कबीर चतुराई अति घनी, हरी जपै हिरदय माही। सूरी ऊपर खेलना, गिरे तो ठाहर नाहीं।।
~ संत कबीर
प्रश्नकर्ता: तो आचार्य जी सिर्फ़ पहली पंक्ति कुछ समझ आयी, लेकिन दूसरी पंक्ति समझ नहीं आयी।
आचार्य प्रशांत: वही तो मज़ेदार है। उसको काहे नहीं समझा?
कबीर चतुराई अति घनी, हरी जपै हिरदय माही। सूरी ऊपर खेलना, गिरे तो ठाहर नाहीं।।
~ संत कबीर
चतुराइयाँ तो हम खूब करते हैं। और अक्सर यह माना जाता है कि आध्यात्मिक आदमी ज़रा निरुपाय-सा हो जाता है, अति सरल हो जाता है। ऐसा समझ लिया जाता है ज्यों सद्बुद्धि व्यक्ति निरबुद्धि हो जाता हो। जैसे उसको अब किसी प्रकार की चाल, चतुराई से कोई मतलब ही न हो। बिलकुल भी नहीं।
समझा रहे हैं कबीर कि दुनिया तो सिर्फ़ चतुर है। तुम चतुरों में चतुर हो जाओ। दुनिया की चतुराई इसमें है कि वो छोटी-छोटी चीज़ो को मन में रखती है और उन्हें जपती रहती है। तो तुम बाज़ी मार ले जाओ न दुनिया से। दुनिया जप रही है?
श्रोता: छोटी-छोटी चीज़ों को।
आचार्य: छोटी-छोटी चीज़ों को। तुम जप लो?
श्रोता: राम।
आचार्य: अनंत को। कौन जीता? दुनिया इसी बात को चतुराई मान रही है कि कोई छोटी-सी चीज़ ली है और मन में छुपा ली है। जैसे किसी छोटे बच्चे ने कोई छोटी-सी मिठाई ले करके जेब में छुपा ली हो। और वो खूब चतुराई मान रहा है, अघाया घूम रहा है बिलकुल। 'किसी को पता नहीं है और हमने जेब में मिठाई छुपा रखी है!' यह दुनिया की चतुराई है।
कबीर कह रहे हैं कि ये छोटी-मोटी चतुराई नहीं चलेगी। तुम ऐसा करो कि तुम हरि को पकड़ो, हरि को आमंत्रित करो, आह्वान करो और उनको हृदय में छुपा लो। दुनिया को लड्डू-पेड़ा छुपाने दो। तुम दिल में राम को छुपा लो! छुपा लो, फिर उनको भजो, जपो। जैसे मुँह में कोई विशाल रसगुल्ला रखा है तुमने। अब तुम मुँह खोलोगे ही नहीं। और भीतर-ही-भीतर उसको तुम भज रहे हो। रसवंत हुए जा रहे हो।
रसगुल्ला है, अक्षय रसगुल्ला, अनंत रसगुल्ला और उसका रस धीरे-धीरे मज़े लिये जा रहे हो, मज़े लिये जा रहे हो (स्वाद लेने के संकेत में गले पर हाथ फेरते हुए)। काहे के लिए कुछ बोलोगे? मुँह खोला तो….?
श्रोता: पकड़े जाएँगे।
आचार्य: यह बात तो तुम्हारी है और रसदाता के बीच की है, इसमें किसी तीसरे का क्या काम? कोई बाज़ारू बात थोड़े ही है कि डंका पीट रहे हैं। तुम हो रसिक और वो है….?
श्रोता: दाता।
आचार्य: रसदाता, रसवंत। तुम दोनों के बीच का मामला है। मिठाई ही मिठाई, रस ही रस मिल गया है और रस ले रहे हैं। और रस ऐसा है जो कभी चुकने नहीं वाला। और तुम देख रहे हो सब छोटे-छोटे बच्चे घूम रहे हैं। किसी के हाथ में एक टॉफ़ी है, किसी ने कुछ पकड़ लिया है, कोई गुड़ का ढेला, कोई शक़्कर के दाने और तुम्हारे पास क्या है?
श्रोता: रसगुल्ला।
आचार्य: ब्रह्माण्ड जितना विशाल रसगुल्ला और वो भी कहाँ?
श्रोता: मुँह के अंदर।
आचार्य: तुम्हारे मुँह में। लेओ! याद है न? यशोदा पकड़ रही हैं कृष्ण को और कह रही हैं, 'मिट्टी खाया है तू'। चपत लगने ही वाली है। कृष्ण कह रहे हैं, 'मैं बेगुनाह माँ! मिट्टी खाई नहीं मैंने।' (हाथ जोड़कर क्षमा याचना का संकेत करते हुए)। तो वो बोल रही हैं, 'ओपन योर माउथ! ' (अपना मुँह खोलो) है न अंग्रेजी में, नर्सरी राइम (शिशु गीत) ईटिंग शुगर....?
श्रोता: (हँसकर) नो पापा।
आचार्य: नो पापा। ओपन योर माउथ।
श्रोता: (हँसकर) हा, हा, हा।
आचार्य: तो कृष्ण ने हा, हा, हा, कर दिया और मुँह दिखा दिया। और मुँह में क्या था? अखिल ब्रह्माण्ड! सबकुछ। (दोनों हाथ उठाकर विस्तृत का संकेत करते हुए) तो ऐसे ही तुम्हारे मुँह में पूरा ब्रह्माण्ड। तुम्हारे भीतर और उसका भीना-भीना रस तुम्हारी पूरी देह को आपूरित कर रहा है। तुम्हारी नस-नस में रस अब प्रवाहित हो रहा है। जीवन न हुआ, रसधार हो गई।
कबीर कह रहे हैं, ‘ऐसी चतुराई करो न।’ छोटों को छोटे के पीछे भागने दो, तुम तो विराट से नाता रखो। उसके अलावा किसी से नाता रखकर वैसे भी क्यों बैचेनी में और अनुपलब्धि में जीवन बिताना है? तो यह तो उन्होंने ललचाने वाली बात बताई। यह तो कबीर का आमंत्रण था। और कबीर ठहरे कबीर! गुरु कबीर हैं, कबीर साहब हैं!
अगली पाँत में दिया है दाँव। कह रहे हैं यह सब तो ठीक है बच्चू कि रसगुल्ला विराट है, पर जो हरि के उपासक हो जाएँ, जो सत्य के प्रेमी हो जाएँ, वो यह और समझ लें कि सत्य से प्रेम ऐसा ही है जैसे कोई सूली के ऊपर खेले। क्रीड़ा तो है, मज़ा तो है, रस तो है, खेल तो है, पर तुम खेल रहे हो सूली के ऊपर और गिरे तो बचोगे नहीं। संसार छोटी जगह है, छोटी जगह में ऊचाईयाँ भी….?
श्रोता: छोटी होती हैं।
आचार्य: छोटी होती हैं। वहाँ तुम गिर भी जाओ तो?
श्रोता: बच जाओगे, चोट नहीं लगेगी।
आचार्य: बच जाओगे। छोटी-मोटी चोट लगेगी, कोई बात नहीं। जो हरि के पथ पर चले हों, यदि वो विमुख हुए, यदि वो फिसले, यदि वो योगभ्रष्ट हुए, तो उनका फिर कोई निदान नहीं है; उनके लिए कोई आशा नहीं है। अब क्या करें? ऐसे हैं कबीर साहब! एक हाथ से ललचाते हैं और दूसरे हाथ से चेताते हैं। एक तरफ़ तो बुला रहे हैं कि आओ, आओ, आओ (हाथों से संकेत करते हुए)। रस की खान है हरी, उनको लो और हृदय में स्थापित कर लो।
और दूसरी ओर ये भी कह रहे हैं कि अगर हरि की दिशा कदम बढ़ाया और फिर पीछे मुड़े — 'गिरे तो ठहरे नाहीं' — ऐसा गिरोगे कि फिर कोई बचाने वाला नहीं होगा। इसीलिए तुम्हें बड़ी-से-बड़ी सज़ा तब मिलेगी जब तुम ऊँची-से-ऊँची जगह थे, जब तुम ऊँचे-से-ऊँचे काम में संलग्न थे और तुमने वहाँ पर उदंडता कर दी, तुमने वहाँ पर अभद्रता कर दी, फिर उसकी बड़ी लम्बी सज़ा मिलती है।
तुम जाओ कहीं पार्टी इत्यादि में और वहाँ शराब पीकर के उल्टी कर दो, तो कौनसी बड़ी बात हो गई? वहाँ तो सभी यही कर रहे हैं। दावतों में दारू चल रही है और दारू पीने के बाद कोई लम्बा हो गया है, कोई टेढ़ा हो गया है, कोई उल्टा हो गया है, कोई गालियाँ बक रहा है, कोई गिर पड़ा है, कोई औंधे मुँह है, किसी के मुँह पर मिट्टी, किसी ने किसी को धक्का मार दिया — ये सब चलता है।
छोटी जगहों पर छोटा बर्ताव चलता है, पर तुम जाओ किसी तीर्थ पर, तुम जाओ किसी मंदिर में, तुम बैठे हो गुरु के सत्संग में और वहाँ तुम कोई अशोभनीय हरकत कर दो, उसकी बहुत दूरगामी सज़ा मिलती है। सामाजिक उत्सवों में तुमने उलट मारा, तो कोई बड़ी बात नहीं कर दी। लोग दो-चार ताने देंगे और बात ख़त्म। पर परमार्थिक उत्सवों में अगर तुमने उलट मारा, तो कौन बचाएगा तुमको?
और अब एक और मज़ेदार बात। यह पूरा जीवन ही एक परमार्थिक उत्सव है। इस सकल उत्सव के मध्य अनेक उत्सव चल रहे हैं, लेकिन समस्त उत्सवों का आधार एक उत्सव ही है। हाँ, आदमी ज़रा बौरा है। वो अनंत उत्सव को, अखंड उत्सव को, उत्सव मानता ही नहीं। तो फिर उसे छोटे-छोटे उत्सवों की ज़रूरत पड़ती है। जैसे कि कोई साँस के चलने को, साँस मानता ही न हो। तो फिर वो कहेगा, ‘उत्तेजना चाहिए।’ जब साँस में हड़कंप मचे, तब हम मानेंगे कि साँस….?
श्रोता: चल रही है।
आचार्य: चली। ठीक उसी तरीके से यह जो सूक्ष्म दावत फैली हुई है, यह जो जीवन का पर्व है, इसको हम पर्व मानते ही नहीं, यह हमारे लिए त्यौहार ही नहीं है। तो फिर हमें छोटे-मोटे त्यौहार मनाने पड़ते हैं, दावत-पार्टियाँ करनी पड़ती हैं कि आज कुछ विशेष हुआ।
जब पर्व निरंतर है, तो पर्व की मर्यादा का निरंतर ख़्याल रखना। कुछ ऐसा न कर देना जो पर्व की शोभा के अनुकूल न हो। अन्यथा कबीर कह रहे हैं, ‘गिरे तो ठहरे नाहीं, सूली ऊपर खेलना'।
हरि बड़ा खिलंदर। खेले बिना उसे चैन नहीं और खेलने के अलावा उसका कोई काम नहीं। खिलाता तो है, पर बड़ा बेदर्दी है।
खिलाता है, सूली ऊपर। ज्यों कोई रस्सी पर खिला रहा हो। ज्यों कोई भाले की नोंक पर खिला रहा हो कि आओ खेलें (मुस्कराते हुए)। ज्यों कोई कह रहा हो, 'आओ, दौड़ लगाएँ, तलवार की धार पर बड़ा मज़ा आएगा।' ऐसा है वहाँ पर खेल।
तात्पर्य समझो। उस खेल में ध्यान की बड़ी आवश्यकता है। संसार में जब तुम क्रीड़ा में उतरते हो, तो उसका अर्थ होता है — ध्यान छोड़ो, मज़े करो। परमात्मा के खेल में तुम खेल रहे हो तनी हुई रस्सी पर, तुम खेल रहे हो भाले की नोंक पर, तुम खेल रहे हो सूली ऊपर। तो वो ऐसा खेल है जिसमें ध्यान चाहिए।
अब यह तुम फँसे, क्योंकि ध्यान को तो तुमने गंभीर बात माना था और खेलने को तुमने माना था अगंभीर बात, हास्य है, कौतुक है, यूँही है हल्की चीज़। और ध्यान भारी चीज़। हरि का खेल उनके लिए है जो खेलते वक़्त भी ध्यानस्थ रह सकें। यही जीवन जीने की कला है। खेलो, खुलकर खेलो, पर ध्यान न टूटे।
बाहर खेल चलता रहे, भीतर ध्यान बँधा रहे। और बाहर खेल निरंतर उन्हीं का चलेगा जिनका ध्यान भीतर अटूट है। जिसका ध्यान भीतर टूटा, बाहर उसका खेल भी छूटा। यही कारण है कि तुम दुनिया को खेलता, हँसता, नाचता-गाता नहीं पाते।
खेलते रहने की अनिवार्यता क्या है? भीतर ध्यान बना रहे। ध्यान और क्रीड़ा एक दूसरे के विपरीत नहीं, एक-दूसरे के विकल्प नहीं, एक-दूसरे के परिपूरक हैं, एक दूसरे के संगी हैं।
जहाँ ध्यान है, सिर्फ़ वहीं मस्ती है। खेल माने मस्ती। बाहर मस्ती चलती रहे, इसके लिए अनिवार्य है कि भीतर ध्यान….?
श्रोता: बना रहे।
आचार्य: बना रहे। ध्यान टूटा, मस्ती टूटी। और मस्ती नहीं है जीवन में, तो जान लेना भीतर ध्यान नहीं है। सूरी ऊपर खेलने का मतलब है, खेलो, ध्यानमग्न होकर।