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भीतर देखा, तो क्या पाया? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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भीतर देखा, तो क्या पाया? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं जब मन को देख रहा हूँ, वो भी मन का ही हिस्सा है। तो क्या वो देखना केवल एक विधि है बोध तक जाने की?

और दूसरा सवाल ये है कि घृणा का भाव किस तरह बाधक बन सकता है मन के बोध तक पहुँचने में? जैसे अगर मैं अन्दर देख रहा हूँ या बाहर, बाहर भी अगर कोई गन्दगी है, तो गुस्सा और डर तो थोड़ा बहुत समझ में आता है लेकिन घृणा पर स्पष्टता चाहता हूँ।

आचार्य प्रशांत: जो भी भाव हैं, अगर उनको देख रहे हो तो अच्छा है। ऐसा नहीं है कि किसी भाव को देखने में ज़्यादा श्रेष्ठता है और किसी भाव को देखने में कम श्रेष्ठता है। देखना ही श्रेष्ठ है।

तुमने कहा, ‘मन ही कर रहा होता है और मन को ही देख रहे होते हैं’, जो मन करने में उत्सुक है अन्धा हो करके, उससे श्रेष्ठ है वो मन जो देखने में उत्सुक है। हैं ये दोनों मन की ही स्थितियाँ, लेकिन देखना मन की सात्विक स्थिति है, करना मन की राजसिक स्थिति है। और कुछ न करना ये मान करके कि हम तो बढ़िया ही हैं, हमें कुछ करने की ज़रूरत नहीं — ये मन की तामसिक स्थिति है। तो है ये सब मन ही।

मन माने प्रकृति, और क्या है मन! लेकिन देखना मन का सतोगुण है। तो जो देख रहा है वो उससे बेहतर है जो बिना देखे-समझे-जाने करे जा रहा है बस। ठीक है?

अब रही बात घृणा की, तो इतनी चीज़ें होती हैं मन में, उनमें से एक घृणा भी है। ऐसा नहीं है कि तुम कहो कि क्रोध समझ में आता है, ये समझ में आता है, घृणा समझ में नहीं आती। ये तो फिर तुमने अपनेआप को एक सिद्धान्त बता दिया है कि क्रोध फिर भी स्वीकार्य है पर घृणा तो बहुत ही अस्वीकार्य चीज़ है। तो तुम कह रहे हो घृणा समझ में नहीं आती। ये सबकुछ नहीं है, ये सब मन की लहरें हैं। किसी लहर को दूसरी लहर से बिलकुल बेहतर बताकर के तुम बस तरीक़े बना लेते हो जो बेहतर लहर है उस पर सवार रहने के। जैसे सब कुछ देखते हो वैसे ही घृणा को भी देखो, उसमें क्या है!

प्र२: कई बार बात हुई है कि एक मार्ग भक्ति हो गया समर्पण वाला है, एक ज्ञान वाला है, तो मैं अपने अन्दर अगर देखता हूँ तो भाव की अधिकता पाता हूँ। जैसे कबीर साहब को पढ़ लिया तो भावविभोर हो गये या भजन किया तो आँसू बहने लगे। यहाँ तो अतिरेक रहता है, घर पर जैसे जाते हैं तो उसमें कमी आ जाती है। फिर जैसे आपने बताया था कि अष्टावक्र पढ़िए, तो वो जब पढ़ रहे थे तो अचम्भित करने वाली चीज़ें सामने आती हैं। तो फिर उस समय मन करता है कि इसको क्यों छोड़ रहे हो?

आचार्य: नहीं समझ रहा हूँ। किस बात का अचम्भा है? मन क्या छोड़ने के लिए मना करता है?

प्र२: जैसे बोध वाली चीज़ें। अष्टावक्र साहब बोध की बात करते हैं, तो बोध की जो विधियाँ निकलकर आती हैं, तो मन को लालच लगता है कि बोध वाली विधियों पर चलूँ। तो इस द्वंद्व में मैं उस गति से नहीं बढ़ पाता अब, क्योंकि मुझमें भाव का अतिरेक है तो ये लगता है कि भक्ति ही मार्ग है। तो ये निर्णय नहीं कर पाते कि ये आपस में बिलकुल अलग-अलग मार्ग हैं।

आचार्य: नहीं, अलग-अलग नहीं हैं और कोई चुनाव करना भी नहीं होता है कि चुन लो, ‘मेरा मार्ग तो भक्ति है’; अपने पर ठप्पा लगा दिया, ‘मेरा मार्ग तो बोध है।’ नीयत साफ़ होनी चाहिए कि बात समझनी है, ऊँचा जीवन जीना है जिसमें समझदारी है। उस ऊँचे जीवन में समझदारी क्यों है? क्योंकि समझदारी के प्रति प्रेम है।

तो जिसको आप बोध का मार्ग कहते हैं, वो भी बिना प्रेम के कैसे हो सकता है? बोध से आपका रिश्ता क्या है? बोध से आपका रिश्ता क्या है, कहिए। बोध भी आपको तभी मिलेगा न जब आपका बोध से एक सही रिश्ता बने। वो क्या रिश्ता है? प्रेम का। तो बोध भी बिना प्रेम के आपको कहाँ मिल जाना है!

तो ये कोई ऐसे बैठकर के निर्णय करने वाली चीज़ें नहीं होती हैं कि मेरा मार्ग बोध का है कि प्रेम का है। जो चीज़ जब सामने है उसी समय उससे लाभ ले लेना है और लुत्फ़ ले लेना है।

मैं तो आश्चर्य में पड़ जाऊँगा अगर कोई ऐसा है जो कहे कि मुनि अष्टावक्र उसके प्रिय हैं पर कबीर साहब समझ में नहीं आते। ये बातें ही बड़ी अजूबी हैं। क्योंकि ऐसा हो नहीं सकता न।

ये मार्ग वगैरह तो ले-देकर के हमने बना दिये हैं, ऊपरी बातें हैं। अन्दर-अन्दर तो चीज़ एक ही है। बोध में प्रेम छुपा है, प्रेम में बोध छुपा है। बिना बोध के प्रेम कौनसा? बिना प्रेम के बोध कैसा?

तो वो सब सतही विभाजन हैं, उन्हें बहुत गम्भीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है। जो चीज़ जब सामने हो, जो चीज़ जब लाभ दे रही हो, जो चीज़ जब मन के अनुकूल बैठ रही हो, भा रही हो, उसमें डूबते रहिए। सब जाँचा थोड़े जाएगा कि इस पर ठप्पा क्या लगा हुआ है। हरा ठप्पा है, पीला ठप्पा है — ठप्पा कौनसा है इस पर?

कबीर साहब को आप क्या कहेंगे, बोध मार्गी हैं, प्रेम मार्गी हैं? क्या कहेंगे? कोई मार्ग नहीं है, कुछ नहीं। आकाश मार्गी हैं।

प्र३: आचार्य जी, प्रणाम। जब से आपसे जुड़ा हूँ थोड़ी बहुत समझदारी आयी है। तो प्रतिदिन की दिनचर्या में पता चलता है कि क्या करना है क्या नहीं करना है। लेकिन कभी-कभी ग़लतियाँ होती रहती हैं, जैसे मुँह से अपशब्द निकल जाते हैं या कई बार किसी से बात करते समय तंज कस देता हूँ, फिर तुरन्त लगता है कि नहीं करना चाहिए। वैसी ग़लतियाँ होती रहती हैं लेकिन बाद में मन चेतता है कि ग़लती हो गयी है। तो कैसे चेतना सतत बनी रहे कि ऐसी ग़लतियाँ न हों?

आचार्य: मन जल्दी से चेत जाया करे। समयातीत तक पहुँचने के लिए पहले तो समय का ही सहारा लेना पड़ेगा न। जिसको तुम कह रहे हो चेतना का वापस आना, तुम्हारा पुनः सचेत हो जाना, ये अगर घटना के दो घंटे बाद होता हो, तो एक घंटे बाद होने लगे, आधे घंटे बाद होने लगे, फिर पाँच मिनट बाद होने लगे। ऐसे करते-करते एक स्थान ऐसा आता है कि घटना के ठीक साथ ही तुम चेत जाते हो।

जितनी जल्दी-से-जल्दी तुम अपनी बहकने की हालत से अपने केन्द्र पर वापस लौट आओ, उसको उतना शुभ मानो। और ये उम्मीद मत करो कि तुम्हारा बहकना-छिटकना अचानक बन्द हो जाएगा; वो होगा। तुम्हें अपनी प्रगति फिर कैसे नापनी है? कि पहले गुस्सा आ जाता था तो दो दिन तक दिमाग खराब रहता था — तुम उसका विस्तार देख रहे हो समय में अभी। ठीक है? विस्तार, एक्सपैंस — दो दिन तक रहता था। अभी ये है कि गुस्सा आया भी तो चार घंटे में ही फिर केन्द्रित हो जाता हूँ, शान्त हो जाता हूँ। ये एक लक्षण है।

और दूसरा तरीक़ा है देखने का — तीव्रता, इंटेंसिटी । कि पहले गुस्सा आता था तो चीज़ें तोड़-फोड़ देता था, अब गुस्सा आता है तो चीख-चिल्लाकर ही शान्त हो जाता हूँ। अगर आत्मज्ञान गहरा रहा है, दुनिया को और ख़ुद को देखने की नज़र पैनी हो रही है, तो तुम पाओगे कि इन दोनों ही पैमानों पर, दोनों ही आयामों पर तुम प्रगति कर रहे हो।

तीव्रता का आयाम क्या हुआ? ऐसे (हाथ को एक सीध में ऊपर-नीचे करते हुए), कितनी ऊँचाई तक जाता था तुम्हारा क्रोध। तो तुम पाओगे पहले इतना (हाथ सर से ऊपर ले जाते हुए) ऊँचा भाग जाता था, अब इतना (हाथ थोड़ी ऊँचाई तक उठाते हुए) ही ऊँचा भागता है।

और विस्तार का आयाम क्या हुआ? कि पहले आता था तो कितने समय में नीचे गिरता था। तो पहले आता था तो इतना (ऊपर की ओर हाथ ले जाते हुए) आता था और फिर इतना लम्बा (दोनों हाथ बाहर को फैलाते हुए)। वो दबने के लिए भी इतना सारा वक़्त लेता था। अब पाते हो कि इतना (हाथ को बहुत थोड़ा सा उठाते हुए) ही बढ़ता है और फिर जल्दी से गिर भी जाता है। ये होने लगे तो मानना कि तरक्क़ी हो रही है।

और ये उम्मीद तो रखना ही मत कि बहुत जल्दी इस चीज़ से पूरी आज़ादी मिल जाएगी। ये सब तो मन के आवेग हैं, लहरें हैं; मन का काम है लहराना।

समझ रहे हो बात को?

साथ-ही-साथ और भी चीज़ें होती हैं। ये तो मैंने बस वो बताया जिन चीज़ों को कम होना चाहिए — उद्वेगों की तीव्रता, उद्वेगों का विस्तार। इसी तरह से तुम पाओगे कि प्रेम का आवेग या ज्ञान की तरफ़ बढ़ते रहने का संकल्प — ये सब पहले आते थे और आकर झट से गिर भी जाते थे; और अब वो क्या होने लग गये हैं? वो ज़रा ज़्यादा स्थायी होने लग गये हैं और उनकी तीव्रता भी ज़्यादा हो गयी है। जब वो आते हैं तो तुमको जकड़ लेते हैं। और जकड़ लेते हैं तो उसके बाद ये ही नहीं कि आधे-एक घंटे बाद फिर फ़ुर्सत हो गये और पुरानी हालत लौट आयी। जब जकड़ लेते हैं तो वो जकड़न चलती है — छ: घंटे, आठ घंटे, दो-चार दिन चलती है।

तो ये सब लक्षण होते हैं। फिर यही सब चीज़ें अपनेआप एक सन्तुलन पा लेती हैं। फिर इन चीज़ों का उठना-गिरना धीरे-धीरे धीरे-धीरे कम होता रहता है और एक स्थिर, स्थायी स्थिति आ जाती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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