भूल नहीं, भूल करने वाले पर ध्यान दो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2017)

Acharya Prashant

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भूल नहीं, भूल करने वाले पर ध्यान दो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2017)

प्रश्नकर्ता: कभी-कभी समझ में नहीं आता कि क्या गलती करी, असफलता क्यों मिली, बदलाव कैसे करूँ, तरक्की कैसे करूँ?

आचार्य प्रशांत: जब समझ में न आये कि गलती कहाँ हुई तब गलती खोजना ही बन्द करो। पूरी प्रक्रिया को दोबारा शुरू करो ऐसे जैसे कि पहली बार कर रहे हो। जो हमारा अनुमान रहता है, हम जिस धारणा के आधार पर आगे बढ़ते हैं वो ये होती है कि मैं ज़्यादातर तो ठीक ही कर रहा होऊँगा कुछ दो-चार बातें ग़लत हो गयी हैं। तो हमारी पूरी दृष्टि रहती है कि उन दो-चार बातों को खोज लें, उनको सुधार लें तो सब ठीक हो जाएगा।

हम अगर इतने ही चतुर होते और चैतन्य होते कि उन दो-चार बातों को ठीक-ठीक पकड़ ही लेते जो गलत हो रही हैं तो फिर हमने गलती की ही क्यों होती। जो ग़लत है वो पहले तो ग़लत है और फिर उसका दावा और गुमान ये है कि मैं जान सकता हूँ कि मैं कहाँ ग़लत हूँ। अगर तुम ग़लत हो तो तुम्हारी गलती के बारे में तुम्हारा अनुमान भी तो ग़लत होगा न, पर तुम ये मानने को तैयार नहीं हो। तुम कहते हो भूल तो संयोगवश हो गयी, त्रुटि तो अकस्मात हो गयी वरना मैं तो अव्वल आदमी मुझसे कहाँ कोई भूल होने वाली थी। भूल को तुम संयोग बोल देते हो और कुछ ठीक हो जाता है तुम्हारी दृष्टि में तो उसको तुम कहते हो कि ये तो मेरा कर्तृत्व है। ठीक हुआ तो मैंने किया और गड़बड़ हुआ तो दुर्घटना है, संयोग है।

जब कुछ चूक हो जाए तो सबसे पहले अपने ऊपर से ये भरोसा हटाना कि तुम उस चूक को ठीक-ठीक जान गये हो। चूक होती ही इसीलिए है क्योंकि चूक कहाँ हो रही है इसका तुम्हें कुछ पता था ही नहीं, तब नहीं था अचानक से कैसे आ गया? क्या पुनर्जन्म हुआ है? क्या बिलकुल नए हो गये हो? क्या पुराने को पीछे छोड़ आये हो? क्या मन पूर्णतया बदल गया है? जब मन पुराना ही है तो भूल भी तो पुरानी चलती ही रहेगी न और अगर पुरानी भूल चलती रहेगी तो पुरानी भूल अधिक-से-अधिक नये रूप लेकर के सामने आ जाएगी। जब भूल नये रूप लेकर सामने आ जाएगी तो तुम्हें ये धोखा हो सकता है कि जैसे तुमने पुरानी भूलों का सुधार कर लिया हो, सुधार इत्यादि नहीं हुआ और हुआ भी तो बड़ा ही सतही हुआ, मूल त्रुटि शेष ही रह गयी।

मूल त्रुटि क्या थी? मूल त्रुटि भूल नहीं थी, भूल करने वाला था, तुम बचे रह गये। अपनेआप को न बचाने की विधि ये है कि भूल ही जाओ कि आज तक कैसे रहे हो, तुम आज तक जो रहे हो उसी का नाम होता है तुम। हम कौन हैं? हमारा पूरा व्यक्तित्व और मन क्या है? समस्त अतीत का संकलन। तुम्हारे पीछे जो कुछ है वो मिल-जुलकर, जुड़कर तुम्हारी शक्ल अख्तियार कर चुका है, जैसे पीछे से एक धारा चली आ रही हो, चली आ रही हो, चली आ रही हो और इस मुक़ाम पर उसका नाम हो, कुछ भी, 'राज' हो, कि 'मनीष', कि 'अमित' कोई भी नाम हो सकता है।

बात समझ रहे हैं?

शून्य से शुरू करना सीखो। तरक्की की आकांक्षा मत करो, नवीनता बढ़ाओ। दोनों का अन्तर समझाओ मुझे। बेहतरी क्या है? तरक्की क्या है? सुधार क्या है? वो ये भावना है कि मैं आधार पुराना रहने दूँगा और जो उस पर भवन खड़ा है उसको ज़रा बदल दूँगा। नहीं, बात बनेगी नहीं। वो ये भावना है कि मैं सामान पुराना रहने दूँगा, उसका रंग-रोगन बदल दूँगा, बात बनेगी नहीं। भीतर-भीतर दीमक लगी है, खोखला है, ऊपर-ऊपर रंग-रोगन करने से क्या हो जाएगा और कुछ तो और चतुर होते हैं, वो कहते हैं,’ ऊपर-ऊपर भी रंग-रोगन करने की ज़रुरत क्या है, नाम बदल दो न।‘

नाम बदलने से सामान बदल जाएगा क्या? ये है सुधारवादी मन, ये हमेशा ज़रा सा बदलाव चाहता है, इसको चाहिए इनक्रीमेंटल चेंज (वृद्धिशील परिवर्तन)। इनक्रीमेंटल समझते हो, बस ज़रा सा, आंशिक। ये पूरा हटने को, मिटने को तैयार नहीं है, इसे अपनी सुरक्षा में बड़ी रुचि है। जिन्हें अपनी सुरक्षा में बड़ी रुचि है वो अपनी भूलों को भी सुरक्षित करते जा रहे हैं।

जिन्हें बेहतरी चाहिए, वो बेहतरी की इच्छा छोड़ दें, जिन्हें वास्तव में बेहतरी चाहिए वो कायाकल्प के लिए तैयार हो जाएँ, आमूल-चूल परिवर्तन के लिए तैयार हो जाएँ, मात्र उसी में बेहतरी हो सकती है। जिसको हम आम तौर पर बेहतरी कहते हैं वो बेहतरी नहीं है, वो रंग-रोगन है, लीपा-पोती होती है, वो ऐसा ही है कि जैसे तुम नहाए नंही हो, गंधा रहे हो और ऊपर से ,डिओड्रेंट मार लिया। होता है न ऐसा?

उसमें क्या बेहतरी है। काम के मौके पर भेद खुल जाना है। डिओड्रेंट की सीमा होती है, लीपा-पोती करके गहराइयों में प्रवेश नहीं मिलेगा।

या रही है बात समझ में?

दूसरा पूछा है अमित ने — ऐसे काम कैसे करें, ऐसे अंजाम कैसे लाएँ, जिनसे समाज का फ़ायदा हो।

समाज माने क्या, अभी यहाँ इतने लोग बैठे तो समाज कौन है, तुम सब समाज ही हो न। तो समाज कोई दूर, शनिग्रह की चीज़ है क्या कि समाज का फ़ायदा करना है, समाज माने हम और तुम। तुम यहाँ बैठकर के अगर कुछ ऐसा कर रहे हो जो तुम्हारे लिए ठीक है तो सबके लिए भी ठीक है न। इन लोगों ने जो सवाल पूछे हैं, उन्होंने सबसे पूछकर तो नहीं पूछे, उन्होंने अपने-अपने सवाल भेज दिए हैं। लेकिन तुम्हारे सवाल अगर ईमानदार हैं, सच्चे हैं तो तुम्हारे सवाल से सौ लोगों का फ़ायदा हो रहा है, हो रहा है कि नहीं और यही तुम यहाँ बैठ जाओ और कुछ ऐसा करो जो तुम्हारे लिए ही घातक है तो तुम सबका नुकसान कर दोगे, बात बहुत सीधी है।

व्यक्ति और समाज के हित वास्तव में एक हैं, अलाइन्ड (एक दिशा में) हैं, कनवर्जेंट (मिले हुए) हैं। व्यक्ति और समाज के वास्तविक हित एक सीध में हैं, उनमें कोई विरोध नहीं आपस में। तुम सुधरो, जग सुधरेगा। लेकिन अपनेआप को न सुधारने का एक बड़ा बहाना ये होता है कि अभी अपने को सुधारने की फ़ुर्सत कहाँ है अभी तो हम ज़रा समाज का कल्याण कर रहे हैं। अपना कल्याण कर लो।

एक कमरा है छोटा सा, उसमें तुम हो और तुम नहाए नहीं हो चार दिन से और बदबू उठती है और तुम कमरा साफ़ कर रहे हो। अपनी सफ़ाई कर लो कमरे से बदबू उठनी बन्द हो जाएगी। समाज में दुर्गन्ध है ही इसीलिए क्योंकि व्यक्ति में सड़न है। व्यक्ति सड़ा हुआ है तो समाज से बदबू उठती है। व्यक्ति ठीक हो जाए तो समाज ठीक हो गया न, समाज और है क्या, समाज की थोड़ी कोई आत्मा होती है, समाज कोई इकाई नहीं है, तुम सब समाज हो।

समाज कल्याण की इच्छा बहुत बाद के लिए छोड़ दो, बहुत पीछे की बात है वो, अपने पर ध्यान दो। और अपने पर ध्यान दिए बिना अगर तुम समाज का कल्याण करने निकल भी पड़े तो तुम कर क्या लोगे वहाँ पर।

एक शराबी है उसे समाज की बड़ी चिन्ता रहती है, उससे बर्दाश्त ही नहीं होता कि दुनिया में दुख-दर्द रहे, कोई गरीब रहे कि बेसहारा रहे, अनाथ रहे। और वो पीकर के अपना लुढ़कता-पुढ़कता चला जा रहा है, सड़क पर देखता है दुर्घटना हो गयी है। एक आदमी पड़ा हुआ है, उसके सिर में चोट है, ख़ून बह रहा है, वो कहता है, ‘मिल गया मौक़ा, आज तो समाज सेवा होगी।‘ और वो वहीं पर उसकी ब्रेन-सर्जरी कर देता है। तुम्हें अपना होश नहीं, तुम समाज का क्या कल्याण करोगे, और करोगे भी तो नतीजा क्या निकलेगा। तो देख लो, दुनिया ऐसे लोगों से भरी हुई है जिन्हें अपना होश नहीं है और दूसरों की भलाई करने निकले हैं। तो वो दूसरों की क्या कर देते हैं?

तुमने कभी ये सोचा की दुनिया के हर बच्चे को समाज के द्वारा, शिक्षा के द्वारा, धर्म के द्वारा, परिवार के द्वारा यही बताया जाता है न अच्छे बनो, यही तो बताया जाता है। शिक्षक हों, धर्म हो, किताबें हो माँ-बाप हों, सब बच्चों को क्या सिखा रहे हैं? अच्छे बनो और दुनिया में चारों तरफ़ दिखाई क्या दे रही हैं, बहुत सारी बुराई। अच्छाई भी हैं पर बुराई का पलड़ा थोड़ा भारी ही लगता है। ये बुराई कहाँ से आ गयी क्योंकि हर कोई तो दूसरे को अच्छा बनने की ही नसीहत दे रहा है तो बुराई कहाँ से आ गयी? क्योंकि जो नसीहत दे रहा है, उसका नसीहत देने पर ज़्यादा ध्यान है और खुद पर कम ध्यान है। माँ-बाप बच्चे को समझा रहे हैं, बेटा अच्छे बनो और जो समझा रहा है वही कैसा है, उसने अपनी अच्छाई को उभारने पर ध्यान दिया होता तो बच्चा स्वतः ही सीख लेता, बच्चा तो देख-देखकर सीखता है। शिक्षक समझा रहे हैं, नेता समझा रहे हैं, धर्म गुरु समझा रहे हैं, सब समझा रहे हैं कि सत्य, आनन्द, अहिंसा और दुनिया में क्या है, असत्य और क्षोभ और हिंसा।

प्र: आइ एम अनेबल टू लिसन टू माय हार्ट इन द एनवायरमेंट ऑफ कियोस एंड नॉइस व्हाट आर द मेथड्स थ्रू विच आइ कैन लिसन टू माय इनर वॉइस ( दिल की आवाज़ सुनने में अक्षम हूँ, क्योंकि बाहर शोर बहुत ज़्यादा है, कोई विधि है, जिसके द्वारा अपनी आन्तरिक आवाज़ को सुन सकूँ)

आचार्य: बाहर शोर है यदि ये जानते हो तो शोर में हो क्यों? मैंने तो नहीं कहा कि बाहर शोर है और अगर तुम बाहरी शोर से पूर्णतया अनभिज्ञ होते तो उसे न बाहरी कहते, न शोर कहते। सब जानते हो फिर भी वो करे जा रहे हो जो तुम जानते हो कि तुम्हें नहीं करना चाहिए, क्यों? क्योंकि लालच हैं और डर है।

जैसे कोई किसी घटिया पार्टी में फँस गया हो, वहाँ पर शोर बहुत है, बेवकूफियाँ भी बहुत हैं लेकिन जो लोग हैं वो ज़रा ताक़तवर हैं, पैसे वाले हैं, रसूख वाले हैं, उनका दबाव चलता है और खाना बड़ा स्वादिष्ट है और उधर कोने में एक मेज़ पर… तो पता है कि शोर बहुत है, पता है लोग भी घटिया हैं, पता है बातें भी घटिया हैं, सब पता है। लेकिन ये बड़े-बड़े लोगों को नाराज़ करने की मेरी हिमाकत! तो डर और इतना रुक गये हैं तो थोड़ा और रुक जाते हैं। अब जब इतना बर्दाश्त किया तो कुछ फ़ल भी तो मिलना चाहिए, अंगूर का फ़ल। बस इसीलिए वैसे जिए जाते हो जैसे जी रहे हो।

तुम्हें क़ीमत नहीं है, कद्र नहीं करते हो, दिल की। तुम बहुत पढ़-लिख गये हो, दुनिया ने तुम्हें सिखा दिया है कि इसके पीछे भागो, ये क़ीमती है, वो क़ीमती है, सबकुछ क़ीमती है बस तुम क़ीमती नहीं हो। यही हमारी शिक्षा है।

बेटा ये हासिल कर लेना, बेटा वो हासिल कर लेना, बेटा वो हासिल कर लेना। इतनी चीज़ें मुझे हासिल करने को बोल रहे हो, मेरी कुछ औकात है। बेटा तुम्हारी औक़ात तब बनेगी जब हासिल कर लोगे।

ये सुनी-सुनाई बात लग रही है‌ कि‌ नहीं। अब तुम यहाँ बैठे हो और मैं तुमसे बार-बार कहूँ, ‘जाओ मुँह धोकर आओ’, इसका क्या मतलब है? जल्दी बोलो। कि मुझे लग रहा है कि तुम्हारे मुँह में कोई समस्या है। फिर तुम मुँह धोकर आओ, फिर तुम्हें बोलूँ जाओ कपड़े बदलकर आओ, फिर तुम कपड़े बदल कर आओ, फिर बोलूँ कि नहाकर आओ, फिर तुम नहा कर भी आ जाओ तो मैं कहूँ, ‘जाओ बाल कटाओ’ और तुम बाल भी कटाकर आ जाओ तो मैं कहूँ दाँत नये लगवाओ, तो इसका मतलब क्या है? बोलो।

मैं तुमको क्या समझ रहा हूँ? मैं तुम्हें क्षुद्र-से-क्षुद्र, घटिया-से-घटिया नकार योग्य समझ रहा हूँ और दुनिया तुम्हारे साथ जब यही करती है तुम्हें लगता है लोग मेरे बड़े हितैषी हैं। कोई तुमसे कहता है, ‘ये हासिल करो’, कोई तुमसे कहता है, ‘अपने में ये बदलाव करो।‘ तुम कहते हो, ‘ये देखो, ये है शुभेच्छु।‘ और जो तुम्हें जितना बताए कि तुम बिलकुल दलित हो, पीड़ित हो और घटिया हो वो तुम्हें उतना पूजनीय लगता है, वाह! क्या बात है। कोई तुमसे आकर के बोल दे कि मूलतः तुम शुद्ध, बुद्ध आत्मा हो परिपूर्ण, तुम्हें बड़ा [अस्पष्ट] और कोई तुमसे आकर बताए कि तुम्हें नख-शिख बदलाव की ज़रुरत है और मैं तुम्हें बताऊँगा कि तुम्हें बदलना कैसे है, आओ। बदलाव होगा और आसानी से होगा और ऐसे करके बदलना है, चलो उस दुकान में चलते हैं, वहाँ से ये मिलेगा, वहाँ चलते हैं, वहाँ ये मिलेगा और फिर मेरे पास आओ मैं तुम्हें बहुत कुछ दूँगा, बस पैसा लेकर आना। तुम बड़े ख़ुश हो जाओगे कि देखो, इन्होंने हमारी भलाई चाही, ये हमें पूरा ही बदल देना चाहते हैं।

तुम्हें बीमारी लगा दी गयी है छटपटाने की, छटपटाते रहो और छटपटाहट हमेशा कुछ जो बाहरी वस्तु होगी उसको लेकर ही होगी। कभी ये चाहिए कभी वो चाहिए, इतना मिल जाए तो उससे दो कदम आगे के लिए छटपटाओ और जो इतना छटपटाता है उसे तुम बोलते हो ये देखो, ये तरक्क़ी पसन्द आदमी है महत्वाकांक्षा है इसमें। तुम्हें ये नहीं दिखता कि वो सोने भी नही पाता, महत्वाकांक्षा खुजली है।

बात या रही है समझ में?

तो उन्हीं बड़े लोगों के कारण तुम उस पार्टी से बाहर नहीं आ पा रहे हो। जवान आदमी हो, ज़रा बूता रखो, दुत्कारना सीखो, हमने रिजेक्शन (नकारना) की बात करी थी न, नकारना सीखो। ऐसे हाथ चलना चाहिए तुम्हारा, चल धूत, नहीं चाहिए। ये बोलना सीखो, क्या? नहीं चाहिए, आइ रिजेक्ट (मैं नकारता हूँ)। एक टीशर्ट बनवाओ उस पर आगे लिखो — 'आइ रिजेक्ट' पीछे लिखो — 'नहीं चाहिए'। मज़ाक नहीं कर रहा हूँ, बड़ी उम्दा टीशर्ट है यह।

बात समझ में आ रही?

तुम्हें ऐसे ही फँसाया जाता है। चूहेदानी देखी है? चूहा कैसे फँसाया जाता है? चूहा इतना ही बोले बस, ‘नहीं चाहिए’, तो कभी फँसेगा? किसी चूहे ने कभी बोला ही नहीं ‘आइ रिजेक्ट।‘ ऐसे ही तुम भी फँसते हो।

YouTube Link: https://youtu.be/ff6ABRAA3Z4

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