? और एक इंसान को क्या चाहिए हम जानते हैं, क्योंकि इंसान तो इंसान है, वो पूरी दुनिया में कहीं का भी हो। चाहे वो बिहार का हो, चाहे भारत के दूसरे राज्यों का हो चाहे विदेशों का हो। तो हमको पता है कि इंसानी ज़रूरतें क्या हैं। और इंसान अगर थोड़ा भी समझदार होगा, अपने हितों को जानता होगा, तो अपनी इन ज़रूरतों के आधार पर फ़ैसले करेगा, चाहे वो वोट देने का फ़ैसला हो, या ज़िंदगी का कोई और फ़ैसला। कोई भी फ़ैसला अपनी ज़रूरतों को समझकर किया जाता है न, और यदि व्यक्ति अपनी ज़रूरतों से ही परिचित नहीं है, तो फिर वो क्या फ़ैसला करेगा।
अब हम समझते हैं बिहार में जो लोग हैं, बिहारी बंधु हमारे, उनकी स्थिति क्या है। पाँच-सात बिंदु ले लेते हैं। आप जानती होंगी, सभी लोग जानते हैं, पर उनको एक-एक करके लेंगे तो कुछ बात खुलेगी।
पहला: शिक्षा। बिहार में जो साक्षरता दर है, वही पूरे देश से लगभग 10% नीचे है (सॉर्स: मिनिस्ट्री ऑफ स्टैटिस्टिक्स ऐंड प्रोग्राम इम्प्लीमेंटेशन)। और हम देश की औसत साक्षरता दर (लिटरेसी रेट) की बात कर रहे हैं। देश का है 70-78%, बिहार का है 71%। ये अंतर आपको ऐसा लगेगा 7% का है, सात का नहीं है। 78% पर 7% का अंतर लगभग 10% का होता है। और ये हमने औसत से तुलना करी है। जब आप तुलना करेंगे देश के अग्रणी राज्यों से, शिक्षा में अग्रणी राज्यों से, तो ये अंतर और बड़ा हो जाता है। आप जब तुलना करेंगे दक्षिण के राज्यों से, केरल या तमिलनाडु से, तो ये अंतर फिर 10% की जगह 20% का हो जाता है।
और जब आप तुलना करेंगे दुनिया के विकसित देशों से, और अभी हम यूरोप या अमेरिका की तरफ़ नहीं जा रहे, आप चीन से ही तुलना कर लीजिए, तो ये अंतर बढ़कर 25% का हो जाएगा। बहुत बड़ी बात है, क्योंकि जो बिल्कुल बुनियादी सूचकांक होता है हम उसकी बात कर रहे हैं, साक्षरता की। अभी हम व्यक्ति के “शिक्षित” होने की या शिक्षित से भी आगे “विद्वान” होने की बात नहीं कर रहे, हम बात कर रहे हैं कि वो ‘क, ख, ग’ भी पहचान पाता है क्या? ‘क, ख, ग’ भी पहचान पाता है हम इसकी बात कर रहे हैं बस, विद्वत्ता तो बहुत आगे की बात है। तो यहाँ खड़ा है बिहार। और अगर मैं आगे और कोई बात नहीं भी बोलता, मैं यहीं पर अपने जवाब को रोक देता, तो भी बात पूरी हो जाती है। इसी से तय हो जाता है कि बिहार को सबसे ज़्यादा ज़रूरत किसकी है।
61% साक्षरता दर है महिलाओं की (सॉर्स: मिनिस्ट्री ऑफ स्टैटिस्टिक्स ऐंड प्रोग्राम इम्प्लीमेंटेशन)। 61%। देश भर में लड़कियों का ड्रॉपआउट रेट बिहार में सबसे ज़्यादा है। प्राइमरी पूरा करते-करते, मिडिल में आते-आते लड़कियाँ बाहर हो जाती हैं। जैसे ही दस-बारह-चौदह साल की उम्र होने लगती है, शिक्षा से बाहर। पहले तो भीतर ही बहुत कम जाती हैं, जो ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो है, वो भी बहुत कम है। अभी हम प्राइमरी की बात कर रहे हैं। तो बताइए, हायर एजुकेशन में कितना है ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो बिहार का?
ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो माने कि उस आयु वर्ग में जितने बच्चे या जवान लोग हैं, जिन्हें होना चाहिए था शिक्षा की धारा में, उसकी तुलना में हैं कितने? तो कितना है? 15%। ये हायर एजुकेशन की बात है। समझ रहे हैं? तो पहले तो शिक्षा की धारा में प्रवेश ही कम बच्चे ले रहे हैं बाक़ी देश की तुलना में, और विदेशों की तो बात ही अलग है। और जो प्रवेश ले भी रहे हैं, वो ड्रॉप आउट हो जा रहे हैं। तो हर बीतते स्तर के साथ — प्राइमरी, मिडिल, सेकेंडरी, हायर सेकेंडरी, हायर, ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो और ज़्यादा, और ज़्यादा कम होता जा रहा है। क्यों कम होता जा रहा है? क्योंकि शिक्षकों की बेहद कमी है।
शिक्षा का स्तर ये है, शिक्षक पढ़ा इस तरीके से रहे हैं कि अभी सर्वे हुआ था, तो पाँचवीं के बच्चों से दूसरी कक्षा के बच्चों के सवाल पूछे गए। जो कक्षा दो की पाठ्यपुस्तकें हैं, उनके सवाल पूछे गए पाँचवीं के बच्चों से, अब वो वो भी नहीं बता पाए। लेकिन मुझे तो दिखाई नहीं देता कि चुनाव के धूमधड़ाके में कोई शिक्षा की बात भी कर रहा है। और मैं पूछ रहा हूँ, ये बताइए, इंसान इंसान भी है क्या अगर वो शिक्षित नहीं है? इससे बड़ी नाइंसाफ़ी हो सकती है क्या किसी व्यक्ति के साथ कि उसे शिक्षा से ही वंचित रखा जाए? पर आपको बिहार के चुनाव में शिक्षा की बात कितनी दिखाई दे रही है? चलो, लड़कियों को एक तरफ़ रखो, उन्हें तो कोई वैसे ही नहीं पूछता। लड़कों की शिक्षा की भी बात कितनी दिखाई दे रही है? और अध्ययन हुआ, तो उसमें सामने आया कि लड़कियाँ ड्रॉप आउट करती हैं प्राइमरी पार करने के साथ। उसका एक बड़ा कारण ये है कि चौथाई स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय ही नहीं है। इस तरह की बातें।
शिक्षा सीधे असर फिर किस पर डालेगी? रोज़गार पर। और हम बहुत अच्छे से जानते हैं कि रोज़गार की हालत क्या है बिहार में। देश के 1% मैन्युफैक्चरिंग आउटपुट को भी नहीं ला पाता है बिहार, 1% भी नहीं। आबादी कितनी है? 12 करोड़। रोज़गार की हालत क्या है, आप बहुत अच्छे से जानते हैं। जो युवा वर्ग है, उसमें 30 से 35% तक बेरोज़गारी है (सॉर्स: इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइज़ेशन)। वो क्या कर रहे हैं, बताओ? और ये वो युवा वर्ग है जो बिहार में रुका है। तीस लाख बिहारी युवा हर साल बिहार छोड़कर दूसरी जगहों पर चले जाते हैं नौकरियाँ करने। वो भी रुके होते तो सोचो फिर बेरोज़गारी की दर कितनी होती! और जो बाहर निकल रहे हैं, वो ज़्यादातर वो हैं जो पढ़े-लिखे हैं, जो थोड़ी समझ रखते हैं, थोड़ी मेहनत रखते हैं, कुछ करके दिखा सकते थे। जिसको क्रीम कहा जाता है, वो पूरी बाहर निकल जाती है। समझ में आ रही है बात ये?
अब वोटर तो ज़्यादातर युवा हैं। और युवा को तो मतलब होना चाहिए सबसे ज़्यादा शिक्षा से, फिर रोज़गार से। बिहार देश के सबसे युवा राज्यों में है। अगर आँकड़ा मुझे ठीक याद है, तो बिहार की जो औसत उम्र है, वही अर्ली ट्वेंटीज़ (सॉर्स: डेटा फ़ॉर इंडिया) में है। औसत सबसे युवा राज्यों में इसलिए है क्योंकि वहाँ पर आबादी सबसे ज़्यादा तेज़ी से बढ़ रही है, क्योंकि ग़रीबी सबसे ज़्यादा है। तो जब जितनी आबादी बढ़ेगी, वो जगह उतनी युवा होती जाती है। एम्प्लॉयमेंट कहाँ से होगा? युवाओं को तो चटनी चटाई जाती है फ्रीबीज़ की न, “तुम्हें एम्प्लॉयमेंट की ज़रूरत क्या है? ये करो, नारे लगाओ, राजनीति में आओ, युवा नेता कहलाओ।” और जो थोड़े ढंग के हैं, उनको “तुम छोड़ के चले जाओ।” हँसते हैं कई बार, जो बिहारी भाई होते हैं कुछ मेरे बैच के भी। कहते हैं, “नॉन-रेज़िडेंट बिहारी। छोड़ के चले जाओ न, तुम्हें बहुत अपनी परवाह है। यहाँ तो ऐसे ही चलेगा भाई।”
प्राइवेट इन्वेस्टमेंट ना के बराबर, कौन आकर के वहाँ लगाएगा? मैन्युफैक्चरिंग नहीं, सर्विसेज़ नहीं। 70% लोग खेती कर रहे हैं, और खेती के लिए ज़मीन नहीं, क्योंकि जनसंख्या का घनत्व बिहार में सबसे ज़्यादा है देश में। पहले नहीं था, जब से झारखंड अलग हुआ है तब से सारी आबादी तो रह गई बिहार में, और क्षेत्रफल काफ़ी उधर चला गया। कैसे नौकरियाँ निकलेंगी? फिर नौकरी तो वही होती है कि सरकारी नौकरियाँ निकल सकती हैं, वो जो सरकार दे दे। तो उसके लिए सारे दल वादे कर रहे हैं, “मैं इतनी नौकरियाँ निकाल दूँगा, मैं ये कर दूँगा, मैं वो कर दूँगा।” प्राइवेट सेक्टर बिल्कुल अनुपस्थित है। कैसे होगा? जब देश के सबसे ज़्यादा अपराधग्रस्त राज्यों की बात आती है, तो उसमें बिहार सर्वोपरि होता है, टॉप थ्री में होता है। जब बहुत सुधरता है, तो टॉप फाइव में चला जाता है (सॉर्स: द न्यू इंडियन एक्सप्रेस)।
कुछ सुधरी है हालत, आज से बीस-तीस साल पहले और ख़राब थी, उससे कुछ बेहतर हुआ है पर अभी भी देश में बिल्कुल गोल्ड नहीं तो सिल्वर, सिल्वर नहीं तो ब्रॉन्ज़, अपराध में बिहार को जाता ही है। कौन आकर के वहाँ अपना पैसा लगाएगा? कौन इंडस्ट्री वहाँ पर लगाएगा? अधिक-से-अधिक ये होता है कि कुछ वहाँ बड़े शहर हैं उनमें आपको रिटेल ब्रांड्स कुछ दिख जाते हैं, जो वहाँ बस बेचने आते हैं। एफ़एमसीजी, वॉशिंग मशीन बेचने आ गया कोई, कोई बैंक आ गया वहाँ पर कि “हम लोन बेच रहे हैं।” इस तरह की कपड़ों का कोई आ गया रिटेलिंग चेन। ये सब आपको दिख जाएगा। गाड़ी बेचने आ जाएँगे, वो भी ज़्यादातर सस्ती गाड़ियाँ या बाइक्स। इसकी बात हो रही है चुनाव में? ये मेरा देश है। ये मेरा देश है, यहाँ आँकड़ों पर नहीं बात होती, यहाँ मुद्दों पर नहीं बात होती, क्योंकि हमें पता ही नहीं है कि हमारी हालत कितनी ख़राब है। हम न जाने किस नशे में हैं।
जब आबादी ज़्यादातर ग्रामीण हो, तो इंडस्ट्री अगर आती भी है, तो वो कनेक्टिविटी माँगती है कि इन जगहों पर तो पहुँचा जाए, चाहे डिस्ट्रीब्यूशन के लिए या कलेक्शन के लिए। कैसे होगा? बिहार के 40% गाँव अभी भी सड़कों से भी नहीं जुड़े हुए (सॉर्स: द वर्ल्ड बैंक, बिहार रूरल रोड्स प्रोजेक्ट)। कोई आकर के वहाँ पैसा लगाए तो क्या करेगा, बिहार की औसत आय सालाना ₹54,000 है (सॉर्स: रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया)। ये आय है तो कोई वहाँ बेचने कुछ आएगा तो ख़रीदेगा कौन? कोई वहाँ चला भी जाए, कि “मैं यहाँ पर आया हूँ।” ख़रीदेगा कौन? कोई वहाँ मैन्युफैक्चरिंग लगाए या सर्विसेज़ लगाए, मैन्युफैक्चरिंग को डिसिप्लिन्ड मैनपावर चाहिए, वो डिसिप्लिन कम-से-कम बिहार के अंदर नहीं है, भले ही वही व्यक्ति बाहर जाकर बहुत डिसिप्लिन्ड हो जाता हो। कोई सर्विसेज़ के लिए आए, तो उसको भीतर एजुकेटेड मैनपावर चाहिए होता है, वो कहाँ से मिलेगा? देश की औसत आय है इस वक़्त ₹1,72,000 सालाना, बिहार की एक-तिहाई है, एक-तिहाई से भी कम। और ये तब है जब भारत दुनिया के सबसे विपन्न देशों में है अभी भी।
हम बड़ी मुश्किल से लोअर मिडिल इनकम कंट्री बने हैं, एक राष्ट्र के तौर पर भी, अब हम लोअर इनकम से लोअर मिडिल इनकम में आए हैं। और हमारा ही एक राज्य है जिसकी औसत आय देश की औसत आय से भी एक-तिहाई है, एक-तिहाई से भी कम है। तो सोचो कि बिहार अगर अपने आप में एक देश होता, तो वो देश दुनिया में आय के तल पर कहाँ खड़ा होता? सबसे नीचे। हम जिसको सहारन अफ़्रीका कहते हैं, जिसको हम विपन्नता की ग़रीबी की कसौटी के रूप में सामने रखते हैं, शायद उससे भी नीचे। इसकी बात हो रही है क्या?
अच्छा, एक चीज़ होती है बेस इफ़ेक्ट जहाँ पर जब डिनॉमिनेटर छोटा होता है, तो फ्रैक्शन बड़ा हो जाता है। फ्रैक्शन के तेज़ी से बढ़ने की संभावना भी बढ़ जाती है। तो आमतौर पर जहाँ आय कम होती है, वहाँ आय की वृद्धि दर ज़्यादा हो जाती है। ठीक वैसे जैसे भारत के लिए आसान रहता है कि 6%–7, 7.5% की भी जीडीपी ग्रोथ रेट निकाल लेता है। यूरोप में नहीं आएगी, जापान में नहीं आएगी, अमेरिका में नहीं आएगी, क्यों नहीं आएगी? क्योंकि उनका जो डिनॉमिनेटर बड़ा है। तो बिहार का डिनॉमिनेटर तो बहुत छोटा है न! लेकिन उसके बाद भी, चाहे साक्षरता की वृद्धि हो, चाहे जितने भी ह्यूमन डेवलपमेंट पैरामीटर्स होते हैं, जो एचडीआई (ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स) में आते हैं, जीईएम (जेंडर एम्पावरमेंट मेज़र) में आते हैं, उनमें बिहार तेज़ी से बढ़ता नहीं दिखाई दे रहा। वहाँ यही एक बड़ी सांत्वना की बात हो जाती है कि प्रतिशत वृद्धि उतनी ही हो गई जितनी कि शेष भारत की है। भाई, शेष भारत जितनी आपने प्रतिशत वृद्धि निकाल भी ली, तो ये भी तो देखो आप कहाँ खड़े हो।
एक दो फीट का आदमी है, ठीक? एक दस फीट का आदमी है। दोनों अगर दस-दस प्रतिशत वृद्धि लाते हैं अपने कद में, तो दो फीट वाले को कितनी मिली? 0.2 फीट। और दस फीट वाले को कितनी मिली? 1 फीट। तो दस वाला कितने का हो गया? 11 का। और दो वाला कितने का हो गया? 2.2 का। पहले दोनों में कितना अंतर था? 8 का। अब अंतर कितने का हो गया? 8.8 का। तो प्रतिशत वृद्धि अगर शेष देश के बराबर भी ले आ ली बिहार ने, तो भी काफ़ी नहीं है। एक छोटे बेस पर तो बहुत तेज़ी से बढ़ना चाहिए, एक्सप्लोसिव ग्रोथ होनी चाहिए। वो एक्सप्लोसिव ग्रोथ का तो कहीं दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं है, और चुनाव से जैसे संकेत आ रहे हैं, ऐसा लगता भी नहीं कि ये सरकार हो, कोई और सरकार हो, आने वाली सरकार हो, जब तक मतदाता ही एक भीतरी अँधेरे में डूबा हुआ है, वो अपना नेता भी अपने हिसाब से ही चुनेगा। समझ में आ रही है बात ये?
देश का सबसे ज़्यादा आबादी के हिसाब से घना राज्य है, बिहार। सबसे ज़्यादा। और ये तब जब भारत अपने आप में एक हाई-डेंसिटी पॉप्युलेशन का देश है। बाक़ी राज्यों की तुलना में भी बिहार में जो पॉप्युलेशन डेंसिटी है, वो सबसे ज़्यादा है। और ये कैसी पॉप्युलेशन है जो ठीक से पढ़ी-लिखी नहीं है, जिसको अवसर नहीं मिल रहे हैं, न शिक्षा के, न रोज़गार के। उत्तरी बिहार जो है पूरा, वो रहता है बाढ़ के रहमोकरम पर। और बाढ़ की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि 70% आबादी क्या कर रही है? खेती कर रही है। और ये 70% आबादी जो खेती कर रही है, ये जो स्टेट का जीडीपी है बिहार का, उसका 20% कॉन्ट्रिब्यूट कर रही है। तो सोचो, उस किसान को हाथ में कितना मिलता होगा। अभी हमने बात की भारत की औसत आय ₹1,72,000। हमने बिहार की औसत आय की बात की ₹54,000। अब बिहार में भी जो किसान है, अब उसकी बात कर लो, तो आएगा ₹10,000–₹20,000, या होगा ₹25,000–₹30,000, ऐसा ही कुछ। ये समझते हो कितना होता है महीने का? कितना हो गया महीने का? हो गया ₹2,000, ₹4,000, ₹5,000। बिहार की ज़्यादातर आबादी इतनी आमदनी पर चल रही है।
ऐसी स्थिति में सोचो कि अगर जाग्रत होती जनता, तो चुनाव में क्या होते मुद्दे और क्या चल रहे हैं मुद्दे! “इस पार्टी ने इसको अंदर कर लिया, उसको बाहर कर लिया। फलाने सज्जन अब यहाँ लड़ेंगे चुनाव कि नहीं लड़ेंगे,” तमाशा! बस पावर डायनैमिक्स, किसके हाथ में सत्ता जाएगी, अब बादशाह कौन बनेगा, कुल मिलाकर इसका यही खेल चल रहा है। बादशाह कोई बने, जनता तो भिखारी की भिखारी ही रह जानी है। और ये कितनी त्रासदी की, कितने दुख की बात है! समझ में आ रही है बात ये?
42% बिहारी बच्चे स्टन्टेड हैं (सॉर्स: नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे 2019-21)। 42%! उनके कुपोषण ने उनको स्टन्ट कर दिया है। उनका शरीर, उनका मस्तिष्क विकसित नहीं हो पाएगा ठीक से, वो ज़िंदगी में क्या कोई बेचारे ढंग का काम कर पाएँगे। कोई नेता दिख रहा है आपको ये बातें करते हुए? ये एक ह्यूमैनिटेरियन क्राइसिस है हमारा राज्य बिहार। कोई मिल रहा है जो ये बातें कर रहा हो? इन्फ़ैण्ट मॉर्टैलिटी रेट देश में सबसे ज़्यादा है, मैटर्नल मॉर्टैलिटी रेट सबसे ज़्यादा है। जनसंख्या वृद्धि दर बहुत ज़्यादा है (सोर्स: data.gov .in)। जहाँ कहीं भी बच्चे पैदा होने के साथ मरते हैं, बिहार में है हज़ार बच्चे पैदा होते हैं, सैंतीश तो मर ही जाते हैं, पैदा होने की प्रक्रिया में ही।
जहाँ कहीं भी ज़्यादा बच्चे मरते हैं जन्म लेते वक़्त, वहाँ पर जो फ़र्टिलिटी रेट होता है, वो ज़्यादा पाया जाता है। क्योंकि महिलाएँ शिक्षित नहीं हैं। जब महिलाएँ शिक्षित नहीं होतीं, तो प्रजनन पर उनका अधिकार नहीं होता। महिलाएँ शिक्षित नहीं हैं और ये भरोसा नहीं है कि बच्चा पैदा हुआ है तो जिएगा ही। महिलाएँ शिक्षित नहीं हैं, रोज़गार नहीं है। अच्छा, एफ़एलपीआर (लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन रेट) तो आप जानते ही हो न? कई बार मैंने आपसे बात की है, क्या होता है लेबर पार्टिसिपेशन रेट महिलाओं का? कितना होगा बिहार में? बताओ, आप बिहार से हो न, आप फ़ीमेल भी हो, आप बताओ! अरे वाह ये होता है देखो बिहार से बाहर आने पर, भूल ही जाते हो कि अपनी ज़मीन की दशा क्या है। 25%। अब प्रजनन दर ज़्यादा है, ये बात कोई चकित करने वाली है?
उनके हाथ में कुछ नहीं है, न शिक्षित हैं, संस्कृति ने भी उन्हें ख़ूब बाँध रखा है। न उनके हाथ में पैसा है, पैसा तो उनके घर में ही नहीं है। जब घर में ही नहीं पैसा है, तो महिला के हाथ में फिर कितना होगा। स्वास्थ्य व्यवस्थाएँ ख़राब हैं। ऐसा नहीं कि काम नहीं कर रहीं, काम ख़ूब कर रही हैं, अनऑर्गनाइज़्ड तरीके से कर रही हैं। घर में काम कर रही हैं, खेत में हाथ बटा रही हैं, और वो ऐसा काम कर रही हैं जिसका उनको कोई श्रेय भी नहीं मिलना है, जिससे उनकी सामर्थ्य भी नहीं बढ़नी है। ज़्यादातर आबादी खेती कर रही है, तो एग्रो-प्रोसेसिंग इंडस्ट्रीज़ लग सकती हैं। पर फिर वो लॉ-एंड-ऑर्डर माँगती हैं, वो कनेक्टिविटी माँगती हैं, वो कोल्ड स्टोरेज माँगती हैं, वो वेयरहाउस माँगती हैं। ये बात होनी चाहिए न, कि ये सब हम गाँव-गाँव में बनवाएँगे। कोई दिख रहा है ये सब बातें करता हुआ? दिख रहा है?
जो फसलें पैदा की जा रही हैं, वो वहाँ पैदा होनी ही नहीं चाहिए। पर किसानों को इतनी शिक्षा नहीं है कि वो जान पाएँ कि सही फसल कौन-सी है, जिसके उनको सही दाम मिल सकते हैं, जिसकी भारत के ही बाज़ारों में नहीं, दुनिया के बाज़ारों में माँग है, जो निर्यात भी हो सकता है। ये बताने वाला कोई नहीं है। और अगर किसी को पता चल भी जाए, तो वो कहाँ से लाए फिर टेक्नॉलॉजी? और कहाँ से लाए सही मंडियाँ, सही दाम, ट्रांसपोर्ट, लॉजिस्टिक्स, स्टोरेज, कहाँ से लाए? ये बातें होनी चाहिए। बिहार की कमज़ोरी को ही बिहार की मज़बूती बनाया जा सकता है। और जो बात बिहार पर लागू होती है न, वही बात कुछ बंगाल पर और पूर्वी उत्तर प्रदेश पर भी लागू होती है। हालात लगभग एक जैसे हैं इन जगहों में, पूरे बंगाल में नहीं, बंगाल के भी कुछ जिलों में और पूरे उत्तर प्रदेश इधर। वो हालात लगभग एक जैसे हैं।
बिहार में अगर सही प्रयोग हो सके, तो वो बात भारत में भी और कई जगहों पर लागू हो सकती है। बहुत तेज़ी के साथ, मात्र इन राज्यों का ही नहीं, पूरे देश का स्तर उठ सकता है। पर कोई नेता है जो ये बातें कर रहा हो? और स्तर उठाना आसान है। मैंने बात कही थी छोटे बेस की, जहाँ बेस छोटा होता है, वहाँ परसेंटेज ग्रोथ तेज़ी से हो सकती है। हमें चीन की 8–9% की जीडीपी ग्रोथ ही बहुत ज़्यादा लगती है। बिना पर्यावरण को बर्बाद किए, भारत 9–10% भी आसानी से हासिल कर सकता था, पर वैसे नहीं जैसे हम हैं। हम जैसे हैं, हमारे लिए तो 6–7% ही बहुत है, और 6–7% कुछ नहीं है, मैं कह रहा हूँ, पर्यावरण को हानि किए बिना 10%। चीन ने बीच-बीच में 10–12% भी हासिल की है। हम 14% भी हासिल कर सकते हैं, क्योंकि हम बहुत ग़रीब हैं। ग़रीब के लिए 14% बढ़ाना कुछ नहीं है; अमीर के लिए बड़ी बात होती है।
मैं कहने का ख़तरा नहीं उठाना चाहता, लेकिन हमारी जो हालत है, हम 15–17% भी हासिल कर लें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पर क्या करा हमने? एक के बाद एक आँकड़े हैं। मैं बोलता जाऊँगा, आँकड़े याद आते जाएँगे, और जितने याद आएँगे आप…। किसी और युग में जी रहा है हमारा बिहार अभी। बिहार को मिलाकर पूरे देश की जो बिजली की खपत है, औसतन, वो 1200 किलोवॉट-आवर की है। और बिजली की खपत ज़रूरी होती है, मैं ये नहीं कह रहा कि भोग के लिए, कंजम्प्शन के लिए, ज़िंदगी के साधारण कामों के लिए बिजली चाहिए न। बिहार में है 400 किलोवॉट-आवर। तो सोचो, वहाँ जी कैसे रहे हैं? और इतनी कम इसलिए नहीं होती सिर्फ़ कि आप ग़रीब हो, इतनी कम इसलिए भी होती है कि बिजली आती ही नहीं। ग़रीबी भी कारण है, आपूर्ति भी कारण है।
शिक्षा नहीं, बिजली नहीं, सड़क नहीं, खाना नहीं, दवाई नहीं। दवाई से याद आया, हज़ार लोगों पर 0.3 डॉक्टर हैं बिहार में (सॉर्स: द टाइम्स ऑफ इंडिया)। मानकों के अनुसार हज़ार पर एक होना चाहिए, 70% की कमी है। और ये 0.3 तो शहरों को मिलाकर है। आप बड़े शहर, पटना वग़ैरह हटा दीजिए, तो गाँवों में ये बचेगा 0.2। किसी और युग में जी रहा है, मैंने कहा हमारा बिहार।
सारा चुनाव होना चाहिए था बिहार को उस युग से निकालकर इस युग में लाने का, लेकिन चुनाव लड़ा जा रहा है उसी युग के मुद्दों पर। तो फिर बिहार रहेगा भी उसी युग में।
प्रश्नकर्ता: वहाँ की जो युवा पीढ़ी है, अगर उससे बात करते हैं, तो वो सिर्फ़ एक ही बात कहते हैं, कि जो रोज़गार देने की बात करेगा, हम तो बस उसे वोट करेंगे।
आचार्य प्रशांत: कोई रोज़गार कैसे दे लेगा? सरकार रोज़गार कैसे दे लेगी? सरकार तो राजस्व पर चलती है, उसी से तनख़्वाह देगी। सरकार को भी जो रेवेन्यू आता है टैक्स वग़ैरह से, उसी से तो देगी तनख़्वाह। और टैक्स कौन देता है? सरकार नौकरी दे ही नहीं सकती। कोई बोले, “हम इतनी नौकरियाँ देने वाले हैं,” तो उससे पूछो, कैसे, कहाँ से लाओगे? वो कहेंगे, “नहीं, फिर हम केंद्र से पैसा लेंगे, उससे देंगे।” भाई, केंद्र की भी सीमा है पैसा देने की, और नियम बँधे हुए हैं, क्योंकि केंद्र का पैसा किसी एक राज्य को अनुपात से अधिक नहीं जा सकता। फ़ाइनेंस कमीशन होता है, जो तय करता है कि जो सेंट्रल टैक्सेज़ की रीसिप्ट हैं, वो सब राज्यों में किस-किस आधार पर बटेंगी। तो आप इमरजेंसी वग़ैरह दिखाकर या स्पेशल स्टेटस लेकर थोड़ा-सा ज़्यादा पैसा ले सकते हो, पर बहुत ज़्यादा तो नहीं ले लोगे। जब ले लोगे नहीं, तो रोज़गार कैसे दोगे? सरकार रोज़गार कैसे दे लेगी?
लेकिन मानसिकता वही है, कोई आकर हमारे लिए कुछ कर दे। कोई आपके लिए कुछ नहीं कर सकता, आपको अपने लिए ही करना पड़ेगा। आप अगर रुके हो बिहार में, तो ज़िम्मेदारी आपके ऊपर है, ज़िंदगी बेहतर बनाने की भी और वोट सही डालने की भी। लेकिन आप नहीं गिन रहे कि ग़रीब कितने हैं, अशिक्षित कितने हैं। आप क्राइम नहीं गिन रहे, आप इंडस्ट्री नहीं गिन रहे, आप बिजली नहीं गिन रहे, आप इन्फ़्रास्ट्रक्चर नहीं गिन रहे, आप रोड्स नहीं गिन रहे, आप जाति गिन रहे हो। और अख़बारों में रोज़ छपता है, इस पार्टी ने इतने टिकट दिए, इतने टिकट इस जाति को हैं, इतने इस जाति को, इतने इस जाति को। और ये एरिया था, ये रिज़र्व्ड कांस्टीट्यूएंसी थी, पर यहाँ जनरल से बंदा खड़ा कर दिया है। ये बात किसी भी महत्त्व की होनी क्यों चाहिए? जिस बात का महत्त्व है, वो बात करो न! वो बच्चा मर रहा है वहाँ पर, वो औरत मर रही है वहाँ पर, वो युवा बेरोज़गार खड़ा है वहाँ पर!
और युवा अपने लिए कुछ-न-कुछ कर ले जाएगा, उसको साधारण व्यवस्था तो दे दो। उसको पढ़ने के, कुछ कर पाने के अवसर तो दे दो, कुछ-न-कुछ वो कर ले जाएगा। नौकरी भी उस बेचारे को इसलिए माँगनी पड़ती है, वो कहता है, और कुछ तो हो ही नहीं सकता न। तो फिर वो खड़ा हो जाता है कि नौकरी दो, नौकरी दो। और नौकरी के नाम पर उसे झाँसा ही दिया जा सकता है, क्योंकि नौकरी दे पाने की सामर्थ्य सरकार की है नहीं, किसी सरकार की नहीं है। और अगर सरकार ने इतनी नौकरियाँ दे दीं तो सरकार का बजट टूट जाएगा।
कितने भाई हैं यहाँ, बिहार से भाई-बहन सब? हैं कुछ संख्या में। आप ही की बात हो रही है, आप में से जो पढ़े-लिखे हैं, वो तो बहुत सारे वोट भी नहीं डालेंगे, है न? जो जानते-समझते हैं, वो किसी से कोई बात नहीं करेंगे। न किसी को सही बात समझाएँगे, न सही मुद्दे उठाएँगे। क्यों?
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आपने थोड़ी देर पहले कहा कि बंगाल की स्थिति भी वही है, मैं बंगाल से ही हूँ। तो हम सब जानते हैं कि कई दिनों से क्या चल रहा है। कई मेडिकल कॉलेजेज़ में रेप हो रहा है, जिस पर बहुत अनफॉर्चूनेट स्टेटमेंट्स आ रहे हैं पॉलिटिकल। पॉलिटिक्स चल रही है। पढ़ाई के नाम पर तो ऐसी स्थिति हो गई है कि जब तक जितनी छुट्टियाँ दे दो, कुछ भी हो छुट्टी दे दो, स्कूल-कॉलेज सब बंद कर दो। और यहाँ तक कि प्राइवेट स्कूल-कॉलेज पर भी सर्कुलर आ जाता है कि आपको भी बंद कर देना है, कभी गर्मी के नाम पर, कभी बारिश के नाम पर, कभी और किसी के नाम पर।
तो मेरे मन में एक प्रश्न बार-बार ये आता है कि आपने अभी जो इतने विस्तारित तरीके से बताया कि किन मुद्दों पर चुनाव लड़ना चाहिए, जो हम कोई प्रश्न करते ही नहीं। तो कभी-कभी लगता है कि क्या जो सही दिशा में चलते हैं, जो समझते हैं, जिनके मन में सचमुच कुछ करुणा है, उस तरह के आदमी क्यों नहीं आते हैं? चुनाव में वो क्यों नहीं खड़े होते हैं या वो क्यों नहीं पावर में आते हैं? ये एक पैराडॉक्स है। मुझे भी समझ में आता है कि मैं जानता हूँ, मैं पढ़ा हूँ, जिसमें ये सुना है हमने कि पावर करप्ट्स और एब्सॉल्यूट पावर करप्ट्स एब्सॉल्यूटली।
तो ये अद्भुत, एक विचित्र परिस्थिति है कि ताक़त मिल गई तो ताक़त का गलत प्रयोग करूँगा मैं। मैं उससे शोषण करूँगा, मैं उससे दुरनीति करूँगा, मैं उसमें पक्षपात करूँगा, लेकिन ताक़त नहीं है तो मैं ऐसे चाहते हुए भी क्या कर सकता हूँ? जैसे आपने इतना कुछ कहा कि एक बच्चा मर रहा है, या पढ़ाई-लिखाई एकदम बंद है, या मिनिमम हाइजीन भी नहीं है, इन्फ़्रास्ट्रक्चर नहीं है। तो सही लोग अगर नहीं आएँ, तो आदमी भी तो किसी को अगर वोट दे, तो वो किसको वोट दे? यहाँ पर तो मुश्किल ये है कि हम लोग एक ऐसी जगह पहुँच गए हैं जहाँ कोई ऑप्शन्स ही नहीं हैं, ये सड़ा है, वो गला है। मैं किसको दूँ वोट? ऐसी स्थिति हो गई है।
आचार्य प्रशांत: बढ़िया। इसमें आपने जो पहली ही बात कही, जो बंगाल में रेप वाली वो मैं चाहूँगा कि अभी जब हम ब्रेक लेंगे उसके बाद एक अलग प्रश्न के रूप में ही सामने आए। ये महत्त्वपूर्ण मुद्दा है और एक नहीं, ऐसी कई अभी घटनाएँ हुई हैं। तो उसको अलग से ले लेंगे।
आपकी जो दूसरी बात थी, उसको मैं अभी ले लेता हूँ। देखिए, समस्या तब तक रहेगी जब तक एक आदमी कहेगा कि “मैं ही समझदार हूँ और मैं सामने आऊँगा चीज़ें बदलने के लिए।” वो कह रहा है, “मैं सामने आऊँगा स्थितियाँ बदलने के लिए।” पर ये कोई मशीन नहीं है, जिसको एक आदमी बना सके या एक आदमी ठीक कर सके। ये एक सामाजिक व्यवस्था है, हम जिसको ठीक करने की बात कर रहे हैं। और सामाजिक व्यवस्था का मतलब होता है, बहुत सारे लोग। चीज़ें नहीं ठीक करनी हैं, इंसान को ठीक करना है।
अकेला व्यक्ति आगे आएगा तो कुछ नहीं पाएगा। आपने बिल्कुल ठीक कहा, वो सामने आएगा तो उसे वोट देने वाला कौन है? वो अगर कोई ढंग की, सेंसिबल बात करेगा तो शायद उसको वोट ही न मिले। और भारत में चुनाव लड़ने में एंट्री बैरियर बहुत बड़ा होता है, बहुत-बहुत पैसा चाहिए होता है, सिर्फ़ एक साधारण असेंबली सीट लड़ने के लिए भी। फिर आप पूरी पार्टी बनाएँ, सिर्फ़ एक राज्य में उसमें आप चुनाव लड़ें, उसमें तो किस स्तर का पैसा चाहिए। और आप कहें कि नहीं, मुझे राष्ट्रीय पार्टी बनानी है, तो उसमें तो हज़ारों करोड़ का खेल हो जाता है। तो बहुत बड़ा एंट्री बैरियर है। एक आदमी कहे कि “मैं आगे आकर के चीज़ें बदलूँगा” तो वो चीज़ें नहीं बदल सकता, पहली बात तो उसको उतनी फंडिंग नहीं मिलने वाली। और दूसरी बात, वो आकर के खड़ा भी हो गया तो लोग तो लोग हैं न। लोग उसको वोट नहीं देंगे, उसको लोग ही धक्के मार के हटा देंगे। कहेंगे, “तुम कैसी बातें कर रहे हो? स्वरोज़गार की बात मत करो, बताओ कि मुफ़्त में क्या दे सकते हो हमें, और बताओ कि सरकारी नौकरी कैसे मिल सकती है हमको।” और बहुत सारी बातें हैं, “मत करो शिक्षा की बात, मत करो स्वास्थ्य की बात, सड़कों की बात, बिजली की बात मत करो।” लोग ही उसको भगा देंगे।
तो तरीका ये है कि चीज़ें न बदली जाएँ, इंसान बदला जाए, एक आदमी अपने दम पर आकर सामने कुछ करना चाहेगा तो कुछ नहीं कर पाएगा। जिन्हें बिहार को बदलना है, उन्हें बिहारी को बदलना पड़ेगा। चीज़ें नहीं बदलनी होंगी, इंसान को बदलना पड़ेगा। जब तक बिहारी वैसा ही है, जैसा वो रहेगा, तो कुछ नहीं बदल सकता, कुछ भी नहीं बदलेगा। सच पूछिए तो नेता थोड़े ही दोषी हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था है, वो व्यवस्था भी लोगों के समर्थन से ही खड़ी हुई है, और नेताओं को भी लोगों ने ही चुना उस व्यवस्था में। तो पूरा दोष हम नेताओं पर भी कैसे डाल दें?
ज्ञान का पालना रहा है बिहार, और ये समस्या हो गई बात। इतने बौद्ध विहार बने कि राज्य का ही नाम पड़ गया ‘बिहार।’ बुद्ध की बात, महावीर की बात पूरे तरीके से ज्ञान की बात थी, उसमें किसी तरह के कर्मकाण्ड, क्रियाओं या भावना-भावुकता आदि के लिए कोई जगह नहीं थी। वहाँ तो बात सीधी-सीधी समझदारी की थी, समझो, और वो सारी बात हुई बिहार में। और ये बात समस्या की हो गई। हम शायद ये सोचने लगे हैं कि हम समझदार हैं। हमें दिख रहा हो कि हमारी हर तरीके से दुर्दशा है, पर हमें ये भाव बहुत है कि हम समझदार हैं। इसमें बंगाल आता है आपका, इसमें बिहार आता है, और इसमें मेरा पूर्वी उत्तर प्रदेश आता है, जिसमें बनारस भी शामिल है।
“भैया, हमसे बात मत करना, हमारे पास और कुछ हो न हो, बकवाद बहुत है।” और इसके लिए जो भी सब स्थानीय शब्द होते हैं, वो आप जानते ही हैं, “भैया, इसमें हमसे बात मत करना हम जानते बहुत हैं।” जानने में कोई बात नहीं है। बिहार का पान वाला भी ब्रह्मज्ञान दे देगा तुमको, और बनारस का हो तो फिर तो पूछो ही मत। आप कैसे हो, वो आपकी दुर्दशा से सिद्ध नहीं हो रहा क्या? और जब तक आप मानोगे नहीं कि आप बहुत गलत आदर्शों को, मान्यताओं को, संस्कारों को मन में लेकर चल रहे हो, तब तक कोई बहुत अच्छा नेता आपके बीच उठेगा कैसे? नेता को भी उठने के लिए जनता की ज़मीन चाहिए होती है, अगर मिट्टी ही ख़राब हो गई हो, तो इस पर कोई बहुत अच्छा नेता खड़ा भी कैसे होगा? बोलो। और मान्यता जब ज्ञान बन जाती है, परंपरा जब समझ का मुखौटा पहन लेती है, तब यही सब होता है।
हम ख़ूब जानते हैं, हमें सब पता है। हमारे लिए धर्म का मतलब होता है जाति, हम समझदार लोग हैं भाई। और कोई हमसे ये बात करेगा, तो हम उसको ख़ूब सुना देंगे। बीच में एक-आध श्लोक भी सुना देंगे, बिना ये जाने कि श्लोक आ कहाँ से रहा है, बिना ये जाने कि किताब लिखी कब गई थी, बिना ये जाने कि पूरे धार्मिक साहित्य में, धारा में इस किताब का महत्त्व कितना है। एक श्लोक सुना के हम कहेंगे, हम बड़े ज्ञानी आदमी हैं, हमें कुछ मत बताना। जितने भी ऊटपटाँग काम होंगे, हम सब कर जाएँगे, लेकिन सबको जायज़ ठहराने के लिए हमारे पास कोई कुतर्क ज़रूर होगा। क्यों? क्योंकि हमारा और कुछ चलता हो न चलता हो, ज़बान ख़ूब चलती है। कुतर्क पूरे होते हैं हमारे पास, ऐसा है, वैसा है।
सत्ता को हम सबसे बड़ी बात मानते हैं, तो सत्ता जिसके भी पास है, हमारे लिए वही बिल्कुल भगवान हो जाता है। चाटुकारिता में हमारा कोई जवाब ही नहीं, और इस बात को भी हम लज्जास्पद नहीं मानते, ये बात हमारे लिए गौरव की है कि हमने जाकर के फिर ऐसे बोला और बिल्कुल हमने बात सँभाल ली और पटा लिया, और देखो सारा तुम्हारा काम करा दिया। और इसको हम कहने लग जाएँ कि यही हमारी ख़ूबी है, यही हमारी ख़ासियत है, यही हमारी संस्कृति है, हमारा संस्कार है, तो उसके बाद हमें कौन आएगा बचाने? हम कहें कि ज़िंदगी में ऊँचे उठने के लिए शिक्षा की थोड़ी ज़रूरत है, ज़िंदगी में ऊँचे उठने के लिए तो सत्ता की ज़रूरत है। तो हम बस फिर सत्ता के चाटुकार बनेंगे और क्या करेंगे?
हमें एक ज़मीनी क्रांति चाहिए। कोई भी नेता जो कहे कि इन्हीं लोगों के सामने जाकर के मैं इन्हें अच्छी-अच्छी बातें बता कर इनसे वोट ले लूँगा, बहुत ग़लतफ़हमी में है वो नेता।
बिहार को, बंगाल को, उत्तर प्रदेश को, नेता से बहुत-बहुत पहले शिक्षक चाहिए। शिक्षक आ गया तो नेता अपने आप पैदा हो जाएँगे — सही नेता। और शिक्षक नहीं मिला है, मिट्टी यही रह गई, तो इस मिट्टी पर ‘विष-वृक्ष’ ही खड़े होंगे।
हमें मिट्टी की सफ़ाई करनी है और ज्ञान की मिट्टी हुआ करती थी कभी ये। बहुत ज़्यादा उम्मीदें कर लेते हो आप लोग नेता से। श्रीकृष्ण को नेता बोलोगे क्या आप, गीता के छात्र हो? हम गीता समझा रहे हैं, हज़ार नेता उनके पीछे पैदा हो जाएँगे और वो सब क़ाबिल निकलेंगे। जिस दिन आम बिहारी जानने लग गया कि वो गलत चीज़ों को महत्त्व दे रहा है ज़िंदगी में, उस दिन सारे गलत नेता भी गायब हो जाएँगे।
हमें एक नई मूल्य व्यवस्था चाहिए, नई और सही। और ये बात सिर्फ़ यूपी-बिहार पर नहीं, पूरे देश पर लागू होती है। बाक़ी देश ठीक हैं, यूपी-बिहार की अपेक्षा ज़्यादा विकसित नज़र आते हैं। पर जब दूसरे देशों को देखो, यहाँ तक कि उनको भी जो हमारे ही साथ आज़ाद हुए, तो हम कहीं पर भी नहीं हैं। क्योंकि बाहरी जो हाल हमारा होता है, उसके कारण भीतरी होते हैं। जेम्स एलन की है: "ऐज़ अ मैन थिंकथ, सो डथ ही बिकम।” आप बाहर से अगर किसी तरीके के हो तो उसकी वजह आपके भीतर कुछ है। आपकी सड़कें टूटी हुई हैं, तो आपके मन में कुछ टूटा हुआ है, कोई बात है। आपके घर में रोशनी नहीं है, तो इसकी वजह ये है कि आपके मन में रोशनी नहीं है, कोई बात है, भीतरी बात है। और बाहर रोशनी हो पाए, घर में वो बल्ब जल पाए, उससे पहले चाहिए होगा कि भीतर रोशनी हो पाए।
जिस राज्य की स्थिति ये है कि यहाँ 70% आबादी कृषि पर निर्भर है, उस राज्य में इरीगेशन जितना होना चाहिए, उसका तिहाई भी नहीं है। मानसून-बाढ़, बाहर अगर बाढ़ है, बाहर अगर खेत ख़राब हो रहे हैं, फसलें ख़राब हो रही हैं, तो उसकी वजह भीतरी है। युवा अगर बेकार है, बेरोज़गार है, तो उसकी वजह भी भीतरी है, बिहार को ज्ञान की ज़रूरत है सचमुच, ये सुनने में चाहे जैसा लगे। इसी बात को आप किसी आम बिहारी युवक से कहेंगे कि बिहार को सबसे ज़्यादा ज्ञान की ज़रूरत है, तो वो बहुत हँसेगा आपके ऊपर। हँसेगा भी और हो सकता है कि उग्र हो जाए, कि बहुत ज्ञान वग़ैरह मत बखारो। कुछ रुपया-पैसा हो, कोई नौकरी हो या कुछ और धंधा-पानी हो तो बताओ। कोई जगह अगर रसातल में डूब रही है, तो उसके पीछे कुछ वजहें होती हैं, और वो वजह आंतरिक होती हैं।
हमें ये भूलना नहीं चाहिए कि यूरोप में समृद्धि बाद में आई थी, विचार पहले आया था, नहीं तो पंद्रहवीं–सोलहवीं शताब्दी तक भी उनकी हालत बहुत ख़राब थी। उसके बाद वहाँ वैचारिक क्रांति शुरू होती है, उस वैचारिक क्रांति से आज आप वहाँ समृद्धि देखते हो। हम चाहते हैं कि बाहरी समृद्धि आ जाए, बाहर हाल बेहतर हो जाए, बिना विचार को बदले। ऐसा नहीं हो पाएगा क्योंकि दुनिया में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ।
प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। मेरा सवाल बिहार के संदर्भ में ही है। बिहार में, जैसा कि अभी आपने भी बताया कि बौद्ध धर्म वहीं से निकला, महावीर जी भी वहाँ से हैं, और वहाँ नालंदा भी एक केंद्र रहा। तो ज्ञान का एक स्त्रोत तो रहा बिहार, उसके बावजूद भी बिहार की ऐसी हालत है। और इसी को थोड़ा सा और अगर मैं एक्स्ट्रापोलेट करूँ तो, भारत भी एक ऐसा देश रहा जहाँ से ऊँचे से ऊँचा ज्ञान और ऊँचे से ऊँचा दर्शन निकला। और भारत भी विश्व के संदर्भ में देखा जाए तो भारत की दुर्दशा हम देख सकते हैं, क्या है। तो ये क्या कुछ कोइंसिडेंस है कि जहाँ से इतना ऊँचा ज्ञान निकल रहा है, उसी जगह की ऐसी दुर्दशा ऐसी क्यों हो जा रही है? इसका क्या कारण हो सकता है?
आचार्य प्रशांत: इसका अर्थ ये है कि जहाँ से ज्ञान उठता है, वहाँ आने वाली पीढ़ियाँ अपने आप को ज्ञानी मानना शुरू कर देती हैं। वो सोचती हैं कि जिन लोगों ने जाना, उन्होंने जो बातें बताईं, उन बातों का नाम ज्ञान है। जबकि ज्ञान होता है, भीतर की बातों को भुलाना। लेकिन जिस भी जगह पर ज्ञानोदय होगा, वहाँ की आने वाली पीढ़ियाँ ख़तरे में भी होंगी और भाग्यशाली भी कही जा सकती हैं। भाग्यशाली इसलिए होंगी क्योंकि उन्हें वो सूत्र उपलब्ध होंगे जिनसे मान्यताएँ, धारणाएँ काटी जा सकती हैं। और दुर्भाग्य उनका ये होगा कि वो उन सूत्रों को ही ज्ञान मानना शुरू कर देंगे।
ज्ञान आग होता है, ज्ञान आरी की तरह होता है। वो कुछ मिटाता है, कुछ जलाता है, कुछ काटता है। वो सकारात्मक नहीं होता, वो नकारात्मक होता है। उसका काम है काटना। आपको विरासत में आरी मिली है, आरी, इससे काटो। किसको काटना होता है? अपनी ही धारणाओं, अपनी मान्यताओं, अपनी परंपराओं को ही काटना होता है। पर आपने उस आरी का इस्तेमाल काटने की जगह नहीं किया। आपने उस आरी को ही कह दिया, यही ज्ञान है। आरी पर लिख दिया है ज्ञान, और उसको लेकर घूम रहे हैं कि ये आरी जो है न इसको ज्ञान बोलते हैं। आरी को ज्ञान नहीं बोलते, भीतर आरी चलाओ, उससे जो रक्तधारा बहती है, उसको ज्ञान बोलते हैं। ये गड़बड़ हो जाती है।
जहाँ भी ज्ञानोदय होगा, वहाँ आने वाली पीढ़ियाँ ख़तरे में होंगी, क्योंकि उन्हें एक आरी मिल जाएगी, उनको ये वहम मिल जाएगा कि जो कुछ किताबों में लिखा है, उसका ही नाम ज्ञान है। नहीं-नहीं-नहीं, किताब में जो लिखा है उसको पढ़ने का नाम ज्ञान नहीं है, उसको रटने का नाम ज्ञान नहीं है। उसकी व्याख्या करने का भी नाम ज्ञान नहीं है। किताब में जो लिखा है उसका उपयोग करके तुम्हारे भीतर जो कुछ है उसको काटने का नाम ज्ञान है। हम ख़ुद को काटते नहीं हैं। हम ज्ञान का इस्तेमाल करके ख़ुद को और सुरक्षित कर लेते हैं। हम ज्ञान का इस्तेमाल सीमेंट की तरह करते हैं। यहाँ पर कोई बहुत भद्दी, पिलपिली, कमज़ोर चीज़ रखी हुई है। ज्ञान का इस्तेमाल किया जाता है इसके चारों ओर सीमेंट का एक सुरक्षा-दुर्ग बनाने के लिए। हमसे भले वो लोग थे, जिनको ये सीमेंट उपलब्ध ही नहीं था, वो आगे निकल गए। उनके पास भी कमज़ोर, पिलपिली, भद्दी चीजें थीं, पर वे उन भद्दी चीज़ों के चारों ओर क्या नहीं बना पाए? ज्ञान का सुरक्षा-दुर्ग नहीं बना पाए, तो उनकी कमज़ोर चीज़ें गिर गईं। हमारी जितनी कमज़ोर चीज़ें थी, हमने उनके चारों ओर ज्ञान का घेरा बना दिया। तो हमारा ज्ञान काम आया, हमारी ही कमज़ोरी की रक्षा में, हमारी ही बर्बादी को बढ़ाने में।
उदाहरण के लिए, स्त्रियों के प्रति एक रुख होना चाहिए। हमने इसको ज्ञान से जोड़ दिया। हमने कहा, देखो, ये तो अध्यात्म की बात है न, ग्रंथों में लिखी हुई है। जातिवाद, हमने कहा, देखो, ये धर्म की बात है, ये ग्रंथों में लिखी हुई हैं। छल से भी सत्ता जीती जा सकती है। हमने कहा, देखो, ये बात तो धर्म की है, पुराणों में लिखी हुई है। जिनके पास, बल्कि, वो ज्ञान नहीं था, वो बेहतर निकले। उनकी कमज़ोरी कवच नहीं पहन पाई, उन्होंने अपनी कमज़ोरियाँ जल्दी हटा दी। हमारी कमज़ोरियाँ बड़ी अलंकृत हो चुकी हैं और बहुत सुरक्षित हो चुकी हैं। जितनी भी भद्दी बातें हैं, हमने उन्हें अपनी ज़िंदगी के केंद्र पर महिमामंडित कर रखा है। हम कहते हैं, ये असली चीज़ है ज़िंदगी की। देखो, ये ज़िंदगी का गौरव है। ये चीज़ नहीं जानी चाहिए, भले प्राण चला जाए। और हर वो चीज़ जिसके लिए तुम प्राण देने को तैयार हो, 99% संभावना है कि वो बहुत ही बेहूदी है, भद्दी है, व्यर्थ है। पर उसको नाम किसका दे दिया है? ज्ञान का। उसको मान लिया है कि तू पवित्र है। पवित्र है, क्योंकि ज्ञान तो होता ही पवित्र है।
श्रीकृष्ण कहते हैं गीता में, "न हि ज्ञानेन सदृशं।" तो पवित्र तो ज्ञान होता ही है। जिस चीज़ को आपने ज्ञान का सहारा दे दिया, आपने उस चीज़ को पवित्र घोषित कर दिया। अब आपने किसी बहुत घटिया चीज़ को ज्ञान के माध्यम से सही सिद्ध कर दिया है, तो घटिया चीज़ आपकी ज़िंदगी में बहुत गहराई तक बैठ जाएगी। और उसका प्रमाण फिर ये निकलेगा कि आपके चारों तरफ़ बस घटिया बर्बादी का मंजर होगा, और वो देखकर भी आपको होश नहीं आएगा। आप कहोगे, ये सब तो ठीक ही है, अब मैं क्या कर सकता हूँ? कोई और उत्तरदायी है, किसी और ने हम पर आक्रमण किया है। किसी और ने हमें बर्बाद किया, हम तो शोषित हैं बस।
इंसान माने चेतना। इंसान की दुनिया अगर ख़राब है, तो उसकी चेतना ख़राब है। इंसान अगर बाहरी सारी लड़ाइयाँ हार रहा है, तो मतलब भीतर वो कहीं-न-कहीं हारा हुआ है। इंसान अगर बाहरी स्थितियों के सामने कमज़ोर पड़ रहा है, तो मतलब वो भीतर कोई कमज़ोरी पाल कर बैठा है। शिक्षक चाहिए बिहार को, बिहार को जागृति चाहिए, नेता वग़ैरह से नहीं बनने वाली बात। ये नेता तो कुछ नहीं हैं, जनता ही नेता है। ये नेता जनता से भिन्न नहीं हैं, इनसे नहीं होगा कुछ। कभी नहीं हो सकता। बात बिहार की नहीं है, ये एक सार्वजनिक नियम है, ये दुनिया में हर जगह लागू होता है। जहाँ कहीं भी जनतंत्र है, वहाँ नेता जनता ही जैसा होता है, उन्नीस-बीस। और जैसे-जैसे जनता का स्तर गिरता है, वैसे-वैसे वो नेता भी अपने ही जैसा चुनती है।
प्रश्नकर्ता: सर, तो इससे मुझे दो चीज़ें समझ में आ रही हैं, कि ज्ञान का एक तो दुरुपयोग किया गया, जो उसका दुरुपयोग करना चाहते थे उन्होंने। दूसरा, जिन्हें ज्ञान मिला, वो भी एक तरीके से स्थूल से और ज़्यादा सूक्ष्म बॉन्डेजेज़ में फंस गए, जो आपने "जेम्स ऑफ द वर्ल्ड" में बात की थी कि "फ़्रॉम सब्टल टू सब्टल योर बॉन्डेजेज़।” क्या इसे उस तरीके से देखा जा सकता है? क्या जो सचमुच में ज्ञान के अनुयायी थे, उनको इस तरीके से देखा जा सकता है? और अगर ये बात सच है, तो क्या गीता कम्युनिटी ख़तरे में नहीं है?
आचार्य प्रशांत: देखिए, सदा जो रिश्ता होना चाहिए ज्ञान से, वो बहुत निजी होना चाहिए, बहुत-बहुत निजी। आपको अपनी ज़िंदगी की कसौटी पर वो बात दिखाई दे रही है, तभी वो आपके लिए सही है। क्योंकि मैंने कहा, ज्ञान नकारात्मक होता है, ज्ञान तो जब भी आएगा, आपकी ज़िंदगी की बात करेगा। और वहाँ कुछ गलत चल रहा है, आपको ये दिखना चाहिए फिर। बस यही आपको देखना है।
कोई भी बात बताई गई है। आज हमने गीता का सूत्र लिया, क्या आपको अपनी ज़िंदगी में दिखाई दे रहा है कि सूत्र क्या काटना चाह रहा है? अगर दिखाई दे रहा है, तो ज्ञान से आपका रिश्ता निजी हो गया, अब वो बात आपकी हो गई। अब उसमें मैं तो मध्यस्थ हूँ ही नहीं। मैं यहाँ तक कहूँगा कि वो बात अब श्रीकृष्ण की भी नहीं रही। वो बात अब आपकी दृष्टि, आपके दर्शन की हो गई। और अगर वो बात वहाँ नहीं हो पा रही है, तो फिर ज्ञान अब ख़तरनाक बनेगा। आप फिर क्या करोगे? कि आपकी ज़िंदगी में जो कचरा है, वो तो रखे रहोगे, और उस कचरे को वैध ठहराने के लिए जस्टिफाई करने के लिए श्लोक का दुरुपयोग कर लोगे। बात समझ में आ रही है?
हमने ज्ञान के स्वभाव को ही नहीं जाना समझा। हमने सोचा, ज्ञान कोई जानने वाली बात है। हमने सोचा, ज्ञान कोई ग्रहण करने वाली बात है, कोई संग्रह करने वाली बात है। फिर कह रहा हूँ, ज्ञान आरी है। आरी का कोई संग्रह करेगा क्या? जेब में रख के आरी कोई घूमेगा क्या? ज्ञान आग है। आरी तो फिर भी चलो, छोटी वाली डाल लो जेब में। आग कोई जेब में लेकर घूमेगा?
ज्ञान का काम होता है — आया, जलाया, गया। अब भीतर जो बैठा है, आप जलाने को राज़ी ही नहीं हो, तो ज्ञान क्या करेगा, बेचारा?
होगी बहुत भारी आग, आप उससे दूर बैठ के हाथ सेक रहे हो और मज़े आ गए आपके तो। कह रहे हो, बढ़िया, आग लगी हुई है। इसमें क्या करना है? रोटियाँ सेकनी हैं, हाथ सेकना है। वो आग रोटी सेकने की आग नहीं है, वो हाथ सेकने की आग नहीं है। वो कौन सी आग है? वो चिता वाली आग है, वो अहंकार को जलाने वाली आग है। वो आग ऐसे होती है, लपट है, लपलपा रही है। पर उसमें झोंकने का निर्णय तो स्वयं को लेना पड़ता है न।
होंगे बड़े विद्वान, ऋषि हैं, बुद्ध हैं, महात्मा, महावीर हैं, मुनि, आग दे सकते हैं, आपको ज़बरदस्ती उसमें डाल थोड़ी सकते हैं। और आग, ज्ञान सिर्फ़ एक काम कर सकता है, कि कुछ काटे। मैं ये पाँच सौ बार बोल चुका हूँ, फिर समझा रहा हूँ, ज्ञान कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो आप अपने खोपड़े में धर लोगे। कुछ आपने याद कर लिया, उसको ज्ञान नहीं कहते। कोई व्याख्या जान गए, आप उसको ज्ञान नहीं कहते। आप किसी चीज़ पर बात भी कर सकते हो, तो उसको भी ज्ञान नहीं कहते। भले ही आप बहुत अच्छे से कह लो, हो सकता है किसी को आप बिल्कुल समझा भी जाओ, तो भी उसको ज्ञान नहीं कहते। ज्ञान वास्तव में सिर्फ़ तब है, जब वो जला दे। तो इसीलिए आपका उससे बहुत निजी रिश्ता होना चाहिए। आप ये नहीं कह सकते, ये बात फलानी जगह लिखी हुई है, इसलिए ज्ञान है। अरे भाई, फलानी जगह लिखी होगी, उसने तुम्हारी ज़िंदगी में कुछ जलाया क्या? और उसने नहीं जलाया तो उसकी गलती नहीं है। बात ये है कि तुम उस आग में कूदे ही नहीं, तुमने उस आग को मौका ही नहीं दिया कि वो तुम्हें जला पाए।
आग ख़ुद थोड़ी आएगी तुम्हारे पीछे भागते हुए कि आऊँगी तो जलाऊँगी। और कोई तुम्हारे पीछे आए भी तो तुम बहुत कुछ कर सकते हो, ब्लॉक कर दो, डिलीट कर दो। कुछ भी कर सकते हो, मेल लिख दो, "मुझे अब कोई कॉल नहीं आनी चाहिए। मैं दो साल से गीता कम्युनिटी में थी, लेकिन अब मैंने ऐप डिलीट कर दी। मुझे कोई कॉल नहीं आनी चाहिए।”
अच्छा, ये तो आपने कर दिया, लेकिन आप अब यहाँ से बहुत बड़ा ख़तरा ले जा रही हो। जो बातें सुन ली थीं, क्या उनको भी डिलीट कर पाओगी? नहीं। उन बातों का अब आप क्या करने वाले हो? दुरुपयोग। ये हुआ है बिहार के साथ। बुद्ध से बातें ले लेना और बात है, और बुद्ध का आशिक़ हो जाना दूसरी बात है। बुद्ध को जेब में रख लेना एक बात है और बुद्ध को हृदय में बैठा लेना दूसरी बात है। आप लोगों को भी बात समझ में आ नहीं रही है। आप भी आते हो कि नहीं? सुन लो, देख लो, फिर अपने हिसाब से फैसला कर लेंगे। तुम सुन रहे हो तो जो सुन रहे हो, उसका दुरुपयोग ही करने जा रहे हो। ये वैसी सी बात है, कि बेटा जाकर पड़ोसी के घर से आग ले आना। उस आग को तुम मंगा रहे हो स्वार्थवश। पहले होता था, गाँव में होता था, आग मंगाई जाती थी पड़ोसियों से कई बार। वो आग इसलिए थोड़ी मंगाई जाती थी कि अपना घर जलाना है। वो आग तो मंगाई जाती थी कि अब, आलू भूने जाएँगे, बैंगन भूना जाएगा, मेथी, पुदीना सब बढ़िया इस पर चलेगा। कुछ आ रही है बात समझ में आपको?
तो वो आपको देखना है कि आप शब्दों को मौका दे रही हैं कि आपकी छाती में प्रवेश कर जाएँ, या बस शब्दों को यहाँ (हाथ से, पहले ही रोकने का इशारा करते हुए) पर ही रोक ले रही हैं कि यहाँ तक आए, उसके आगे आएगा तो ख़तरा है। यहाँ तक आए ताकि हम ज्ञानी कहलाएँ, उन सारी बातों को रट लेंगे, जेब में डाल लेंगे, खोपड़े में जमा कर लेंगे। कहीं बोलने के काम आएँगी या ख़ुद को ही कुछ अच्छा सा तर्क देने के काम आएँगी।
एक आदमी को इतनी भयानक कब्ज थी, इतनी भयानक कब्ज थी, उसको कब्ज हटाने के लिए जो दिया गया, उससे उसका पेट और फूल गया। हम ऐसे धुरंधर हैं, जो तुम्हें दिया जाता है हल्का होने के लिए, तुम उसको भी जमा कर लेते हो। अब क्या करें? पेट नहीं, कुआँ है। इतने डरे हुए हो कि सब कुछ पकड़ के रख लेना है कि छोड़ूँगा कुछ नहीं। जमा है, पच भी नहीं रहा, न निकल रहा, न पच रहा। सिर्फ़ क्या है? जमा है। ये मेरे भारत का हाल है।
ज्ञान इसलिए होता है ताकि जो कुछ पेट में रखे बैठे हो, वो बाहर निकल जाए। यहाँ (मुँह की ओर इंगित करते हुए) से आता है, लेग्ज़ेटिव ज्ञान जाता है यहाँ (मस्तिष्क की ओर इंगित करते हुए) ताकि जो कुछ यहाँ (मस्तिष्क की ओर इंगित करते हुए) था, वो हटे। आग है पुरानी चीज़ें जला दे, उसे ज्ञान कहते हैं। जो भी तुम सही मानते हो वो सब गलत था, यही ज्ञान है। जो भी तुमने ढर्रे सीख लिए हैं, उनका कोई महत्त्व नहीं। जो भी बातें तुम्हारे लिए सत्य जैसी हैं, बड़ी पवित्र हैं, तुमने कभी उनको परखा ही नहीं है, ये ज्ञान है। पर डर लग जाता है उसको, उसकी शक्ल देखकर ही। यमराज जैसा दिखता है। आग से डर तो लगेगा न, तो आदमी उसको दूर रखता है यहाँ (मस्तिष्क की ओर इंगित करते हुए) नहीं आने देता।
ये ख़तरा गीता कम्युनिटी के लिए नहीं है, व्यक्ति के लिए है, आपके लिए है। क्योंकि फैसला आपको करना है कि इन शब्दों को आप कहाँ रख रही हो? जेब में कि दिल में? कम्युनिटी तो माने बहुत सारे अलग-अलग व्यक्ति, एक लाख व्यक्ति होने वाले हैं शायद अगले महीने। तो किसी के लिए ख़तरा है, किसी के लिए नहीं है। जो दिल में रखेगा, वो अपने सारे ख़तरे जला देगा। जो जेब में रखेगा, वो अपने सब ख़तरों को कवच पहना देगा। अब उसके ख़तरे अवध्य हो गए, अब उसके ख़तरे अमर हो गए, उसने अपने ख़तरों को जान दे दी।
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मैं महाराष्ट्र से हूँ, पर मेरे अराउंड बिहार, यूपी और बंगाली बहुत सारे रहते हैं। दो साल से आपसे जुड़ी हुई हूँ, तो झगड़े बहुत हो चुके हैं इस बात पर। मैंने उन तक बहुत सारी बुक्स पहुँचाई, तो डायलॉग सुनने को मिले, कि "हमें ज्ञान मन बताइए, हम शास्त्र जानते हैं और हम बस भगवान की किताबें पढ़ते हैं।"
तो अगर अभी सारी बातें जब बिहार की हो रही थीं, तो मतलब बिहार का ये है कि वो तो ज्ञान का भंडार है, लेकिन महाराष्ट्र में साक्षरता दर इतनी ज़्यादा है। फिर भी, इलेक्शन के टाइम में या फिर अन्य प्रोग्राम्स होते हैं, तो उसमें बिहार में जो अभी चल रहा है, बहुत ही वाहियात लगता है। जो लड़कियाँ सारी नाच रही हैं, ये सारा सब महाराष्ट्र में भी हो रहा है। तो महाराष्ट्र अगर साक्षर भी है, तो वो ले क्या रहा है फिर?
आचार्य प्रशांत: साक्षरता नेसेसरी है, लेकिन नॉट सफ़िशिएंट। यूरोप तो लगभग शत प्रतिशत साक्षर है, पर वहाँ भी देखिए क्या हो रहा है, कैसे लोग चुने जा रहे हैं। अमेरिका में साक्षरता की कमी थी? देखिए किसको चुन लिया उन्होंने।
प्रश्नकर्ता: तो आचार्य जी, ये बात तो स्टेट वाइज़ तो हम नहीं बोल सकते, क्योंकि मेरे जान-पहचान में तमिलनाडु के भी हैं, और बहुत ही अच्छे पढ़े-लिखे हैं। फिर भी उनमें वही बातें दिखती हैं।
आचार्य प्रशांत: हाँ, साक्षरता, नेसेसरी बट नॉट सफ़िशिएंट। साक्षरता माने तो क, ख, ग होता है, क, ख, ग भी नहीं है तो वोट नहीं डालोगे ठीक से, ये तो तय है। पर क, ख, ग है तो इससे कुछ नहीं हो गया सुनिश्चित कि वोट ठीक डालोगे। तो महाराष्ट्र में लिटरेसी रेट हाई होगा, उससे ये तय नहीं हो जाता कि वोट सही डलेगा। लिटरेसी से नहीं होती बात, उसके बाद वो बात होती है जो बात यहाँ (गीता क्लास) होती है। यहाँ पर जो बात हो रही है, अगर आप उसके साथ रही हैं, दिली रिश्ता बना है आपका, तो शायद आप वोट सही डालेंगी।
प्रश्नकर्ता: बट ये सारी बातें, मतलब कभी ऐसा लगता है कि मेरा उनके साथ बहुत अच्छा रिश्ता रहा है पहले भी। तो मुझे ऐसा लगता है कि ओनली बिहार को क्यों ब्लेम किया जाए, वो थोड़ा सा।
आचार्य प्रशांत: मेरा तो पड़ोसी है बिहार, तो मुझे तो बहुत बुरा लगता है।
प्रश्नकर्ता: मेरा तो पड़ोसी है भी नहीं, फिर भी थोड़ा सा प्रेम आ जाता है।
आचार्य प्रशांत: अपने ही भाई हैं, अपना ही देश है, अपने ही राज्य हैं, क्या करें? जो कर सकते हैं, कर रहे हैं।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद सर। आपसे ही तो मतलब इतने झगड़े होने के बाद भी फिर भी उनके पीछे जाती रहती हूँ। बताती ही रहती हूँ उनको सारी चीज़ें। धन्यवाद आचार्य जी।
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मैं बिहार से ही हूँ और बिहार से आई हूँ, और पहली बार आई हूँ।
आचार्य प्रशांत: जी, स्वागत है।
प्रश्नकर्ता: मेरा ये सवाल है और आपसे एक संदेश लेकर जाना चाहती हूँ बिहार में, कि हर एक वर्ष हमारे बिहार से बहुत ही मेधावी छात्र दिल्ली आते हैं, बॉम्बे जाते हैं, बहुत दूर-दूर यहाँ तक कि विदेश भी जाते हैं। लेकिन उन लोगों में ये भावना क्यों नहीं आती है कि हम अच्छे से एजुकेटेड हो गए और फिर जाकर अपने बिहार को सुधारने का प्रयास करें? सिर्फ़ वो अपनी ही प्रगति पर क्यों रुक जाते हैं?
जैसे, चीन में हमने देखा है कि बहुत से बच्चे जाते तो ज़रूर विदेश हैं, लेकिन वो लौट कर फिर अपने ही कंट्री को सर्व करते हैं, उन्हें कष्ट हो तो भी। जितना भी कष्ट हो, बर्दाश्त करते हैं। पर ये देशभक्ति या ये स्टेट के प्रति भक्ति हमारे बिहार के बच्चों में या हमारे देश के बच्चों में क्यों नहीं आती है?
आचार्य प्रशांत: नहीं, आप गलत जगह देख रही हैं समस्या को, आप बिल्कुल गलत जगह देख रही हैं। आप सोच रही हैं कि बिहार को सुधारने का काम किसी छात्र का है।
प्रश्नकर्ता: नहीं, सभी स्टूडेंट्स का।
आचार्य प्रशांत: हाँ हाँ, अभी एक स्टूडेंट अपने लिए ही तो फैसला लेगा न, कि वो अगर पढ़-लिख गया है तो वो बाहर जाकर कुछ कर रहा है, वो अपने राज्य में कुछ क्यों नहीं कर लेता? और मैं ऐसे संस्थानों से रहा हूँ जहाँ से 80-90% लोग बाहर चले जाते हैं, ज़िंदगी में किसी-न-किसी उस पर और ये इल्ज़ाम भी ख़ूब लगता रहा है कि आईआईटी वाले, आईआईएम वाले बाहर क्यों चले जाते हैं, ये वापस जाकर काम क्यों नहीं करते।
वो बड़ी फिल्मी सी कहानी लगती है कि किसी ने एमबीबीएस करके, एमडी करके, ये करके, वो करके एक छोटे से गाँव में गया और वहाँ क्रांति ले आ दी। ऐसा हो नहीं सकता। आपने मेरी पहले की बात ठीक से सुनी नहीं। मैंने नहीं कहा कि बिहार को सबसे पहले डॉक्टर सुधार देगा या इंजीनियर सुधार देगा या डीएम सुधार देगा। मैंने कहा, बिहार को शिक्षक की ज़रूरत है। और कौन सा शिक्षक? क, ख, ग वाला नहीं, फ़िज़िक्स, केमिस्ट्री वाला नहीं। वो भी बाद में आते हैं, उनकी ज़रूरत है, पर उनकी भी ज़रूरत एक कदम बाद में है। बिहार को सबसे पहले ज़रूरत है उस शिक्षक की जो जनता की मूल्य व्यवस्था बदल सके। चूँकि आप उस शिक्षक के महत्त्व को स्वीकार नहीं करना चाहतीं, इसलिए आपको लग रहा है कि कोई इंजीनियर आकर बिहार में कुछ क्रांति कर देगा। चीन की बात अलग थी, वहाँ पर जनता तैयार थी कि कोई आएगा और हमें सही बात बताएगा, तो हम बदलेंगे। यहाँ जनता तैयार कहाँ है, आप सही बात बताइए वो मारने दौड़ेंगे, आप कैसी बातें कर रही हैं। मैं दिन-रात झेल नहीं रहा क्या, अपनी ही गीता कम्युनिटी के साथ। और ये तो तब, जब आप अपने लोग हो, बाहर वालों को आप देख नहीं रहे हैं। दिन-रात गालियाँ पड़ती हैं, और जेल में डाल दो, गोली मार दो। तैयार कहाँ हैं सुनने के लिए? किसी को ज़बरदस्ती सुनाएँगे क्या?
एक 25 साल का लड़का है, इंजीनियर है, वो पहुँच गया। आमतौर पर जिन्होंने जान लगाकर प्रवेश परीक्षाएँ उत्तीर्ण की होती हैं, इंजीनियरिंग की होती है, वो कोई बहुत अमीर घरों से नहीं आते। अमीर घर वाले इतनी मेहनत ही नहीं करते हैं लड़के। तो एक साधारण से मध्यमवर्गीय घर का लड़का है, उसने इंजीनियरिंग वग़ैरह कर ली है और वो आकर बिहार के गाँव में खड़ा हो गया। अब क्या करे? पर हमारे फिल्मी ख़्याल आते हैं। हम फिल्में देखते हैं, हम सोचते हैं, हमने एक फिल्म में देखा था शाहरुख खान आया, उसने देश बदल दिया। तो वैसे ही कुछ होगा, बिहार में इतने पढ़े-लिखे हैं, वो सब वापस बिहार लौट कर आएँ। क्या करें? जान दे दें, खून बहा दें, लोग ही मार दें? कुछ भी करने के लिए फाइनेंसिंग चाहिए। कहाँ से आएगी फाइनेंसिंग? और फाइनेंसिंग आ गई तो लूट नहीं जाएँगे, कोई आके अपहरण नहीं कर देगा, गोली नहीं मार देगा। ये कौन देखेगा? और छोड़ो बाहरी ख़तरे, तो आदमी फिर भी झेल ले, अपनी हिम्मत, बहादुरी से। पर जिनके लिए काम करना चाहते हो, क्या वो चाहते भी हैं कि उनके लिए कुछ सार्थक किया जाए?
शिक्षक की ज़रूरत है, ताकि पहले जनता ऐसी हो कि उसके लिए कुछ करो तो वो स्वीकारे तो सही।
सही काम के लिए कोई रेडीमेड ऑडियंस नहीं होती, मैम। सही काम में सबसे बड़ी दिक़्क़त ये होती है कि उसकी ऑडियंस भी तैयार करनी पड़ती है, उसका रिसीवर भी तैयार करना पड़ता है। बाज़ारू काम में एक रेडीमेड मार्केट होती है। मुझे जूते बेचने हैं, ये रेडीमेड मार्केट है। क्योंकि जूते सबको पता है पहले ही कि उनको चाहिए, वो तैयार बैठे हैं। “हाँ बताओ, जूता लाओ, बढ़िया जूता लाओ और सस्ता लाओ, फीचर्स वाला जूता लाओ।” तैयार हैं। पर असली काम के साथ समस्या ये होती है कि आप वो लोगों को देना भी चाहो तो उसको लेने को कोई तैयार नहीं होता। आप सोच रहे हो कि कोई डॉक्टर, इंजीनियर, लॉयर जो भी आप सोच रहे हो कि बिहार की जो प्रतिभा है, वो आएँगे, वो बात करेंगे तो लोग उनको बिल्कुल कंधे पर चढ़ाएँगे, सिर आँखों पर बिठाएँगे? नहीं, उनका कत्ल हो जाएगा।
मैं एक्सट्रीम में बात कर रहा हूँ बिल्कुल, पर किधर को इशारा कर रहा हूँ वो समझिए। वो जो देना चाहते हैं लोग, अभी लेने को तैयार नहीं हैं। इसलिए बिहार को फिर बोल रहा हूँ, क्या चाहिए? शिक्षक चाहिए, ताकि पहले लोग ऐसे हों कि उनकी बेहतरी के लिए कुछ किया जाए, तो उस बेहतरी को वो स्वीकार तो कर पाएँ। कोई अगर किसी जगह फंसा होता है, तो इसलिए क्योंकि वो स्वयं ही बेहतरी के ख़िलाफ़ खड़ा होता है। अगर कोई किसी दुर्दशा में फंसा हुआ है, तो इसकी मूल वजह ये होती है कि वो व्यक्ति कहीं-न-कहीं अपनी उस दुर्दशा को किसी-न-किसी तरीके से बचा रहा है, सहयोग दे रहा है, अपनी ही दुर्दशा को।
पहले लोगों को ऐसा बनाना पड़ता है कि अब तुम्हारे साथ कोई अच्छा काम होगा, तो तुम उस अच्छे काम का महत्त्व जानकर उसका समर्थन कर पाओगे, या कम-से-कम विरोध तो नहीं करोगे। सबसे ज़्यादा विरोध सही काम को ही मिलना है। और व्यक्तिगत तौर पर आप झेल भी लो, पर आपके काम का रिश्ता ही अगर दूसरों से है और वही विरोध कर रहे हैं, तो आपका काम तो ठप पड़ गया न? ठप पड़ गया, कि नहीं पड़ गया? वापस उस जगह पर लौटता है, जहाँ वापस लौटोगे, कुछ काम करोगे, तो उस काम को कोई स्वीकार भी करेगा। स्वीकार करने वाले कुछ लोग हो सकते हैं, पर अगर चार जने स्वीकार करने वाले हैं और चार सौ लोग अस्वीकार करने वाले हैं, तो काम कोई बेचारा लड़का करे भी कैसे?
अच्छा, और वो काम इतनी जान लगाकर, इतनी मेहनत से करना है। आप जिस इंजीनियर की बात कर रहे हो, कि आए, 25 साल का आए और बिहार बदल के दिखा दे। उसको भी ये प्रेरणा कहाँ से मिली कि मैं ये सब करूँ?
प्रश्नकर्ता: नहीं आचार्य जी, हम डॉक्टर की भी बात कर रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: डॉक्टर बिना हॉस्पिटल के काम कर लेगा?
प्रश्नकर्ता: बहुत कम ही ऐसे होते हैं जो इस सेवा भाव से जाते हैं कि हाँ, हम दूर गाँव में जाएँ।
आचार्य प्रशांत: सेवा भाव एमबीबीएस में सिखाया जाएगा?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम भी ख़ुद ही एक डॉक्टर हैं।
आचार्य प्रशांत: मैं पूछ रहा हूँ जो, बस, वो बताइए न। सेवा भाव कहाँ से आएगा?
प्रश्नकर्ता: वो तो एमबीबीएस में हम लोगों को सिखाया करती थी।
आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया। तो फिर भगवद्गीता की क्या ज़रूरत है? तालियाँ बजाओ सब लोग।
प्रश्नकर्ता: सही में, हमने एमडी ऑब्स गाइनी में किया है। वहाँ हमारी मैडम थी, अब वो इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन वो ये भावना हम लोगों के अंदर डाल दी।
आचार्य प्रशांत: भावना नहीं होती है। कैसे बताऊँ? सेवा भाव हो, देशभक्ति हो, ये किस फिल्मी फेंटसी में जी रहे हो आप? दुनिया देखनी पड़ती है और समझना पड़ता है, मैं और ये अलग-अलग नहीं है। तो मुझे नहीं सुख हो सकता इसके दुख के साथ। वो समझ की बात होती है। वो हिपोक्रेटिक ओथ जो आप लोग लेते हो, उससे नहीं हो जाता, कि हमें एमबीबीएस में एक कोर्स था, उसमें सेवा भाव सिखा दिया गया। सेवा भाव आप वहाँ ही सीख आई हैं, तो आप गीता में क्या कर रही हैं? क्योंकि कुल मिलाकर, गीता का भी यही नतीजा निकलना है कि व्यक्ति सेवा सीखेगा। आप पहले ही जानती हैं, तो आप यहाँ क्या कर रही हैं?
जितने भी कोर्सेज़ होते हैं प्रोफेशनल, सब में बीच में एक-आधा कोर्स आ जाता है, वैल्यूज़ एंड एथिक्स करके। उससे इतना (थोड़ा सा) भी कुछ होता है क्या? डॉक्टर में भी ये कहाँ से आ जाएगा कि मुझे ये करना है। उस डॉक्टर को भी पहले क्या चाहिए? शिक्षक चाहिए। आप समझ ही नहीं रही बात को, क्योंकि आपको शिक्षक के महत्त्व को किसी भी तरीके से नीचे करना है। उस डॉक्टर में भी ये दम कहाँ से आए कि मैं जाऊँ और खड़ा रहूँ, और किसी भी तरीके से सबको समझाऊँ। उसमें कहाँ से आए ये बात? वो डॉक्टर भी किस ज़मीन से उठा है? उसी ज़मीन से तो उठा है न। लेकिन फिल्म बन जाती है, तो उम्मीद जग जाती है कि देखो, उस फिल्म में किया था न उसने, तो यहाँ भी हो सकता है कि कोई डॉक्टर आएगा और ये करेगा, वो करेगा और ऐसा हो जाएगा। और भी डॉक्टर यहाँ मौजूद होंगे, वो आपको बताएँगे न।
सेवा भाव आ जाए। उसको एमबीबीएस उसके घर वालों ने इसलिए कराया था कि वो दुनिया की सेवा करेगा। और ये जो करोड़ों की डोनेशन दी जाती है, ये इसलिए दी जाती है कि आप जाकर ग़रीबों की सेवा करो। भाई, वो उसी मिट्टी से उठा है, और उसकी बीवी ने उसको एक करोड़ दहेज इसलिए दिया था कि अब मुझे ले जाओगे और किसी गाँव में पटक दोगे, जहाँ बिजली भी नहीं है। बीवी एक करोड़ दहेज लेकर लाया है वो। किस दुनिया में है हम? उसी मिट्टी से उठा है, भाई वो, उसमें कहाँ से आ जाएगा? सेवा कोई भाव नहीं होता, बहुत गहरे डूबना पड़ता है अध्यात्म में, तब जाकर के बिना माँगे अनायास आपकी हस्ती ऐसी हो जाती है कि आप कुछ भी करो, सेवा करने लग जाते हो। सेवा कोई भाव नहीं होती कि सुबह-सुबह उठकर ग़रीबों को खिला दिया, तो ये सेवा हो गई। या कि कम फीस पर इलाज कर देता हूँ, तो सेवा हो गई। कर ही नहीं सकते, उसी मिट्टी के तो हो।
शिक्षक की ज़रूरत है सबसे पहले, मान लीजिए। जितना पैसा एमबीबीएस पर ख़र्च किया, उसका थोड़ा सा शिक्षक की ओर। अपने बच्चों को तो सब चाहते हैं टॉप क्लास एजुकेशन देंगे। वो डॉक्टर को बोल रहे हैं, ऐसे गाँव में चले जाओ, जहाँ सरकारी स्कूल भी 15 कि.मी. दूर होगा। उस डॉक्टर के बच्चों का क्या होगा? अपने बच्चों को तो सब चाहते हैं कि बिल्कुल एकदम टॉप क्लास, जो भी हो, इंटरनेशनल स्कूल, आईबी में भेजेंगे। और डॉक्टर से कह रहे हो कि दूर दराज के किसी गाँव में चले जाओ। अब वो एक करोड़ दहेज वाली बीवी रखे है, दो खरगोश जैसे बच्चे रखे है। उनका क्या करेगा वो? शॉपिंग कहाँ कराएगा? और शॉपिंग के पैसे कहाँ से लाएगा? कैसी बातें कर रहे हैं हम? ये सब-के-सब कहाँ से उठे हैं? उसी मिट्टी से उठे हैं। सब उसी मिट्टी से उठे हैं, सबकी मूल्य व्यवस्था एक जैसी हो गई है। डॉक्टर की भी, डॉक्टर के माँ-बाप की भी, डॉक्टर की बीवी की भी, डॉक्टर के बच्चों की भी, डॉक्टर के दोस्तों की भी। ये डॉक्टर कहाँ से सेवा कर लेगा? इस डॉक्टर को भी सबसे पहले क्या चाहिए? शिक्षक।
यहाँ कितने डॉक्टर बैठे हैं? हाथ उठाएँ। (कुछ श्रोता हाथ उठाते हैं)
चलो, ठीक है, कुछ डॉक्टर तो तैयार हो रहे हैं।